30 June 2013

क्या नरेद्र मोदी को जेल में डालने की तैयारी हो रही है ?

गुजरात हाईकोर्ट ने इशरत जहां मुठभेड़ मामले में शीर्ष पुलिस अधिकारी पीपी पांडेय की एफआईआर रद्द करने की याचिका पर फैसला एक जुलाई तक सुरक्षित रखा है। मुंबई निवासी 19 वर्षीय लड़की इशरत और उसके तीन साथियों को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ने 15 जून 2004 को मार गिराया था। उसके बाद दावा किया गया कि चारों लश्कर के आतंकी थे। यह आतंकवादी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करना चाहते थे। ये बात पुलिस रिपोर्ट में पहले ही सामने आ चुकी है। मगर यहा सवाल खड़ा होता है की क्या ये मोदी के बढ़ते कद को कम करने या फिर चुनाव से पहले कांगे्रस पार्टी द्वारा किसी खास रणनीति के तहद ये सब कुछ किया जा रहा है। जिसे सरकार सीबीआई का दुरूपयोग से मोदी को जेल तक पहुंचाना चाहती है। 

मोदी को जेल में भेजने की सरकारी रणनीति कोई नई बात नहीं है इससे पहले भी नरेंद्र मोदी खुद मुख्यमंत्रियों के आंतरिक सुरक्षा सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग सरकार पर खुद को जेल में डालने की साजिश का आरोप लगाकर चुके है। ऐसे में एक बार फिर से ये सरकार की रणनीति में भी किसी न किसी साजि़स की बू आ रही है। इसका भी खुलासा आने वाले समय में सामने में हो सकता है। 

1975 में आपातकाल के समय जब देश में मीडिया पर पूर्ण प्रतिबंध लगा तब नरेंद्र मोदी अखबार को छिप कर बेचा करते थे। उस समय भी मोदी को इंदरा गांधी द्वारा जेल में डालने का आर्डर दिये गये थे। ऐसे इस बात से अनुमान लगाया सकता है की मोदी किस कदर हमेशा से ही कांग्रेस सरकार के निशाने पर रहे है। 

आज बात सिर्फ नरेंद्र मोदी तक ही सीमीत नहीं है। इशरत जहां एनकाउंटर मामले के सहारे मोदी के सहयोगी और उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनाव प्रभारी अमित शाह पर शिकंजा कसने की तैयारी में पूरा सरकारी तंत्र जुटा हुआ है। ऐसे में जाहिर है की कांगे्रस को अब ये डर कही न कही सताने लगी है की अगर मोदी ब्रिगेड अपने रणनीति में सफल रहा तो फिर उनके युवराज का क्या होगा। ये हम नहीं खुद कांग्रेस के वरिश्ठ नेता जयराम रमेश ऐसे अंदेशा पहले ही जता चुके है की किस कदर मोदी के बढ़ते कद से कांग्रेसियों में खौफ का माहौल बना हुआ है।  मोदी को सीबीआई के जाल में फंसाने की कोशिश पर देश की सियासत गर्म है। सीबीआई ने अपनी जांच में आईबी डायरेक्टर राजेंद्र कुमार को भी जांच के घेरे में ले लिया है। जिसे लेकर कई अहम सवाल सरकारी एजेंसियों पर उठ रहे है। 

ये पूरा मामला अब सियासी तूल पकड़ लिया है। बीजेपी और कांग्रेस के बीच घमासान तेज हो गई है। आज मोदी को लेकर बौखलालट किस कदर कांगे्रस के नेताओं में है इसका अंदाजा खुद इस बात से लगाया जा सकता है की राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे कांग्रेस नेताओं ने यहा तक कह डाला की नरेंद्र मोदी सरकार में गुंडों की भरमार है। क्या कोई नेता लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार पर इस प्रकार से आरोप लगा सकता है। कानून मंत्री का अतिरिक्त प्रभार संभालते हुए कपिल सिब्बल ने कहा था कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर जल्द ही बडा भंडाफोड होगा। तो क्या ये उसी भंडारफोड़ का हिस्सा है। तो ऐसे में सवाल ये उठ रहा है की क्या वाकई नरेद्र मोदी को जेल में डालने की तैयारी हो रही है ?

उत्तराखंड में कैसे करें राहत और पुनर्वास ?

   न रहा अब मेरा स्कूल वहा
  न रहा अब मेरा घर वहा

रहा न अब वहा कोई जो सच को सच बतलाएं
 न है कोई अब अपना वहा जो कोई हल बतलाएं

जी हां ये दर्द है उस गांव का, उस घर का जहा अब न तो अपना कोई बचा है जिसे वह अपने पीड़ा को बता सके दुःख दर्द को बांट सके। ये दर्द और पुकार है उस मासूम का जो जिसका न तो अब रहने के लिए घर बचा है और पढ़ने के लिए स्कूल जहा वह अपने जिंदगी को संवार सके। उत्तराखंड में आए महाप्रलय ने जिस कदर कहर बरपाया है उसे देख कर क्या आम क्या खास हर कोई अपना आपा खो बैठा है। ऐसे में अब जरूरत इस बात को लेकर है की उत्तराखंड में आप राहत और पुर्नवास कैसे करेंगे ताकी एक बार फिर से लोगों को एक नया जीवन दिया जा सके। उत्तराखंड राज्य बने 13 साल हो चुके हैं। इस दौरान विकास के नाम पर राज्य के पहाड़ और नदियों का जमकर दोहन हुआ है। विभिन्न निजी डेवलपर्स को उत्तराखंड में विकास के लिए न्योता दिया गया। इन सबने मिलकर राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। अलकनंदा के तटों पर अतिक्रमण कर बहुमंजिले होटल और अर्पाटमेंट्स खड़े कर दिए गए। विकास के नाम पर जंगल साफ कर उनकी जगह कंक्रीट के जंगल बना दिए गए, मगर जल, जंगल और जमीन की पूजा करने वाले आज अपने वजूद को बचाने के लिए प्राकृति के प्रकोप से लड़ रहे है और मर रहे है।


एक जमाने में उत्तरकाशी सुदंरता और शांत वातारण के लिए प्रसिद्ध था। वहां विद्वान साधना करते थे। लेकिन आज इस शहर को नजर लग गई है। यहां के निवासी खौफ में जी रहे हैं। आज राज्य की स्थिति यह है कि राज्य में आपदा प्रभावितों को बसाने के लिए भूमि नहीं है। टिहरी बांध से हो रहे नये विस्थापन के लिए भूमि का प्रश्न सामने मुह बाएं खड़ा है। राज्य में खेती की मात्र 13 प्रतिशत भूमि बच पाई है। बेहद संवेदनशील माने जाने वाले उत्तराखंड में इन आपदाओ से मुकाबले के लिए अलग से आपदा प्रबंधन मंत्रालय गठित किया जा चुका है। मगर आपदा राहत के नाम पर हवा हवाई काम हो रहे हैं जिसका जमीन से कोई सरोकार नहीं है। सत्ता पक्ष और विपक्ष आपदा राहत और पुर्नवास के नाम पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में ही लगे हुए हैं। आपदा से प्रभावित इलाको की जमीनी सच्चाई से उत्तराखंड के राजनेताओ का कोई सरोकार नहीं रह गया है। 

सरकारी आंकड़ो के लिहाज से उत्तराखंड के 233 गाँव विस्थापन के मुहाने पर खड़े हैं। मगर उत्तराखंड सरकार अभी से ही इन इलाको में पुनर्वास के नाम पर मोटे बजट के खर्च होने का रोना रोने लगी है। ऐसे में पुनर्वास तो बहुत दूर की गोटी है। इससे पहले भी कई गांव नदियों के गोद में समा चुके है। मगर राज्य के 13 साल के इतिहास में अब तक एक भी गाँव का पुनर्वास नहीं हो पाया है। इस बार आए प्राकृतिक आपदा ने बता दिया है कि राज्य में आज पानी कितना जयादा सर से उपर बह चुका है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की उत्तराखंड में कैसे करें पुनर्वास

28 June 2013

पैसें में गिरावट का जिम्मेदार आखिर कौन है ?

रूपये में गिरावट सरकार हमेशा से ही विश्व बैंक और विश्व मुद्रा कोष के इशारे पर करती है ताकि सरकार को बाहरी कर्ज मिल सकें मगर क्या ये सिर्फ सयोंग है की मार्च 2012 में विश्व बैंक और विश्व मुद्रा कोष के प्रमुखों ने भारत की यात्रा की उसके बाद से रूपये में 15 प्रतिषत की भारी गिरावट आई है। या फिर उनके इसारे पर ये कदम उठाए गये। इससे पहले विश्व बैंक के कहने पर रूपये में सरकार ने भारी गिरावट की ताकी उसे विष्व बैंक से कर्ज मिल सके। कभी कभी रूपये में गिरावट ,सॉफ्टवेर ,कपड़ा उद्योग ,शेयर बाजार निर्यात करने वाली विदेशी कंपनियां को फायदा पहुंचाने के लिए भी किया जाता है इसके बदले में राजनेताओ को मोटी दलाली मिलती है। तो ऐसे सवाल खड़ा होता है की क्या रूपये में आई ये गिरावट इसी का नतीजा है। आजादी के समय रूपये की कीमत डालर के मुकाबले 1 रूपये थे और अब वो 56 रूपये हो गयी है। क्या ये आकड़े भारतीय बाजारों को दिवालिया होने का संकेत है, जो आज चंद दलालों और आर्थिक सलाहकारों चंगुल में फंस कर रह गया है। 

कई कंपनियां और बड़े-बड़े कई उद्योग-व्यापार संस्थान विदेशी व्यापारिक उधारी निपटाने के लिए डॉलर की खरीदी कर रहे हैं। देश के निर्यात घटने से देश की ओर आने वाले डॉलर का प्रवाह घट गया है। देशी निवेशक भी घबराहट में शेयर बाजार से अपना धन निकाल रहे हैं। जिसके कारण लगातार पैसे में गिरावट आ रही है। आर्थिक सुधारों की धीमी गति से आये दिन पैसे में गिरावट आ रही है, जो अब देश में सरकारी आकड़ो की पोल खोल रही है। सरकार हमेशा से ही विकास दर का हवाला देती है, मगर अब इन्ही आकड़ो की जादुगरी ने सरकार की मुष्किलें बढ़ा दी है। साथ ही अब तक कृषि सुधारों में कोई नयापन देखने को नहीं मिला। देश के पास केवल सात माह के आयात के लायक डॉलर होने की खबर आने के बाद से रुपये में जबर्दस्त अस्थिरता शुरु हुई है, क्यों कि अब देशी मुद्रा की ताकत निर्यात या प्रत्यक्ष निवेश पर नहीं बल्कि शेयर बाजार में डॉलरों की आमद-निकासी पर निर्भर है।

आज देश में 50 से अधिक प्रमुख बड़ी कंपनियों के सर पर विदेशी कर्ज लदे हैं, जो अपनी लागत कीमतें बढ़ाकर उपभोक्ताओं के सर पे ठीकरा फोड़ना चाहती है। जिससे उभरते बाजारों के बीच भारतीय मुद्रा सबसे तेजी से गिरी है। डॉलर के 65-70 रुपये तक जाने के आकलन सुनकर आज हर किसी का कलेजा मुंह को आ गया है। ऐसे अब चुनौती इस बात को लेकर है की रुपये की कमजोरी को कैसे रोका जाए। सरकार के पास गिरते रुपये को फिलहाल थामने के लिए कोई उपाय नहीं है ऐसे में बढ़ती बेलगाम महंगाई को रोकना ही एकमात्र विकल्प है। ऐसे में सवाल सरकार को लेकर भी उठ रहे है की आखिर कहा है सरकार की वो आर्थिक नीति जिसमें भारत को आर्थिक शक्ति बनाने की बात की जा रही है। आखिर ये पैसें में गिरावट क्यों आ रही है।  

26 June 2013

क्या उत्तराखंड की आपदा प्रकृति से खिलवाड़ का परिणाम है ?

