31 October 2013

सरदार के कितने दावेदार ?

सरदार सरोवर में लौहपुरुष की प्रतिमा बनाने के लिए देश भर से लोहा मांगा जा चुका है। लेकिन लोहा भले ही देश का हो, बनानेवाले कारीगर हाथ देशी नहीं बल्कि विदेशी होंगे। दुनिया की सबसे ऊंची सरदार की प्रतिमा तैयार करने जा रही गुजरात सरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी भले ही देश के पांच लाख परिवारों से थोड़ा थोड़ा लोहा ले रहे हों लेकिन जब बात निर्माण की आती है तो नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार को देश में कोई ऐसा कारीगर नजर नहीं आता जो सरदार की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाने का गौरव हासिल कर सके। इसलिए ढाई हजार करोड़ के इस संभावित व्यापार के लिए विदेशी कंपनियों को न्यौता भेज दिया गया है और अब तक थीम एण्ड एम्युजमेन्ट पार्क बनाने वाली दस कंपनियां गुजरात सरकार के पास हाजिरी लगा चुकी हैं। 

तो क्या स्टैचू आफ यूनिटी देश के सम्मान के साथ साथ विदेशी कंपनियों के लिए 2500 करोड़ का कारोबार भी है? और विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए मोदी सरकार सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची मूर्ति बनाएंगे? यह सवाल इसलिए क्योंकि गुजरात सरकार भी मान रही है कि देश गुजरात में सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के लिए ना मनी है, ना मैन पावर है और ना मशीनरी? वह शायद इसलिए क्योंकि सरदार सरोवर पर सिर्फ सरदार की सबसे ऊंची प्रतिमा ही नहीं लगाई जा रही है बल्कि सरदार की प्रतिमा के साथ साथ करीब आधा दर्जन एंटरटेनमेन्ट की परियोजनाएं भी लाई जा रही हैं जिसमें अंडरवाटर सी पार्क के अलावा लेजर एण्ड लाइट शो भी शामिल हैं। जाहिर है यह सब काम करनेवाली भारत में कोई थीम पार्क या एन्टरटेनमेन्ट कंपनी नहीं है जो योग्यता से इस महत्वाकांक्षी एन्टरटेनमेन्ट परियोजना को पूरा कर सके लिहाजा इस परियोजना में 10 विदेशी कंपनियों ने अपनी दिलचस्पी दिखाई है जो कि थीम पार्क और एन्टरटेनमेन्ट सेक्टर की दिग्गज कंपनियां है? सवाल यह है कि अगर नरेन्द्र मोदी सरकार सरदार सरोवर बांध पर एक थीम पार्क और एन्टरटेनमेन्ट सिटी बसाने जा रहे हैं तो फिर इसे सरदार की सबसे ऊंची प्रतिमा का राष्ट्रीय गौरव बताकर क्यों प्रचारित किया जा रहा है?

मोदी और उनकी सरकार को इस काम में महारत हासिल है। वे व्यवसाय के किसी सौदे को राष्ट्रवाद से जोड़ने की जुगत जानते हैं। गुजरात में मोदी ने वैसे भी कांग्रेस से महात्मा गांधी को छीनकर महात्मा गांधी के नाम से भव्य महात्मा मंदिर बना दिया है. महात्मा मंदिर के लिए भी राज्य से 1 मई 2010 को 18,000 गांव के सरपंचों ने मिट्टी के कलश में मिट्टी और पानी लाकर महात्मा मंदिर के लिए कार सेवा की थी, इस मंदिर के लिए मोदी ने सरेआम पर्यावरण का उल्लघंन कर 40,000 पेड़ कटवाकर और 700 से अधिक श्रमिकों को स्थातंरित कर नौ महीने में इस महात्मा मंदिर को तैयार किया गया था आज इस मंदिर में ना केवल अपनी ब्राडिंग और मार्केटिंग करते हैं बल्कि विदेशी मेहमानों से भी अपना गुणगान करवाते हैं लगता है अब रही सही कसर वे सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा बनवाकर पूरी करेंगे? क्योंकि सरदार के नाम से बने सरदार सरोवर बांध की नींव देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने रखी थी, वहां केवल विशाल प्रतिमा ही नहीं बनेगी बल्कि विशाल ऑडिटोरियम भी बनाए जाएंगे, सबसे प्रमुख बात यह है अगर महात्मा मंदिर की इस प्रतिमा से तुलना की जाए तो 60 हजार वर्गमीटर में बना यह भव्य महात्मा मंदिर 300 करोड़ की लागत से बनाया गया है जहां विशाल ऑडिटोरियम के अलावा कंवेंशन हॉल भी होंगे, ऐसे में सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिरकार सरदार पटेल की प्रतिमा के लिए 2500 करोड़ का निवेश क्यो? 

इससे पहले भी मोदी ने 2007 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मतदाताओं को रिझाने के लिए ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ का मुद्दा खेला था, प्रेस सम्मेलन में 1000 करोड़ में 182 मीटर प्रतिमा के निर्माण का दावा किया था इतना ही नहीं इस सम्मेलन में उन्होंने प्रतिमा के दर्शन के लिए अहमदाबाद से सरदार सरोवर तक बुलेट ट्रेन चलाने का दावा भी जोर-शोर से किया था, लेकिन घोषणा के पांच साल तक इस मुद्दे को दरकिनार कर दिया गया, अब 2014 में जब मोदी को ‘प्रचार केम्पेन कमेटी’ का अध्यक्ष बनाया गया है, इसीलिए प्रचार युद्ध की रणनीति की शुरुआत करने से पहले ही मोदी ने सरदार पटेल की प्रतिमा निर्माण का राग आलाप दिया है, लेकिन इस घोषणा में सरदार पटेल की प्रतिमा बनाने का जोर-शोर से दावा तो है लेकिन इस दावे में बुलेट ट्रेन चलाने का वादा नदारद है. इतना ही नहीं मोदी जो भी कुछ करना चाहते हैं उसका श्रेय खुद लेना चाह्ते हैं गुजरात के आणंद जिले के दंतौली आश्रम के महाराज संच्चिदानंद कहते हैं कि सरदार सरोवर नर्मदा नहर में उन्होंने सरदार पटेल की विशाल मूर्ति लगाने की घोषणा से पहले वे मोदी से मिले थे और उन्हें सरदार पटेल की मूर्ति के निर्माण की पेशकश कर उन्हें बताया था कि इस प्रतिमा के लिए तो लोग खर्च करने को भी तैयार है.

सरकार को नर्मदा नहर से 3.2 कि. मी पर प्रतिमा की स्थापना करनी है उसे साधु बेट सरकारी  नाम दिया है, लेकिन वास्तव में यह आदिवासियों का धर्म स्थान है और आदिवासी इस क्षेत्र को ‘वर्ता वावा’ कहते हैं, इसीलिए आदिवासियों ने विरोध करना शुरु कर दिया है. आदिवासी समुदाय के वरिष्ठ दिनेश तवड़ी का कहना है ‘वर्ता वावा’ आदिवासी समाज का धर्मस्थान है, वे कहते हैं कि  आदिवासियों की ऐसी मान्यता है कि यहां आकर उनकी मुरादें भी पूरी होती है.’’ दूसरी प्रमुख बात यह है 1962 में जब यह सरदार सरोवर बांध बना उस समय म.प्र, राजस्थान, महाराष्ट्र समेत कई गांवों की जमीन सरदार सरोवर बांध से प्रभावित हुई, इसे लेकर कई आंदोलन भी हुए, कुछ गांवों को मुआवजा भी दिया गया लेकिन आज भी नर्मदा से प्रभावित छ्ह गांव केवड़िया, कोठी, वाघड़िया, गोरा, नवागाम और लिमड़ी गांव के निवासियों के पुनर्वसन के लिए कांग्रेस की सरकार से लेकर मोदी सरकार ने सरदार सरोवर बांध के विकास के नाम पर इन गांववालों की काफी उपेक्षा की. पिछले 50 सालों से वे मुआवजे के लिए जूझ रहें हैं. लिंबड़ी के भूतपूर्व सरपंच उनाभाई तड़वी का कहना है कि हमलोग विकास के विरोध में नहीं है लेकिन सरकार को हम लोगों का पुनर्वसन करने की दिशा में हमारा ध्यान देना चाहिए. स्थानीय निवासियों में इस बात को लेकर काफी आक्रोश है. दिनेश भाई कहते हैं कि जिनकी 75 प्रतिशत जमीन पानी में डूब गई है उन्हें तो मुआवजा मिला लेकिन जिनकी 50 या 20 प्रतिशत जमीन पानी में गई उनका क्या?

कहने को यह सरदार सरोवर परियोजना एक बहुत बड़ी योजना है लेकिन इस परियोजना के पास सबसे पहला भूमलिया गांव आता हैं वहां उन लोगों को ही पानी नहीं मिलता है. पहले ये लोग नहर से जाकर पानी लेते थे लेकिन जब से सिंचाई कानून विधेयक 2013 सरकार ने पारित किया है तब से इन लोगों का पानी लेना भी दुश्वार हो गया है क्योंकि इस सरदार सरोवर बांध पर 24 घंटे नर्मदा बटालियन तैनात कर दी है. लेकिन जिनके घर, जमीन इस सरदार सरोवर बांध में गए उनकी माली हालत आज भी काफी खराब है. केवड़िया कोठी गांव का महेन्द्र सरदार सरोवर बांध में एक टूरिस्ट गाइड के तौर पर काम कर रहा है, सरदार सरोवर कॉलोनी बनाने में इनका घर इनकी जमीन चली गई. वे कहते हैं कोठी गांव में ऐसे 28 लोग हैं, जो आज भी अपने पुनर्वसन के लिए निरंतर जूझ रहे हैं. ताज्जुब की बात यह है कि यहां गाइड का काम करने वाले लोगों को वेतन भी नहीं मिलता जो टूरिस्ट यहां घूमने आते हैं वे जो कुछ देकर जाते हैं उससे ही रोजीरोटी चलानी पड़ती है यही हाल नवागाम की ज्योस्ना का है वे भी यहां गाइड हैं. वह पिछले छ्ह साल यह काम कर रही है. वह कहती है कि पहले सरकार वेतन देती थी लेकिन अब वेतन बंद कर दिया, सीजन में जो टूरिस्ट आते हैं जो दे जाते हैं बाकी थोड़ी बहुत खेती कर वे अपना घरबार चलाती हैं. लेकिन विडंबना की बात यह है कितनी जमीन सरदार सरोवर नहर में गई इस जमीन का रिकार्ड भी सरकार के पास उपलब्ध नहीं है.

इन छ्ह गांव के निवासियों का कहना है कि पुनर्वसन और मुआवजे के नाम पर राज्य की कांग्रेस से लेकर भाजपा सरकार अब तक केवल सात्वना ही दी है. इनका कहना है कि जब पीके लहरी सरदार सरोवर बांध के चेयरमेन थे तब भी उन्होंने 90 दिन में काम हो जाएगा कहा था लेकिन 50 सालों से ये छ्ह गांव पुनर्वसन और मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं. 1962 में सरदार सरोवर बांध में जब उनकी जमीनें डूब गई थी तब मुआवजे के रुप में उन्हें मात्र 60 रु ही मिले थे. उसके बाद उन्हें कुछ नहीं मिला. वे कहते हैं कि सरदार पटेल की प्रतिमा बनाई जाए लेकिन इन छ्ह गांवों के मुआवजे का प्रश्न अधर में लटका है उसे भी हल किया जाए. पर्यावरण मित्र के प्रमुख महेश पंड्या का कहना है कि मोदी सरदार पटेल की प्रतिमा का जहां निर्माण करने जा रहे हैं उससे आदिवासियों की सांस्कृतिक विरासत प्रभावित होगी. कांग्रेस और जीपीपी के नेता भी कहते हैं सरदार पटेल की प्रतिमा के नाम पर मोदी राजनीति कर रहें हैं. लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सरकार ने नाही आदिवासियों, या किसी विधायक या संसद के साथ विचार-विमर्श करना उचित नहीं समझा. आदिवासियों का कहना है कि उन्हें ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ से परहेज नहीं है प्रतिमा के लिए पंसद किए गए स्थान से है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरदार सरोवर बांध पर सरदार पटेल की प्रतिमा तो पहले से ही मौजूद है फिर नदी के बीच सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित करने की क्या आवश्यकता, यह महत्वपूर्ण सवाल है.

सरदार सरोवर मामले में अब पीआई एल दायर की गई है, पीआईएल दायर करने वाले जिग्नेश गोस्वामी का कहना है कि राजनीतिक मायलेज लेने के लिए मोदी सरदार पटेल की मूर्ति बनवा रहे हैं, जबकि देखा जाए तो यहां पहले से मूर्ति मौजूद है.

तीसरे मोर्चे की तिकड़म पर भारी प्रधानमंत्री की दावेदारी !

लोकसभा की मियाद अभी छह माह बाकी है फिर भी बीते एक साल से अटकलबाजी जारी है कि सरकार किसकी बनेगी? क्या फिर कांग्रेस चुनी जाएगी? या फिर भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सफलता हासिल होगी? कहीं गैर-भाजपा और गैर कांग्रेस वाला बीसवीं सदी का राजनीतिक विकल्प फिर से तो अस्तित्व में नहीं आ जाएगा? यदि कांग्रेस की सरकार बनती है तो प्रधानमंत्री कौन होगा? क्या कांग्रेस डॉ. मनमोहन सिंह के नाम पर फिर से दांव खेलेगी? क्या राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का अघोषित उम्मीदवार प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा जाएगा? क्या कांग्रेस गांधी परिवार के बाहर से किसी व्यक्ति का नाम मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में स्वीकार करेगी? क्या सोनिया गांधी फिर चुनाव लड़ेंगी? क्या सोनिया गांधी अल्पमत की कांग्रेस सरकार में भी अपने पुत्र राहुल गांधी की ताजपोशी का फैसला करेंगी? क्या गांधी परिवार प्रियंका गांधी को चुनाव मैदान में उतारेगा? यदि प्रियंका चुनाव मैदान में उतरी तो क्या कांग्रेस का तीसरा शक्ति केन्द्र बनने दिया जाएग? यदि राहुल का राज्याभिषेक न हुआ तो राहुल का मनमोहन सिंह कौन होगा? पी. चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, ए. के. एंटनी या फिर कोई ‘डार्क हॉर्स’? प्रियंका गांधी सिर्फ चुनाव प्रचार करेगी या खुद चुनाव भी लड़ेगी? कांग्रेस के बारे में ऐसे सैकड़ों सवाल पूछे-पुछाए जा रहे हैं। जाहिर है इन सवालों में बहुत से सवाल बे सिर पैर के हैं लेकिन कुछ सवालों का जवाब तो जानने की जरूरत है ही।

कहीं भाजपा को न पड़ जाए भारी

अगर कांग्रेस सवालों से घिरी है तो भाजपा के पास भी कोई कम सवाल नहीं है। साल भर की कसरत के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम भाजपा की ओर से अधिकृत प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में घोषित हुआ है। पर भाजपा में मोदी के कट्टर से कट्टर समर्थक को इस बात का भरोसा नहीं कि नई लोकसभा गठित होने के बाद नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। यदि राजग के वर्तमान घटक दल 272 का जादुई आंकड़ा पार कर गए तब तो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के करिश्मे को कोई रोक नहीं सकता। यदि भाजपा 182 सीट वाली सीमारेखा पर ही रुक गई तब क्या होगा? शेष 90 सांसदों का जुगाड़ क्या नरेंद्र मोदी के नाम पर जम पाएगा? यदि नरेंद्र मोदी के नाम का जुगाड़ नहीं जम पाया तब क्या? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार तब लालकृष्ण आडवाणी को मार्गदर्शक की भूमिका से नेतृत्व की कमान सौंपने पर राजी होगा? क्या नए प्रधानमंत्री प्रत्याशी का चयन संसदीय दल पर छोड़ा जाएगा? या पार्लियामेंट्री बोर्ड ही उस समय भी अपने सर्वाधिकार को सिद्ध करेगा? तब क्या संसद के मौजूदा विपक्षी नेता द्वय सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम पर विचार होगा? क्या मुरली मनोहर जोशी दौड़ में आ सकते हैं? या फिर राजनाथ सिंह के नाम पर मुहर लगाई जाएगी? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब कोई संघ या भाजपा का नेता आज दिन तो नहीं देना चाहेगा।

तीसरे मोर्चे की भी नहीं जम रही तिकड़म

भाजपा और कांग्रेस को लेकर ये सवाल तो पूछे जा रहे हैं। पर वाममोर्चा और तीसरे मोर्चे का तो कोई आकार-प्रकार ही नहीं बन पा रहा। इस मोर्चे में मुलायम सिंह यादव होंगे या मायावती? नीतिश कुमार होंगे या लालू प्रसाद यादव? करुणानिधि रहेंगे या जयललिता? चंद्रबाबू नायडू होंगे या जगनमोहन रेड्डी? वाममोर्चे की मौजूदगी में ममता बनर्जी कहां रहेंगी? नवीन पटनायक, देवेगौड़ा, शरद पवार जैसे खिलाड़ी किस ओर खेल रहे होंगे? सरकार और सत्ता संचालन इस तरह के सैकड़ों सवालों में उलझा है। मनोरंजन का यह मुफीद साधन भी है। सरकार बननी है सो बन जाएगी। महंगाई के इस जमाने में शेष बचा कोई सिद्धांतवादी भी तत्काल चुनाव नहीं चाहेगा। सरकार चाहे जिसकी बने, उसके तत्काल बाद अटकलों का नया सिलसिला शुरू हो जाएगा। मसलन, यह सरकार कितने दिन चलेगी? क्या वह कार्यकाल पूरा कर पाएगी? क्या मध्यावधि चुनाव होंगे? आदि....आदि! सवालों का एक अंतहीन सिलसिला बन कर रह गया है हमारा जनतंत्र। सरकार किसी की भी बने, कितने दिन भी चले जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या वह सरकार २०२० में हिंदुस्तान को महाशक्ति बनाने के नई सदी के सपने को साकार कर पाएगी? अब तक का आकलन तो यही कह रहा है कि इस सवाल का सकारात्मक जवाब देने का दम किसी में नहीं। इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम कोई उठा सके इतना संसदीय बल ही किसी के पास होना असंभव लगता है।

