15 December 2020

जनसंख्या नियंत्रण पर स्वास्थ्य मंत्रालय का भ्रमजाल क्यों ?

जनसंख्या नियंत्रण कानून पर भारत सरकार के स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय ने अपना रुख स्पष्ट किया है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने की बात सिरे से ख़ारिज कर दिया है. साथ ही ये विषय केंद्र ने राज्यों के साथ जोड़ दिया है. केंद्र का कहना है की इसपर राज्य सरकार क़ानून बना सकती है. मगर संविधान की अनुसूची 7 के कांक्रेंट लिस्ट में 20-A में साफ तौर पर उल्लेख है की इसपर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं. 

तो ऐसे में सवाल स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय के हलफनामे को लेकर खड़ा होता है की मंत्रालय इसपर टालमटोल क्यों कर रहा है. मंत्रालय का कहना है की भारत में किसी को कितने बच्चे हों, यह खुद पति-पत्नी तय करें. सरकार नागरिकों पर जबर्दस्ती नहीं करे कि वो निश्चित संख्या में ही बच्चे पैदा करे. स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय देश के लोगों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने के साफ तौर पर विरोध में है.

मतलब साफ है की इसपर मंत्रालय बिल्कुल भी चिंतित नहीं है और ना ही जनसंख्या नियंत्रण पर कोई ठोस कदम उठाना चाहता है. ऐसे में अब सुप्रीम कोर्ट भी इस याचिका को लेकर असमंजस में दिख रहा है. स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने जवाब में ये भी कहा है की निश्चित संख्या में बच्चों को जन्म देने की किसी भी तरह की बाध्यता हानिकारक होगी. 

ऐसा करने से जनसांख्यिकीय विकार पैदा करेगी. देश में परिवार कल्याण कार्यक्रम स्वैच्छिक है जिसमें अपने परिवार के आकार का फैसला दंपती कर सकते हैं और अपनी इच्छानुसार परिवार नियोजन के तरीके अपना सकते हैं. ऐसे में इसमें किसी तरह की अनिवार्यता नहीं है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का एक तर्क ये भी है की 'लोक स्वास्थ्य' राज्य के अधिकार का विषय है और लोगों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से बचाने के लिए राज्य सरकारों को स्वास्थ्य क्षेत्र में उचित एवं निरंतर उपायों से सुधार करने चाहिए. 

"स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार का काम राज्य सरकारें प्रभावी निगरानी तथा योजनाओं एवं दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया के नियमन एवं नियंत्रण के लिए विशेष हस्तक्षेप के साथ प्रभावी ढंग से कर सकती हैं." साथ में मंत्रालय ने अपने हलफनामे में ये भी बताया है कि सरकार परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण को लेकर बहुतसी योजनायें चला रही है. मंत्रालय का इरादा इसपर विषय पर क़ानून बनाने का नहीं है. 

07 December 2020

किसान आन्दोलन की फसल पर राजनीति क्यों ?

किसानों ने भारत बंद करने का एलान किया है. सुबह 11 बजे से शाम 3 बजे तक किसान सड़कों पर होंगे. मगर इस आन्दोलन को केंद्र सरकार के विरोध का माध्यम बनाने के लिए पूरा विपक्ष एकजुट हो गया है. हर दल किसान आन्दोलन के आसरे अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में जूट गयें हैं. 

कृषि क्षेत्र से जुड़े नए कानूनों को वापस लेने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति अब पूरी तरीके से राजनीति दलों ने हाईजैक कर लिया है. कांग्रेस, लेफ्ट, टीएमसी, बसपा, डीएमके, सपा समेत अधिकतर विपक्षी पार्टियों ने भारत बंद को समर्थन देने का ऐलान किया है. मतलब बेगाने शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसे माहौल में किसान आन्दोलन तब्दील होगया है.

एकतरफ किसान संगठन ये कहते नहीं थक रहे हैं की वे किसी भी राजनीतिक दल को अपने आन्दोलन में नहीं बुलाया है...मगर बिपक्षी दल है की मानने को तैयार नहीं हैं...दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार नए कृषि कानून को राज्य में गजट नोटीफिकेसन जारी करके लागू भी कर चुकी है. मगर फिर भी अरविन्द केजरीवाल अपने आप को रोक नही सके और टीकरी बॉर्डर पर किसानों का समर्थन करने पहुंच गए.