केदारनाथए बद्रीनाथए हेमकुंड साहेब और आसपास के सभी पहाड़ी इलाकों के रहनुमाओं और पर्यटकों ने पिछले दिनों जो मंजर देखा और जिन हालातों का सामना किया वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है। जहां एक ओर प्राकृतिक आपदा के चलते हजारों सैलानियों और तीर्थयात्रियों ने अपनी जान गंवाई वहीं आज भी बहुत से लोग मदद के इंतजार में भूखों मरने के लिए मजबूर हैं। इतना ही नहींए बहुत से लोग तो यह भी नहीं समझ पा रहे कि जिन अपनों की वे तलाश कर रहे हैं वह वाकई जिन्दा हैं भी या नहीं जहां कुछ बुद्धिजीवी पहाड़ खिसकने और ग्लेशियर के पिघलने से पहाड़ी इलाकों पर आई इस आपदा को प्राकृतिक आपदा मानने से इंकार कर इन हालातों के लिए उस विकास के तरीके को दोषी ठहरा रहे हैं जिसे मानव ने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए अपनाया है। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका यह मानना है कि अगर विकास करना है तो थोड़ी बाधाएं तो पार करनी ही होंगी। 

पहाड़ी इलाकों पर हुई इस दुर्गति और मानव विकास की राह से जुड़े इस मुद्दे पर अलग.अलग विचारधारा वाले लोगों के बीच एक बहस छिड़ गई है कि जिस विकास की राह पर हम चल रहे हैं कहीं वह हमें ही गर्त की खाई में तो नहीं धकेल रहा हैघ् इस वर्ग में शामिल लोगों का कहना है कि पिछले कुछ सालों में केदारनाथ और बद्रीनाथ में सैलानियों की आवाजाही में लगभग 10 गुना बढ़ोत्तरी हुई हैए जिसकी वजह से तापमान के साथ.साथ वहां प्रदूषण की मात्रा में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और इसी का खमियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है। पहाड़ी संकरे इलाकों में भारी. भरकम वाहनोंए पुलों और इसके अलावा पानी जमा करने के लिए बनाए गए बांध भी आज मानवजाति के ही दुश्मन बन गए हैं। हम प्रगति तो कर रहे हैं लेकिन कोई इस बारे में सोचने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है कि जिस प्रगति की राह पर हम चल रहे हैं वह नकारात्मक है या सकारात्मकघ् अगर बड़े पैमाने पर विकास करना है तो कुछ हद तक समझौते भी करने पड़ेंगे। 

बांध और पुल आज के दौर की प्रमुख जरूरतों में से एक हैं इसीलिए अगर कोई इनके निर्माण को इस आपदा के लिए दोषी ठहरा रहा है तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि इनके बिना सहज जीवन भी संभव नहीं है। जीवन को आसान बनाने के लिए ही यह सब करना पड़ता है और अगर हम इस मार्ग पर चल रहे हैं तो हमें ऐसी आपदाओं के लिए भी तैयार रहना चाहिए। इस वर्ग में शामिल लोगों का यह भी कहना है कि प्रतिदिन ऐसा कुछ नहीं होताए कभी.कभार हालात जब हाथ से बाहर निकल जाते हैं तभी ऐसी आपदाएं आती हैं और ऐसी दुर्लभ घटनाओं के विषय में सोचकर अगर हम प्रगति का मार्ग छोड़ दें तो यह किसी भी रूप में हमारे पक्ष में साबित नहीं होता।

23 June 2013

उत्तराखंड की आफत में देश की सियासत !

उत्तराखंड में बाढ़ से इतनी तबाही हुई है कि इसे देख कर शरीर कांप उठता है। आज यहा के लोग बेरहम बारिश और निरंकुश निर्माण गतिविधियों की वजह से प्रकृति के कोप से हक्के-बक्के हैं। उत्तराखंड में जो तबाही हुई है, वह अकल्पनीय है। नदियां विकराल और निरंकुश होती गईं और जो कुछ भी रास्ते में आया उसे बहा ले गईं। नदियों के बहाव के सामने मानव निर्मित हर ढांचा दुर्बल और असहाय दिखा। नदी की बहाव तो रूक गई मगर तबाही के दो पल ने छोड़ गया है आज लाषों का ढ़ेर जिसे आज उन्हे कोई पहचानने वाला नहीं है। 

देश की राजनीति में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर सुरू हो गया है, और आम आदमी रोटी, कपड़ा, पानी और सिर के ऊपर छत के बिना कठिन परिस्थितियों में फंसा हुआ है और ये लोग अपने नंबर बढ़ाने में लगे हुए हैं। आज ये नेता भूल गये है की बदकिस्मती से त्रासदी में फंसे इन दयनीय लोगों के वोटों से ही आपको सत्ता हासिल हुई है और उन्हें फिलहाल आपकी मदद की दरकार है। 

वे आपके बनावटी रोष को बर्दाश्त कर लेंगे, बशर्ते मुश्किल में फंसी उनकी जिंदगी के लिए मूलभूत जरूरत की चीजें संवेदनशीलता के साथ मुहैया कराई जाएं। कुछ लोग अपने स्तर से जुटाए संसाधनों से निस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं। एैसे में हम सब को आगे आकर मदद करना चाहिए आज यही मानता की पूकार हर ओर से गूंज रही है। देश के शीर्ष नेताओं ने प्रभावित क्षेत्रों के हवाई दौरों की। मगर इन हवाई सर्वेक्षणों से क्या कुछ हासिल हुआ इसका जवाब देश की जनता मांग रही है।

यहा सवाल ये उठ रहा है की सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह खराब दृश्यता के बीच प्रभावित इलाकों के हजारों फीट ऊपर उड़ान भरकर जान सकते हैं कि नीचे क्या हो रहा है? अगर उनके पास तुलना करने के लिए कुछ हो तो अनुमान भले लगा सकते हैं लेकिन वे ऊपर से विचरण करते हुए यह कैसे जानेंगे कि लोग किन मुश्किल परिस्थितियों में फंसे हैं और उनके पास बचाव टीम पहुंची है या नहीं? इन चीजों का सही आकलन जमीनी दौरों से किया जा सकता है। लेकिन, इसके लिए उचित सामग्री और इलाके की सही समझ जरूरी है ताकि वे बचाव टीम को सही जगह पर जल्दी पहुंचने का निर्देश दे सकें।

हजारों लोग दुर्गम जगहों पर फंसे हैं और उन तक हवाई मार्गों से पहुंचा जा सकता हो, तब कितने भी हेलिकॉप्टर कम पड़ते हैं। ऐसे समय प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि लोगों को तुरंत इन जगहों से एयरलिफ्ट के जरिए निकाला जाए और जो लोग थोड़े सुरक्षित स्थानों पर हों उन्हें जीने के लिए जरूरी चीजें तुरंत हवाई जहाजों से मुहैया कराई जाएं। लगातार बारिश के बीच पर्यावरण के लिहाज से कठिन परिस्थितियों में फंसे लोगों के लिए खाना-पीना और कंबल आदि के बिना बचना मुश्किल हो रहा है। 

22 June 2013

उत्तराखंड के इस आपदा में आप क्या मदद करेंगें ?

उत्तराखंड  में आए महाप्रलय ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। कोई भूख से तड़प रहा है तो कोई अपनों के तलाश में उत्तराखंड के जंगल और पहाणों में बदहवास इधर उधर भटक रहा है। एैसे में इन लोगों को खाने पीने की सामग्री और मेडीकल सुविधाओं की खास जरूरत है। अब भी कई ऐसे जगह है जहां पर हेलीकाप्टर लैंड नहीं कर सकता, एैसे में  इन लोगों को स्मोक के सहारे खाने के पैकेट भेजने की जरूरत है। अगले 24 घंटे में वहा बारिश भी होने वाली है एैसे में राहत और बचाव कार्य में बाधा आ सकती है। देवभूमि पर हुए इस महाविनाश के कारण को देश का हर बच्चा बच्चा जानता है की ये प्रलय कितना बड़ा है, एैसे समाज के हर एक तबके को आगे आकर मदत करने की जरूरत है, मानवता के लिए आज इस देवभूमी के लिए ये सबसे बड़ा धर्म होगा।

 2010 में जब पाकिस्तान में बाढ़ आई थी तब हमारे प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को अपनी तरफ से मदद की पेशकश की थी। पाकिस्तान को मदत के नाम पर 5 मिलियन डॉलर दे दिए गए। वही मई 2013 में प्रणब मुखर्जी ने अफगानिस्तान को 2 बिलियन डॉलर की अतिरिक्त सहायता राशि की घोषणा की वो भी सिर्फ सड़क बिजली और मेडिकल के लिए। ऐसे सवाल खड़ा होता है की पड़ोसी से उदारता दिखाने वाले आज अपनों के दर्द में बेरूखी क्यों दिखा रहे है। ऐसे में आज हर हिन्दुस्तानी को जरूरत इस बात को लेकर है की वे आगे आए और दिल खोल कर इस त्रासदी में मदत करें। अगर अभी समय रहते इन लोगों को राहत नहीं दी गई तो हमेशा के लिए ये अपनों से जूदा हो जाऐंगे। 

 भूख और प्यास से तड़प रहे लोग आज सरकार से सिर्फ एक ही सवाल पूछ रहे है की अगर आप उनको राहत नही दे सकते तो उन्हें तड़प तड़प कर क्यों मरने पर मजबूर कर रहे हो ? एक बम गिराकर उन्हें आराम से मौत दे दो। एैसे में गैर शासकीय संगठन के माध्यम से उन भूखे लोगों तक मदत की सख्त दरकार है, जहा जन भागीदारी एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। 

आज हमारे  देश में 100 करोड़ का दान लोग रोज भिकारियों को दे दिया करते हैं। एैसे इस बिकट दुःख की घड़ी में एैसे लोगों को अपना हाथ बढ़ाने की जरूरत है। इस त्रासदी में हजारों लोग मारे गए हैं और 50 हजार से अधिक लोगों का कोई अता पता नहीं है। जबकी 60 हजार लोग जि़दगी और मौत से जूझ रहे है। तो एैसे में सवाल आज जनसरोकार से जूड़ा है की इस आपदा में आप क्या मदत करेंगें ?

21 June 2013

उतराखंण्ड में हुए महाप्रलय को अब तक राष्ट्रीय आपदा घोषित क्यों नहीं ?

देश की आपदा प्रबंधन संस्था और प्रधान मंत्री एक बार फिर से सवालों के घेरों में है। उतराखण्ड में जो तबाही हुयी है वो किसी पत्थरदिल इंसान को भी हिलाकर रख देगा। मगर सरकार इसे लेकर अब तक उहापोह की स्थिती में है। इसे अब तक राष्ट्रीय आपदा क्यों नहीं घोशित किया गया है? ये अपने आप में एक बड़ा सवाल है। गुरुवार को भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भी उत्तराखंड में हुई इस त्रासदी को ‘राष्ट्रीय आपदा’ घोषित करने की मांग की थी। अब तक आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में चलाये जा रहे राहत और बचाव कार्यों नाकाफी साबित हुआ है। जिससे  राष्ट्रीय अपदा घोषित घकरने की ये मांग और प्रबल हो जाती है।

अब तक के बचाव और राहत कार्य की हकीकत देखे तो आपदा प्रबंधन विभाग सफेद हाथी ही साबित हुआ है। जिनको हमेशा पाला जाता है और जरुरत के समय ये विभाग त्वरित कारवाई करनें में नाकाम साबित होता है। सेना नें हर आपदा में प्रशंशनीय कार्य किया है और हर छोटी बड़ी आपदा में जब तक सेना काम नहीं संभालती है तब तक लोगों को कोई राहत नही मिलती है। ऐसे में सवाल खड़ा होता है आखिर इसे बनाया किस लिए गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन केंद्र होने के बावजूद आपदा प्रबंधन की कोई ठोस नीति नहीं है।

प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। मगर जब ये आपदायें आती है तो देश में राजनीति सुरू हो जाती है और इसे  राष्ट्रीय आपदा घोशित कर राहत देने के बजाय सरकार राज्य और केन्द्र पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर लोगों को मरने के लिए बिवश कर देती है।

कुछ दिन पहले कैग ने आपदा प्रंबधन को लेकर सरकार की तैयारियों की धज्जियाँ उड़ाते हुए कहा था की देश का प्रंबधन तो दूर की कौड़ी हैं, प्रधानमंत्री आवास के लिए किए गए उपाय भी आपात कालीन स्थितियों में पर्याप्त नहीं हैं। जबकि देश में प्रंबधन देखने वाली संस्था राष्ट्रीय आपदा प्रंबधन प्राधिकरण के अध्यक्ष स्वंम प्रधानमंत्री होते हैं। एैसे ये अनुमान लगाया जा सकता है की सरकार एैसे प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए कितना गंभिर है। अमूमन राष्ट्रीय आपदा की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है। प्रधानमंत्री ने उतराखण्ड का दौरा किया है। मगर अब तक इसे राष्ट्रीय आपदा घोशित करने के बजाय वे हाथ पर हाथ धरे बैठे हुए है। और लोग भूख और प्यास से तड़प कर अपना प्राण त्याग रहे है। 

एैसे में सवाल उस राष्ट्रीय आपदा अधिनियम को लेकर खड़े हो रहे है की आखिर इसे बनाया किस लिए गया है। इस अधिनियम के तहत प्रभावितों को कई तरह का मुआवजा केंद्र द्वारा पहुंचाया जाता है।  राष्ट्रीय आपदा घोशित करने का पैमाने ये है की एकाएक प्राकृतिक गतिविधियां जिसका सिधा प्रभाव मानव जाति पर नकारात्मक रूप से पड़ता हैं। और भारी जान माल की क्षति होती है। जिनमें बाढ, भूकंप, सूखा, चक्रवाती तूफान से होने वाले क्षती सामिल है। मगर यहा तो हजारों लोगों का कोई अता पता नहीं है। अरबों खराबों की संपती मिट्टी और पानी में खाक हो गई है। लोगों की खेत और घर नदी में बिलीन हो गई है। साथ ही लोगों की आँखें अपनों की तलास में पथरीली हो गई है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की उतराखंण्ड में हुए इस महाप्रलय को राष्ट्रीय आपदा अब तक क्यों नहीं घोशित किया गया है ?