राहुल से आस लगाना बाल-उत्पीड़न

कांग्रेस जब 413 सीटें पाकर भी सरकार को विकास के दरकार की भाषा नहीं सिखा पाई तो अब बैसाखियों के सहारे वह चल ले यही काफी होगा उससे ओलिंपिक फर्राटा दौड़ जीतने की उम्मीद पालना राहुल गांधी पर बाल-उत्पीड़न करने के समान होगा। नरेंद्र मोदी यदि 272 का आंकड़ा नहीं जुटा पाते तो बैसाखियों के बूते वह उन सारे सपनों को साकार कर ले जाएंगे जितना उनके सोशल मीडिया के प्रचारक मान रहे हैं, सुनहरा सपना तो हो सकता है हकीकत नहीं। जब तक शासन चलाने का संख्या बल, शासन चलाने के लिए उपयुक्त साथी और हालात नहीं होते तब तक ‘सबको देखा बार-बार, हमको देखो एक बार’ वाले अटल बिहारी का कार्यकाल भी नरसिंहराव या मनमोहन सिंह के कार्यकाल से मेल खाने लगता है। यदि नरेंद्र मोदी भी अटलजी की तरह लाहौर बस यात्रा पर निकल पड़े तो ‘हिंदुत्व’ को आईसीयू में भर्ती कराना पड़ जाएगा। यदि शासन को निर्णायक बनाना है तो शासक को कठोर बनना पड़ेगा।

शासक को कठोर बनना पड़ेगा

मोदी गुजरात में इसलिए सफल हुए कि उन्होंने सेकुलरवाद की टोपी पहनने से ऐलानिया इंकार किया। आज पूरे देश की गली-गली का राष्ट्रवादी यदि ‘नमो-नमो’ जप रहा है तो उनकी कठोर शासक की इमेज से जन्मी उनके प्रति आस्था का उसमें हिस्सा है। शासन चलाने के लिए लोकतंत्र में अकसर कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं और लागू करने पड़ते हैं। जब तक लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना को शाब्दिक श्रद्धा सुमन नहीं अर्पित किया था तब तक हर कोई उनमें लौहपुरुष का अक्स देखता था। अब वही अक्स नरेंद्र मोदी में दिख रहा है। पर जिस तरह मोदी की रैलियों में बुर्के पहना कर लोग लाए जाने की खबरें उठ रही हैं वह सशंकित करने वाली हैं। सरकार के सुदृढ़ संचालन के लिए अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाना पड़ता है। मोदी ने गुजरात भाजपा में यह खुल कर किया। जातीय समीकरणों के अलंबरदारों को घर बैठाया। पर राष्ट्रीय राजनीति में उनकी वह धमक अभी प्रतीक्षित है। मोदी के लिए अफसोसजनक परिस्थिति सिर्फ यही है कि जब उनका राष्ट्रीय क्षितिज पर आगमन हो रहा है तब देश को बदलने और बेहतर बनाने वाली विचारधाराओं की समाप्ति की उद्घोषणा हो चुकी है। किसी भी लोकतंत्र में ‘विचारधारा की समाप्ति’ के बाद विचारणीय केवल इतना ही रह जाता है कि कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को खुश और कम से कम लोगों को नाराज किया जाए?

अमेरिका-ब्रिटेन भी हैं इसी कश्ती में सवार

अब वोट पाने की जुगाड़ को विचारधारा से कई गुना ज्यादा महत्व प्राप्त हो चुका है। यह दशा अकेले हिंदुस्तान की हो ऐसा भी नहीं। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी की आर्थिक, वैदेशिक विचारधारा में अब विशेष अंतर नहीं है। इसलिए तब जिमी कार्टर के जाने के बाद रोनाल्ड रीगन का आना पूरी दुनिया की समझ में आता था। आज जॉर्ज डब्ल्यू बुश के जाने और बराक ओबामा के आने से कोई विशेष अंतर नहीं नजर आता। ब्रिटेन में कंजर्वेटिव की सरकार है या लेबर पार्टी की देश-दुनिया की जाने दो ब्रितानियों की समझ में भी नहीं आता। परंपरागत दक्षिण और वामपंथी तेवरों के बावजूद अब विचारधाराओं में लिखित अंतर चाहे जो रहा गया हो व्यावहारिक अंतर शेष नहीं बचा। हिंदुस्थान में भाजपा के घोषणापत्र से संविधान की धारा ३७० के प्रति आग्रह, समान नागरिक कानून और रामजन्मभूमि आंदोलन का समर्थन का मुद्दा निकाला जा चुका है। यदि दोनों दलों के चुनाव चिह्न और नाम निकाल दिए जाएं तो कांग्रेस-भाजपा के प्रवक्ता घोषणापत्रों का अंतर भी शायद ही पहचान पाएं। सो, अब राजनीति एक ‘सोप ऑपेरा’ में तब्दील है। सो, नरेंद्र मोदी का टेलर उनकी वैचारिक टीम से ज्यादा ‘फुटेज’ पाता है। राहुल गांधी को यदि कुछ अपने पुराने भाषण नरेंद्र मोदी का बता कर पेश कर दिया जाए तो वह बांहें बटोर कर उसकी निंदा कर सकते हैं। हर कदम, हर वक्तव्य चंद परचूरनी सर्वेक्षणों की बुनियाद पर है। ऐसे नेताओं को नेता कहें या ब्रांड डाइरेक्टर से निर्देशित एक्टर।

सवालों को उलझाना, राजनीति का श्रेष्ठ दांव

चलताऊ किस्म के एक बाबा ने उन्नाव में वैâमरों के सामने नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का काला -सपेâद खर्च क्या पूछ लिया पूरी भाजपा चुप हो गई। आप कल्पना करें कि अस्सी के दशक में यह सवाल पूछा गया होता तो पूरी भाजपा उस साधु से हिसाब-किताब कर लेती। जब अद्र्ध-सामंती शासन प्रणाली लोकतंत्र का बुर्का पहन कर इतराने लगती है तो यही दुर्दशा होती है। बेशक मोदी के ईमानदारी पर संदेह नहीं, पर क्या इस तथ्य से कोई इंकार कर सकता है कि हमारी प्रणाली का अधिकांश शासक-प्रशासक ऐसी किसी बात के लिए समय नहीं निकाल पाते जिससे उनका दो नंबर का बैंक खाता और वोट बैंक खाता बढ़ने की संभावना न हो। जब हालात इतने बदतर हों तब चुनाव और सरकार पर अनसुलझे सवालों को उलझाना ही राजनीति का श्रेष्ठ दांव है। यही दांव हर कोई खेल रहा है और उससे यह लोकतंत्र प्रश्नतंत्र में तब्दील होता जा रहा रहा है।

भारतीय बाजार में चीन की दीपावली !

इस सप्ताह जब आप दीवाली की खरीदारी के लिए बाजार जाएँ तो ज़रा इस स्थिति पर गंभीरता और बारीकी से गौर करें कि क्या आप वही दीवाली मना रहे हैं जो दीवाली मनाने की परंपरा थी? शायद नहीं. आज के दौर में नई दीपावली को चीनी ओद्योगिक तंत्र ने पूरी तरह से बदल दिया है. दिया, झालर, पटाखे, खिलौने, मोमबत्तियां, लाइटिंग, लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ आदि से लेकर त्यौहारी कपड़ों तक सभी कुछ चीन हमारे बाजारों में उतार चुका है और हम इन्हें खरीदकर दीवाली के दिन भारत की अर्थव्यवस्था का दीवाला निकाल रहे हैं. ये हालात तब हैं जब चीन का उत्पादन चीन में बनकर भारत आ रहा है किन्तु अब तो स्थिति और अधिक गंभीर हो रही है. गत सप्ताह हमारे प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने अपनी चीन यात्रा के दौरान इस करार पर हस्ताक्षर कर दिया है कि भारत में अब एक चाइनीज ओद्योगिक परिसर बनेगा जहां चीनी उद्योग ही लगेंगे जिन्हें सरकार अतिरिक्त छूट और रियायतें प्रदान करेगी. 

यदि आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि दीपावली के इन चीनी सामानों में निरंतर हो रहे षड्यंत्र पूर्ण नवाचारों से हमारी दीपावली और लक्ष्मी पूजा का स्वरुप ही बदल रहा है. हमारा ठेठ पारम्परिक स्वरुप और पौराणिक मान्यताएं कहीं पीछें छूटती जा रहीं हैं और हम केवल आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक गुलामी को भी गले लगा रहें हैं. हमारें पटाखों का स्वरुप और आकार बदलनें से हमारी मानसिकता भी बदल रही है और अब बच्चों के हाथ में टिकली फोड़ने का तमंचा नहीं बल्कि माउजर जैसी और ए के ४७ जैसी बंदूकें और पिस्तोलें दिखनें लगी है. हमारा लघु उद्योग तंत्र बेहद बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. पारिवारिक आधार पर चलनें वालें कुटीर उद्योग जो दीवाली के महीनों पूर्व से पटाखें, झालरें, दिए, मूर्तियाँ आदि-आदि बनानें लगतें थे वे तबाही और नष्ट हो जाने के कगार पर है. कृषि और कुटीर उत्पादनों पर प्रमुखता से आधारित हमारी अर्थ व्यवस्था पर मंडराते इन घटाटोप चीनी बादलों को न तो हम पहचान रहे हैं ना ही हमारा शासन तंत्र. हमारी सरकार तो लगता है वैश्विक व्यापार के नाम पर अंधत्व की शिकार हो गई है और बेहद तेज गति से भेड़ चाल चल कर एक बड़े विशालकाय नुकसान की और देश को खींचे ले जा रही है.

केवल कुटीर उत्पादक तंत्र ही नहीं बल्कि छोटे, मझोले और बड़े तीनों स्तर पर पीढ़ियों से दीवाली की वस्तुओं का व्यवसाय करनेवाला एक बड़ा तंत्र निठल्ला बैठनें को मजबूर हो गया है. लगभग पांच लाख परिवारों की रोजी रोटी को आधार देनेवाला यह त्यौहार अब कुछ आयातकों और बड़े व्यापारियों के मुनाफ़ातंत्र का केंद्र मात्र बन गया है. बाजार के नियम और सूत्र इन आयातकों और निवेशकों के हाथों में केन्द्रित हो जानें से सड़क किनारें पटरी पर दुकानें लगानें वाला वर्ग निस्सहाय होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जानें को मजबूर है. यद्दपि उद्योगों से जुड़ी संस्थाएं जैसे-भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) ने चीनी सामान के आयात पर गहन शोध एवं अध्ययन किया और सरकार को चेताया है तथापि इससे सरकार चैतन्य हुई है इसके प्रमाण नहीं दीखते हैं.

आश्चर्य जनक रूप से चीन में महंगा बिकने वाला सामान जब भारत आकर सस्ता बिकता है तो इसके पीछे सामान्य बुद्धि को भी किसी षड्यंत्र का आभास होनें लगता है किन्तु सवा सौ करोड़ की प्रतिनिधि भारतीय सरकार को नहीं हो रहा है. सस्ते चीनी माल के भारतीय बाजार पर आक्रमण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए एक अध्ययन में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) ने कहा है, "चीनी माल न केवल घटिया है, अपितु चीन सरकार ने कई प्रकार की सब्सिडी देकर इसे सस्ता बना दिया है, जिसे नेपाल के रास्ते भारत में भेजा जा रहा है, यह अध्ययन प्रस्तुत करते हुए फिक्की के अध्यक्ष श्री जी.पी. गोयनका ने कहा था, "चीन द्वारा अपना सस्ता और घटिया माल भारतीय बाजार में झोंक देने से भारतीय उद्योग को भारी नुकसान हो रहा है. भारत और नेपाल व्यापार समझौते का चीन अनुचित लाभ उठा रहा है.'

चीन द्वारा नेपाल के रास्ते और भारत के विभिन्न बंदरगाहों से भारत में घड़ियां, कैलकुलेटर, वाकमैन, सीडी, कैसेट, सीडी प्लेयर, ट्रांजिस्टर, टेपरिकार्डर, टेलीफोन, इमरजेंसी लाइट, स्टीरियो, बैटरी सेल, खिलौने, साइकिलें, ताले, छाते, स्टेशनरी, गुब्बारे, टायर, कृत्रिम रेशे, रसायन, खाद्य तेल आदि धड़ल्ले से बेचें जा रहें हैं. दीपावली पर चीनी आतिशबाजी और बल्बों की चीनी लड़ियों से बाजार पटा दिखता है. पटाखे और आतिशबाजी जैसी प्रतिबंधित चीजें भी विदेशों से आयात होकर आ रही हैं, यह आश्चर्य किन्तु पीड़ा जनक और चिंता जनक है. आठ रुपए में साठ चीनी पटाखों का पैकेट चालीस रुपए तक में बिक रहा है, सौ सवा सौ रूपये घातक प्लास्टिक नुमा कपड़ें से बनें लेडिज सूट, बीस रूपये में झालरें-स्टीकर और पड़ चिन्ह पंद्रह रुपए में घड़ी, पच्चीस रुपए में कैलकुलेटर,  डेढ़-दो रुपए में बैटरी सेल बिक रहें हैं. घातक सामग्री और जहरीले प्लास्टिक से बनी सामग्री एक बड़ा षड्यंत्र नहीं तो और क्या है?

लगभग बीस लाख लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार और सामाजिक सम्मान देनें वाला शिवाकाशी का पटाखा उद्योग केवल धन अर्जित नहीं करता-कराता है बल्कि इसनें दक्षिण भारतीयों के करोड़ों लोगों को एक सांस्कृतिक सूत्र में भी बाँध रखा है. परस्पर सामंजस्य और सहयोग से चलनें वाला यह उद्योग सहकारिता की नई परिभाषा गढ़नें की ओर अग्रसर होकर वैसी ही कहानी को जन्म देनें वाला था जैसी कहानी मुंबई के भोजन डिब्बे वालों ने लिख डाली है; किन्तु इसके पूर्व ही चीनी ड्रेगन इस समूचे उद्योग को लीलता और समाप्त करता नजर आ रहा है. यदि घटिया और नुकसानदेह सामग्री से बनें इन चीनी पटाखों का भारतीय बाजारों में प्रवेश नहीं रुका तो शिवाकाशी पटाखा उद्योग इतिहास का अध्याय मात्र बन कर रह जाएगा.

भारत में २००० करोड़ रूपये से अधिक का चीनी सामान तस्करी से नेपाल के रास्तें आता है इसमें से दीपावली पर बिकनें वाला सामान की हिस्सेदारी लगभग ३५० करोड़ रु. की है. इतनें बड़े व्यवसाय पर प्रत्यक्ष कर निदेशालय की नजर न पड़ना और वित्त, विदेश, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालयों का आँखें बंद किये रहना सिद्ध हमारी शुतुरमुर्गी प्रवृत्तियों और इतिहास से सबक न लेनें की और गंभीर इशारा करता है. विभिन्न भारतीय लघु एवं कुटीर उद्योगों के संघ और प्रतिनिधि मंडल भारतीय नीति निर्धारकों का ध्यान इस ओर समय समय पर आकृष्ट करतें रहें है. दुखद है कि  विभिन्न सामरिक विषयों पर हमारी सप्रंग सरकार और इसके मुखिया मनमोहन सिंह चीन के समक्ष बिलकुल भी प्रभावी नहीं रहें हैं और विभिन्न मोर्चों पर चीन के समक्ष सुरक्षात्मक ही नजर आतें रहें हैं तब इस शासन से कुछ बड़ी आशाएं व्यर्थ ही हैं किन्तु फिर भी इस दीवाली के अवसर पर यदि शासन तंत्र अवैध रूप से भारतीय बाजारों में घुस आये सामानों पर और इस व्यवसाय के सूत्रधारों पर कार्यवाही करे तो ही शुभ-लाभ होगा.

मेड इन चाइना की बाढ़

दक्षिण भारत के शिवाकाशी पटाखा और वस्त्र उद्योग आज चीनी समानों के चलते बंद होने के कगार पर है।
भारत में 2000 करोड़ रूपये से अधिक का चीनी सामान तस्करी से नेपाल के रास्तें होकर आता है।
दीपावली पर बिकनें वाला सामान की हिस्सेदारी लगभग 350 करोड़ रु. है।
भारत में ये आकड़ा 2015 तक 100 अरब डॉलर तक पहुँचे का अनुमान है।
लघु उद्योग तंत्र बुरी तरह से चीनी बाजारों के आगे प्रभावित हो रहा है।
वर्ष 2012 में दोनों देशों ने 66.4 अरब डॉलर का व्यापार किया है।
2011 में भारत चीन व्यापार 73.9 अरब डॉलर के बराबर रहा था।

30 October 2013

क्या राजनीति हिंसात्मक हो गई है?

