08 June 2012

गरीब को जीने के लिए 32 रुपया और बाबु के लिए 35 लाख !

जब बात गरीबी को परिभाच्चित करने की आती है तो योजना आयोग २८ रूपए में ही उन्हें सिमटा देता है लेकिन वहीं दूसरी तरफ बात जब खुद योजना आयोग की आती है तो उनके दो शौचालयों के निर्माण में ३५ लाख रूपये खर्च किये जाते है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की आखिर इस देद्गा में आम आदमी का मतलब होता क्या हैं। क्या इस देद्गा का गरिब सिर्फ संखया मात्र के लिए है जो अपने वजूद को बचाने के लिए दिन रात मेहनत करता है। आयोग के अंदर बैठने वाले लोगो को न गर्मी का अहसास होता है न ठंढ का सितम तो ऐसे में भला ये लोग एक आम आदमी के दर्द को भला कैसे समझ सकते है। यहा गौर करने वाली बात ये है की खुद प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह योजना आयोग के अध्यक्ष है। एक ओर जहा देद्गा में लोग गरिबी से भुखे पेट सो जाते है उस देद्गा में एक खास समुदाय के लिए ऐसे चकाचौध की रोद्गानी वाली ये शौचालयों के देखने के बाद से आम आदमी के अंदर आक्रोद्गा का द्यौलाब दीखे तो सरकार को तिलमीलाना नही चाहिए। योजना आयोग के शौचालयों को इन्दिरा गांधी हवाई अड्‌डे जैसा बनाया गया है। शौचालयों की मरम्मत के नाम पर ३० लाख रूपये खर्च किए गए। इसके अलावा शौचालयों में ५ लाख १९ हजार रूपये केवल डोर एक्सेस कट्रोल सिस्टम लगाने के लिए खर्च किए गए। इस जानकारी का खुलासा आरटीआई के तहत हुआ है। इन शौचालयों का इस्तेमाल वही लोग कर सकते है जिनके पास स्मार्ट कार्ड हो। योजना आयोग के अधिकारियों को इन शौचालयों के इस्तेमाल के लिए सिर्फ ६० कार्ड जारी किए गए है। योजना आयोग की फिजुलखर्ची का ये पहला मामला नहीं है। इससे पहले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोटेंक सिंह अहलूवालिया ने २०११ के मई और अकतुबर के बीच विदेद्गा यात्रा पर रोजाना दो लाख दो हजार रूपये खर्च किए जो उस समय काफी विवादित रहा था। मोंटेंक सिंह अहलूवालिया ने २७४ दिनों की यात्राओं पर दो करोड चौतीस लाख रूपये खर्च किए।

07 June 2012

2 जी घोटाले की परत दर परत कहानी

अशोक रोड। संचार भवन। पहली मंजिल। दस जनवरी २००८। वक्त दोपहर पौने तीन बजे। संचार मंत्री एंदीमुथु राजा के निजी सहायक आरके चंदोलिया का दफ्तर। राजा के हुक्म से एक प्रेस रिलीज जारी होती है। २ जी स्पेक्ट्रम ३बजे ३० से४ बजे ३० के बीच जारी होगा। तुरंत हड़कंप मच गया। सिर्फ ४५ मिनट तो बाकी थे। वह एक आम दिन था। कुछ खास था तो सिर्फ ए राजा की इस भवन के दफ्तर में मौजूदगी। राजा यहां के अंधेरे और बेरौनक गलियारों से गुजरने की बजाए इलेक्ट्रॉनिक्स भवन के चमचमाते दफ्तर में बैठना ज्यादा पसंद करते थे। पर आज यहां विराजे थे। २जी स्पेक्ट्रम के लिए चार महीने से चक्कर लगा कंपनियों के लोग भी इन्हीं अंधेरे गलियारों में मंडराते देखे गए। लंच तक माहौल दूसरे सरकारी दफ्तरों की तरह सुस्त सा रहा। पौने तीन बजते ही तूफान सा आ गया। गलियारों में भागमभाग मच गई। मोबाइल फोनों पर होने वाली बातचीत चीख-पुकार में तब्दील हो गई। वे चंदोलिया के दफ्तर से मिली अपडेट अपने आकाओं को दे रहे थे। साढ़े तीन बजे तक सारी खानापूर्ति पूरी की जानी थी। उसके एक घंटे में अरबों-खरबों रुपए के मुनाफे की लॉटरी लगने वाली थी। जनवरी की सर्दी में कंपनी वालों के माथे से पसीना चू रहा था। मोबाइल पर बात करते हुए आवाज कांप रही थी। सबकी कोशिश सबसे पहले आने की ही थी। लाइसेंस के लिए कतार का कायदा फीस जमा करने के आधार पर तय होना था। फीस भी कितनी- सिर्फ १६५८ करोड रुपए का बैंक ड्राफ्ट। साथ में बैंक गारंटी, वायरलेस सर्विस ऑपरेटर के लिए आवेदन गृह मंत्रालय का सिक्यूरिटी क्लीरेंस वाणिज्य मंत्रालय के फॉरेन इंवेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड (एफआईपीबी का अनुमति पत्र । ऐसे करीब एक दर्जन दस्तावेज जमा करना भी जरूरी था। वक्त सिर्फ ४५ मिनट।