राष्ट्रीय आपदा में दी जाने वाली सहायता

राष्ट्रीय आपदा की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है।

मुआवजा देने की अधिकतम समय सीमा 45 दिनों की होती है।

शारीरिक रूप से विकलांग हुए लोगों को 35 से 50 हजार रूपए तक की सहायता राशि।

गंभीर चोट खाए लोगों को 2500 से 7500 रूपए की सहायता राशि।

कृषि भूमि में कीचड़ की सफाई के लिए 6000 रूपए प्रति हेक्टेयर की सहायता राशि।

कृषि भूमि में आए कटाव की समस्या के लिए 15000 रूपए प्रति हेक्टेयर की सहायता राशि।

आपदा के दौर में अनाथ बच्चों के लिए प्रतिदिन 15 रूपए और वृद्धों तथा अनाश्रितों को 20 रूपए प्रतिदिन की सहायता राशि।

घरेलू सामान के नुकसान पर प्रति परिवार 1000 रूपए। और इतनी ही राशि कपड़े के नुकसान पर।

प्रभावितों में से प्रत्येक को 8 किलोग्राम गेहूं या 5 किलोग्राम चावल प्रतिदिन के हिसाब से।

टूटे या क्षतिग्रस्त हुए मकानों के लिए 25000 रूपए प्रति मकान के हिसाब से सहायता राशि।

कच्चे मकानों के लिए 10000 हजार रूपए की सहायता राशि।
झोपडि़यों के लिए 2000 रूपए की सहायता राशि।

दुधारू पशुओं के लिए 10000 रूपया प्रति पशु की दर से सहायता राशि।

गैर दुधारू पशुओं के लिए 1000 रूपया प्रति पशु की दर से सहायता राशि।

मुर्गीपालकों को प्रति मुर्गी 30 रूपए की दर से सहायता राशि।

बड़े पशुओं के चारे के लिए प्रति पशु 20 रूपए प्रतिदिन तथा छोटे पशुओं के लिए 10 रूपए प्रतिदिन की दर से सहायता राशि।

मछली पालकों को 2500 से 7500 रूपए तक की सहायता राशि।

आपदा के पूरे दिनों के लिए अकुशल श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी।

भारत में आपदा की कीमत

बाढ़- हर पांच साल में 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें जाती है।

तूफान- पिछले 270 वर्षो में भारतीय उप महाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से तूफानों 21 की मार झेली, छह लाख जानें गई।

भूकंप- मुल्क की 59 फीसदी जमीन पर कभी भी भूकंप का खतरा।
पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में 24 हजार से ज्यादा लोगों की हुई मौत।

आपदाओं के चलते सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति होती है और इनसे जूझने के लिए आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को दिए जाते हैं महज 65 करोड़।

आपदा एक सामाजिक समस्या !

प्राकृतिक आपदाएं इस देश का सच हैं, जो समय समय पर इस देश को झकझोरती हैं और बतलाती हैं कि इस देश में मानव और प्रकृति के बीच के अन्तर्संबंधो में कमी आई हैं। बदलती आर्थिक प्राथमिकताओं नें इस दूरी को गढ्ढें से खाई मे परिवर्तित कर दिया हैं। अत: इससें पनपे नुकसान का भुगतान हम केवल आर्थिक कमजोरी से नही चुका रहें हैं, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से भी भुगत रहें है। जिसकी भयावहता का अनुमान हम बड़ी आसानी से किसी भी आपदा ग्रस्त इलाके पर एक नजर ड़ालनें से समझ सकते हैं। आपदाओं की परिभाषा पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि “ आपदाए वे होती हैं जो बड़ें पैमाने पर होने वाली एकाएक प्राकृतिक गतिविधियां है, जिसका प्रभाव मानव जाति पर नकारात्मक पड़ता हैं। बाढ, भूकंप, सूखा, चक्रवाती तूफान और वे सभी हादसें जिनसे मानव प्रभावित होता हैं आपदाए कहलाती हैं जिनमें प्रकृति और मानव के कारण उत्पन्न आपदाएं सम्मलित हैं। प्रतिवर्ष भारत अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह सें इन आपदाओं का बड़ा शिकार बनता हैं, जिसमें प्रतिवर्ष बडे पैमाने पर जन और धन की हानि होती हैं।

आपदाओं का आंकलन करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय डाटाबेस संस्था “सेंटर फार द रिसर्च आन इपिडिमियोलाजी आफ डिजास्टर का आकलन हैं कि भारत 2000 से 2009 के मध्य 24 अरब अमरीकी डालर का नुकसान उठा चुका हैं, जिसमें सबसे ज्यादा नुकसान 17 अरब अमरीकी डालर बाढ की वजह से हैं और 4.5 अरब अमरीकी डालर भूकंप की वजह से 1.5 अरब अमरीकी डालर सूखे की वजह से और बाकी नुकसान अन्य प्रकार की विपदाओं की वजह से उपजा हैं। वर्ड बैंक के आंकलन को सही मानें तो भारत जीडीपी का 2 % और राजस्व का 12 % नुकसान सिर्फ और सिर्फ इन आपदाओं की वजह से उठाता हैं।

ये आकड़े भला ही बहुत बडे हो और आम जन की समझ से परे हो, पर इन आपदाओं की वजह से होनें वाले नुकसान की एक छोटी सी समझ सभी के मन में बडी आसानी से उभर सकती है। इन आपदाओं में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता हैं। कोसी की बाढ, भुज का भूकप, विदर्भ का सूखा आदि तो कुछ एक बडें उदाहरण हैं लेकिन हर साल आनें वाली समस्याएं मिलकर देश के लिए लगातार एक बडे नुकसान का कारण बनती हैं और इन सबके सामने असहाय जनता सिर्फ और सिर्फ मूकदर्शक बनी रहती हैं।

ऐसा नहीं हैं कि भारत के पास इन आपदाओं से निपटनें का कोई तंत्र नहीं हैं, पर समस्याओं से निपटते हुए उनकी क्षमता और कार्ययोजना पर बडी ही आसानी से सवाल उठाएं जा सकते हैं। भारत में आपदाओं से निपटने के लिए त्रिस्तरीय केन्द्र, राज्य और जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन विभाग हैं जो इन आपदाओं पर ना केवल नजर रखते हैं, साथ ही साथ सभी स्तर पर इनसे निपटने के लिए कार्ययोजना का निर्माण भी करते है, लेकिन ऐसा क्या है कि जिसकी वजह से हम साल दर साल इस नुकसान का शिकार बनते जा रहे हैं।

भारत सरकार नें 2005 में डिजास्टर मैनेजमैंट एक्ट 2005 के तहत अपनी कार्ययोजना को एक चक्रीय क्रम में सजाया जिसमें आपदा के आने के बाद, इसपर बचाव, नुकसान की भरपाई, फिर निदान और फिर आपदा पूर्व तैयारी की जाती हैं। लेकिन इस कार्ययोजना के लागू हो जाने के बाद के ही आकडें उठा कर देखें, तो हम पाते हैं कि हर साल आपदा से होनें वाले नुकसान में इजाफा ही हुआ है और हम एक ही प्रकार की समस्याओं से जूझते नजर आते हैं। ऐसें मे यह तय कर पाना एक कठिन काम हैं कि क्या वाकई यह तंत्र इन समस्याओं से निपटने में सक्षम हुए हैं ?

कहानी वहीं हैं जिसमें तत्रं का रोना रो कर, हम बडी आसानी से अपनी समस्याओ को बड़ा आंक देते हैं। ऐसें में, हम कहीं न कहीं इन समस्याओं से न निपट पाने की विफलता के लिए बहाना ढूढनें की कोशिश करते हैं, ताकि हम अपना बचाव कर सकें। लेकिन इससें हम अपनी जवाबदेही से तो बच सकते हैं पर समस्याओं से बिल्कुल नहीं। इस साल को ही देखें तो पाएगें कि, असम की बाढ, और अब मानसून के धोखे के बाद सूखे का संकट देश के लिए चुनौती बना हुआ हैं। हमारे तंत्र की कमजोरी से भी ये संकट हम पर कोई भी रहम करनें के मूड में नही हैं। इसलिए जवाबदेही से बच कर हम अपना दामन भला ही छुपा ले लेकिन संकटों से सामना हमें करना ही पडेगा।

तो आखिर हम करें क्या जिससें हम इन आपदाओं से लड़ सके। इसकें दो ही तरीके हैं, पहला या तो हम इन आपदाओं को रोकें और या फिर इनसे प्रभावित होनें वालें लोगों को इतना मजबूत कर दें कि उन पर इन आपदाओं का प्रभाव कम से कम दिखलाई पडें। पहला वाला उपाय लगभग नामुमकिन सा हैं लेकिन अगर हम प्रकृति से अच्छें संबध बना ले तो कुछ कमी लायी जा सकती हैं। इसके लिए एक लम्बें समय की दरकार हैं तो ऐसें में तब तक हम इन आपदाओं के सामनें खुद को बलि के बकरें के रूप में तो पेश करते नहीं रहेगें। हमें हमेशा ही अपने दूसरें विकल्प की ओर सोचना होगा, जिसमें लोगो को मजबूत किया जाए। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि तंत्र के पास योजना और पैसा दोनों ही हैं लेकिन फिर भी हम हर मोर्चों पर असफल हो रहें है, इसका सीधा और सरल मतलब हैं कि योजनाओं को संचालित करनें वाले और योजनाओं को लेनें वालें दोनों लोगो के बीच बडें स्तर पर खामियाँ हैं। ऐसें में सिर्फ तंत्र की ओर उंगली उठा कर हम दूसरें पक्ष की लापरवाही को अनदेखा भी नहीं कर सकते हैं, और ये भी किसी से छुपा नहीं हैं कि इस लापरवाहीं को बढावा देने वालें कौन हैं।ऐसें में जब प्राकृतिक आपदा के परिणाम और प्रभाव सामाजिक हो चले हो तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा मान कर हम कब तक अपनी कार्य योजना को संचालित करते रहेंगें।

ऐसें में हमें इन आपदाओं के उपरान्त होने वाले प्रभावों से लड़नें के लिए सामाजिक रूपरेखा तैयार कर फिर लड़नें पर बल देनें की जरूरत हैं ना कि सिर्फ प्राकृतिक कारणों से निपटनें पर अपनी सारी ऊर्जा खत्म करनें की। समय की मांग यह है कि हम अपनी योजनाओ का निर्धारण बराबरी के आधार पर करने की बजाय जरूरत के आधार पर करें। ताकि हम सच में प्रभावित होनें वालों को बचा सकें और आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। वरना साल दर साल हम इन आपदाओं के सामनें मूक दर्शक बनें रहेंगें और ये आपदाएं हमारा मजाक उड़ाती रहेगीं।

20 June 2013

क्या एनडीए के बिखरने का सबसे ज्यादा फायदा यूपीए को होगा ?