पटना के गांधी मैदान में नरेंद्र मोदी की रैली से पहले पटना रेलवे स्टेशन पर आज सुबह 10 बजे प्लेटफॉर्म नंबर 10 पर 8 बम धमा हुआ। साथ ही 9 जिंदा बम मिले। जबकी 6 धमाके गांधी मैदान में हुए हैं। प्लेटफार्म नंबर 10 पर ही रैलियों में शामिल होने वाले लोगों से खचा खच भरी हुई ट्रेन आने वाली थी। इस बम ब्लास्ट में 5 लोग मारे गए हैं। किसी राजनीतिक दल की रैली से ठीक पहले रेलवे स्टेशन पर बम धमाका होता है जहां से होकर हजारों कि संख्या में लोग नेताओं के भाशण सुनने आते है। इन सभी तथ्यों के उपर नजर डाले तो इसको लेकर कई अहम सवाल खड़े होते है। साथ राजनीति में बढ़ते हिंसा का मुद्दा फिर से एक नई बहस को जन्म दे दिया है।

संविधान को बनाने वाली जनता है और जनता को चलाने वाली विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है। यानि लोकतत्र में आम नागरिक ही सर्वोपरि है। लेकिन, लोकतंत्र का पिछले 66 साल का इतिहास बताता है कि न्याय और समानता का संविधान लिखने वाली जनता ही आज यहां सबसे अधिक राजनीतिक हिंसा की शिकार है।

दुनिया भर का इतिहास और सभ्यता और संस्कृति भी यही कहती है कि लोकतंत्र में हिंसा और प्रतिशोध का कोई स्थान नहीं है। राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध बोलते तो सब बढ़-चढ़ कर हैं पर जब इसे रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की बात आती है तो राजनीतिक हीत सर्वोपरी हो जाती है। लाभ हानी का यही गणीत राजनीतिक हिंसा को आज चरम सिमा पर ला खड़ा किया है। इसे रोकने के लिए कोर्ट को आगे आना पड़ रहा है मगर राजनीतिक दल हिंसा की चासनी को छोड़ने को तैयार नहीं है। आज जो जितने बड़े अपराध करता है वह उतने ही बड़े पदों पर सुशोभित हो रहा है। फिर भी लोगों को यही बताया जाता है कि देश में कानून का शासन है। मगर कानून का पालन करने वाले मुकदर्षक बन कर मौत का इंतजार करते है।

देश में आजादी के बाद विकास का जो मॉडल अपनाया गया उसमें सरकार पर निर्भरता बढ़ा दी गई। जनता से उसकी आत्मनिर्भर जीवनशैली को छीन लिया गया। उसे विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए। इन्हीं सपनों को दिखाने और खुद को एक दुसरे से बड़ा सेकुलर बताने की राजनीति आम आदमी को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया जहा पर विकास सपना बन कर पीछे छुट गया और राजनीति हिंसासत्मक होकर सत्ता की चासनी बन गई।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि राजनीति में आज हिंसा का हथियार ने अपनी पहचान बना ली है। पिछले कई ऐसे राजनीतिक आयोजनों में दुघर्टनाएं, भीड़ और भगदड़ की घटनाएं बढ़ी है। गृह मंत्री खुद इस बात को स्वीकार करते हुए कहते है कि, राजनीतिक हिंसा व अशांति का क्रम चुनाव के समय बढ़ने वाला है। अपने विरोधियों की हत्या करने रैलियों को कुचलने के लिए हिंसा का सहारा लेने और असमाजिक गतिविधियों को अंजाम देने की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या राजनीति हिंसात्मक हो गई है?

अविवाहीत रह कर देश सेवा करने वाले को अपमान क्यों ?

सपा नेता नरेश अग्रवाल ने नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत टिप्पणी कर एक नये विवाद को जन्म दे दिया है। अग्रवाल के ऐसे बयान पर अविवाहीत देश भक्तों और राजनेताओं में जबरजस्त गुस्से का माहौल है। साथ ही अविवाहीत बनाम विवाहीत एक मुद्दा बन गया है। नरेश अग्रवाल ने मोदी के शादी न करने पर चुटकी लेते हुए कहा था कि उन्होंने शादी तो की नहीं, वह परिवार का मतलब कैसे जानेंगे। वह कैसे जानेंगे कि परिवार का आनंद क्या होता है। नरेश अग्रवाल ने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जिसे हम आपको सुना भी नहीं सकते। बीजेपी इसे राजनीति में शिष्टता की कमी बता रही है, तो वहीं दुसरी ओर महिला आयोग भी अग्रवाल के इस बयान पर विरोध जताया है।

नरेष अग्रवाल की जुबान कोई पहली बार नहीं फिसली है। इससे पहले  नरेश अग्रवाल ही वह नेता हैं जिन्होंने लालू से चुनाव लड़ने का हक छीनने को गलत बताया था। साथ ही मुंबई गैंगरेप के बाद कहा था कि रेप की घटनाओं से बचने के लिए लड़कियों को अपने कपड़ों का ख्याल रखना चाहिए। ऐसे में नरेश अग्रवाल के इस बयान से राजीतिक भूचाल अपने चरम सीमा पर है। अग्रवाल के इस बयान से तीन नेता निशाने पर है, जिसमे पहला नाम नरेद्र मोदी का है। साथ ही इस बयान से अग्रवाल ने राहुल और मायावती पर भी निशाना साधा है। क्योंकि ये दोनों नेता भी यूपी में सपा के धुरविरोधी है।

अविवाहित रहने वाले सामाजिक और राजनैतिक व्यक्तित्व अपने लक्ष्यों के प्रति अधिक समर्पित होते हैं। अविवाहित रहना उनकी विचारधारा और पार्टी तथा देश के लिये फायदेमंद होता है। बात चाहे अब्दुल कलाम की हो या फिर अटल बिहारी वाजपेयी या फिर अन्ना हजारे, स्वामी रामदेव, राजिव दीक्षित, दयानन्द सरवस्ती, कांशीराम या नाना जी देशमुख की हर किसी ने देश के लिए मिशाल कायम की। तो सवाल ये खड़ा होता है कि क्या अविवाहीत रहना गुनाह है? क्या सपा सिर्फ भोग विलासिता में रहने वाले को ही राजनेता मानती है?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तो बहुत पुरानी परम्परा है कि पूर्णकालिक स्वयंसेवक अविवाहित ही रहेंगे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं भाजपा के पितृपुरुष कुशाभाऊ ठाकरे। एक सूटकेस ही जीवन भर उनकी गृहस्थी और सम्पत्ति रहा। बात सिर्फ संघ या भाजपा तक ही सीमीत नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टियों में भी यही ट्रेण्ड रहा है उनके भी कई नेता अविवाहित रहे और पार्टी की विचारधारा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। स्वामी विवेकानंद भी अविवाहित थे जिन्होंने अपने देश और धर्म को गौरवान्वित किया। आज पूरा विश्व इस राष्ट्रपुरुष  के आगे नतमस्क है। तो सवाल यहा भी खड़ा होता है कि क्या आज ऐसे महापुरुषों के विचारों से नरेश अग्रवाल अपने आप को अलग कर सकते है। जिन्होंने पूरे भारत को अपना परिवार माना। आज उसे कटघरे में खड़ा करना ये कहा का समाजवाद है। 

क्या आज सपा की समाजवाद परिवारवाद में ही देश को जकड़े रखना चाहती है? आज कुछ लोग देश के लिए समर्पित होना चाहते हैं, कुछ लोग विज्ञान एवं शोध में समर्पित होना चाहते हैं, तो कुछ लोग अविवाहीत रह कर समाज सेवा करना चाहते है। तो क्या ये लोग परिवार का आनंद नहीं जानते? सपा नेता नरेश अग्रवाल के ऐसे बेतुके बयान से आज देष ये सवाल खड़ा कर रहा है की अविवाहीत रह कर देश सेवा करने वाले को अपमान क्यों?

संजय दत्त को माफ़ी देना कितना सही ?

मुबई धमाकों के बाद मामले की जाँच में जुटी केन्द्रीय जांच ब्यूरो को कई अहम जानकारी मिली थी। जिनमे संजय दत्त का इन धमाकों से सिधा संबंध था। जाँच के दौरान ये भी जानकारी मिली कि मुंबई धमाकों के गुनहगारों से न केवल संजय दत्त के मधुर संबध थे, बल्कि उन्हें इस घटना का आभास भी पहले से था। सीबीआई जाँच के अनुसार जनवरी और फरवरी में रायगढ़ जिले के दिघी और शेखाडी तट पर पाकिस्तान से नावों में भरकर आरडीएक्स लाया गया था। आरडीएक्स के अलावा इसमें हथियार भी काफी संख्या में आये थे जो टाइगर मेमन के आदमियों को मिले थे। फिल्म निर्माता समीर हिंगोरा ओर हनीफ कडावाला ने इसी में से कुछ हथियार, हथगोले, गोलियां अभिनेता संजय दत्त को दिया था। हिंगोरा ने संजय दत्त के पाली हिल्स स्थित बंगले पर एके-56 राइफल, मैगजीन, कारतूस और हथगोले मुहैया कराये थे जो विस्फोट में इस्तेमाल हुये गैरकानूनी जखीरे का ही हिस्सा थे। जिसकी पुष्टि खुद संजय दत्त ने सुनवाई के दौरान की थी।

बम धमाके के आरोपी नंबर 117 रहे संजय दत्त ने मुंबई के डीसीपी कृष्ण लाल बिश्नोई के सामने 26 और 28 अप्रैल, 1993 को धमाकों के सिलसिले में अपना इकबालिया बयान दिया था। इन बयानों में संजय ने स्वीकार किया कि वह दाउद इब्राहिम से दुबई में मिले थे और अबू सलेम ने उन्हें एके 56 राइफलें दी थीं। धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए संजय दत्त को अप्रैल, 1993 से लेकर अक्टूबर 1995 तक, तकरीबन 18 महीने जेल में बिताने पड़े थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर वे रिहा हुए।

मामले की सुनवाई कर रहे टाडा अदालत ने नवंबर 2006 में संजय दत्त को पिस्तौल और एके-56 राइफल रखने का दोषी पाया। धमाकों के मुख्य अभियुक्त दाऊद इब्राहिम को छोड़कर मुंबई की अदालत ने अपना फैसला सुनाते हुए जिन लोगों को इन धमाकों के लिए दोषी पाया था उनमें संजय दत्त को भी दोषी पाया गया था। संजय दत्त को अवैध तरीके से हथियार रखने के लिए आर्म्स एक्ट के तहत दोषी माना गया तथा 6 साल की सजा सुनाई गई।

फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति डा बलबीर सिंह चैहान की खंडपीठ ने कहा कि “परिस्थितियां और अपराध का स्वरूप इतना गंभीर है कि हमारी राय में संजय दत्त को प्रोबेशन पर रिहाई के लिये परिवीक्षा कानून का लाभ नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन अदालती आदेश को ठेंगा दिखा कर संजय दत्त को माफ करने की मुहीम अपने आप में कई अहम सवाल खड़ा करता है।

आम आदमी के लिए कानून

चार हजार रुपये का जुर्माना अदा न कर पाने की वजह से तमिलनाडु में डेनियल नामक युवक को 11 साल ज्यादा वक्त जेल में रहना पड़ा। इलाहाबाद जेल में दो कैदी दस वर्ष की सजा पूरा करने के बाद भी सजा काट रहे है। तमिलनाडु में एक व्यक्ति को सिर्फ 1 रूप्या घुस लेने के चलते जेल जाना पड़ा। यूपी के जेल में बंद एक औरत को सिर्फ पांच हजार रूपया न चुकाने पर सजा से जयादा दिनों तक जेल में रहना पड़ा, बाद में जब उसका बेटा बड़ा हुआ तो उसे जेल से छुड़वाया।

29 October 2013

गरीब बिहार बनाम अमीर गुजरात !

बिहार में मोदी प्रवेश दुखद बम धमाकों के बीच हुआ। विस्फोट की दुखद घटना के बाद भी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में मोदी की हुंकार रैली का जैसा आगाज होना चाहिए था। वैसा ही हुआ। नीतीश से अलग होने के बाद बीजेपी की तरफ से यह पहला बड़ा आयोजन भी था, इसलिए इसे लेकर पार्टी के स्तर पर पूरी मेहनत भी जरूर की गई होगी। लेकिन परिणाम मेहनत से ज्यादा दिखाई दिया तो कारण कुछ और नहीं बल्कि बिहार का वह मोदी प्रेम है जो शायद गुजरात से भी ज्यादा हो गया है। ऐसा शायद इसलिए कि बिहार और यूपी दो ऐसे राज्य हैं जो नेता निर्मित करने के सिद्धहस्त राज्य हैं। और अगर किसी में चमत्कारी गुण दिखाई देने लगते हैं तो बिहार उसे अपना नेता मान लेता है। फिर चाहे वह गांधी हों कि मोदी। 

नीलहों की बड़ी दुर्दशा है। आपके नेतृत्व की जरूरत है। राजकुमार शुक्ल गांधी से जब यह बात कह रहे थे तब गांधी कांग्रेस के मंत्री भी न थे। तो राजकुमार शुक्ल ने गांधी जी के अंदर कोई ऐसी चमत्कारिक शक्ति देखी थी जिसके बारे में बाद में डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने भी आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था कि न जाने क्यों राजकुमार शुक्ल को गांधी जी में इतना विश्वास था।

अब न तो गिरिराज सिंह राजकुमार शुक्ल हैं और न ही नरेन्द्र मोदी महत्मा गांधी। लेकिन नरेन्द्र मोदी में भी कोई बड़ी चमत्कारिक राजनीतिक शक्ति है, इसे सबसे पहले बिहार के जिस मंत्री ने अनुभव किया उनका नाम गिरिराज सिंह है। वे नीतीश सरकार में भाजपा के कोटे से मंत्री थे। अदना से। लेकिन जब उन्होंने बिहार में मोदी गान शुरू किया तब इसे उनकी चापलूस प्रवृत्ति समझी गई, लेकिन मोदी की तारीफ का यह कोरस जब पूरी पार्टी से उठने लगा तब मोदी की ही पहल पर नीतीश कुमार सरकार से बीजेपी को अलग कर दिया गया। गुजरात के मोदी की पहल न होती तो शायद बिहार के मोदी (सुशील कुमार) नीतीश के साथ वित्त मंत्रालय संभालते रहते। लेकिन उन्होंने इस बंटवारे की सबसे ज्यादा पुरजोर वकालत की। मोदी का जादू बिहार की बीजेपी के सिर चढ़ चुका था। दिल्ली के सिर बहुत बाद में चढ़ा।

और जब दिल्ली के सिर चढ़ा तो बिहार ने मोदी को दल (बीजेपी) बल (राजनाथ, अरुण जेटली) के साथ पटना बुला लिया। हुंकार रैली करने के लिए। तैयारी कुछ ऐसी की गई थी कि राष्ट्रपति तक को अपना कार्यक्रम बदलना पड़ा और पूर्व निर्धारित आईआईटी दीक्षांत समारोह को एक दिन पहले निपटाकर जाना पड़ा। कारण बताया गया होगा कि बहुत भीड़ आयेगी। बहुत भीड़ आई भी और दिखाई भी दी, टीवी पर। अपने बोलने के दौरान जेटली जी की सांस ही अटकी जाती थी। मानों इतनी बड़ी संख्या में लोगों को देखकर उनकी आवाज उनकी सोच के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही थी। राजनाथ सिंह ने तो स्वीकार भी किया कि उन्होंने अपनी पूरी राजनीतिक जिन्दगी में इतनी भीड़ एकसाथ कभी नहीं देखी। राजनाथ सिंह और अरुण जेटली भले ही उस कद के नेता न रहें कि इतनी बड़ी संख्या में भीड़ देख पाते लेकिन जिन्होंने पटना का गांधी मैदान देखा होगा वे समझ सकते हैं कि गांधी मैदान की भीड़ का मतलब क्या हुआ करता है। शहर के बीचोबीच इस मैदान में जन समूह की मौजूदगी किसी के भी होश ठिकाने लगा सकती है। भर जाए तो भी और बिफर जाए तो भी।

खुद नरेन्द्र मोदी को भी शायद ऐसे स्वागत का अंदाज न रहा हो इसलिए भाषण खत्म करते करते उन्होंने भी स्वीकार कर लिया कि बिहार ने उनका जैसा स्वागत किया है उसका कर्ज वे एक दिन जरूर उतारेंगे। कब उतारेंगे? उस दिन, जिस दिन दिल्ली में मोदी की सरकार बन जाएगी। इस स्वागत सत्कार का क्या कर्ज उतारेंगे? बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने केन्द्र की कांग्रेस सरकार से पचास हजार करोड़ का विशेष पैकेज मांग रखा है। राजनीतिक हकीकत यह है कि बीजेपी के साथ अपने आपको असहज महसूस कर रहे नीतीश को अपना शुभचिंतक बनाने के लिए इसी संभावित पैकेज का भरोसा दिलाया है। अभी तक बिहार को वह पैकेज मिल तो नहीं पाया है लेकिन पैकेज प्रदान करने के लिए बिहार को बीमार घोषित करने क लिए जो जांच पड़ताल जरूरी है उसकी प्रक्रिया चल रही है। कब तक पूरी होगी यह या तो कांग्रेस जाने या नीतीश लेकिन आज नरेन्द्र मोदी ने बिहार से वादा जरूर कर लिया कि जिस दिन सरकार बनाएंगे उस दिन बिहार को ब्याज समेत उसका कर्ज चुकाने का फर्ज अदा करेंगे।

वह तो मोदी तब करेंगे जब वे प्रधानमंत्री बनेंगे लेकिन आज अपनी रैली में उन्होंने कुछ कर्ज ऐसे भी थे, जिसका हिसाब चुकता कर दिया। वह कर्ज नीतीश का था। नीतीश कुमार की मोदी से अदावत कोई नई बात नहीं है और मोदी जैसे घोर सांप्रदायिक व्यक्ति के लिए नीतीश की दोस्ती के राजनीतिक हाथ कभी खुलकर आगे नहीं आये। लेकिन आज जब मोदी बिहार आये तो नीतीश का सारा हिसाब बराबर कर दिया। अब तक जो बातें नीतीश इशारों में करते रहे थे, उसका जवाब मोदी ने अपने "मित्र मुख्यमंत्री" को गांधी मैदान में खड़े होकर दे दिया। बकौल नरेन्द्र मोदी वे नीतीश कुमार से ज्यादा सेकुलर इसलिए हैं क्योंकि उनके राज्य का मुसलमान बिहार के मुसलमान से ज्यादा अमीर है। मोदी के गुजरात में हज जाने के लिए कुल चार हजार सीटों का कोटा है लेकिन वहां का मुसलमान इतना अमीर है कि वहां चालीस हजार फार्म जमा हो जाते हैं लेकिन बिहार के मुसलमान इतने गरीब हैं कि साढ़े छह हजार का कोटा होने के बाद भी इतने मुसलमानों का आवेदन नहीं आता है। यानी, बिहार और गुजरात का बंटवारा अमीर और गरीब के आधार पर होना चाहिए, धर्म और मजहब के नाम पर नहीं।

हालांकि अपने संबोधन के दौरान नरेन्द्र मोदी ने तीन चार दफा जब जब बिहार का जिक्र किया, उन्होंने मेरे बिहार शब्द का इस्तेमाल किया। कुछ कुछ उसी तर्ज पर जैसे वे अपने गुजरात के लिए करते हैं। लेकिन विस्फोट के कारण छोटे कर दिये गये संबोधन में नरेन्द्र मोदी जब बोल रहे थे तो अमीर गुजराती की तरह ही बोलते दिखाई दे रहे थे। सिर्फ शासन प्रशासन और विकास के मामले में ही नहीं। आमतौर पर जैसा अपनी हर रैली में वे गुजरात की अमीरी और विकास का बखान करते हैं उसी तरह इस रैली में भी उन्होंने नीतीश कुमार को भरपेट खाना खिलाने तक का जिक्र कर दिया। ऐसा कहकर शायद वे यह कहना चाहते थे कि गुजरात भरपेट खाना खिलाता है तो उसकी कीमत भी वसूलना चाहता है। नरेन्द्र मोदी को उम्मीद रही होगी कि नीतीश कुमार उनके खाने का कर्ज समर्थन देकर चुकाएंगे लेकिन नीतीश ने नहीं चुकाया तो मित्र मुख्यमंत्री शत्रु देश का शासक हो गया। और वह शत्रु देश कौन है?