किसान आंदोलन की शुरुआत में पंजाब और हरियाणा के किसान शामिल थे. बाद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं ने हिस्सा लिया, लेकिन अब इस आंदोलन में राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों के किसान शामिल होरहे हैं. तो सवाल यहां भी खड़ा होता है की आखिर एकाएक इतने राज्यों के किसान कैसे अचानक से सड़कों पर उतरने का ऐलान कर दिया..?

आन्दोलन में शामिल होने वाले क्या सभी लोग किसान होंगे या राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता..? और अगर अधिकतर आन्दोलनकारी राजनीतिक दलों से हैं तो फिर ये आन्दोलन किसानों तक सिमित कैसे रहा...? शरद पवार बतौर कृषि मंत्री कृषि उत्पाद विपणन समिति (APMC) ऐक्ट में बदलाव की वकालत कर चुके हैं मगर अब किसान आंदोलन के साथ खुद को हितैसी दिखा रहे हैं. 

वहीँ शिवसेना ने कृषि कानून का लोकसभा में समर्थन किया था मगर आज वो किसानों के सूर में सूर मिला रही है. किसानों के आंदोलन में राजनीतिक दलों के मौका देख स्टैंड चेंज लिया है. तो ऐसे में सवाल ये है की किसान आन्दोलन की फसल पर राजनीति क्यों ?

01 December 2020

भारत संघ के 16वें राज्य नागालैंड स्थापना दिवस पर विशेष

आज नागालैंड का स्थापना दिवस है. इस खास मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने नागालैंड के लोगों को राज्य के स्थापना दिवस पर बधाई दी है. नागालैंड की स्थापना एक दिसम्बर 1963 को देश के 16 वें राज्य के रूप में की गयी थी.

नगालैंड भारत का उत्तर पूर्वी राज्य है जिसकी राजधानी कोहिमा है. पहाड़ियो से घिरे इस राज्य की सीमा म्यांमार से लगती है. यहां आदिवासी संस्कृति अहम है जिसमें स्थानीय त्योहार और लोक गायन काफी महत्वपूर्ण हैं. 2012 की जनगणना के मुताबिक यहां की आबादी 22.8 लाख है.

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने 1 दिसंबर, 1963 को नगालैंड का भारत संघ के 16वें राज्य के रूप में उद्घाटन किया था. नागालैंड स्थापना दिवस प्रतिवर्ष 1 दिसम्बर को मनाया जाता है. नागालैंड के पूर्व में म्यांमार, उत्तर में अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम में असम और दक्षिण में मणिपुर से घिरा हुआ है. इसे पूरब का स्विजरलैंडभी कहा जाता है. 

नागालैंड राज्य का क्षेत्रफल 16,579 वर्ग किमी है. इसकी सबसे ऊंची पहाड़ी का नाम सरमती है जिसकी ऊंचाई 3,840 मीटर है। यह पर्वत शृंखला नागालैंड और म्यांमार के मध्य एक प्राकृतिक सीमा रेखा का निर्माण देती है.

पीएम मोदी ने आज एक टि्वट संदेश में कहा, राज्य के स्थापना दिवस पर नागालैंड के भाइयों तथा बहनों को बधाई तथा शुभकामनाएं। नागालैंड के लोग अपने साहस और दयालु स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। इनकी संस्कृति असाधारण है और इसी के अनुरूप उन्होंने देश की प्रगति में योगदान दिया है। नागालैंड के निरंतर विकास की प्रार्थना करता हूं.

नागालैंड को पूर्वी भारत के प्रहरी की भूमि के रूप में भी जाना जाता है. नागा पीपुल्स कन्वेंशन और डॉ इम्कोन्ग्लिबा एओ, और अन्य दूरदर्शी नागा नेताओं के साहस और शांति के लिए भी आज उन्हें याद किया जाता है. इन नेताओं ने नागा लोगों की शांति और समृद्धि के लिए 16 बिंदुओं पर हस्ताक्षर किए थे. जो 1 दिसंबर 1963 को नागालैंड राज्य के निर्माण का मार्ग शुलभ हुआ.