जदयू और भाजपा का 17 साल पुराना रिश्ता आखिरकार टूट ही गया। इसकी जानकारी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्यपाल डीवाई पाटिल से मुलाकात कर दी। नीतीश कुमार ने राज्यपाल से कहा कि भाजपा के साथ उनकी सरकार का गठबंधन समाप्त हो गया है। जानकारी के अनुसार नीतीश विधानसभा में 19 जून को अपना बहुमत साबित करने के लिये राज्यपाल से विशेष सत्र बुलाने की मांग की है। इससे पहले नीतीश ने आज सुबह अपने मुख्यमंत्री आवास पर बिहार कैबिनेट की बैठक बुलायी थी, जिसमें भाजपा के मंत्रियों ने आने से इनकार कर दिया था। भाजपा और जदयू दोनों ने ही गठबंधन टूटने के लिए एक दूसरे को जिम्‍मेदार ठहराया। बिहार के सीएम नीतीश कुमार और जदयू अध्‍यक्ष शरद यादव ने प्रेस कांफ्रेंस कर गठबंधन टूटने का औपचारिक ऐलान किया। नीतीश ने कहा है कि वह 19 जून को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर बहुमत साबित करना चाहते हैं।

गुजरात व बिहार के मुख्यमंत्रियों में यूं तो बिहार विधानसभा चुनाव के पहले से ही दूरियां बढ़ गई थीं जब नीतीश कुमार ने भाजपा नेताओं को भोज का न्यौता देकर उसे रद्द कर दिया था। उसके बाद कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए गुजरात से भेजे गए पांच करोड़ का चेक लौटाकर तथा मोदी को बिहार में प्रचार करने आने से रोककर नीतीश ने राजग में अपनी मनमाने इरादे जाहिर कर दिए थे। मोदी को भाजपा की प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद अब भाजपा व जनता दल यूनाइटेड का 17 साल पुराना गठबंधन टूट गया जिस पर गुजरात भाजपा का कहना है कि यह काफी पहले टूट जाना चाहिए था जब नीतीश ने भाजपा पर अपनी शर्ते लादना शुरू की थी। तब से ही मोदी खेमे ने जदयू के साथ दो-दो हाथ करने की तैयारी शुरू कर दी थी इसके लिए बिहार भाजपा के नेताओं से संपर्क साधकर बाकायदा राजनीतिक हालात की लगातार समीक्षा भी की गई।

एनडीए से जदयू के अलग होने पर पहली प्रतिक्रिया भाजपा प्रवक्‍ता मुख्‍तार अब्‍बास नकवी की तरफ से आई। उन्‍होंने कहा, ‘भाजपा मोदी को लेकर कोई समझौता नहीं करेगी, चाहे गठबंधन एक बार टूटे या दस बार। हम चाहते थे कि गठबंधन अटूट रहे। हमारी पार्टी अपने हित से जुड़े फैसले करने के लिए आजाद है और इस पर किसी को सवाल उठाने का हक नहीं है। एक बार जब फैसला लिया जा चुका है तो हम इससे पीछे नहीं हटने वाले हैं।’ बिहार में एनडीए गठबंधन टूटने का दर्द नकवी के चेहरे पर साफ दिखाई दिया जब उन्‍होंने कहा, ‘दुश्‍मन न करे, दोस्‍त ने वो काम किया है। दोस्‍त ने दुश्‍मनों जैसा काम किया है।’ भाजपा नेता सुषमा स्‍वराज ने ट्वीट किया, ‘एनडीए का टूटना दुखद और दुर्भाग्‍यपूर्ण है।’ भाजपा अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि भाजपा और जदयू ने कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए हाथ मिलाया था और जब ऐसा करने का वक्‍त आया तो जदयू ने हमसे नाता तोड़ लिया। मोदी को भाजपा चुनाव अभियान समिति का अध्‍यक्ष बनाना कोई अपराध है क्‍या? यह बेहद दुर्भाग्‍यपूर्ण है। उन्‍होंने यह भी कहा कि जदयू भाजपा के बिना ज्‍यादा दिनों तक सियासत में नहीं टिक सकती।

भाजपा और जदयू के बीच 17 सालों से जारी गठबंधन के टूटने से राजग संकट में आ गया है। गठबंधन टूटने से 2014 में भाजपा की सरकार बनने की उम्मीद कर रहे लोगों की उम्मीदों को तगड़ा झटका लगा है। शरद यादव ने कहा, ‘एनडीए गठबंधन पिछले 17 सालों था। अटल-आडवाणी-जॉर्ज के साथ बैठकर इसका एजेंडा बनाया गया था। इस दौर में कई उतार चढ़ाव आए। लेकिन अब एनडीए नेशनल एजेंडे से भटक गया है। हमारी लगातार कोशिश रही है कि जो एनडीए है, उसके राष्ट्रीय मुद्दे के दायरे में हम सभी चले। हमने साफ कर दिया था कि राष्ट्रीय मुद्दे के दायरे में हम 17 साल तक चलते रहे। पिछले 7-8 साल में दोनों दलों में बिहार में भी अच्छा समन्वय रहा है। पिछले दिनें गोवा में हुई भाजपा की राष्‍ट्रीय कार्यकारिणी के पहले भी हमने साफ कहा कि हम प्रदेश की जनता के साथ बंधे हैं, इससे कोई छलकेगा तो हम साथ नहीं चलेंगे। मोदी को पार्टी का चुनाव प्रमुख बनाया जाना हमारे लिएकोई मुद्दा नहीं था, लेकिन उसके बाद जो भाषण हुए वो सही नहीं था। भाजपा राम मंदिर के मसले को ला रही है। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद को देखते हुए हमने निर्णय लिया कि हमारा रास्ता अलग होगा। मैं एनडीए संयोजक की जिम्मेदारी को भी त्यागता हूं।

शायद राजनीति इसी का नाम है। दोस्त और दुश्मन कब बदल जायें कोई ठिकाना नहीं। लेकिन राज्य में 17 साल पुराना गठबंधन टूटने की पटकथा को शायद भाजपा नेतृत्व नहीं समझ पाया। समझ पाता तो उसके मंत्रियों को इस कदर नीतीश के कूचे से बाहर नहीं जाना पड़ता।भाजपा व जनता दल यू के रिश्तों में लंबे समय से खटास थी, दोनों को अलग भी होना था और लंबे समय से दोनों इसका सही वक्त ढूंढ रहे थे। हालांकि गुजरात में भाजपा व जदयू का गठबंधन पहले भी नहीं था, लेकिन अब राष्ट्रीय स्तर पर रिश्ता टूटने के बाद जदयू गुजरात में पूरी धमक के साथ मैदान में उतरना चाहता है।

भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद जदयू की नई राह क्या होगी इसे लेकर पार्टी में मंथन जारी है।नीतीश कुमार और उनके भरोसेमंद नेता लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ तालमेल के हक में हैं, बशर्ते कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग मंजूर कर ले। वहीं, जदयू के कुछ नेता ममता बनर्जी और नवीन पटनायक के साथ मिलकर फेडरल फ्रंट बनाकर लोकसभा चुनावों के बाद अपने राजनीतिक विकल्प खुले रखने की वकालत कर रहे हैं।जदयू के महासचिव केसी त्यागी कहते हैं कि अभी हम कांग्रेस-भाजपा से समान दूरी बनाकर चलेंगे। लेकिन धर्मनिरपेक्ष राजनीति के सभी विकल्प खुले रहेंगे।

भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के 17 पुराना गठबंधन टूटने से भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी नाराज हो गए हैं। आडवाणी ने जदयू से रिश्ता टूटने के लिए सीधे-सीधे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराया है।लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि गोवा में मोदी पर फैसला जल्दबाजी में लिया गया। इसी कारण जदयू से गठबंधन टूटा है।गौरतलब है कि गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी को प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया था। यह फैसला आडवाणी की गैर मौजूदगी में लिया गया था। इससे नाराज होकर आडवाणी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी,प्रचार समिति और संसदीय बोर्ड से इस्तीफा दे दिया था।हालांकि उन्होंने एनडीए के चेयरमैन पद, लोकसभा की सदस्यता और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था। दो दिन बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत के हस्तक्षेप के बाद आडवाणी ने इस्तीफा वापस ले लिया था।

फिलहाल जदयू के गठबंधन से अलग होने के बाद अब एनडीए की ताकत कम तो हुई है और वहीँ संप्रग को इससे से बहुत बड़ी राहत मिली है ।नरेन्द्र मोदी के नाम पर बिदकी जदयू ने हालाँकि एनडीए से अलग होने का जो फैसला लिया है ,उसे उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है।मगर अब इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी कि राह अब और भी कठिन होनेवाली है ।नरेन्द्र मोदी केवल प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार हो सकते हैं जबकि भाजपा अपने बूते पर लोकसभा की 200 से अधिक जीत पायेगी ।क्योंकि अब एनडीए के नाम पर सिर्फ अकाली दल ही भाजपा के साथ है क्योंकि बीजू जनता दल और जयललिता भी कब एनडीए से मुंह फेर लें कुछ कहा नहीं जा सकता है।एनडीए के बिखरने का सबसे ज्यादा फायदा यूपीए को ही होगा ।

भाजपा से अलगाव क्या नीतीश के लिए आत्मघाती कदम है ?

आखिरकार मोदी के मुद्दे पर एनडीए के 17 साल पुराने साथी जनता दल यूनाइटेड ने उसका साथ छोड़ ही दिया। वैसे तो पहले से ही इस बात का अंदेशा था कि नरेंद्र मोदी को मिलने वाली प्राथमिकताओं के कारण नीतीश भाजपा से खफा थे, वह किसी भी हाल में मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नहीं देखना चाहते थे इसीलिए उन्होंने भाजपा को नरेंद्र मोदी पर उसका स्टैंड स्पष्ट करने को कहा था। लेकिन भाजपा ने उनका कहा नहीं माना और अंतत: जदयू ने भाजपा और एनडीए से खुद को अलग कर लिया। अब जब मिशन 2014 नजदीक आता जा रहा है ऐसे में जदयू का खुद को एनडीए से अलग करने जैसा नीतीश कुमार का निर्णय विभिन्न सवालों के घेरे में आ गया है कि भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ने से नीतीश कुमार को आगामी लोकसभा चुनावों में फायदा होगा या नुकसान?

बुद्धिजीवियों का एक वर्ग नीतीश कुमार के इस कदम को सीधे-सीधे उनके लिए फायदे का सौदा मान रहा है। इनका कहना है कि नीतीश कुमार ने सही समय पर खुद को एनडीए से अलग कर लिया क्योंकि अगर कहीं लोकसभा चुनावों के समय भाजपा नरेंद्र मोदी, जिन्हें एक कट्टर और सांप्रदायिक नेता के तौर पर जाना जाता है, को अपना प्रत्याशी घोषित करती तो इसका नुकसान नीतीश को अपने परंपरागत वोटबैंक जो कि मुसलमान हैं, को खोकर उठाना पड़ता। जाहिर है नीतीश और जदयू के लिए यह एक घाटे का सौदा होता और यह जानने के बावजूद की एनडीए के साथ रहने से उनकी हार निश्चित है वह खुद को एनडीए से अलग कर पाने की हालत में नहीं होते। उस धर्म संकट की घड़ी से खुद को बचाए रखने के लिए जदयू का यह निर्णय सही ही है। कम से कम अब उनके पास कांग्रेस के साथ गठबंधन कर या फिर अपने वोटबैंक का विश्वास जीतने जैसे कुछ विकल्प मौजूद हैं जिसके अनुसार यह संभावना कम ही है कि उन्हें बिहार में कोई नुकसान उठाना पड़े।

वहीं दूसरी ओर वे लोग हैं जिनका यह मानना है कि एनडीए गठबंधन से खुद को अलग कर नीतीश ने खुद अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है। उनका कहना है कि सबसे पहले तो बिहार में कांग्रेस से ज्यादा भाजपा की ही तूती बोलती है इसीलिए यह सोच लेना कि कांग्रेस के साथ मिलकर नीतीश वहां अपनी जीत दर्ज करवा पाने में सक्षम हो पाएंगे यह खुद को जैसे धोखे में ही रखने वाली बात है। इतना ही नहीं नीतीश कुमार अगर अकेले अपने दम पर भी चुनाव लड़ते हैं तो भी बिहार में उन्हें सिर्फ मुस्लिम और अति पिछड़ा वोट ही हासिल हो पाएंगे, जबकि बिहार के सवर्ण हिंदुओं का वोट तो भाजपा के ही पाले में जाएगा। नीतीश कुमार को काफी हद तक मुस्लिम हितैषी माना जाता है और उन्हें अपनी इस छवि का नुकसान चुनावी मैदान में जरूर भुगतना पड़ेगा।

16 June 2013

अपने बुजुर्गों के प्रति युवा वर्ग का नजरिया !

परिवार में युवा पुरुष सदस्य परिवार की आय का स्रोत होता है, जिसके द्वारा अर्जित धन से वह अपने बीबी बच्चों के साथ साथ अक्सर घर के बुजुर्गों के भरण पोषण एवं देख भाल  की जिम्मेदारी भी उठाता है. इसलिए बुजुर्गों के प्रति उसका नजरिया महत्वपूर्ण होता है, की वह अपने बुजुर्गों के प्रति क्या विचार रखता है? उन्हें कितना सम्मान देना चाहता है,वह अपने बीबी बच्चों और बुजुर्गों को कितना समय दे पाने में समर्थ है, और क्यों? वह अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति क्या नजरिया रखता है ?वह नए ज़माने को किस नजरिये से देख रहा है?क्योंकि वर्तमान बुजुर्ग जब युवा थे उस समय और आज की जीवन शैली और सोच में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका है. आज का युवा अपने बचपन से ही दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित है.उसे बचपन से ही कलर टी.वी.मोबाइल ,कार, स्कूटर,कंप्यूटर, फ्रिज जैसी सुविधाओं को देखा है, जाना है.जिसकी कल्पना भी आज का बुजुर्ग अपने बचपन में नहीं कर सकता था.जो कुछ सुविधाएँ उस समय थी भी तो उन्हें मात्र एक प्रतिशत धनवान लोग ही जुटा पाते थे.