कहने की जरूरत नहीं कि मोदी की नजर में वह शत्रु देश बिहार और वहां के शासक नीतीश कुमार हैं जिन्होंने सेकुलरिज्म की दुहाई देकर मोदी के रास्ते में सबसे बड़ा राजनीतिक पत्थर रख दिया। भले ही मोदी ने बार बार मेरा बिहार कहा हो लेकिन बिहार की गरीबी को लेकर उनके मन की मनौती सामने आने से बच नहीं सकी। बिहार में विकास नहीं हो रहा है। अमीर गरीब का फर्क करनेवाली केन्द्र सरकार की रिपोर्ट भी बिहार को बीसवें नंबर का गरीब बताती है। मोदी की यह बात इसलिए मायने रखती है कि उनका गुजरात अमीर है। लेकिन अमीरी गरीबी का यह फर्क दिखाकर मोदी कोई दूर नहीं भागे जा रहे थे। उन्होंने वादा किया कि "आपकी (बिहार की) चिंता करने का जिम्मा मैं लेता हूं।" जरूर लें। जिन्हे पीएम बनना होता है उन्हें चिंता भी करनी पड़ती है। लेकिन यहां सिर्फ इतना जान लेना काफी होगा कि बिहार उतना पिछड़ा नहीं है जितना मोदी समझ रहे हैं या समझा रहे हैं।

मोदी ने अपने संदेश में साफ कहा कि बिहार गरीब राज्य है और वहां जो राजा शासन कर रहा है वह जेपी और बीजेपी दोनों से धोखा कर चुका है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि बिहार बदला ले। और वह बदला कैसे ले? वह बदला हिन्दू मुस्लिम होकर नहीं लिया जा सकता। इसलिए बिहार की जमीन पर नरेन्द्र मोदी ने विकास का नारा दिया। अगर विस्फोट बड़ी खबर न बनते तो शायद बड़ी खबर यही होती कि हिन्दुत्व की शर्त पर संघ से उम्मीदवारी का सरोपा पाये नरेन्द्र मोदी ने नीतीश की जमीन पर खड़े होकर अपने आपको सबसे बड़ा सेकुलर घोषित कर दिया है। लेकिन विस्फोट के कारण मोदी का वह सेकुलर पाठ कहीं दब गया। और विकास का वह मोदी मंत्र भी कि हिन्दू मुसलमान आपस में लड़ें इससे अच्छा है कि मिलकर गरीबी से लड़ें। विकास के लिए हिन्दू मुसलमान एक साथ आयें। पटना में खड़े होकर मोदी इससे बड़ी और कौन सी राजनीतिक बात कह सकते थे, जो उनके विरोधियों को परेशान कर सकती है?

विरोधियों को अब विस्फोट परेशान करेगा। भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी और पार्टी के बाहर भी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होगा कि राजनीतिक रूप से पटना की इस हुंकार रैली का कोई महत्व नहीं रह जाएगा। अमीर गुजरात के इस गरीब चायवाले ने गरीब बिहार में अमीर गुजरात की तरफ से जो चुनौती खड़ी की है आनेवाले कुछ दिनों में बिहार इस चुनौती की बखिया उधेड़ेगा। और कौन जाने कितने तर्क पैदा कर दिये जाएंगे। मोदी की एक एक बात का मीन मेख निकाला जाएगा। वे तर्क वितर्क और मीन मेख ही बताएंगे कि बिहार में नरेन्द्र मोदी राजकुमार शुक्ल के गांधी साबित होंगे या फिर गिरिराज सिंह के नड़ेन्द्र भाई मोदी।

गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता और आज का भारत !

अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन पत्रकारों ने अपनी लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की जंग लड़ी थी, उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अग्रणी है। आजादी की क्रांतिकारी धारा के इस पैरोकार ने अपने धारदार लेखन से तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता को बेनकाब किया और इस जुर्म के लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ने वाले वह संभवत: पहले पत्रकार थे।

विद्यार्थी जी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उनके ननिहाल प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू व फारसी के जानकार थे। विद्यार्थी जी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह एंट्रेंस तक ही पढ़ सके, लेकिन उनका स्वतंत्र अध्ययन जारी रहा। विद्यार्थी जी ने शिक्षा ग्रहण करने के बाद नौकरी शुरू की, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों से नहीं पटने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पहली नौकरी छोड़ने के बाद विद्यार्थी जी ने कानपुर में करेंसी ऑफिस में नौकरी की, लेकिन यहां भी अंग्रेज अधिकारियों से उनकी नहीं पटी। इस नौकरी को छोड़ने के बाद वह अध्यापक हो गए।

महावीर प्रसाद द्विवेदी उनकी योग्यता के कायल थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' में बुला लिया। उनकी रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। एक ही वर्ष के बाद वह 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गए और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। उन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी संपादन किया। अक्टूबर 1913 में वह 'प्रताप' (साप्ताहिक) के संपादक हुए। उन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज बुलंद की।

पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर 'प्रताप' का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऐसा बलिदानी गीत दिया, जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत 'झण्डा ऊंचा रहे हमारा' है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों द्वारा प्रजा पर किए गए अत्याचारों का तीव्र विरोध किया। पत्रकारिता के साथ-साथ गणेश शंकर विद्यार्थी की साहित्य में भी अभिरुचि थी। उनकी रचनाएं 'सरस्वती', 'कर्मयोगी', 'स्वराज्य', 'हितवार्ता' में छपती रहीं। 'शेखचिल्ली की कहानियां' उन्हीं की देन है। उनके संपादन में 'प्रताप' भारत की आजादी की लड़ाई का मुखपत्र साबित हुआ। सरदार भगत सिंह को 'प्रताप' से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा 'प्रताप' में छापी, क्रांतिकारियों के विचार व लेख 'प्रताप' में निरंतर छपते रहते थे।

महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरुआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वह स्वभाव से उग्रवादी विचारों के समर्थक थे। विद्यार्थी जी के 'प्रताप' में लिखे अग्रलेखों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना लगाया और 22 अगस्त 1918 में 'प्रताप' में प्रकाशित नानक सिंह की 'सौदा ए वतन' नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व 'प्रताप' का प्रकाशन बंद करवा दिया।

आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर इसकी की शुरुआत हो गई। 'प्रताप' के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता 'प्रताप' को आर्थिक सहयोग देने के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी।

जनता के सहयोग से आर्थिक संकट हल हो जाने पर साप्ताहिक 'प्रताप' का प्रकाशन 23 नवंबर 1990 से दैनिक समाचार पत्र के रूप में किया जाने लगा। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से इसकी पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन दंडाधिकारी स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में 'प्रताप' को 'बदनाम पत्र' की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली।

कानपुर के हिंदू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। उनका पार्थिव शरीर अस्पताल में पड़े शवों के बीच मिला था। गणेश शंकर जी की मृत्यु देश के लिए एक बहुत बड़ा झटका थी। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।

हिंदुत्व बनाम मुजफ्फरनगर कल और आज !

राजनीति में संयोग पैदा हों कि पैदा किए जाएं, दोनों ही परिस्थितियों में राजनीति अनिवार्य रूप से मौजूद रहती है। इसलिए पटना की हुंकार रैली में हुए धमाकों के बाद सिर्फ सरकारी जांच-पड़ताल का सिलसिला नहीं शुरू हुआ, बल्कि राजनीतिक अटकलों और संभावनाओं का भी दौर शुरू हो गया है। धमाके भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी की रैली स्थल के आसपास हुए। और किसी संयोग से बिल्कुल नहीं हुए। जो जांच पड़ताल अब तक हो रही है, उसमें बताया जा रहा है कि धमाके जान-बूझ कर करवाए गए। बदला लेने के लिए। धमाके कराने वाले के हवाले से मीडिया के सूत्र बता रहे हैं कि जिन्होंने इन विस्फोटों को अंजाम दिया, वे मुजफ्फरनगर का बदला लेना चाहते थे।

उस मुजफ्फरनगर का, जहां अभी हिन्दू-मुस्लिम दंगे करवाकर कुछ लोग फारिग हुए हैं। दंगे खत्म हुए, लेकिन उसके बाद बयानवीर दंगाइयों ने मोर्चा संभाल लिया। नेता जमात अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अपनी-अपनी परिभाषा गढ़ने में लग गई। ऐन इसी वक्‍त इंदौर में बिना किसी संदर्भ के अचानक राहुल गांधी का एक विवादास्पद बयान आया। उन्होंने मुजफ्फरनगर के दंगा पीडि़त युवकों से आइएसआइ के संपर्क करने की बात कह डाली। बिना कोई वक्‍त गंवाए भाजपा ने इसका चुनाव आयोग को लिखे एक पत्र में विरोध किया और अचानक मुस्लिम हितैषी बनकर हमारे सामने आ गई। हो सकता है राहुल गांधी के बयान ने भाजपा का चरित्र और चिंतन परिवर्तित कर दिया हो, लेकिन उन राजनीतिक संयोगों का सिलसिला तो अब यहां से शुरू होने वाला था जो सायास हो भी, तो भी अनायास ही बताया जाता है।

पटना की जिस हुंकार रैली के पहले ये विस्फोट करवाए गए, उस रैली में मोदी हिन्दू-मुसलमान को आपस में लड़ने के बजाय गरीबी से लड़ने का संदेश जारी कर देते हैं। जिनके दामन पर कत्ल के कारोबार के दाग हैं, वे पटना के गांधी मैदान में शांति का संदेश पाठ शुरू कर देते हैं। नीतीश के 'सेकुलर' स्टेट में नरेन्द्र मोदी उनसे भी बड़े 'सेकुलर' नजर आने लगते हैं। और तभी अचानक राहुल गांधी बिना नाम लिए याद आने लगते हैं जिन्होंने मुजफ्फरनगर दंगे के पीडि़तों से आइएसआइ के संपर्क किए जाने की दुहाई दी थी। आखिर धमाके से चंद दिन पहले राहुल कहना क्या चाह रहे थे? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि खुद को मुसलमानों का ज्यादा हितैशी जताकर बीजेपी क्या कहना चाह रही है? क्या भारतीय जनता पार्टी अचानक सेकुलर हो गई है? या मामला कहीं ज्यादा गंभीर है?

जिस पटना में भाजपा की रैली में आज ये धमाके हुए हैं, उसी पटना में आज से करीब साढ़े चार दशक पहले भारतीय जनता पार्टी की पूर्वज भारतीय जनसंघ के पटना अधिवेशन में उसके संस्थापक तथा संघ परिवार में अब भुला दिए गए उसके सबसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी माने जाने वाले बलराज मधोक ने ''मुसलमानों के भारतीयकरण'' का प्रस्ताव पारित कर जब मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाया था, उस वक्त तक जवान हो चुके इस लोकतंत्र के राष्ट्रापति डॉ. ज़ाकिर हुसैन थे। यह कोई संयोग नहीं था। बहरहाल, साल भर बाद उनकी मशहूर पुस्तेक आई ''इंडियनाइज़ेशन'', जिसमें उन्होंहने भारतीयकरण के अपने सिद्धांत को विस्तार से समझाते हुए इसके दायरे में न सिर्फ महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू बल्कि अल्लाकमा इकबाल और गुरु गोबिंद सिंह की वाणी को भी लपेट लिया। कंवल किशोर भारद्वाज जैसे लेखकों ने इस सिद्धांत को राजीव गांधी के उद्धरणों का सहारा लेकर एक समय में पुष्ट करने की कोशिश की (कॉम्बैाटिंग कम्युानलिज्मस इन इंडिया: की टु नेशनल इंटिग्रेशन), तो आज तक राकेश सिन्हा़ जैसे संघ के तथाकथित बुद्धिजीवी अपने भाषणों में मुसलमानों को भारतीय बनाने का आह्वान करते सुनाई दे जाते हैं। जिस लोकतंत्र के सर्वोच्चो पदों पर मुसलमान रह चुके हों, जिस देश की आज़ादी के आंदोलन का अध्याय मुसलमानों के जिक्र के बगैर अधूरा रह जाता हो, वहां बार बार फिर फिर मुसलमानों की देशभक्ति के मसले को उठाने का राजनीतिक एजेंडा क्या हो सकता है?

राहुल गांधी इंदौर के अपने भाषण में जब कहते हैं कि मुजफ्फरनगर के पीडि़त मुसलमानों से पाकिस्तांनी खुफिया एजेंसी आइएसआइ भर्ती के लिए संपर्क कर रही है, तो इससे मुसलमान कठघरे में कैसे आ जाते हैं? यह बात ठीक हो सकती है कि उन्होंने अपने पास मौजूद खुफिया सूचना को जो सार्वजनिक किया, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। अब पटना विस्फोट में हो रहे खुलासों के बाद यह बात और साबित हो जाती है कि राहुल गांधी ने जो कुछ कहा उसका स्रोत क्या कुछ हो सकता है। राहुल गांधी को कटघरे में खड़ा करने के साथ ही एक तथ्य तो सभी जानते हैं कि आइएसआइ को खाद-पानी कहां से मिलता रहा है। अगर यह मुसलमानों की देशभक्ति पर संदेह जताने जैसी कोई बात है, तो इस पर सबसे पहला सवाल उठाने का हक उसको होना चाहिए जिसने मुसलमानों की देशभक्ति पर कभी शक न किया हो। बीजेपी और उसके जन्मदाता जनसंघ के पास न तो यह नैतिक अधिकार है, न ही उनका इतिहास और हालिया वर्तमान उन्हें इसकी छूट देता है।

बावजूद इसके नरेंद्र मोदी 2002 के अपने कारनामे भुलाकर राहुल गांधी से माफी की मांग कर डालते हैं। बीजेपी आनन-फानन में चुनाव आयोग को पत्र भेजकर चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर राहुल के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग कर डालती है और बेगुनाह मुसलमानों की ‍रिहाई के लिए संघर्ष कर रहा रिहाई मंच राहुल गांधी को कानूनी नोटिस भेज देता है। इतना ही नहीं, मुसलमान संगठनों की ओर से भी इस भाषण के खिलाफ आवाज़ उठती है जिसकी राजनीतिक अभिव्याक्ति शुक्रवार को शियाओं के धर्मगुरु कल्बे सादिक के बयान में सुनाई देती है कि नरेंद्र मोदी यदि अपनी गलतियों के लिए माफी मांग लें तो मुसलमान उन्हें वोट दे सकते हैं। तो क्या समझा जाए कि 1992 में बाबरी विध्वंस के साथ इस देश में शुरू हुई सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की जुड़वा संसदीय राजनीति का दूसरा अध्याय शुरू हो चुका है? अगर यह वास्तव में सांप्रदायिक राजनीति का एक नया पड़ाव है, तो इसका राजनीतिक पाठ कैसे हो? फिलहाल, इस मामले में कोई भी चुनावी किस्मा का निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी। राहुल गांधी के बयान से शुरू हुई सियासत को समझने के लिए एक नज़र भारत के अतीत पर डाल लेनी चाहिए।