आज इन सभी आधुनिक सुविधाओं को जुटाना प्रत्येक युवा के लिए गरिमा का प्रश्न बन चुका है.प्रत्येक युवा का स्वप्न होता है की, वह अपने जीवन में सभी सुख सुविधाओं से सुसज्जित शानदार भवन का मालिक हो. प्रत्येक युवा की इस महत्वाकांक्षा के कारण ही प्रत्येक क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न हुई है.अब वह चाहे शिक्षा पाने के लिए स्कूल या कालेज में प्रवेश का प्रश्न हो या नौकरी पाने के लिए मारामारी हो. रोजगार पाने के लिए व्यापार ,व्यवसाय की प्रतिस्पर्द्धा हो या अपने रोजगार को उच्चतम शिखर पर ले जाने की होड़ हो या फिर अपनी नौकरी में उन्नति पाने के अवसरों की चुनौती हो .प्रत्येक युवा की आकांक्षा उसकी शैक्षिक योग्यता एवं रोजगार में सफलता पर निर्भर करती है यह संभव नहीं है की प्रत्येक युवा सफलता के शीर्ष को प्राप्त कर सके परन्तु यदि युवा ने अपने विद्यार्थी जीवन में भले ही मध्यम स्तर तक सफलता पाई हो परन्तु चरित्र को विचलित होने से बचा लिया है, तो अवश्य ही दुनिया की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है,चाहे वे उच्चतम गुणवत्ता वाली न हों.और वह एक सम्मान पूर्वक जीवन जी पाता है.

सफलता,असफलता प्राप्त करने में ,या चरित्र का निर्माण करने में अभिभावक और माता पिता के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता.यदि सफलता का श्रेय माता पिता को मिलता है तो उसके चारित्रिक पतन या उसके व्यक्तित्व विकास के अवरुद्ध होने के लिए भी माता पिता की लापरवाही , उचित मार्गदर्शन दे पाने की क्षमता का अभाव जिम्मेदार होती है.जबकि युवा वर्ग कुछ भिन्न प्रकार से अपनी सोच रखता है.वह सफलता का श्रेय सिर्फ अपनी मेहनत और लगन को देता है और असफलता के लिए बुजुर्गो को दोषी ठहराता है. आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में विद्यमान मूर्ती की भांति होता है, जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी,कपडा और दवा दारू की आवश्यकता होती है.

उसके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके हैं.उनकी इच्छाएं, भावनाएं, आवश्यकताएं सीमित हो गयी हैं. उन्हें सिर्फ मौत की प्रतीक्षा है. अब हमारी जीने की बारी है.जबकि वर्तमान का बुजुर्ग एक अर्धशतक वर्ष पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित है.,स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर है,और मानसिक स्तर भी अधिक अनुभव के कारण अपेक्षाकृत ऊंचा है.(अधिक पढ़े लिखे व्यक्ति का अनुभव भी अधिक समृद्ध होता है) अतः वह अपने जीवन के अंतिम प्रहार को प्रतिष्ठा से जीने की लालसा रखता है,वह वृद्धावस्था को अपने जीवन की दूसरी पारी के रूप में देखता है, जिसमे उस पर कोई जिम्मदारियों का बोझ नहीं होता. और अपने शौक पूरे करने के अवसर के रूप में देखना चाहता है.वह निष्क्रिय न बैठ कर अपनी मन पसंद के कार्य को करने की इच्छा रखता है,चाहे उससे आमदनी हो या न हो.

यद्यपि हमारे देश में रोजगार की समस्या होने के कारण युवाओं के लिए रोजगार का अभाव बना रहता है,एक बुजुर्ग के लिए रोजगार के अवसर तो न के बराबर ही रहते हैं.और अधिकतर बुजुर्ग समाज के लिए बोझ बन जाते हैं.उनके ज्ञान,और अनुभव का लाभ देश को नहीं मिल पाता. कभी कभी उनकी इच्छाएं,आकांक्षाएं, अवसाद का रूप भी ले लेती हैं.क्योंकि पराधीन हो कर रहना या निष्क्रिय बन कर जीना उनके लिए परेशानी का कारण बनता है. आज का युवा अपने बुजुर्ग के तानाशाही व्यक्तित्व के आगे झुक नहीं सकता.सिर्फ बुजुर्ग होने के कारण उसकी अतार्किक बातों को स्वीकार कर लेना उसके लिए असहनीय होता है.परन्तु यह बात बुजुर्गों के लिए कष्ट साध्य होती है.क्योंकि उन्होंने अपने बुजुर्गों को शर्तों के आधार पर सम्मान नहीं दिया था,और न ही उनकी बातों को तर्क की कसौटी पर तौलने का प्रयास किया था.उनके द्वारा बताई गयी परम्पराओं को निभाने में कभी आनाकानी नहीं की थी.उन्हें आज की पीढ़ी का व्यव्हार उद्दंडता प्रतीत होता है.समाज में आ रहे बदलाव उन्हें विचलित करते हैं.

क्या सोचता है आपका पुत्र, क्या चाहता है आपका पुत्र, वह और उसका परिवार आपसे क्या अपेक्षाएं रखता है?इन सभी बातों पर प्रत्येक बुजुर्ग को ध्यान देना आवश्यक है.आज के भौतिकवादी युग में यह संभव नहीं है की अपने पुत्र को आप उसके कर्तव्यों की लिस्ट थमाते रहें और आप निष्क्रिय होकर उसका लाभ उठाते रहें.आपका पुत्र भी चाहता है आप उसे घरेलु वस्तुओं की खरीदारी में यथा संभव मदद करें,उसके बच्चों को प्यार दुलार दें, उनके साथ खेल कर उनका मनोरंजन भी करें,बच्चों को स्कूल से लाने और ले जाने में सहायक सिद्ध हों,बच्चों के दुःख तकलीफ में आवश्यक भागीदार बने, बुजुर्ग महिलाएं गृह कार्यों और रसोई के कार्यों में यथा संभव हाथ बंटाएं,बच्चों को पढाने में योग्यतानुसार सहायता करें,परिवार पर विपत्ति के समय उचित सलाह मशवरा देकर लौह स्तंभ की भांति साबित हों. 

बच्चों अर्थात युवा संतान द्वारा उपरोक्त अपेक्षाएं करना कुछ गलत भी नहीं है, उनकी अपेक्षाओं पर खरा साबित होने पर परिवार में बुजुर्ग का सम्मान बढ़ जाता है, परिवार में उसकी उपस्थिति उपयोगी लगती है.साथ ही बुजुर्ग को इस प्रकार के कार्य करके उसे खाली समय की पीड़ा से मुक्ति मिलती है,उसे आत्मसंतोष मिलता है, वह आत्मसम्मान से ओत प्रोत रहता है.उसे स्वयं को परिवार पर बोझ होने का बोध नहीं होता.

15 June 2013

क्या हर भारतीय को सैन्य शिक्षा अनिवार्य किया जाए ?

1962 में हुए भारत चीन युध्द के बाद सैनिक शिक्षा को देश के हर नागरिक को अनिवार्य की मांग उठी थी। मगर आज तक देश में इसको लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। मगर अब ये आज के दौर में और भी महत्वपूर्ण हो गयी है। एैसे में जरुरत है की आज एक सार्थक कदम के साथ इस सैन्य शिक्षा की अनिवार्यता को समझा जाय और इसे अमल में लाने के प्रयास किया जाए। इससे सेना पर निर्भरता भी कम होगी और हर आदमी कम से कम ऐसी घटनाओं से अपनी रक्षा करने  में आत्मनिर्भर बन सकेगा। जिस प्रकार से आज विश्व के लगभग 21 से जयादा देश में सैन्य देश अनिवार्य है उसको लेकर अब देश के अंदर भी ये मांग एक बार फिर से तेज हो गई है कि भारत में भी सैन्य शिक्षा को अनिवार्य किया जाए।

देश के  हर नागरिक को मिलिट्री ट्रेनिग अनिवार्य रूप से दी जाय। चाहे भले ही सबको हथियार और गोले बारूद इस्तेमाल करने की ट्रेनिंग न जी जाय मगर कम से कम बेसिक चीजें अवश्य  जुडी हो जैसे युद्ध, हवाई हमलों, आतंकवादी हमलों, प्राकृतिक आपदाओं आदि में एक नागरिक को किस प्रकार सक्रिय होना  चाहिए और उसकी क्या भूमिका हो सकती है ? सैनिक शिक्षा सिर्फ सीमा पर  लड़ रहे जवानो से ही संबंधित नहीं है, आज कई बार तो हालत देश के अंदर ही युद्ध जैसे भीषण हो जाते है। देश में 26/11 जैसे मुंबई में हुए आतंकवादी हमला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

सेना का जितना ही आक्रामक पहलू महत्वपूर्ण होता है उतना ही महत्वपर्ण अपना तथा  अपने नागरिकों का बचाव भी होता है। ऐसे आतंकवादी  हमलों  के दौरान एक नागरिक का क्या कर्तव्य हो सकता है, मसलन वह कैसे अपने हो छिपा कर बचा सकता और फिर दूसरे फँसे लोंगों को कैसे बचाया जा सकता है. इसके अतिरिक्त आतंकवादियों से मोर्चा सम्हाले अपने जवानों की किस तरह से मदद की जा सकती है, यह सैनिक शिक्षा के माध्यम से हर नागरिक को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। साथ ही सैनिक शिक्षा गुंडों, चेन स्निचरो और बदमाशों से निपटने में आम नागरिक के लिये लाभप्रद साबित हो सकती है।

लड़ाई सीमा पर  जवान लड़ता है मगर उसकी यह लड़ाई बहुत हद तक उसके बैक अप, सप्लाई लाइन और पीछे से मिल रहे सहयोग पर निर्भर करती है, ऐसे में आम जनता की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। रसद, गोला बारूद और  अन्य चीजों की सप्लाई में नागरिकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। सेना अकेले ही यह सब त्वरित गति से नहीं कर पाती ऐसे में अगर एक प्रशिक्षित जनता का पूरा सहयोग  मिले तो जयादा बेहतर हो सकता है। आज हमारे देश में व्यवसायिक शिक्षा, सेक्स शिक्षा, शारीरिक और योग शिक्षा आदि पर तो बहस होती है मगर सैनिक शिक्षा पर न के बराबर बहस हुई है।

आरएसएस, के सर संघसंचालक मोहन भागवत ने देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर बढ़ते खतरे के मद्देनजर पहले ही ये मांग कर चुके है की देश में सैन्य शिक्षा अनिवार्य किया की जाए। युद्ध के समय सिर्फ जवान ही नहीं मरता है वरन दुश्मन के हमलों में आम नागरिक भी मारे जाते है। हर नागरिक को यह पाता होना चाहिए की दुश्मन के जमीनी, हवाई, नुक्लियर बायोलोजिकल व केमिकल जैसे हमलों मे किस तरह से सरवाईव  करना है। हवाई हमलों के दौरान बलैक आउट और  गड्ढों व बंकरों  में छिपना तथा  रासायनिक और जैविक हमलों के असर से  किस तरह से कम प्रभावित हुए बचा जा सकता है, यह हर नागरिक के लिये जानना महत्वपूर्ण होना चाहिए।

वह देश जहाँ सैन्य सेवा अनिवार्य है

इजराइल- 18 साल या 12 वीं ग्रेड के बाद सभी पुरुषों तथा महिलाओं के लिए अनिवार्य।
पुरुषों के लिए तीन,
जबकि महिलाओं के लिए दो साल की सेवा अनिवार्य है।

मैक्सिको- 18 साल की आयु के सभी पुरुषों को एक साल की मिलिटरी सेवा का पंजीकरण अनिवार्य।

रूस- 18-27 साल के पुरुषों के लिए 12 महीने की सेवा

टर्की- 20-41 साल के सभी पुरुषों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य, उच्च शिक्षा के छात्रों को कोर्स पूरा करने की छूट

जर्मनी- पुरुषों को नौ माह तक, महिलाओं को ऐच्छिक

आस्ट्रिया- 18-35 साल के लोगों के लिए 6 महीने की अनिवार्य सैन्य सेवा

बेलारूस- 18-27 साल के लोगों के लिए अनिवार्य, उच्च शिक्षा के लिए 12 महीने, जबकि सामान्य शिक्षित के लिए 18 महीने की सेवा

ब्राजील- 18 साल से ऊपर के सभी पुरुषों को 12 महीने की सेवा

चिली- 18-45 साल के पुरुषों की 12 महीने की सेना तथा 24 महीने की नौसेना तथा वायुसेना में सेवा

चीन- अनिवार्य सैन्य सेवा

डेनमार्क- अनिवार्य सैन्य सेवा

मिस्र- 18-30 साल के युवाओं के लिए अनिवार्य, छात्रों को पढाई तक छूट

फिनलैंड- 6 महीने की अनिवार्य सेवा

यूनान- पुरुषों के लिए एक साल की अनिवार्य सेवा

ईरान- 21 महीने की अनिवार्य सेवा

दक्षिण कोरिया- 24-27 महीने की अनिवार्य सेवा

नॉर्वे- 18 .5 से 44 साल के पुरुषों के लिए 19 महीने की अनिवार्य सैन्य सेवा

पौलैंड- पुरुषों के लिए 9 महीने की अनिवार्य सेवा

सिंगापुर- 18 -21 साल के पुरुषों के लिए 24 महीने की अनिवार्य सेवा

स्वीडन- सन् 1902 से सैन्य सेवा अनिवार्य

स्विट्जरलैंड- पुरुषों के लिए अनिवार्य, महिलाओं के लिए ऐच्छिक

14 June 2013

अदालती कार्यवाही हमारी भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं ?