आज़ादी से पहले इस देश में मौजूद सांप्रदायिकता धार्मिक आधार पर नहीं हुआ करती थी। वह अंग्रेज़ों की ''बांटो और राज करो'' नीति से पैदा होती थी। सबसे पहली घटना जिसने इस देश में धार्मिक सांप्रदायिकता को जन्म दिया, वह 1947 का विभाजन कही जा सकती है। विभाजन ने सांप्रदायिकता की समस्याम को सुलझाने के बजाय और उलझा दिया, इसका पहला प्रमाण महात्मा गांधी की हत्याएं है। ध्यान देने वाली बात यह है कि विभाजन कांग्रेस की देन था और गांधी की हत्या  हिंदूवादी ताकतों ने करवाई। आज़ादी मिलने से पहले मुस्लिम लीग सबसे उग्र थी, लेकिन आज़ादी के बाद पहले दशक में कई दंगे हुए। 1950 में पश्चिम बंगाल में गोरा बाज़ार दंगा, दमदम आदि में दंगे फैले। 1954 में कुल 54 दंगे हुए, 1956 में 82 दंगे हुए, 1957 में 58 दंगे हुए तथा 1958 में 40 सांप्रदायिक दंगे हुए। 1959 में 42 और 1960 में 26 दंगे हुए। ये सरकारी आंकड़े हैं। यह सब कुछ तब हुआ जब कांग्रेस का राज था। 1962 में जबलपुर का दंगा आज़ाद भारत का सबसे बड़ा दंगा था, जिससे नेहरू हिल गए थे और उन्होंचने राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन कर डाला। सामान्यक तौर पर भारतीय धर्मनिरपेक्षता और नेहरू में विश्वास करने वाले मुसलमानों का पहली बार मोहभंग हुआ और नेहरू की कैबिनेट के मंत्री सैयद महमूद ने मजलिस-ए-मशावरात नाम का एक मुस्लिम मंच बना लिया जिसके बैनर तले तमाम मुस्लिम संगठन और धर्मनिरपेक्ष संगठन इकट्ठा हुए। यह पहला मौका था जब आज़ाद भारत में मुसलमानों का कांग्रेस से विश्वास उठ गया था।

ठीक यही वह दौर था जब 1962 और 1965 की जंग हुई और अचानक जनसंघ की लोकप्रियता में इज़ाफा हुआ। लोगों को लगा कि कांग्रेस के मुकाबले जन संघ ज्यादा देशभक्ति है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंधित संगठन आरएसएस से प्रतिबंध हटा लिया गया और उसे सम्मा‍न देने के लिए पहली बार 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में दिल्ली बुलाया गया जहां इंडिया गेट पर 200 से ज्यादा स्वयंसेवकों ने परेड में हिस्सा लिया। यह सेकुलर-सांप्रदायिक राजनीति के गठजोड़ का एक निर्णायक बिंदु था, जिसके बाद जन संघ की राजनीतिक और चुनावी ताकत बढ़ती गई। इस प्रक्रिया का चरम बिंदु 1969 के अहमदाबाद के भयावह दंगों में देखने को मिला जिसके होने से ठीक पहले बलराज मधोक वहां आए थे और गुजरात में उन्होंने कई जगह भड़काऊ भाषण दिए थे। इसी तनावपूर्ण माहौल में जन संघ ने अपने पटना अधिवेशन में ''मुसलमानों के भारतीयकरण'' का प्रस्ताव पारित किया था।

आज़ाद भारत की सांप्रदायिकता पर सबसे प्रामाणिक काम करने वाले बुद्धिजीवी असगर अली इंजीनियर ने इस तमाम घटनाक्रम को बड़े विस्तार से अपनी पुस्तिक ''भारत में सांप्रदायिकता'' में रखा है। इस इतिहास को देखकर एक बात समझ में आती है कि मुसलमानों की देशभक्ति पर संदेह करने, उनका भारतीयकरण करने की अवधारणा समेत तमाम बातों की ज़मीन दरअसल आज़ादी के शुरुआती दो दशक में कांग्रेस के राजकाज ने ही तैयार की थी और इसका प्रस्थाजन बिंदु विभाजन की त्रासदी और उससे उपजी प्रतिक्रियाएं थीं। जब मुसलमानों का मोहभंग कांग्रेस से मुकम्मल हो गया, तो आरएसएस के लिए दिल्ली में कालीन बिछा दी गई और उसने तीस साल बाद बाबरी विध्वंमस के रूप में सांप्रदायिकता की पकी फसल काट ली। इसके बाद बंबई में भयावह दंगा हुआ और करीब एक दशक बाद गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार। ज़ाहिर है, बीजेपी और उसके संघी घटकों के पास राहुल गांधी की कही बात पर आपत्ति जताने का नैतिक अधिकार नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस के पास सांप्रदायिकता के लिए अकेले बीजेपी को दोषी ठहराने की कोई ठोस नैतिक वजह नहीं। इस आज़ाद देश के सांप्रदायिक इतिहास के लिए दोनों दोषी हैं। लेकिन बात यहीं नहीं खत्म  होती है। राहुल गांधी के बयान का एक छुपा हुआ पाठ है जिसे समझना जरूरी है।

नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद 1992 का बाबरी विध्वंस, बंबई के दंगे और गुजरात-2002 सांप्रदायिक-सेकुलर जुड़वां राजनीति के वे तीन अहम पड़ाव रहे हैं जिनसे किसी भी भारतीय मुस्लिम के आतंकवादी होने को सरकारों द्वारा ''जस्टिफाई'' किया जाता रहा है। राहुल गांधी के बयान का मर्म जानने के लिए इसे समझना ज़रूरी है। आतंकवाद के नाम पर भारत में मुसलमानों की धरपकड़ का सरकारी अभियान अमेरिका द्वारा शुरू की गई ''आतंक के खिलाफ जंग'' के साथ चालू हुआ था जिसमें भारत एक ''रणनीतिक साझीदार'' था। जब भी कोई मुसलमान किसी आतंकी हमले के सिलसिले में पकड़ा गया, हमें बताया गया कि उसे बाबरी मस्जिद विध्वंस, बंबई दंगे या गुजरात दंगे के वीडियो दिखाकर दीक्षित किया गया था और आतंकी जमात में शामिल कर के प्रशिक्षण दिया गया था। बाबरी, बंबई और गुजरात के तीन पड़ाव दरअसल ''स्टेट'' के लिए एक ''रिवेंज थियरी'' का काम कर रहे थे और इसे पिछले एक दशक में भारतीय मध्यावर्ग को टीवी जैसे नए उभरे माध्यमों के सहारे कस के बेचा गया है। प्रतिशोध के इस सिद्धांत में हमेशा नई घटनाओं की जरूरत पड़ती है, लेकिन कुछ समय के बाद, जब राजनीतिक माहौल को इसकी दरकार हो। ध्यान देने वाली बात है कि दस साल बीत जाने के बाद जब बाबरी-बंबई के घाव सूख रहे थे और सारी राजनीतिक बहस विकास व जनता के असली मुद्दों के इर्द-गिर्द सिमट रही थी, गुजरात में अचानक कत्ले आम होता है और अचानक राजनीति की सूई सांप्रदायिक-सेकुलर की बहस की तरफ मुड़ जाती है।

आज गुजरात नरसंहार को भी दस साल बीत चुके हैं और राजनीतिक स्थितियां इस कदर बदल चुकी हैं कि उस नरसंहार के संरक्षक को अगले प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। समूचा खाया-पीया मध्य वर्ग नरेंद्रभाई मोदी के समर्थन में आहें भर रहा है और बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। समस्या यह है कि 2002 के लिए कोई खेद जताए बगैर या माफी मांगे बगैर मोदी ने यह स्थिति हासिल कर ली है। वे ऐसा करेंगे भी नहीं, क्योंकि उससे एक बार 2002 का संदर्भ दोबारा जिंदा हो जाएगा। कहने का मतलब ये कि गुजरात का सांप्रदायिक आख्यांन अब उसी तरह पुराना पड़ने लगा है जैसे 2002 में बाबरी का संदर्भ पुराना पड़ रहा था। अमेरिकी नीतियों से बंधी भारतीय राज्य मशीनरी की नीति चूंकि अब भी मुसलमानों के प्रति वही अलगाववादी दृष्टि रखती है, इसलिए इस मशीनरी को अपनी ''रिवेंज थियरी'' के लिए एक नया आख्यान चाहिए। आखिर आप कब तक बाबरी, बंबई और गुजरात को बेचते रहेंगे? इसीलिए राहुल गांधी का यह कहना जरूरी हो जाता है कि उन्हें इंटेलिजेंस से यह खबर मिली है कि मुजफ्फरनगर के दंगा पीडि़त युवकों से आइएसआइ संपर्क कर रही है। इससे होगा यह कि अगली बार जब कोई मुसलमान युवक आतंकवाद के आरोप में पकड़ा जाएगा तो हमें बताया जाएगा कि उसने ''कुबूल'' किया है कि मुजफ्फरनगर की घटना का बदला लेने के लिए ही उसने फलां-फलां आतंकी कार्रवाई को अंजाम दिया है। पटना की घटना ने तत्काल इस बात का सबूत सामने रख दिया है। इस तरह से दो काम एक साथ होंगे। गुजरात-2002 की स्मृीतियां धुंधली पड़ जाएंगी और नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता राज्य  मशीनरी के एक चेहरे के तौर पर बढ़ेगी तथा ''रिवेंज थियरी'' मे एक नया अध्याय जुड़ जाएगा जिसके सहारे सांप्रदायिक-सेकुलर गठजोड़ की घटिया राजनीति को अगले दस और साल तक जिलाए रखा जा सकेगा।

सवाल उठता है कि फिर कांग्रेस को इस बयान से क्या फायदा होगा? लंबी दौड़ में तो फायदा हर उस ताकत के लिए है जो केंद्र की सत्ता में आएगी और ''आतंक के खिलाफ़ जंग'' में भारत की रणनीतिक साझेदारी को बनाए रखेगी। तात्कालिक फायदा कांग्रेस को यह हो रहा है कि ऐसे बयान और घटनाएं चुनावों का एजेंडा सेट करने वाला साबित हो सकता है। ध्यान दीजिएगा कि इस चुनाव प्रचार में पहली बार ऐसा हुआ है कि राहुल गांधी के किसी बयान पर चर्चा हो रही है और नरेंद्र मोदी उस पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इससे पहले नरेंद्र मोदी बोलते थे और कांग्रेस प्रतिक्रिया देती थी। राहुल गांधी के इंदौर भाषण की पहली प्रत्यक्ष कामयाबी यही है। जिसे अब पटना का सबूत भी हासिल हो गया है।

मोदी की हुंकार से नीतीश हताश !

नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी के बारे में इतना कुछ लिखा जा रहा है, इतना कुछ उत्पादित किया जा रहा है कि इस ढेर में अपनी तरफ से कुछ बढ़ाना बारहां मुफीद नहीं लगता है। जुगुप्सा की हद तक उबाऊ और प्रहसन की हद तक हास्यास्पद यह पूरी स्क्रिप्ट इतनी वाहियात हो गयी है कि इस पर किसी तरह की प्रतिक्रिया करना भी एक कष्टसाध्य काम सा लगने लगता है। जब से मोदी को उनकी पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, तब से यह प्रहसन और भी बेढब हो गया है। उनकी हरेक रैली की इतनी ‘क्लोज़ स्क्रूटनी’ की जा रही है, जितनी शायद ही किसी और नेता की हुई हो। नौटंकी चैनल (तथाकथित न्यूज़ चैनल) के जमूरों और भाटों के अलावा सोशल मीडिया के स्वयंभू ज्ञानी, विद्वान और विचारवान भी अपने (कु)विचारों की उल्टी से आपका जी हलकान किए हुए हैं।

पटना की हुंकार रैली को लगभग पूरा एक दिन बीत चुका है और त्वरित प्रतिक्रिया की हड़बड़ी से बचने के लिए ही यह लेखक लगभग 24 घंटों तक पूरे तमाशे को साक्षी भाव से बस देखता रहा है। मीडिया की कड़ी नज़र नरेंद्रभाई की हरेक रैली पर रही है और पटना भी इससे अछूता नहीं रहा। बहरहाल, यहां बात उन स्वनामधन्य विद्वानों की, जो अपने आचरण से खुद ही हास्यास्पद बन जाते हैं।

इसके पहले, दिल्ली में भी मोदी की रैली हुई थी, उसमें विद्वानों के मुताबिक 50,000 से अधिक लोग नहीं थे (भाजपा का दावा कुछ और ही है), तो उसका पोस्टमार्टम भाई लोगों ने इस तरह किया, मानो चुनावी नतीजा बस आ ही गया है। इसके ठीक उलट, पटना की रैली शुरू भी नहीं हुई थी कि भाई लोगों ने बिल्कुल सधे अंदाज में यह भी घोषणा कर दी कि भाजपा के बिल्कुल ज़मीनी कार्यकर्ता को कितने पैसे और कितनी सुविधा इस रैली में भीड़ जुटाने के लिए दी गयी है? अव्वल तो, यह समझ नहीं आता कि भाजपा प्रबंधन समिति कि किस नेता या जिम्मेदार व्यक्ति ने भाई लोगों को बिल्कुल कान में ये सारे ‘फैक्ट्स एंड फिगर्स’ बता दिए हैं, और दूजे, अगर रैली के लिए पैसे खर्च किए भी गए, तो यह आपवादिक कहां है, सरकार?

अपवाद, तो तब होता, अगर रैली बिना पैसे के आयोजित हो जाती। यह रोग संघ, भाजपा, कांग्रेस, कौमी (कम्युनिस्ट), सपा, बसपा आदि-इत्यादि सभी दलों में एक समान है, प्रभु और उसी तरह सहज-स्वीकार्य है, जैसे गुप्त रोग। आपको अगर लगता है कि जेपी और लोहिया की तरह, आज भी नेताओं के बुलावे पर जनता अपने घर से दरी लेकर रैली में आएगी, तो आप अधिक नहीं, चार दशक पीछे जी रहे हैं, कॉमरेड। यह भी याद रखें कि जेपी और लोहिया अपने उत्तराधिकारियों के मामले में बिल्कुल ही ‘फेल्यर’ निकले। जेपी की संपूर्ण क्रांति लालू-नीतीश का कोढ़ लेकर आती है, तो लोहिया का समाजवाद मुलायम सिंह यादव जैसे लोग हाइजैक कर लेते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि बिहार-यूपी को मिलाकर सबसे अधिक सांसद आते हैं और संसदीय व्यवस्था की सड़ांध के लिए भी कार्य-कारण न्याय से यही दोनों राज्य सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं। यह भी याद दिला दें कि मोदी की रैली के ठीक पहले कौमियों (कम्युनिस्ट) की भी एक रैली उसी गांधी मैदान में हुई थी, और उसकी भीड़ को भी ‘मैनेज’ करने का आरोप लगा था।

बहरहाल, बात निकली तो यहीं नहीं रुकी, दूर तलक गयी। मोदी के भोजपुरी, मैथिली और मगही में बोलने पर भी बुद्धिजीवियों के पेट में दर्द हो गया। अरे भाई, यह कौन सी बड़ी बात है और मोदी तो खासतौर पर यह करते हैं। उनके पहले भी कई नेता ऐसा कर चुके हैं। सुषमा दी से लेकर स्वर्गीय राजीव गांधी तक, जो क्षेत्रीय भाषा में एक-दो वाक्य बोल कर स्थानीय जनता से अपना तार जोड़ना चाहते हैं। अब उसमें आप भाषा और शैली का ऑपरेशन करेंगे, तो आपकी बलिहारी है, भाई। इस बात के लिए तो आपको उस नेता को बधाई देनी चाहिए, जो कुछ लुप्तप्राय परंपराओं को जीवित करने की कोशिश में जुटा है। कभी कुछ ठीक चीजों को सराहना भी सीखो कॉमरेड, सोवियत संघ का अंत हुए तो ज़माना बीत गया है।

मोदी की सभा के ठीक पहले लगातार सात बम धमाके पटना में हुए और सभी रैली-स्थल के दो-ढाई किलोमीटर के इर्द-गिर्द ही हुए। पांच लोगों के मरने और लगभग 70 के घायल होने की ख़बर पुष्ट की जा चुकी है। घायलों में आठ की हालत गंभीर है। इस लेखक के लिए यह सचमुच अबूझ प्रश्न है कि इतने धमाकों के बावजूद रैली क्यों हुई? लोग पूरी गंभीरता से मोदी को कैसे सुनते रहे? और, सबसे बड़ा प्रश्न कि, नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी ने अपने पूरे भाषण में इन धमाकों का जिक्र क्यों नहीं किया?

बहरहाल, इस पर कौमी विद्वानों और स्वनामधन्य चिंतकों की प्रतिक्रिया भी उनके चरित्र के मुताबिक ही है। धमाकों के तुरंत बाद तथाकथित ‘सिकुलर’ विद्वानों ने फतवा दे दिया कि ये संघ-प्रायोजित थे। गोया, संघ के सरसंघचालक ने इन गपोड़ियों को फोन पर या मेल पर यह जानकारी दी हो और इसकी जिम्मेदारी ली हो। मूर्खता की सचमुच कोई हद नहीं होती है।

वैसे, राजनीति को पुंश्चला भी कहा गया है। चाणक्य से लेकर मैकियावेली तक राजनीतिक चिंतकों ने राजनीति का एकमात्र धर्म सत्ता की प्राप्ति कहा है। इसी वजह से अगर आप तार्किक हैं, तो राजनेताओं से बहुत अधिक शुचिता और नैतिकता की उम्मीद आपको नहीं करनी चाहिए। बात बस दांव पड़ने की है, बिहारी भाषा में कहें, तो जिसका ‘लह’ जाए। हां, आवरण के तौर पर भी मोदी एंड कंपनी को यह जवाब तो देना ही पड़ेगा कि धमाकों पर अपने भाषण में उन्होंने कुछ क्यों नहीं कहा? गुजरात-दंगों पर उनकी चुप्पी अब तक उनको ‘हांट’ कर रही है, कहीं यह भी उनको भारी न पड़ जाए। या फिर, नोट्स देखकर बोलने की वजह से तो उनकी रफ्तार मद्धम नहीं पड़ रही।

 वह पीएम पद के प्रत्याशी हैं, पीएम होने के बाद तो उन्हीं के दल के वाग्मी नेता अटल बिहारी की बोलती भी बंद हो गयी थी। सत्ता की रपटीली राह अभी बाकी है, मोदी के लिए और उनको यह भी याद रखना चाहिए कि इतिहास तो बड़ा क्रूर-निर्मम होता है, वह अपने हिसाब-किताब में किसी को नहीं बख्शता।

भूटान में मीडिया संकट !