अदालतों में अंग्रेजी की अनिवार्यता हमारी गुलाम मानसिकता का परिचायक है, और इसी गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए आज समाज में अब ये मांग भी उठने लगी है, की कदालती कार्यवाही हमारी भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं की जाए। लार्ड मैकाले अंगे्रजी में भारतीय दण्ड संहिता आईपीसी की रचना कर भारत पर अंग्रेजी न्याय व्यवस्था थोप दी। और आज हम उसी को ढो रहे है। आज देश की सिर्फ 3 प्रतिशत आबादी ही भली-भान्ति अंग्रेजी बोल और लिख लेती है। केवल 10 प्रतिशत लोग ही इसे समझ सकते हैं। फिर भी यह हमारी सभी भारतीय भाषाओं व मातृभाषाओं पर हावी है। एैसे में ये सवाल खड़ा होने लगा है की आखिर ये कानून किसके लिए है।

आज हमारे देश में केवल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार के हाई कोर्टों में हिंदी के वैकल्पिक प्रयोग की इजाजत दी गई है। भारतीय भाशाओं में कोर्ट की कार्यवाही करने के लिए छत्तीसगढ़ ने 2002 में तमिलनाडू ने 2010 में और 2012 में गुजरात ने गुजराती में विकल्प की मांग केंद्र सरकार से की, लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। एैसे में सवाल सत्ता में बैठे उन हुक्मरानों से भी है की आखिर वे लोगों पर अग्रेजी को क्यों थोप रहे है !

अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते आज तक इन अदालतों में महज तीन फीसद लोगों का कब्जा है जो अंगेजी बोलते है। इससे संविधान में मिले आम आदमी के अधिकारों का भी एक तरह से उल्लंघन हो रहा है। साथ ही आम जन का न्याय चंद अग्रेजी लिखने पढ़ने वाले लोगों की मुट्ठी के अंदर बंद होकर रह गया है। इन कठीन समस्या का कारण संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड (1) के उपखंड (क) है, जिसमे कहा गया है की उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। जो पूरी तरह से अग्रेजी मानसिकता को दर्शाता है।

2001 में हुए जनगणना के अनुसार अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा मानने वाले लोगों की कुल जनसंख्या दो लाख छब्बीस हजार के आसपास है, जो तत्कालीन कुल जनसंख्या की 0.2 प्रतिशत के लगभग है। एैसे में यहा भी सवाल उठता है कि क्या इन्हीं 0.2 प्रतिशत लोगों को ध्यान में रख कर न्यायिक प्रक्रिया का यह भाषाई पैमाना तय किया गया है या इसके पीछे सरकार का कोई और तर्क भी है? जिस देश 99.98 प्रतिशत आबादी अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा के रूप में स्वीकार तक नहीं करती है उस देश की समूची उच्च न्यायिक प्रक्रिया में ना सिर्फ अंग्रेजी का अनिवार्य होना अपने आप में एक बेहद गंभिर सवाल खड़ा करता है।

1958 में 14वें लॉ कमीशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन एम.सी. सीतलवाड़ ने भारत की अदालतों का दौरा करने के बाद कहा था कि देश की सभी बारों के सदस्यों ने एक सुर से कार्यवाही भारतीय भाशाओं में करने का समर्थन किया था। मगर अब तक इसके उपर विचार नहीं किया गया। गांव-देहात से जुड़े आज सैकड़ों ऐसे वकील हैं, जिन्हें भारतीय भाशाओं में कानून की अच्छी समझ है, परंतु अंग्रेजी अनिवार्य होने के कारण वे अपने मुअक्किल को न्याय नहीं दिला पाते है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या अदालती कार्यवाही हमारी भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं ?

11 June 2013

क्या भाजपा बिना नीतीश को मिलेगा जनाधार ?

नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए भाजपा को अस्पष्ट शब्दों में यह तो बता दिया कि नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक नेता करार देते हुए बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने उन्हें अयोग्य साबित किया था जिसके बाद भाजपा और जेडीयू के बीच की खाई और अधिक बढ़ती नजर आ रही है भाजपा ने यह साफ कर दिया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी भाजपाई सदस्य को सांप्रदायिक कहता है तो वह सिर्फ उस व्यक्ति पर नहीं बल्कि पार्टी पर आक्षेप लगा रहा है और अगर जेडीयू ऐसा कर रहा है तो अगर जनता दल यूनाइटेड गठबंधन से खुद को अलग करना चाहती है तो हो जाए हम अपने 17 साल पुराने साथी को बेइज्जत कर नहीं कर सकते !

जाहिर है यह कहकर भाजपा ने जनता दल यूनाइटेड के गठंबधन से बाहर जाने के लिए रास्ते खोल दिए हैं, लेकिन यहां मसला यह नहीं है कि आखिर क्यों मात्र नरेंद्र मोदी को अपने साथ रखने के लिए भाजपा अन्य सहयोगी दलों से दूरियां बढ़ाती जा रही हैए बल्कि मसला यह है कि अगर जेडीयू खुद को राजग अर्थात भाजपा से अलग कर लेता है तो क्या नीतीश कुमार आगामी लोकसभा चुनावों में वही करिश्मा दिखा पाएंगे जो उन्होंने वर्ष 2009 में दिखाया था !
 
अगर नीतीश कुमार आगामी चुनावों में भाजपा के सहयोग के बिना चुनावी मैदान में उतरते हैं तो वे मतदाताओं को प्रभावित करने में किस सीमा सफल हो पाएंगे यह थोड़ा संदेहास्पद है! जिन महादलितों और अति पिछड़े वर्गों को हथियार बनाकर नीतीश ने अपने स्पेशल एजेंडे की शुरुआत की थी जातिगत स्थिति के आधर पर अगर उनका प्रतिशत देखा जाए तो वह बहुत कम है, जबकि लालू प्रसाद यादव जिस वोटबैंक के आधार पर चुनाव जीतते हैं वह है, अर्थात मुस्लिम.यादव वोटबैंक इसके विपरीत नीतीश कुमार की अपनी जाति कुर्मी का भी बिहार में प्रतिशत कुछ ज्यादा प्रभावित करने वाला नहीं है !

वहीं दूसरी ओर सवर्ण वोटर जो कि बिहार की राजनीति में हमेशा से ही प्रमुख भूमिका निभाता है उसका झुकाव भाजपा की तरफ रहा है और इस बार भी भाजपा की ही तरफ रहने की उम्मीद है संभावित तौर पर कहा जा सकता है कि बिहार के सवर्ण वोट भाजपा की ही झोली में जाकर गिरेंगे बिहार में जेडीयू.भाजपा गठबंधन की वजह से जो भी वोट इन दो दलों को पृथक.पृथक तौर पर मिलते थे उसका दोनों को ही फायदा मिलता था इसीलिए अगर यह गठबंधन टूटता है तो इसका नुकसान भी दोनों को ही उठाना पड़ेगा हालांकि भाजपा काफी विशाल और राष्ट्रीय पहचान वाली पार्टी है इसीलिए जाहिर तौर पर यह नुकसान जेडीयू को ज्यादा वहन करना पड़ सकता है !
 
नीतीश जिस आधार पर भाजपा के साथ अपने संबंध तोड़ना चाह रहे हैं वह सिर्फ धर्मनिरपेक्षता का ही एजेंडा है, इस एजेंडे के लिए उन्होंने निशाना भी सिर्फ नरेंद्र मोदी को ही बनाया है इसीलिए यह कहना सही होगा कि नरेंद्र मोदी की वजह से ही नीतीश भाजपा का दामन छोड़ने की धमकियां दे रहे हैं, उन्हें लग रहा है कि अगर मोदी को उम्मीदवार नहीं बनाया गया तो राजग गठबंधन में उन्हें स्वीकार कर जनता उन्हें ही वोट देगी जो साफतौर पर उनके अति.आत्मविश्वास को दर्शाता है नीतीश को शायद यह लगता है कि मोदी का विरोध करने से मुस्लिम वोटरों में उनकी छवि अच्छी बन जाएगी किंतु शायद वह भूल रहे हैं कि मुस्लिम वोटर तो कभी भी उनके साथ नहीं था और जब तक वह एनडीए के साथ हैं मुसलमानों को लुभाना उनके वश से बाहर की चीज हैण् नीतीश कुमार भाजपा के किसी अन्य वरिष्ठ सदस्य जैसे आडवाणी सुषमा आदि किसी को भी स्वीकार करने के लिए तैयार हैं जबकि उनका विरोध सिर्फ नरेंद्र मोदी को लेकर है! लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को निशाना बनाते.बनाते वह भाजपा की छवि के साथ छेड़छाड़ करने का भी दुस्साहस कर रहे हैं जिसका खामियाजा उन्हें कभी भी भुगतना पड़ सकता है !
 
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चुनावों में भले ही कितने ही राजनीतिक दल अपनी किस्मत आजमाने मैदान में उतरते हैं लेकिन युद्ध हमेशा देश की दो बड़ी और प्रमुख पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता है! हालांकि अब किसी एक दल की सरकार बनना असंभव सा ही प्रतीत होता है लेकिन जीत दर्ज करने के बावजूद देखा यही जाता है कि हर क्षेत्रीय और छोटे दल को खुद को इन दो पार्टियों के साथ हाथ मिलाना ही पड़ता है! एक समुद्र की भांति यह दो दल अपनी पहचान बनाए हुए हैं जिनमें छोटी.छोटी नदियां अर्थात दलों जिनकी अपनी व्यक्तिगत छवि मजबूत नहीं होतीए को चाहे.ना.चाहे इस समुद्र में आकर मिलना ही पड़ता है! इससे समुद्र को तो ना किसी प्रकार का नुकसान होता है और ना ही फायदा लेकिन सत्ता में शामिल होने के लिए उन छोटे दलों को कुछ समझौतों और कुछ मतभेदों के बावजूद गठबंधंन करना ही पड़ता है और वैसे भी इस बार बात विधानसभा चुनावों की नहीं है जो किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित होकर रह जाए बल्कि इस बार परीक्षा राष्ट्रीय स्तर की है, इसीलिए ऐसे मौके पर खुद को एक राष्ट्रीय पार्टी से अलग करना कहीं जेडीयू के लिए नुकसानदेह न साबित हो जाए !

क्या भाजपा में खत्म हो चुकी है अडवाणी युग !