सात लाख चालीस हजार की आबादी। तिरसठ फीसदी साक्षरता। पूरी दुनिया के उलट अपने उत्पादन को विकास का पैरामीटर बनाने की बजाय अपने नागरिकों की खुशहाली को अपने विकास का पैरामीटर बनाने वाला भूटान एकमात्र और अनोखा देश है। ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्शन की बजाय टोटल हैपिनेस के लिए काम कर रहे भूटान प्रशासन के लिए निश्चित रूप से लोकतंत्र होने का यह बहुत कड़वा अनुभव है। लोकतंत्र के प्रहरी अखबार बुरी तरह से टूट रहे हैं। पत्रकार पत्रकारिता से अलग हो रहे हैं और भूटान का सबसे बड़े दो अखबार भी दस बारह लोगों के स्टाफ के भरोसे छापे जा रहे हैं। भूटान की मीडिया पर विशाल अरोड़ा की यह महत्वपूर्ण रिपोर्ट वालस्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित हुई है। उसी रिपोर्ट के महत्वपूर्ण हिस्सों का अनुवाद। 

भूटान दुनिया का एकमात्र देश है, जो अपने नागरिकों की खुशी को मुख्य सरकारी नीति बनाने का दावा करता है। लेकिन अगर आप देश के निजी पत्रकारों से पूछेगें, तो वो अलग ही राय बताएंगे। देश के पहले निजी अखबार, भूटान टाइम्स, के 2008 में करीब 100 कर्मचारी थे। आज, आप इस साप्ताहिक अखबार के कर्मचारियों की गिनती उगंलियों पर कर सकते हैं। द भूटान ऑब्ज़र्वर की कहानी भी कमोबेश ऐसी ही है। अखबार के 56 कर्मचारी घटकर अब 10 रह गए हैं। इतना ही नहीं पिछले ही महीने इस साप्ताहिकी को अपना प्रिंट संस्करण भी बंद कर देना पड़ा। आज भूटान के दैनिक अखबार हफ्ते में दो दिन वाले बनकर रह गए हैं, दूसरे मीडिया हाउसों ने भी अपने कर्मचारियों की छंटनी की है और मौजूदा कर्मचारियों को तनख्वाह देने के लिए संघर्षरत्त हैं। भूटान ऑब्ज़र्वर के संपादक नीदरप जांगपो कहते हैं “निजी अखबार पूरी तरह अवहनीय हैं और हम निकट भविष्य में किसी तरह की उम्मीद नहीं कर रहे”।

संवैधानिक राजतंत्र बन चुके भूटान ने 2008 में अपने पहले लोकतांत्रिक चुनावों से पूर्व 2006 में स्वतंत्र निजी मीडिया को काम करने की स्वीकृति दी थी। तब तक, राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता भूटान ब्रॉडकास्टिंग सर्विस (बीबीएस) और पूरी तरह सरकारी स्वामित्व वाला दैनिक क्यूनसेल ही देश में समाचार परोसा करते थे। पहले दो सालों में आए निजी मीडिया के दो संस्करण हाथों-हाथ लिए गए। लेकिन जब संस्करणों की संख्या करीब दर्जनभर हुई, तो लाभ कम हो गया। क्योंकि सारे अखबार 90 फीसदी लाभ के लिए सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर हैं, लिहाज़ा प्रत्येक प्रकाशन में विज्ञापनों की संख्या का हिस्सा स्वाभाविक तौर पर कम होता चला गया, श्री जांगपो ने बताया। लेकिन स्थिति का बद से बदतर होना अभी बाकी था।

कुछ सालों के अंदर-अंदर, इस छोटे राष्ट्र में आई आर्थिक मंदी के कारण ये हिस्सा आकार में खुद-ब-खुद कम हो गया। हालांकि कुछ मानते हैं कि इसमें पिछली सरकार का हाथ है। उनका कहना है कि निजी मीडिया ने आरोप-प्रत्यारोप वाली खबरें दिखाईं, तो पिछली सरकार ने बहाना बनाते हुए आर्थिक मंदी को उनके खिलाफ इस्तेमाल किया। गौरतलब है कि पाक्षिक अखबार द भूटानीज़ ने तत्कालीन सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा किया था। ऐसा भूटान द्वारा न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र सभा के 66वें सत्र में सकल राष्ट्रीय खुशी पर उच्च-स्तरीय बैठक आयोजित करने के दौरान हुआ।

चेंचो डेमा एक ऐसी ही उदाहरण हैं। पिछले पांच महीनों से उन्हें पूरी तनख्वाह नहीं मिली है। “मैं सुबह 10 बजे अपने तीन महीने के बच्चे को लेकर ऑफिस आ जाती थी, क्योंकि घर पर उसे संभालने वाला कोई नहीं था। मैं घर वापस करीब रात 10 बजे ही जा पाती थी, इसके बावजूद मुझे अपनी तनख्वाह का एक हिस्सा ही नसीब होता था, जो महज़ घर का किराया देने में खत्म हो जाता,” अखबार का नाम गुप्त रखने वाली सुश्री डेमा ने बताया। “भूटान के निजी मीडिया के पत्रकारों में खुशी का अनुपात निराशाजनक है,” एबे थारकन ने कहा। श्री थारकन भारत से हैं और फिलहाल थिंपू में रह रहे हैं, वो 2006 से भूटान के निजी मीडिया से जुड़े हुए हैं।

देश के अकेले कारोबारी अखबार बिज़नेस भूटान को छोड़ने वाले पूर्व संपादक ताशी दोरजी ने पत्रकारिता ही छोड़ दी है, वो इस बात से सहमत हैं। “जब तक निजी मीडिया के अस्तित्व के लिए कोई बड़ा नीतिगत परिवर्तन नहीं किया जाता, तब तक निराशा ही है,” श्री दोरजी ने कहा। वे ऐसे अकेले पत्रकार नहीं जिन्होंने मोहभंग होने पर ये क्षेत्र छोड़ दिया हो। भूटान पत्रकार संगठन के अध्यक्ष और महासचिव भी अब अखबारों से संबद्ध नहीं हैं, हालांकि वो अब भी इस कारोबार से जुड़े ज़रूरतमंदों की मदद करते हैं। 

पिछले महीने के आखिर में राष्ट्र की अपनी पहली रिपोर्ट में, प्रधानमंत्री त्सेरिंग तोबगे ने स्वीकार किया था कि प्रिंट मीडिया की वित्त स्थिति उत्साहजनक नहीं है। उन्होंने इस संदर्भ में ज़रूरी कदम उठाने की बात भी की थी, लेकिन ये नहीं बताया कि वो क्या होगें या कब उठाए जाएगें। भूटान सरकार में सूचना और संचार सचिव दाशो कीनले दोरजी कहते हैं- एक छोटे बाज़ार के लिए यहां ढेरों अखबार हैं और सरकार के पास बेतहाशा पैसा नहीं है। दोरजी आगे कहते हैं कि “अखबार शुरू करना हर नागरिक का अधिकार है, लिहाज़ा हमें एक उदारवादी नीति अपनानी होगी….बाज़ार को फैसला लेने दीजिए”। उन्होंने कहा कि संकट से निपटने के लिए उन्होंने कुछ कदम प्रस्तावित करने की योजना बनाई है और सरकार जल्द ही इनका सविस्तार खुलासा करेगी।

26 October 2013

महाराजा हरि सिंह की वीर गाथा- जम्मू कश्मीर विलय दिवस (26 अक्टूबर) पर विशेष

इतिहास ने जितना अन्याय जम्मू कश्मीर के अंतिम महाराजा हरि सिंह के साथ किया उतना शायद किसी अन्य के साथ न किया हो। जम्मू कश्मीर को लेकर जितना कुछ लिखा गया है शायद भारत की किसी भी रियासत को लेकर इतना न लिखा गया हो। जब किसी विषय पर ज़रुरत से ज़्यादा लिखा, बोला या कहा जाये, स्वभाविक ही संदेह होता है कि या तो सच्चाई को छिपाने का प्रयास किया जा रहा है, या फिर उसे इतना उलझाने का प्रयास किया जा रहा है कि बाद में सत्य तक पहुँचना ही मुश्किल हो जाये। या फिर इतना ज़ोर से चिल्लाया जाता है कि उस शोर में सत्य दब कर रह जाये। अपराध बोध से मुक्ति का एक और तरीक़ा भी होता है। अपने पक्ष में ही दूसरे लोग खड़े कर लिये जायें ताकि भीड़ देखकर स्वयं को ही लगने लगे कि मेरा पक्ष और निर्णय ठीक था। यह अपनी अन्तरात्मा को दबाने की कठिन साधना ही कही जा सकती है। जम्मू कश्मीर के बारे में पंडित जवाहर लाल नेहरु के भाषण, आलेख और स्पष्टीकरण पढ़ेंगे तो आपको वे एक साथ, ये सभी साधनाएँ करते दिखाई देते हैं। 

जम्मू कश्मीर में जो कुछ हो रहा था, उसके लिये किसी न किसी को अपराधी ठहराना ज़रुरी था, ताकि इतिहास का पेट भरा जा सके। इसके लिये महाराजा हरि सिंह से आसान शिकार और कौन हो सकता था, ख़ासकर उस समय, जब उनका अपना बेटा कर्ण सिंह भी उनका साथ छोड़ कर नेहरु के साथ मिल गया हो। बक़ौल कर्ण सिंह, नेहरु की लिखी दो किताबें पढ़ कर ही मेरे अन्दर के दरवाज़े खुल गये थे और मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो गई थी। हरि सिंह के अपने ही चिराग़-ए-ख़ानदान कर्ण सिंह ज्ञान प्राप्ति के बाद रीजैंट बन गये और हरि सिंह मुम्बई में निष्कासित जीवन जीने के लिये अभिशप्त हुए। लेकिन कम्बख़्त सच्चाई ऐसी चीज़ है जो इन सभी तांत्रिक साधनाओं के बावजूद पीछा नहीं छोड़ती। हर युग का इतिहास साक्षी है कि जब सत्य का सामना करना बहुत मुश्किल हो जाता है तो उससे बचने के लिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाना ज़रुरी हो जाता है। 

बीसवीं शताब्दी में जब जम्मू कश्मीर को लेकर सक्रिय भूमिका निभाने वाले सभी पात्रों के पाप उन्हीं पर भारी पड़ने लगे तो उनके लिये ज़रुरी हो गया था कि उनके झूठ को ही सत्य का दर्जा दे दिया जाये और उनके पाप को ही पुण्य मान लिया जाये। इसलिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाया जाना ज़रुरी हो गया था। जिस महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर से जम्मू कश्मीर रियासत ने देश की संघीय लोकतांत्रिक सांविधानिक व्यवस्था को स्वीकार किया, बाद में उस्तादों ने उन्हीं को कटघरे में खड़ा कर दिया और ख़ुद न्यायाधीश के आसन पर जा बिराजे। दुर्भाग्य से महाराजा हरि सिंह के बारे में अभी तक जो कहा सुना जा रहा है, वह इन्हीं न्यायाधीशों द्वारा न्याय के तमाम सिद्धान्तों को ताक पर रखते हुये, जारी फ़तवे मात्र हैं। सीनाज़ोरी यह कि उन्हीं फ़तवों को इतिहास मानने का आग्रह किया जा रहा है।

जम्मू कश्मीर रियासत का विलय देश की नई प्रशासनिक व्यवस्था में अंग्रेजों के चले जाने के लगभग दो महीने बाद 26 अक्तूबर 1947 को हुआ। वह भी तब जब  रियासत पर कबायलियों के रुप में पाकिस्तानी सेना ने आक्रमण कर दिया और उसके काफ़ी हिस्से पर कब्जा कर लिया। महाराजा ने तब विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये। बाद में इतिहास में यही प्रचारित किया गया कि महाराजा हरि सिंह भारत में शामिल होने के इच्छुक ही नहीं थे और जम्मू कश्मीर को आजाद देश बनाना चाहते थे। इसे भारतीय इतिहास की त्रासदी ही कहा जायेगा कि महाराजा ने भी कभी जनता के सामने अपना पक्ष रखने की कोशिश नहीं की । शेख अब्दुल्ला ने बाद में अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार के माध्यम से महाराजा पर और ज्यादा दोषारोपण किया। 

महाराजा हरि सिंह के पुत्र डा० कर्ण सिंह अवश्य अपने पिता का पक्ष देश के सामने रख सकते थे लेकिन उससे पंडित जवाहर लाल नेहरु के नाराज होने का ख़तरा था जिससे उनकी भविष्य की राजनीति गड़बड़ा सकती थी। वैसे भी कर्ण सिंह संकट काल में अपने पिता का साथ छोड़कर नेहरु के साथ हो लिये थे क्योंकि उनके पिता हरि सिंह अब भूतकाल थे और नेहरु भविष्य । कर्ण सिंह अपने पिता को सामन्ती परम्परा की खुरचन बताते हैं और स्वयं को लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुयायी। अपने इसी लोकतांत्रिक प्रेम को वे हरि सिंह का साथ छोड़ देने का मुख्य कारण बताते हैं । लेकिन ताज्जुब है उसी सामन्ती परम्परा के प्रसाद के रुप में वे सालों साल सदरे रियासत और राज्यपाल का पद भोगते रहे।

इसमें अब कोई शक नहीं कि ब्रिटेन सरकार हर हालत में जम्मू कश्मीर रियासत पाकिस्तान को देना चाहती थी। लेकिन उनके दुर्भाग्य से भारत स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के माध्यम से वे केवल ब्रिटिश भारत का विभाजन कर सकती थी, भारतीय रियासतों का नहीं। महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये। दबाव डालने के लिये लार्ड माँऊटबेटन १५ अगस्त से दो मास पहले श्रीनगर भी गये थे। महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने लिये तैयार नहीं थे और अंतिम दिन तो उन्होंने दबाव से बचने के लिये माँऊंटबेटन से मिलने से ही इन्कार कर दिया था। महाराजा कहीं रियासत को भारत में न मिला दे,इसको रोकने के लिये ब्रिटेन ने पंद्रह अगस्त तक भारत और पाक की सीमा ही घोषित नहीं की और अस्थाई तौर पर गुरदासपुर ज़िला पाकिस्तान की सीमा में घोषित कर दिया।  

इस तकनीक के बहाने महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये परोक्ष दबाव ही डाला जा रहा था, लेकिन वे इस दबाव में नहीं आये। उन्होंने कहा किश्तवाड को हिमाचल प्रदेश के चम्बा से जोड़ने वाली सड़क बना ली जायेगी। लेकिन सीमा आयोग की रपट को लार्ड  माँऊटबेटन आखिर बहुत देर तक तो दबा नहीं सकते थे। जब सीमा आयोग की रपट आई तो शकरगढ़ तहसील को छोडंकर सारा गुरदासपुर ज़िला भारत में था और इस प्रकार जम्मू कश्मीर रियासत सड़क मार्ग से पंजाब से जुड़ती थी। हरि सिंह एक ओर से निश्चिंत हो गये। 

इस पृष्ठभूमि में इस प्रश्न पर विचार करना आसान होगा कि महाराजा ने रियासत को भारत में शामिल करने में इतनी देर क्यों की? इस मरहले पर नेहरू और शेख अब्दुल्ला की भूमिका सामने आती है। ब्रिटिशकाल में रियासतों में काँग्रेस ने अपनी शाखायें नहीं खोली थीं जबकि मुस्लिमलीग की शाखा प्राय प्रत्येक रियासत में थी । रियासतों में राजाओं के अत्याचारी शासन के खिलाफ़ लोगों ने प्रजा मंडल के नाम से संगठन बनाये हुये थे जिनका संघर्ष का शानदार इतिहास है। मुस्लिम सांप्रदायिकता की केन्द्रस्थली अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में प्रजा मंडल के नाम से नहीं बल्कि मुस्लिम कान्फ्रेंस के नाम से आन्दोलन शुरू किया लेकिन वह राजाशाही के खिलाफ़ न होकर डोगरों के खिलाफ़ था। शेख अब्दुल्ला का नारा राजाशाही का नाश नहीं था बल्कि डोगरो कश्मीर छोड़ो था। मतलब साफ था कि डोगरों का राज कश्मीर से समाप्त होना चाहिये , राज्य के अन्य संभागों में रहता है तो शेख को कोई एतराज नहीं था।