भाजपा की नींव उसका आधार कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की राजनैतिक अस्मिता पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह द्वारा नरेंद्र मोदी को वर्ष 2014 के लिए चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष घोषित करने पर ऐसा लगने लगा है कि पार्टी के भीतर ही नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच विरोधाभास की आग को हवा मिलने लगी है। इसका स्पष्ट उदाहरण हाल ही में गोवा सम्मेलन में लालकृष्ण आडवाणी के ही उपस्थित ना होने से मिलता है। बहुत से लोगों का तो यह भी कहना है कि सम्मेलन से संबंधित कट.आउट्स में भी पहले लालकृष्ण आडवाणी को शामिल नहीं किया गया था। इस बीच यह चर्चा तेज हो गई है कि पार्टी के भीतर ही नरेंद्र मोदी बनाम लालकृष्ण आडवाणी जैसा माहौल विकसित हो गया है जो उन्हें अपने प्रतिद्वंदी गठबंधनए यूपीए के सामने घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देगा क्योंकि भाजपा अंदर ही अंदर नेतृत्व को लेकर प्रतिस्पर्धा से गुजर रही है जबकि कांग्रेस और यूपीए में राहुल गांधी के नेतृत्व को पूर्णत: स्वीकार कर लिया गया है। 

बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जहां आडवाणी के प्रति पार्टी में हो रहे ऐसे रवैये को पार्टी द्वारा उनके बहिष्कार के रूप में देख रहा है वहीं अन्य इसे नरेंद्र मोदी को पार्टी की ओर से मिशन 2014 के लिए चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी कह रहे हैं। ऐसे में यह बहस तेज हो गई है कि क्या वाकई लालकृष्ण आडवाणी को मिलने वाली प्रमुखता में अब कमी आने लगी है और पार्टी के भीतर ही दो गुट एक.दूसरे से लड़ने के लिए तैयार हैं बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जो यह साफ कहता है कि भाजपा के भीतर चलने वाली तकरार जो अभी तक सिर्फ पर्दे के पीछे का खेल थीए अब खुलकर सामने आने लगी है। पहले बस इसे एक अफवाह माना जाता था लेकिन अब यह हकीकत सभी के सामने है कि भाजपा में दो गुट विभाजित हैं जिनमें से एक गुट नरेंद्र मोदी के पक्ष में खड़ा है तो दूसरा लालकृष्ण आडवाणी को अपना समर्थन दे रहा है। 

इस वर्ग में शामिल बुद्धिजीवियों का यह मानना है कि पार्टी के ऐसे नकारात्मक अंदरूनी हालातों को अगर जल्द से जल्द सुलझाया नहीं गया तो इसमें कोई दो राय नहीं कि इन्हीं की वजह से चुनावों में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ेगा। एक सच यह भी है कि भले ही आज नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष का दर्जा दिया जा रहा हो लेकिन पार्टी के भीतर उनकी स्वीकार्यता पर आज भी एक प्रश्नचिह्न ही लगा है। ऐसे में लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी के बीच जो समस्याएं उत्पन्न हुई हैं उन्हें जल्द से जल्द सुलझा लिया जाना चाहिए नहीं तो इसी अंतर्कलह की वजह से बिना कुछ खास मेहनत किए ही चुनावी नतीजे यूपीए के हक में चले जाएंगे और भाजपा के पास हाथ मलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा।


वहीं दूसरी ओर बुद्धिजीवियों का दूसरा वर्ग इस बात पर सहमति नहीं रखता कि भाजपा के अंदर लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी को लेकर दो खेमे बंटे हुए हैं क्योंकि इनका मानना है कि पार्टी के भीतरी हालात नरेंद्र मोदी के पक्ष में हैं। इस वर्ग में शामिल लोगों का कहना है कि लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के वरिष्ठ और सम्माननीय नेता हैं लेकिन अब समय नरेंद्र मोदी का है और जनता उनसे यह अपेक्षा रखती है कि जिस तरह उन्होंने गुजरात को एक वर्ल्ड क्लास मॉडल बनाया है वैसे ही वह पूरे भारत की कमान संभालेंगे।

09 June 2013

महाराणा प्रताप की वीर गाथा- महाराणा प्रताप जयंती विशेष

9 मई 1540 को राजस्थान के कुम्भलगढ में महाराणा उदयसिंह व राणी जीवत कंवर के घर में जन्में महाराणा प्रताप बचपन से ही बुद्विमान, ज्ञानवान व वीर थे। उन्हें मेवाड-मुकुट मणि के नाम से भी पुकारा जाता था। धर्म और स्वाधीनता के लिए उन्होंने ज्योतिर्मय बलिदान किया। वह विषव में सदा परतंत्रता और अधर्म के विरूद् संग्राम करने वाले मानधनी, गौरवषील लोगों के लिए मशाल सिद्व हुए। उस युग में भी उन्होंने सच्ची राश्ट्रीयता को कायम किया। धर्म के संबंध में भी अपने दीन ए इलाही के द्वारा हिन्दू धर्म की श्रद्वा को बरकरार रखा। हिंदुत्व और उसी उज्जवल ध्वजा को गर्वपूर्वक उठाने वाला एक ही अमर सेनानी महाराणा प्रताप थे। महाराणा प्रताप का नाम आते ही हल्दीघाटी के युद्व की यादें ताजा हो जाती है। राजपूताने की पावन भूमि के बराबर विष्व में इतना पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं। 

हल्दीघाटी का युद्व अरावली की घाटियों में मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह और दिल्ली के सम्राट अकबर की शाही सेना के बीच 18 जून 1576 को हुथा था। अकबर ने मेवाड पर आक्रमण कर चित्तौड को घेर लिया था। महाराणा प्रताप ने साहस और वीरता के साथ युद्व लडा।युद्व के दौरान भीलों का अपने देश और नरेश के लिए वह अमर बलिदान राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा की पराक्रम इतिहास में अंकित है। मेवाड के पवित्र रक्त ने हल्दीघाटी का कण कण लाल कर दिया। उस शौर्य एवं तेज की भव्य गाथा से इतिहास रंगा हुआ। महाराणा प्रताप युद्व के बाद चित्तौड छोडकर बनवासी हो गए। जन्मभूमि की रक्षा के लिए भोग विलास को त्याग दिया और पूरा परिवार घास की रोटियां, पर्वतीय कंदमूल फल पर ही जीवन व्यतीत करने लगा। अपने 24 वर्शों के षासन काल में उन्होंने मेवाड की केसरिया पताका सदा उॅची रखी।

महाराणा प्रताप के जीवन काल में अगर वफादारी की बात करें तो पराक्रमी चेतक के जिक्र को छोडा नहीं जा सकता। महाराणा का सबसे प्रिय घोडा चेतक था। आज भी चेतक वफादारी का प्रतीक है। 29 जनवरी 1597 को महानायक, कुशल प्रशासन व वीरता के इस परिचायक को मौत ने अपने आगोश में ले लिया। लेकिन जाते जाते भी वह अपने राज्य की सुरक्षा के विशय में ही चिंतित नजर आए। इतिहास में लिखे तथ्यों के अनुसार। एक साधारण कुटी में लेटे हुए प्रताप ने अपने विष्वासपात्रों  से उनके जीवित रहने तक राज्य को तुर्को से बचाने का बचना लिया। विष्वासपात्रों ने जब उनको मातृभूमि की रक्षा देने का वचन दिया। यह सुनकर ही उन्होंने प्राण त्याग दिए।

इस प्रकार एक ऐसे राजपूत के जीवन का अंत हो गया। जिसकी स्मृति आज भी प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरित करती है। इस संसार में जितने दिनों तक वीरता का आदर रहेगा। हमेषा महाराणा प्रताप को याद किया जाएगा।

क्या हम हमाराणा प्रताप को भूल गए है ?

                      महाराणा प्रताप इस भारत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
                      महाराणा प्रताप आजादी का, अपराजित काल विधायक है।।


भारतभूमि सदैव से ही महापुरुषों और वीरों की भूमि रही है। यहां ताकत और साहस के परिचायक महाराणा प्रताप, झांसी की रानी, भगतसिंह जैसे लोगों ने भी जन्म लिया है। यह धरती हमेशा से ही अपने वीर सपूतों पर गर्व करती रही है। ऐसे ही एक वीर सपूत थे महाराणा प्रताप। महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास में वीरता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के जीता जागता उदाहरण हैं। इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये हमेशा ही महाराणा प्रताप का नाम सबसे उपर रहा है। मगर आज हम ऐसे विरयोध्दा को भूलते जा रहे है। दिल्ली में सम्राट अकबर का राज्य था जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर मुगल साम्राज्य का ध्वज फहराना चाहता था। मगर महाराणा प्रताप जैसे कर्मठ योध्दा की ललकार से अकबर के किला की दिवारें हील उठती थी।

 मेवाड़ की भूमि को मुगल आधिपत्य से बचाने हेतु महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, मैं महलों को छोड़ जंगलों में निवास करूंगा। किन्तु अकबर का अधिपत्य कभी स्वीकार नहीं करूंगा। अभूतपूर्व वीरता और मेवाड़ी साहस के चलते मुगल सेना के दांत महाराणा प्रताप ने खट्टे कर दिए और सैकड़ों अकबर के सैनिकों को मौत के घाट उतार दिए। बालक प्रताप जितने वीर थे उतने ही पितृ भक्त भी थे उनकी मां भी उस विर को हमेषा युध्द के लिए तैयार रखती थी।

इस देश में एक समय ऐसा भी आया जब भारतीय सत्ता दो भागो में बट गयी इस्लामिक सत्ता जो अकबर के हाथ में थी दूसरी हिन्दू सत्ता जो महाराणा प्रताप द्वारा नियंत्रित थी, मगर इसी वंश के पूवर्जो ने एक लाख की सेना संगठित कर ईरान से लेकर अफगानिस्तान तक जीत का भगवा झंडा फहराया जिसका केंद्र मेवाड़ था। इसी मेंवाड़ की धरती पर महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी राजपुरुष पैदा हुए जिन्होंने इस्लामिक सत्ता को हमेशा चुनौती ही नहीं दी, बल्कि मेवाड़ को भारतीय हिन्दू सत्ता का केंद्र बनाऐ रखा। सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके महाराणा प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया उसकी प्रशंसा इस संसार से कभी मिट न सकेगी। मगर आज हम अपने आदर्श पुरुषों को स्मरण तक नही कर पाते है। महाराणा प्रताप व छत्रपति शिवाजी जैसे वीरों के नाम हमारे सामने आते है। मगर हमे उन्हे याद करने के लिए समय नहीं है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या हम हमाराणा प्रताप को भूल गए है?


                             राणा प्रताप की कर्मशक्ति, गंगा का पावन नीर हुई।
                            राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर हुई।।

08 June 2013

नरेद्र मोदी का विरोध आखिर क्यों ?

मोदी ही हमारे प्रधान मंत्री पद के लिए नेता है, इस बात को कहने में आखिर बीजेपी क्यों हिचक क्यों रही है। ये सवाल आज हर वो पार्टी कैडर पुछ रहा है। अब बीजेपी के पास ऐसा कोई मौका भी नहीं गया है, ताकी वह कह सके की मोदी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नहीं होंगे। दरअसल बीजेपी में मोदी का कोई विरोध नहीं है। ये आने वाले दिनों में और साफ हो जाएगा और कुछ हद तक हो भी चुका है। जिस प्रकार से मोदी को प्रधान मंत्री पद की उमीदवार बनाने के लिए पीम पीम की नारों की गुंज हर ओर आज सुनाई दे रही है उससे लगता है की मोदी ही बीजेपी हैं और बीजेपी मोदी। तो यहा सवाल खड़ा होता है की एैसे में फिर नरेन्द्र मोदी का विरोध क्यों? मोदी आज की तारीख में देश के सबसे चर्चित व्यक्ति हैं। ये भी किसी से छुपा नहीं है। मोदी के मॉडल में नया मध्यमवर्ग है, शहरी मतदाता है, और चकाचैंध भी है। साथ ही मोदी के मॉडल हिंदुस्तान की आत्मा के कहीं अधिक करीब दिखती है। 

वही अगर नरेन्द्र मोदी की धुर विरोधी नीतीश कुमार की बात करे तो नीतीश बिहार से आते हैं और उनका वोट बैक अल्पसंख्यक वर्ग है, जो कभी लालू यादव के जिताउ सर्मथकों में से था। एैसे में अपनी जमीन बचाने के लिए नीतीश कुमार कांग्रेस का हाथ थाम सकते है। मगर यहां कांग्रेस का वजूद लगभग खत्म है। नीतीश को समर्थन देने पर कांग्रेस सैकुलरवाद के साथ-साथ विकास को प्राथमिकता देने का नाटक भी कर सकती है। हालांकि तीसरे मोर्चे की नौबत आने पर नीतीश को मुलायम सिंह यादव से चुनौती मिलेगी। एैसे में मोदी का ये विरोध नीतीश कुमार के आने वाले दिनों में और मुषीबते बढ़ा सकती है। वही एनडीए की घटक दल शिवसेना मराठी हिंदू वोटरों की राजनीति करती रही है। मुंबई और पूरे महाराष्ट्र में शिवसेना खुद को हिंदुत्व की सबसे बड़ी पैरोकार के तौर पर पेश करती रही है। ऐसे में छवियों का टकराव शिवेसना और मोदी के बीच तल्खी की एक वजह बताया जा रहा है।


मोदी की अगुवाई में अगर बीजेपी 180 के आंकडे तक भी पहुंचती है तो नये सहयोगी साथ आ खडे हो सकते है। और मोदी को लेकर फिलहाल राजनाथ गोवा अधिवेशन में इसी बिसात को बिछाना चाहते है जिससे संकेत यही जाये कि मोदी के विरोधी राजनीतिक दलो की अपनी मजबूरी चुनाव लडने के लिये हो सकती है लेकिन चुनाव के बाद अगर बीजेपी सत्ता तक पहुंचने की स्तिति में आती है तो सभी बीजेपी के साथ खड़े होगें ही। साथ ही मोदी बेहद दृढ संकल्प व्यक्ति है और जिस चीज को ठान लेते है उसे पूरा करके ही दम लेते है। यही सब कारण है की मोदी हिंदुत्व अस्मिता के पहचान बन चुके है और मोदी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में लोग देख रहे है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की फिर नरेद्र मोदी का विरोध आखिर क्यों ?

आपसे सीखा है दर्द में भी मुस्कुराना- “फादर्स डे” स्पेसल !