 वैसे तो अब्दुल्ला चाहते तो मुस्लिम लीग ही बना सकते थे लेकिन मुस्लिम नेतृत्व को लेकर अब्दुल्ला और जिन्ना में जिस कदर टकराव था उसमें यह संभव ही नहीं था। जिन्ना अपने आप को पूरे दक्षिण एशिया के मुस्लमानों का नेता मानने लगे थे। उनकी नज़र में शेख अब्दुल्लाल की हैसियत स्थानीय नेता से ज्यादा नहीं थी, फिर ब्रिटिश सरकार भी जिन्ना के पक्ष में ही थी। उधर अब्दुल्ला भी दोयम दर्जा स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। लेकिन शेख अब्दुल्ला को डोगरों के खिलाफ़ अपनी इस लड़ाई में किसी न किसी की सहायता तो चाहिये ही थी। जिन्ना के कट्टर विरोधी जवाहर लाल नेहरू से ज्यादा उपयोगी भला इस मामले में और कौन हो सकता था? लेकिन उसके लिये ज़रूरी था कि अब्दुल्ला पंथ निरपेक्ष और समाजवादी प्रगतिवादी शक्ल में नज़र आते।

इस मौके पर साम्यवादी तत्वों की अब्दुल्ला के साथ संवाद रचना महत्वपूर्ण है। साम्यवादी नहीं चाहते थे कि रियासत का भारत में विलय हो। रियासत की सीमा रूस और चीन के साथ लगती है और साम्यवादी पार्टी चीन के साथ मिल कर ही उन दिनों भारत में सशस्त्र क्रांति के सपने देख रही थी। उनकी दृष्टि में इस क्रांति की शुरूआत कश्मीर से ही हो सकती थी। इसके लिये ज़रूरी था या तो कश्मीर आजाद रहता या शेख अब्दुल्ला के कब्जे में। तभी साम्यवादियों का क्रांति का सपना पूरा हो सकता था। वैसे भी साम्यवादी उन दिनों पूरे हिन्दोस्तान को विभिन्न राष्ट्रियताओं का जमावडा ही मानते थे और उस नाते कश्मीर की आजादी के सबसे बडे पक्षधर थे। शेख अब्दुल्ला और साम्यवादियों ने इस प्रकार एक दूसरे का प्रयोग अपने अपने हित के लिये करना शुरू किया। शेख अब्दुल्ला को तो इसका तुरन्त लाभ हुआ। नेहरू की दृष्टि में अब्दुल्ला समाजवादी बन गये जबकि श्रीनगर की मस्जिद में वे हिन्दुओं के खिलाफ़ पहले की तरह ही जहर उगलते थे।

पंडित नेहरु को महाराजा से अपना पुराना हिसाब चुकता करना था। कुछ महीने पहले ही कश्मीर की सीमा पर खडे होकर नेहरु ने कश्मीर के राज्यपाल को कहा था," तुम्हारा राजा कुछ दिन बाद मेरे पैरों पड़कर गिडगिडायेगा।" शायद महाराजा का कसूर केवल इतना था कि १९३१ में ही उन्होंने लंदन में हुई गोल मेज कान्फ्रेंस में ब्रिटेन की सरकार को कह दिया था कि,"हम भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में एक साथ हैं।" उस वक्त वे किसी रियासत के राजा होने के साथ साथ एक आम गौरवशाली हिन्दुस्तानी के दिल की आवाज की अभिव्यक्ति कर रहे थे। हरि सिंह ने तो उसी वक्त अप्रत्यक्ष रुप से बता दिया था कि भारत की सीमाएं जम्मू कश्मीर तक फैली हुई हैं। लेकिन पंडित नेहरु १९४७ में भी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अडे हुए थे कि जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा तभी माना जायेगा जब महाराजा हरिसिंह सत्ता शेख अब्दुला को सौंप देंगे। ऐसा और किसी भी रियासत में नहीं हुआ था। शेख इतनी बडी रियासत में केवल कश्मीर घाटी में भी कश्मीरी भाषा बोलने वाले केवल सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे।

 बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक पद्धति से शेख को सत्ता सौंप देने का अर्थ लोगों की इच्छा के विपरीत एक नई तानाशाही स्थापित करना ही था। नेहरु तो विलय की बात हरि सिंह की सरकार से करने के लिये भी तैयार नहीं थे। विलय पर निर्णय लेने के लिये वे केवल शेख को सक्षम मानते थे, जबकि वैधानिक व लोकतांत्रिक दोनों दृष्टियों से यह गलत था। महाराजा इस शर्त को मानने के लिये किसी भी तरह तैयार नहीं थे।

नेहरु चाहते थे कि हरि सिंह उसके पैरों पर गिरकर गिडगिडायें, लेकिन इतना तो कर्ण सिंह भी मानेंगे कि उस वक्त तक डोगरा राजवंश में यह बीमारी आई नहीं थी। नेहरू का दुराग्रह इस सीमा तक बढ़ा कि उन्होंने अब्दुल्ला की खातिर कश्मीर को भी दाँव पर लगा दिया। माऊंटबेटन के खासुलखास रहे और उस वक़्त रियासती मंत्रालय के सचिव वी.पी.मेनन के अनुसार, हमारे पास उस समय कश्मीर की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं था । दिल्ली के पास महाराजा से बात करने का समय ही नहीं था और नेहरु शेख के सिवा किसी से बात करने को तैयार ही नहीं थे, उस वक़्त पूरी योजना से अफ़वाहें फैलाना शुरु कर दीं कि महाराजा तो जम्मू कश्मीर को आज़ाद देश बनाना चाहते हैं। कहानी होगा कि सरकारी इतिहासकारों ने इन अफ़वाहों को हाथों हाथ लिया और इसे ही इतिहास घोषित करने में अपना तमाम कौशल लगा दिया। जब की असलियत यह थी कि नेहरु के लखत-ए-जिगर शेख अब्दुल्ला ही रियासत को आजाद देश बनाना चाहते थे। खतरा उनको इतना ही था कि आजाद जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान ज्यादा देर आजाद रहने नहीं देगा और उस पर कब्जा कर लेगा ।

 इसलिये अपने स्वपनों के आजाद जम्मू कश्मीर को स्थायी रुप से आजाद रखने के लिये शेख को केवल भारतीय सेना की सुरक्षा चाहिये थी और इसी के लिये वे जवाहर लाल नेहरु की मूंछ के बाल बन कर घूम रहे थे । इतना ही नहीं जब पाकिस्तान ने रियासत पर हमला ही कर दिया और उसका काफ़ी भूभाग जीत लिया तब भी पंडित नेहरू रियासत का विलय भारत में स्वीकारने के लिये तैयार नहीं हुये। उनकी शर्त राष्ट्रीय संकट की इस घडी में भी वही थी कि पहले सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दो तभी जम्मू कश्मीर का भारत में विलय स्वीकारा जायेगा और सेना भेजी जायेगी। यही कारण था कि महाराजा को विलय पत्र के साथ अलग से यह भी लिख कर देना पड़ा कि अब्दुल्ला को आपातकालीन प्रशासक बनाया जा रहा है। एक बार हाथ में सत्ता आ जाने के बाद उसने  क्या क्या नाच नचाये, यह इतिहास सभी जानते हैं। अब्दुल्ला ने नेहरू के साथ मिल कर महाराजा हरि सिंह को रियासत से ही निष्कासित करवा दिया और मुम्बई में गुमनामी के अन्धेरे में ही उनकी मृत्यु हुई

महाराजा हरि सिंह एक साथ तीन तीन मोर्चों पर अकेले लड रहे थे। पहला मोर्चा भारत के गवर्नर जनरल और ब्रिटिश सरकार का था जो उन पर हर तरह से दबाव ही नहीं बल्कि धमका भी रहा था कि रियासत को पाकिस्तान में शामिल करो। दूसरा मोर्चा मुस्लिम कान्फ्रेस और पाकिस्तान सरकार का था जो रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा को बराबर धमका रही थी और जिन्ना २६ अक्तूबर १९४७ को ईद श्रीनगर में मनाने की तैयारियों में जुटे हुये थे। तीसरा मोर्चा जवाहर लाल नेहरु और उनके साथियों का था जो रियासत के भारत में विलय को तब तक रोके हुये थे, जब तक महाराजा शेख के पक्ष में गद्दी छोड़ नहीं देते। नेहरु ने तो यहाँ तक कहा कि यदि पाकिस्तान श्रीनगर पर भी क़ब्ज़ा कर लेता है तो भी बाद में हम उसको छुड़ा लेंगे, लेकिन जब तक महाराजा शेख की ताजपोशी नहीं कर देते तब तक रियासत का भारत में विलय नहीं हो सकता। इसे त्रासदी ही कहा जायेगा, जब महाराजा अकेले इन तीन तीन मोर्चों पर लड़ रहे थे तो उनका अपना बेटा, जिसे वे सदा टाईगर कहते थे, उन्हें छोड़ कर नेहरु के मोर्चे में शामिल हो गया।

महाराजा हरि सिंह ने माँऊटबेटन के प्रयासों को असफल करते हुये रियासत को भारत में मिलाने के लिये जो संघर्ष किया उसे इतिहास में से मिटाने का प्रयास हो रहा है। जून १९४७ में लार्ड माऊंटबेटन का श्रीनगर जाकर हरि सिंह से बात करने को इतिहास में जिस गलत तरीके से लिखा गया है और अभी भी पेश किया जा रहा है, उसे पढ कर दुख होता है। माऊंटबेटन के ब्रिटिश जीवनीकार लिखें यह समझ में आता है, लेकिन भारतीय इतिहासकार भी उसी की जुगाली कर रहे हैं। माऊंटबेटन हरि सिंह के पुराने परिचित थे। वे विभाजन पूर्व हरि सिंह को समझाने के लिये श्रीनगर गये । आध्कारिक इतिहास के अनुसार उन्होंने हरि सिंह को कहा कि १५ अगस्त से पहले पहले आप किसी भी राज्य भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाओ। यदि १५ अगस्त तक किसी भी देश में न शामिल हुए तो तुम्हारे लिये समस्याएं पैदा हो जायेंगीं। ऊपर से देखने पर यह सलाह बहुत ही निर्दोष लगती है। इस पृष्ठभूमि में कोई भी कह सकता है कि रियासत में जो घटनाक्रम हुआ उस का कारण महाराजा का १५ अगस्त तक निर्णय न ले पाना ही नहीं था।

लेकिन यह उतना सच है जितना दिखाई देता है। छिपा हुआ सच कहीं ज्यादा कष्टकारी है। माऊंटबेटन भारत सरकार से यह आश्वासन लेकर गये थे कि यदि महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में शामिल होते हैं तो उनको कोई एतराज नहीं होगा। परोक्ष रुप से माऊंटबेटन हरि सिंह को गारंटी दे रहे थे कि पाकिस्तान में शामिल होने के लिये भारत सरकार से डरने की जरुरत नहीं है। इसके साथ माऊंटबेटन ने एक और शर्त लगाई कि किसी देश में भी शामिल होने से पहले प्रजा की राय लेना बहुत जरुरी है। ताज्जुब है माऊंटबेटन यही सलाह अपने दूसरे मित्र हैदराबाद के नबाब को नहीं दे रहे थे, जिसके सेनाएँ भारत की सेना से भिड़ने की तैयारी कर रही थी। माऊंटबेटन के लिये प्रजा कि राय जानने का स्पष्ट अर्थ यही था कि हर हालत में पाकिस्तान में शामिल हो जाओ। एक संकेत और भी कर दिया कि पाकिस्तान की संविधान सभा भी गठित हो जाने दो। माऊंटबेटन स्पष्ट ही रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा की घेराबन्दी कर रहे थे। 

जब हरि सिंह ने उस घेराबन्दी को तोड दिया तो माऊंटबेटन ने गुस्से में हरि सिंह के बारे में कहा,"बलडी बास्टर्ड"। वैसे तो यह गाली ही हरि सिंह की भारत भक्ति का सबसे बडा प्रमाणपत्र है। यदि नेहरु इस ज़िद पर न अडे रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाये, तो रियासत का विलय भारत में १५ अगस्त १९४७ से पहले ही हो जाता और राज्य का इतिहास दूसरी तरह लिखा जाता। बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि महाराजा हरि सिंह ने तो पूरे का पूरा राज्य दिया था, लेकिन नेहरु ने उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिये था, बाक़ी उन्होंने पाकिस्तान के पास ही रहने दिया।

माऊंटबेटन और उसकी जीवनी लेखकों ने तो कभी इस बात को नहीं छिपाया कि उनकी रुचि रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की थी । लेकिन नेहरु और उनके जीवनीकारों ने सदा ही रियासत के मामले में की गई अपनी गल्तियों को महाराजा हरि सिंह के मत्थे मढ़ने के सफल प्रयास किये। इसे हरि सिंह के ह्रदय की विशालता ही कहना होगा कि वे मुम्बई में चुपचाप अपमान के इस विष को पीते रहे लेकिन उन्होंने अन्तिम श्वास तक अपना मुँह नहीं खोला। शेख मुहम्मद अब्दुल्ला की तरह किसी मोहम्मद युसफ टेंग को पास बिठाकर अपनी जीवनी भी नहीं लिखवाई। 

मुम्बई में टेंगों की कमी तो नहीं थी। लेकिन यदि हरि सिंह किसी टेंग को पास बिठा लेते तो यक़ीनन नेहरु इतिहास के कटघरे में खड़े होते। नेहरु को कटघरे में खड़ा करने की बजाय हरि सिंह ने ख़ुद उस कटघरे में खड़ा होना स्वीकार कर लिया। अब समय आ गया है कि महाराजा हरि सिंह को सलीब से उतारकर इतिहास में उन्हें उनका सम्मानजनक स्थान दिया जाये ।

25 October 2013

क्या भारतीय मीडिया वंशवाद का उद्योग बन गया है ?

मीडिया घरानों की “नापाक गठजोड़” में हम आपको एक ऐसे नेक्सस  को उजागर कर रहे है जिसे सुन कर आप हैरान रह जायेंगे ! आप एक एक कर के सिर्फ पढ़ते जायें आपको पता चल जायेगा इस देश को कौन और कैसे चला रहा है, और मीडिया आज सरकार से लेकर न्यायपालिका तक को कैसे अपने ताकत का इस्तेमाल कर के फैसले तक बदलवा रहा है! किस तरह ये सब लोग मिलकर सत्ता संस्थान के शिखरों के करीब रहते हैं! सुज़ाना अरुंधती रॉय, प्रणव रॉय (नेहरु डायनेस्टी टीवी- NDTV) की भांजी हैं। प्रणव रॉय “काउंसिल ऑन फ़ॉरेन रिलेशन्स” के इंटरनेशनल सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं। इसी बोर्ड के एक अन्य सदस्य हैं मुकेश अम्बानी। प्रणव रॉय की पत्नी हैं राधिका रॉय। राधिका रॉय, बृन्दा करात की बहन हैं। बृन्दा करात, प्रकाश करात (CPI) की पत्नी हैं। प्रकाश करात चेन्नै के “डिबेटिंग क्लब” के सदस्य थे। एन राम, पी चिदम्बरम और मैथिली शिवरामन भी इस ग्रुप के सदस्य थे। इस ग्रुप ने एक पत्रिका शुरु की थी “रैडिकल रीव्यू”। CPI(M) के एक वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी की पत्नी हैं सीमा चिश्ती। सीमा चिश्ती इंडियन एक्सप्रेस की “रेजिडेण्ट एडीटर” हैं।           
                                                                                               
बरखा दत्त NDTV में काम करती हैं। बरखा दत्त की माँ हैं श्रीमती प्रभा दत्त। प्रभा दत्त हिन्दुस्तान टाइम्स की मुख्य रिपोर्टर थीं। राजदीप सरदेसाई पहले NDTV में थे, अब CNN IBN के हैं राजदीप सरदेसाई की पत्नी हैं सागरिका घोष। सागरिका घोष के पिता हैं दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक भास्कर घोष। सागरिका घोष की आंटी रूमा पॉल हैं। रूमा पॉल उच्चतम न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश हैं। सागरिका घोष की दूसरी आंटी अरुंधती घोष हैं। अरुंधती घोष संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थाई प्रतिनिधि हैं।CNN-IBN का “ग्लोबल बिजनेस नेटवर्क” (GBN) से व्यावसायिक समझौता है। GBN टर्नर इंटरनेशनल और नेटवर्क-18 की एक कम्पनी है। NDTV भारत का एकमात्र चैनल है  “अधिकृत रूप से” पाकिस्तान में दिखाया जाता है। दिलीप डिसूज़ा PIPFD (Pakistan-India Peoples’ Forum for Peace and Democracy) के सदस्य हैं। दिलीप डिसूज़ा के पिता हैं जोसेफ़ बेन डिसूज़ा। जोसेफ़ बेन डिसूज़ा महाराष्ट्र सरकार के पूर्व सचिव रह चुके हैं। तीस्ता सीतलवाड भी PIPFD की सदस्य हैं। तीस्ता सीतलवाड के पति हैं जावेद आनन्द। जावेद आनन्द एक कम्पनी सबरंग कम्युनिकेशन और एक संस्था “मुस्लिम फ़ॉर सेकुलर डेमोक्रेसी” चलाते हैं। इस संस्था के प्रवक्ता हैं जावेद अख्तर। जावेद अख्तर की पत्नी हैं शबाना आज़मी। करण थापर ITV के मालिक हैं। ITV बीबीसी के लिये कार्यक्रमों का भी निर्माण करती है। करण थापर के पिता थे जनरल प्राणनाथ थापर (1962 का चीन युद्ध इन्हीं के नेतृत्व में हारा गया था)। करण थापर बेनज़ीर भुट्टो और ज़रदारी के बहुत अच्छे मित्र हैं।करण थापर के मामा की शादी नयनतारा सहगल से हुई है। नयनतारा सहगल, विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी हैं। विजयलक्ष्मी पंडित, जवाहरलाल नेहरू की बहन हैं।

मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आन्दोलन की मुख्य प्रवक्ता और कार्यकर्ता हैं। नबाआं को मदद मिलती है पैट्रिक मेकुल्ली से जो कि “इंटरनेशनल रिवर्स नेटवर्क (IRN)” संगठन में हैं। अंगना चटर्जी IRN की बोर्ड सदस्या हैं। अंगना चटर्जी PROXSA (Progressive South Asian Exchange Network) की भी सदस्या हैं। PROXSA संस्था, FOIL (Friends of Indian Leftist) से पैसा पाती है। अंगना चटर्जी के पति हैं रिचर्ड शेपायरो।-FOIL के सह-संस्थापक हैं अमेरिकी वामपंथी बिजू मैथ्यू।-राहुल बोस (अभिनेता) खालिद अंसारी के रिश्ते में हैं। खालिद अंसारी “मिड-डे” पब्लिकेशन के अध्यक्ष हैं। खालिद अंसारी एमसी मीडिया लिमिटेड के भी अध्यक्ष हैं। खालिद अंसारी, अब्दुल हमीद अंसारी के पिता हैं। अब्दुल हमीद अंसारी कांग्रेसी हैं। एवेंजेलिस्ट ईसाई और हिन्दुओं के खास आलोचक जॉन दयाल मिड-डे के दिल्ली संस्करण के प्रभारी हैं। नरसिम्हन राम (यानी एन राम) दक्षिण के प्रसिद्ध अखबार “द हिन्दू” के मुख्य सम्पादक हैं। एन राम की पहली पत्नी का नाम है सूसन। सूसन एक आयरिश हैं जो भारत में ऑक्सफ़ोर्ड पब्लिकेशन की इंचार्ज हैं। विद्या राम, एन राम की पुत्री हैं, वे भी एक पत्रकार हैं। एन राम की हालिया पत्नी मरियम हैं। त्रिचूर में आयोजित कैथोलिक बिशपों की एक मीटिंग में एन राम, जेनिफ़र अरुल और केएम रॉय ने भाग लिया है।-जेनिफ़र अरुल, NDTV की दक्षिण भारत की प्रभारी हैं। जबकि केएम रॉय “द हिन्दू” के संवाददाता हैं।

 केएम रॉय “मंगलम” पब्लिकेशन के सम्पादक मंडल सदस्य भी हैं। मंगलम ग्रुप पब्लिकेशन एमसी वर्गीज़ ने शुरु किया है। केएम रॉय को “ऑल इंडिया कैथोलिक यूनियन लाइफ़टाइम अवार्ड” से सम्मानित किया गया है। “ऑल इंडिया कैथोलिक यूनियन” के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं जॉन दयाल। जॉन दयाल “ऑल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल”(AICC) के सचिव भी हैं। AICC के अध्यक्ष हैं डॉ जोसेफ़ डिसूज़ा। जोसेफ़ डिसूज़ा ने “दलित फ़्रीडम नेटवर्क” की स्थापना की है। दलित फ़्रीडम नेटवर्क की सहयोगी संस्था है “ऑपरेशन मोबिलाइज़ेशन इंडिया” (OM India)।-OM India के दक्षिण भारत प्रभारी हैं कुमार स्वामी। कुमार स्वामी कर्नाटक राज्य के मानवाधिकार आयोग के सदस्य भी हैं। OM India के उत्तर भारत प्रभारी हैं मोजेस परमार। OM India का लक्ष्य दुनिया के उन हिस्सों में चर्च को मजबूत करना है, जहाँ वे अब तक नहीं पहुँचे हैं। OMCC दलित फ़्रीडम नेटवर्क (DFN) के साथ काम करती है।

 DFN के सलाहकार मण्डल में विलियम आर्मस्ट्रांग शामिल हैं। विलियम आर्मस्ट्रांग, कोलोरेडो (अमेरिका) के पूर्व सीनेटर हैं और वर्तमान में कोलोरेडो क्रिश्चियन यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेण्ट हैं। यह यूनिवर्सिटी विश्व भर में इशाई के प्रचार हेतु मुख्य रणनीतिकारों में शुमार की जाती है। DFN के सलाहकार मंडल में उदित राज भी शामिल हैं। उदित राज के जोसेफ़ पिट्स के अच्छे मित्र भी हैं। जोसेफ़ पिट्स ने ही नरेन्द्र मोदी को वीज़ा न देने के लिये कोंडोलीज़ा राइस से कहा था। जोसेफ़ पिट्स “कश्मीर फ़ोरम” के संस्थापक भी हैं। उदित राज भारत सरकार के नेशनल इंटीग्रेशन काउंसिल (राष्ट्रीय एकता परिषद) के सदस्य भी हैं। उदित राज कश्मीर पर बनी अन्तर्राष्ट्रीय समिति के सदस्य भी हैं। सुहासिनी हैदर, सुब्रह्मण्यम स्वामी की पुत्री हैं। सुहासिनी हैदर, सलमान हैदर की पुत्रवधू हैं। सलमान हैदर, भारत के पूर्व विदेश सचिव रह चुके हैं, चीन में राजदूत भी रह चुके हैं।

रामोजी ग्रुप के मुखिया हैं रामोजी राव। रामोजी राव “ईनाडु” (सर्वाधिक खपत वाला तेलुगू अखबार) के संस्थापक हैं। रामोजी राव ईटीवी के भी मालिक हैं। रामोजी राव चन्द्रबाबू नायडू के परम मित्रों में से हैं। डेक्कन क्रॉनिकल के चेयरमैन हैं टी वेंकटरमन रेड्डी। रेड्डी साहब कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं। एमजे अकबर डेक्कन क्रॉनिकल और एशियन एज के सम्पादक हैं। एमजे अकबर कांग्रेस विधायक भी रह चुके हैं। एमजे अकबर की पत्नी हैं मल्लिका जोसेफ़। मल्लिका जोसेफ़, टाइम्स ऑफ़ इंडिया में कार्यरत हैं। वाय सेमुअल राजशेखर रेड्डी आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। सेमुअल रेड्डी के पिता राजा रेड्डी ने पुलिवेन्दुला में एक डिग्री कालेज व एक पोलीटेक्नीक कालेज की स्थापना की। सेमुअल रेड्डी ने कहा है कि आंध्रा लोयोला कॉलेज में पढ़ाई के दौरान वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उक्त दोनों कॉलेज लोयोला समूह को दान में दे दिये। सेमुअल रेड्डी की बेटी हैं शर्मिला। शर्मिला की शादी हुई है “अनिल कुमार” से। अनिल कुमार भी एक धर्म-परिवर्तित ईसाई हैं जिन्होंने “अनिल वर्ल्ड एवेंजेलिज़्म” नामक संस्था शुरु की और वे एक सक्रिय एवेंजेलिस्ट (कट्टर ईसाई धर्म प्रचारक) हैं। सेमुअल रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी युवा कांग्रेस नेता हैं। जगन रेड्डी “जगति पब्लिकेशन प्रा. लि.” के चेयरमैन हैं। भूमना करुणाकरा रेड्डी, सेमुअल रेड्डी की करीबी हैं। करुणाकरा रेड्डी, तिरुमला तिरुपति देवस्थानम की चेयरमैन हैं।

 चन्द्रबाबू नायडू ने आरोप लगाया था कि “लैंको समूह” को जगति पब्लिकेशन्स में निवेश करने हेतु दबाव डाला गया था। लैंको कम्पनी समूह, एल श्रीधर का है। एल श्रीधर, एल राजगोपाल के भाई हैं। एल राजगोपाल, पी उपेन्द्र के दामाद हैं। पी उपेन्द्र केन्द्र में कांग्रेस के मंत्री रह चुके हैं। सन टीवी चैनल समूह के मालिक हैं कलानिधि मारन! कलानिधि मारन एक तमिल दैनिक “दिनाकरन” के भी मालिक हैं। कलानिधि के भाई हैं दयानिधि मारन। दयानिधि मारन केन्द्र में संचार मंत्री थे।-कलानिधि मारन के पिता थे मुरासोली मारन। मुरासोली मारन के चाचा हैं एम करुणानिधि (तमिलनाडु के मुख्यमंत्री)।-करुणानिधि ने ‘कैलाग्नार टीवी” का उदघाटन किया। कैलाग्नार टीवी के मालिक हैं एम के अझागिरी। एम के अझागिरी, करुणानिधि के पुत्र हैं। करुणानिधि के एक और पुत्र हैं एम के स्टालिन। स्टालिन का नामकरण रूस के नेता के नाम पर किया गया। कनिमोझि, करुणानिधि की पुत्री हैं, और केन्द्र में राज्यमंत्री हैं। कनिमोझी, “द हिन्दू” अखबार में सह-सम्पादक भी हैं। कनिमोझी के दूसरे पति जी अरविन्दन सिंगापुर के एक जाने-माने व्यक्ति हैं।-स्टार विजय एक तमिल चैनल है। विजय टीवी को स्टार टीवी ने खरीद लिया है। स्टार टीवी के मालिक हैं रूपर्ट मर्डोक। Act Now for Harmony and Democracy (अनहद) की संस्थापक और ट्रस्टी हैं शबनम हाशमी। शबनम हाशमी, गौहर रज़ा की पत्नी हैं।

 “अनहद” के एक और संस्थापक हैं के एम पणिक्कर। के एम पणिक्कर एक मार्क्सवादी इतिहासकार हैं, जो कई साल तक ICHR में काबिज रहे। पणिक्कर को पद्मभूषण भी मिला। हर्ष मन्दर भी “अनहद” के संस्थापक हैं। हर्ष मन्दर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। हर्ष मन्दर, अजीत जोगी के खास मित्र हैं। अजीत जोगी, सोनिया गाँधी के खास हैं क्योंकि वे ईसाई हैं और इन्हीं की अगुआई में छत्तीसगढ़ में जोरशोर से धर्म-परिवर्तन करवाया गया और बाद में दिलीपसिंह जूदेव ने परिवर्तित आदिवासियों की हिन्दू धर्म में वापसी करवाई। कमला भसीन भी “अनहद” की संस्थापक सदस्य हैं। फ़िल्मकार सईद अख्तर मिर्ज़ा “अनहद” के ट्रस्टी हैं। मलयालम दैनिक “मातृभूमि” के मालिक हैं एमपी वीरेन्द्रकुमार-वीरेन्द्रकुमार जद(से) के सांसद हैं (केरल से) केरल में देवेगौड़ा की पार्टी लेफ़्ट फ़्रण्ट की साझीदार है।

शशि थरूर पूर्व राजनैयिक हैं। चन्द्रन थरूर, शशि थरूर के पिता हैं, जो कोलकाता की आनन्दबाज़ार पत्रिका में संवाददाता थे। चन्द्रन थरूर ने 1959 में द स्टेट्समैन” की अध्यक्षता की। शशि थरूर के दो जुड़वाँ लड़के ईशान और कनिष्क हैं, ईशान हांगकांग में “टाइम्स” पत्रिका के लिये काम करते हैं। कनिष्क लन्दन में “ओपन डेमोक्रेसी” नामक संस्था के लिये काम करते हैं। शशि थरूर की बहन शोभा थरूर की बेटी रागिनी (अमेरिकी पत्रिका) “इंडिया करंट्स” की सम्पादक हैं।-परमेश्वर थरूर, शशि थरूर के चाचा हैं और वे “रीडर्स डाइजेस्ट” के भारत संस्करण के संस्थापक सदस्य हैं। शोभना भरतिया हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की अध्यक्षा हैं। शोभना भरतिया केके बिरला की पुत्री और जीड़ी बिरला की पोती हैं! शोभना राज्यसभा की सदस्या भी हैं जिन्हें सोनिया ने नामांकित किया था। शोभना को 2005 में पद्मश्री भी मिल चुकी है। शोभना भरतिया सिंधिया परिवार की भी नज़दीकी मित्र हैं। करण थापर भी हिन्दुस्तान टाइम्स में कालम लिखते हैं। पत्रकार एन राम की भतीजी की शादी दयानिधि मारन से हुई है।

यह बात साबित हो चुकी है कि मीडिया का एक खास वर्ग हिन्दुत्व का विरोधी है, इस वर्ग के लिये भाजपा-संघ के बारे में नकारात्मक प्रचार करना, हिन्दू धर्म, हिन्दू देवताओं, हिन्दू रीति-रिवाजों, हिन्दू साधु-सन्तों सभी की आलोचना करना एक “धर्म” के समान है। इसका कारण हैं, कम्युनिस्ट-चर्चपरस्त-मुस्लिमपरस्त-तथाकथित सेकुलरिज़्म परस्त लोगों की आपसी रिश्तेदारी, सत्ता और मीडिया पर पकड़ और उनके द्वारा एक “गैंग” बना लिया जाना। यदि कोई समूह या व्यक्ति इस गैंग के सदस्य बन जायें, प्रिय पात्र बन जायें तब उनके और उनकी बिरादरी के खिलाफ़ कोई खबर आसानी से नहीं छपती। जबकि हिन्दुत्व पर ये सब लोग मिलजुलकर हमला बोलते हैं!

मन्ना डे की यादों में डूबा पूरा देश !

1919 में कोलकाता में पैदा होनेवाले मन्ना दा देश के पद्मविभूषण पहले हुए बंग विभूषण बाद में। 1942 से संगीत की दुनिया में प्रवेश करनेवाले मन्ना डे को भारत की सरकार ने 1971 में पहले पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा था, जिसके बहुत बाद में 2005 में उन्हे पद्म श्रेणी के ही एक उच्च पुरस्कार पद्म विभूषण से विभूषित किया। लेकिन कोलकाता के जिस बंगाली परिवेश और परिवार में मन्ना दा पैदा हुए थे, उस बंगाल को मन्ना की याद तब आई जब बंगाल का निजाम बदल गया। आमतौर पर गीत संगीत को पुरस्कारों से सुशोभित करनेवाले वाम विचारधारा ने मन्ना को नजरअंदाज ही कर रखा था। लेकिन 2011 में ममता बनर्जी के नये निजाम ने बंग विभूषण पुरस्कारों की जो शुरुआत की तो पहला पुरस्कार मन्ना को ही मिला। और यही मन्ना को मिला आखिरी पुरस्कार भी था।

1942 में तमन्ना फिल्म से उन्होंने अपने संगीतमय सफर की शुरूआत की थी जब वे अपने चाचा के पास कोलकाता से मुंबई आये थे। फणी मजूमदार की इस फिल्म में उन्होंने गाना तो नहीं गाया था लेकिन संगीत में जरूर हाथ आजमाया था। कोलकाता के जिस घर में उनका पालन पोषण हुआ था, वह संयुक्त परिवार था और उसी परिवार में उनके चाचा कृष्ण चंद्र डे संगीताचार्य थे। जाहिर है, संगीत की शुरूआती शिक्षा उन्हें अपने चाचा से ही मिली और मुंबई में प्रवेश भी चाचा कृष्ण दत्त की मर्जी से ही हुआ। संगीतज्ञ के तौर पर भी और गायक के बतौर भी।

संगीत की शुरूआत सचिन देव बर्मन के साथ हुई तो गायकी की शुरूआत सुर की मलिका सुरैया के साथ। बाद में कई और संगीत निर्देशकों के साथ भी काम किया। लेकिन जल्द ही प्रबोध चंद्र डे ने अपना स्वतंत्र अस्तिव बनाने की दिशा में कदम उठा दिया। 

जिस दौर में प्रबोध चंद्र डे मुंबई आये थे, मुंबई नयी नयी फिल्म नगरी के रूप में बस रही थी। लाहौर और बंगाल के लोग चलकर मुंबई आने लगे थे जो बाद में पश्चिमी पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान में तब्दील हो गया था। उन दिनों लखनऊ का भी मुंबई फिल्म इंडस्ट्री पर अच्छा खासा दबदबा था इसलिए मन्ना के लिए मन का काम करने में बहुत मुश्किल नहीं आनेवाली थी जैसा कि उन्हें बाद में शिकायत हुई। संगीत में आगे बढ़ने के लिए बेसुरा होना कोई कसौटी नहीं थी। इसलिए तीन दशक तक मुंबई फिल्म संसार में मन्ना मन के मुताबिक गाते रहे जिसमें बंगाली संस्कृति और भारतीय संगीत दोनों का पुट समाहित होता था।

लेकिन जिस दौर में मन्ना मुंबई आये थे, उसी दौर में एक और नौजवान मुंबई पहुंचा था। किशोर कुमार। मुंबई फिल्म संसार उसी दौर में उद्योग की दिशा में आगे भी बढ़ने की कोशिश कर रहा था जिस दौर में उसे संस्कृति का प्रतिनिधित्व भी करना था। इसलिए संगीत की दुनिया में जितना मौका प्रबोधचंद्र डे (मन्ना) को मिला उतना ही मौका किशोर कुमार को भी। किशोर कुमार में गायकी की पहचान भी उन्हीं सचिन देव बर्मन ने कर ली थी जिन्होंने मन्ना को मौका दिया था। फिर भी मन्ना रहे। और पूरे मन से रहे।

मुंबई फिल्मों के संसार के जरिए उनकी आवाज देश विदेश में घर घर तक पहुंची। एक संदेश बनकर। एक तराने के रूप में तरन्नुम बनकर। इसी दौर में राजेश खन्ना की फिल्म सफर में उनका वह गाया वह गाना उनके लिए भी आखिरी संदेश साबित हुआ जो उनके जाने के बाद आज बरबस समय की वह सच्चाई सामने लाता है। सब जा रहे हैं। एक दिन तुम्हे भी जाना होगा। समय की धारा में कोई रुक नहीं सकता। ठहर नहीं सकता। लेकिन जानेवाले अगर मन्ना दा जैसे लोग हों तो उन्हें मन में संभालकर तो रखा ही जा सकता है। तब तक, जब तक निज मन समय की धारा में तिरोहित न हो जाए।