मातृ देवो भवः पितृ देवो भवः ये वही वाक्य है जो माता पिता को देव यानी की भगवान होने का दर्जा प्रदान करता है। परंतु अब इन वाक्यों का अभिप्राय हमारे युवा पीढ़ी से कोसों दूर हो गई है। आज की युवा पीढ़ी अपने माता-पिता को पुरानी पीढ़ी कह कर नकारने लगी है। मगर किसी भी बच्चे के जीवन में उसके माता पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता। आपके पहले दोस्त पहले अध्यापक और एकमात्र सच्चे संरक्षक सिर्फ और सिर्फ माता पिता ही होते हैं। क्योंकि वह ना सिर्फ आपसे प्यार करते हैं बल्कि एक वट वृक्ष की भांति आपको और आपके पूरे परिवार को अपनी छाया में रखकर संरक्षण भी प्रदान करते हैं। आप भले ही अनदेखा कर दें लेकिन सच यही है कि आज भी वह आपकी हर छोटी छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी बड़ी बड़ी जरूरतें दरकिनार कर देते हैं। मगर आज के हमारे युवा पीढ़ी जब खुद को अपने पैर पर खड़े हो जाते है तो उन्हें अपने आप से अलग कर देते है। फिर भी पिता के मन में अपने लाडले के लिए प्यार में कोई कमी नहीं आती है।

वैसे तो किसी भी संतान के लिए अपने पिता के अनमोल ऋण को चुका पाना संभव नहीं है, लेकिन अगर फिर भी आप उनके लिए कुछ करना चाहते हैं तो आपके जीवन में शामिल सबसे महत्वपूर्ण शख्स को समर्पित दिन फादर्स डे पर आपकी बारी है कि आप उनके प्यार दुलार और उनसे जुड़ी अपनी भावनाओं को उन तक पहुंचाएं, कुछ पल उनके साथ बिताए और उनके जरूरत और सपनों को पूरा करें। यही उनके लिए सच्ची सेवा होगी। आज जब हम उनके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलना चाहते, तब बचपन के उन पलों को हमें याद करना चाहिए जब हमें अपने हाथों का सहारा देकर चलना सिखाया।

आज की युवा पीढ़ी बाहरी दिखावटों, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर अपने आदर्शों और संस्कारों को खोती चली जा रही है। जिससे समाज में पितृत्व धर्म आज संकट में पड़ गई है। आज बुजुर्ग माता पिता की जिंदगी घर के एक कोने में बेबस सी होकर रह गयी है। कुछ युवा आज एैसे भी है जो अपने माँ बाप को घर में रखना ही पसंद नहीं करते हैं। एैसे इन बेषाहारा मां बाप को बृद्ध आश्रम में जिंदगी के आखिरी पल काटने को मजबूर होना पड़ रहा हैं। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या आज की युवा पीढ़ी पितृत्व धर्म को भूल गई है।

                    पिता एक जीवन को जीवन का दान है, पिता दुनिया दिखाने का अहसान है,
              पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो, पिता का अपमान नहीं उन पर अभिमान करो।

03 June 2013

क्या भारतीय सिनेमा समलैंगिकता को बढ़ावा दे रहा है ?

हाल ही में बंगाली और हिंदी फिल्मों के प्रख्यात निर्देशक ऋतुपर्णो घोष का निधन हो गया। ऋतुपर्णो घोष खुद समलैंगिक थे और इसी विषय पर उन्होंने कई फिल्मों का भी निर्देशन कर समलैंगिकों के अधिकारों जैसा मुद्दा उठाया। एक ओर तो परंपरागत भारतीय समाज कभी समलैंगिकता को अपने भीतर शामिल नहीं होने दे सकता लेकिन आधुनिक मानसिकता से ग्रस्त वर्तमान विचारधारा समलैंगिकता के पक्ष में जाती दिखाई दे रही है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि आम जनता से अगर कोई खुद को समलैंगिक घोषित कर अपने अधिकारों की मांग करता है तो उसे घृणित नजरों से देखा जाता है लेकिन वहीं अगर कोई प्रख्यात सिलेब्रिटी पुरुष होने के बावजूद महिलाओं के परिधानए उनकी वेश.भूषा पहनकर सामने आता है तो उसे रोल मॉडल मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। 12 राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके ऋतुपर्णो घोष का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही था जिसे ना सिर्फ काफी सराहा गया बल्कि उन्हें एक आदर्श की भांति मीडिया और बॉलिवुड के गलियारों में प्रवेश भी दिया गया।


बॉलिवुड हमेशा से ही भारतीयों जन सामान्य को आकर्षित और प्रेरित करता रहा है। हालत यह है कि सिनेमा के पर्दे पर दिखाई गई चीजों और सिलेब्रिटियों की जीवनशैली में खुद को ढालने के लिए हर वर्ग का भारतीय उत्सुक रहता है। ऐसे में ऋतुपर्णो घोष जैसे सिलेब्स को मुख्य धारा में ना सिर्फ जोड़ना बल्कि उन्हें आदर्श बनाकर पेश करना एक बहुत बड़ी बहस का विषय बन गया है कि क्या बॉलिवुड ही समाज में समलैंगिकता को बढ़ावा दे रहा हैघ् क्या एक समलैंगिक व्यक्ति को आदर्श की भांति दिखाकर सिनेमा समलैंगिकता पर ढकी परत को हटाने का प्रयास कर रहा है!

बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जो इस बात पर सहमति रखता है कि बॉलिवुड ही आम जन मानस को प्रभावित कर समलैंगिकता के पक्ष में खड़ा हैए का कहना है कि बॉलिवुड की चहल.पहल आम जनता को प्रभावित करती है। खुले तौर पर सिलेब्रिटीज का खुद को समलैंगिक स्वीकारना और इसके बाद एक रोल मॉडलए आत्मविश्वासी और स्वतंत्र व्यक्तित्व की तरह मीडिया द्वारा उन्हें लाइम लाइट में खड़ा कर देना समलैंगिकता को सीधे.सीधे बढ़ावा दे रहा है। भारतीय परिदृश्य में पूर्णत: घृणित मानी जाने वाली ऐसी हरकतों को शह देकर सिनेमा समाज को गर्त की खाई में ढकेलने का काम कर रहा है। सिनेमा से ताल्लुक रखने वाले समलैंगिक व्यक्ति की छवि एक रोल मॉडल की तरह बनाने से दो बड़े नकारात्मक प्रभावों का सामना करना पड़ता है एक तो वे लोग जो खुद को समलैंगिक मानते हैंए जो अभी तक पर्दे के पीछे ही रहते थे वे खुलकर सामने आकर अपने अधिकारों की मांग करने लगेंगे वहीं दूसरी ओर ऐसे लोगों को देखकर वो लोग जो समलैंगिक हैं भी नहीं उनके स्वभाव और सेक्सुअल प्राथमिकताओं में अंतर आने लगेगा। सिनेमा समाज का आइना होता हैए सच के नाम पर जो दिखाया जाता है वह किस तरह जन मानस को प्रभावित करता है इस बात को भी समझना चाहिए।


वहीं दूसरी ओर उदार मानसिकता वाले बुद्धिजीवियोंए जो ना तो समलैंगिकता के विरोधी हैं और ना ही समलैंगिक व्यक्ति को सिलेब्रिटी की तरह दर्शाने में ही उन्हें किसी तरह की परेशानी नजर आती है का मत है कि यौनेच्छा प्रत्येक व्यक्ति का बेहद निजी मामला है। समलैंगिक व्यक्ति भी एक इंसान है और उसे इंसान होने के नाते सभी अधिकार उसी तरह मिलने चाहिए जो अन्य किसी को भी मिलते हैं। वह चाहे कोई सिलेब्रिटी हो या फिर आम व्यक्तिए अगर वह कुछ अच्छा कर रहे हैं या उनके कामों से किसी को प्रेरणा मिल रही है तो उन्हें आदर्श बयां करने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती हैघ् इतना ही नहीं इस वर्ग में शामिल लोगों का यह भी कहना है कि अगर भारतीय सिनेमा द्वारा समलैंगिक अधिकारों की पैरवी की भी जा रही है तो इसमें बुराई क्या है यह अधिकार की मांग है और हक तो मिलना ही चाहिए। ऐसे लोगों का मानना है कि समलैंगिकता हमेशा से ही समाज का हिस्सा रही है और इसके प्रचार में बॉलिवुड का सिनेमा को दोष देना बेहद बचकाना सा लगता है।

01 June 2013

क्या सट्टेबाजी को बैध करना सही है ?

अगर खेल मंत्रालय की मंशा पूरी हुई तो जल्दी ही देश में सट्टेबाजी वैध हो जाएगी। मंत्रालय का मानना है कि मैच फिक्सिंग या स्पॉट फिक्सिंग जैसी गतिविधियों को रोकने के लिए ये सबसे अच्छा तरीका है। ऐसा करने से 30 खरब रुपये का कारोबार सरकारी नियंत्रण में आ जाएगा। मंत्रालय के अनुसार, घुड़दौड़ की तरह कई अन्य खेलों में भी सट्टेबाजी को मंजूरी दी जा सकती है। फिक्की के एक ताजा अध्ययन के मुताबिक सरकार सट्टेबाजी से सालाना 20 हजार करोड़ रुपये तक की कमाई कर सकती है। कानून मंत्रालय ने मैच फिक्सिंग जैसी गतिविधियां रोकने के लिए प्रस्तावित नए कानून का एक मसौदा तैयार किया है। तो वही दुसरी ओर केंद्रीय नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री फारुख अब्दुल्ला ने भी सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि क्रिकेट में सट्टेबाजी को वैध बना दिया जाना चाहिए। ऐसे में ये प्रश्न उभरकर सामने आता है कि “क्या क्रिकेट में सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता दिया जाना सही होगा?


मगर कुछ समय पूर्व सट्टेबाजों का एक और गोरखधंधा था “लॉटरी” लोग झट से पैसा कमाने की चाह में कई-कई हजार रुपये की लॉटरी खरीदते थे। कुछ अमीर भी बनते थे लेकिन ज्यादातर के हाथों ठेंगा लगता था। कई राज्य की सरकारों ने इसे कुछ मानकों के अनुरूप कानूनी मान्यता दी मगर जब ये धंधा गैरकानूनी कार्य बन गया तो आखिर में सरकार को इसे बंद करना पड़ा। क्या अब केन्द्र सरकार उसी को एक बार फिर से अब क्रिकेट में दोहराना चाहती है। सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता देने से कुछ ऐसे समूह सामने आ सकते हैं जो कानून की आड़ में गैरकानूनी कार्य करेंगें, तो क्या सरकार पैसे के लिए गैरकानूनी कार्य को बढ़ावा देना चाहती है।

आज देश में सिर्फ क्रिकेट ही नहीं सट्टेबाजों के हवाले शेयर बाजार, से लेकर बालीवुड और देशी-विदेशी पूंजीपतीयों के पक्ष में अर्थनीति ‘फिक्स’ की जा रही है। यहा तक कि कारपोरेट समूह के पक्ष में नीतियां ‘फिक्स’ की जा रही हैं। साथ ही कोर्ट के फैसले भी ‘फिक्स’ करवाने के दावे किये जा रहे हैं। तो सवाल एक बार फिर से यहा खड़ा होता है कि क्या सरकार आने वाले समय में इसे भी कानूनी मान्यता देगी? लाबीइंग के इस दौर में मंत्रिमंडल से लेकर नौकरशाही तक में अपने अनुकूल नेताओं और अफसरों को ‘फिक्स’ करवाया जा रहा। याद कीजिए, नीरा राडिया टेप्स को जिसमें नेता, उद्योगपति, अफसर और संपादक किस तरह, मंत्री से लेकर कोर्ट और नीतिगत फैसले तक को अपने मुताबिक ‘फिक्स’ करवाते सुनाई दे रहे है। साथ ही खुद केन्द्र सरकार भी फिक्सींग की आंच से अपने आप को दुर नहीं रख पाई और कोयला खदानों से लेकर हाईवे और एयरपोर्ट के ठेकों के आवंटन को भी उन्होने फिक्स कर डाला।

पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था ही कैसिनो अर्थतंत्र में बदल दी गई है जहाँ पैसे से पैसा बनानेवाले सट्टेबाज ही नीतियां और फैसले तय कर रहे है, और सरकार के लिए आज के दौर में लाबीइंग और फिक्सिंग अपवाद नहीं रह गए हैं, बल्कि नियम बन गए हैं। आज आई.पी.एल कालेधन को खपाने और सट्टेबाजी के एक संगठित अंडरवर्ल्ड को एक लोकप्रिय प्लेटफार्म उपलब्ध कराने के इसे कानूनी मान्यता दिलाने के लिए लाबीइंग हो रही है। और यही प्लेटफार्म आने वाले समय में आतंकवाद के लिए आगे का रास्ता और सरल करेगा। जहा देश सट्टेबाजों के चंगुल में होगा और सरकार सटोरियों की पैरोकार बन कर रह जाएगी। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की सट्टेबाजी को बैध करना सही है ?