परदे के आगे की कहानी
२५ सितंबर २००७ तक स्पेक्ट्रम के लिए आवेदन करने वाली कंपनियों में से जिन्हें हर प्रकार से योग्य माना गया उन कंपनियों के अफसरों को आठवीं मंजिल तक जाना था। डिप्टी डायरेक्टर जनरल (एक्सेस सर्विसेज आर के श्रीवास्तव के दफ्तर में। यहीं मिलने थे लेटर ऑफ इंटेट। फिर दूसरी मंजिल के कमेटी रूम में बैठे टेलीकॉम एकाउंट सर्विस के अफसरों के सामने हाजिरी। यहां दाखिल होने थे १६५८ करोड़ रुपए के ड्राफ्ट के साथ सभी जरूरी कागजात। यहां अफसर स्टॉप वॉच लेकर बैठे थे ताकि कागजात जमा होने का समय सेकंडों में दर्ज किया जाए। किसी के लिए भी एक-एक सेकंड इतना कीमती इससे पहले कभी नहीं था। सबकी घडि यों में कांटे आगे सरक रहे थे। बेचौनी, बदहवासी और अफरातफरी बढ गई थी। चतुर और पहले से तैयार कंपनियों के तजुर्बेकार अफसरों ने इस सखत इम्तहान में अव्वल आने के लिए तरकश से तीर निकाले। अपनी कागजी खानापूर्ति वक्त पर पूरी करने के साथ प्रतिस्पर्धी कंपनियों के लोगों को अटकाना-उलझाना जरूरी था। अचानक संचार भवन में कुछ लोग नमूदार हुए। ये कुछ कंपनियों के ताकतवर सहायक थे। दिखने में दबंग। हट्टे-कट्टे। कुछ भी कर गुजरने को तैयार। इनके आते ही माहौल गरमा गया। इन्हें अपना काम मालूम था। अपने बॉस का रास्ता साफ रखना, दूसरों को रोकना। लिफ्ट में पहले कौन दाखिल हो, इस पर झगड़े शुरू हो गए। धक्का-मुक्की होने लगी। सबको वक्त पर सही टेबल पर पहुंचने की जल्दी थी। पूर्व टेलीकॉम मंत्री सुखराम की विशेष कृपा के पात्र रहे हिमाचल फ्यूचरस्टिक कंपनी (एचएफसीएल के मालिक महेंद्र नाहटा की तो पिटाई तक हो गई। उन्हें कतार से निकाल कर संचार भवन के बाहर धकिया दिया गया। दबंगों के इस डायरेक्ट-एक्शन की चपेट में कई अफसर तक आ गए। किसी के साथ हाथापाई हुई, किसी के कपड़े फटते-फटते बचे। आला अफसरों ने हथियार डाल दिए। फौरन पुलिस बुलाई गई। घडी की सुइयां तेजी से सरक रही थीं। हालात काबू में आते-आते वक्त पूरा हो गया। जो कंपनियां साम दाम दंड भेद के इस खेल में चंद मिनट या सेकंडों से पीछे रह गईं, उनके नुमांइदे अदालत जाने की घुड कियां देते निकले। लुटे-पिटे अंदाज में। एक कंपनी के प्रतिनिधि ने आत्महत्या कर लेने की धमकी दी। कई अन्य कंपनियों के लोग वहीं धरने पर बैठ गए। पुलिस को बल प्रयोग कर उन्हें हटाना पड़ा । आवेदन करने वाली ४६ में से केवल नौ कंपनियां ही पौन घंटे के इस गलाकाट इम्तहान में कामयाब रहीं। इनमें यूनिटेक स्वॉन डाटाकॉम एसटेल और शिपिंग स्टॉप डॉट काम नई कंपनियां थीं जबकि आइडिया टाटा श्याम टेलीलिंक और स्पाइस बाजार में पहले से डटी थीं। एचएफसीएल,पार्श्वनाथ बिल्डर्स और चीता कारपोरेट सर्विसेज के आवेदन खारिज हो गए। बाईसेल के बाकी कागज पूरे थे सिर्फ गृहमंत्रालय से सुरक्षा जांच का प्रमाणपत्र नदारद था। सेलीन इंफ्रास्ट्रक्चर के आवेदन के साथ एफआईपीबी का क्लियरेंस नहीं था। बाईसेल के अफसर छाती पीटते रहे कि प्रतिद्वंद्वियों ने उनके खिलाफ झूठे केस बनाकर गृह मंत्रालय का प्रमाणपत्र रुकवा दिया। उस दिन संचार भवन में केवल लूटमार का नजारा था। पौन घंटे का यह एपीसोड कई दिनों तक चर्चा का विषय बना रहा


परदे के पीछे की कहानी
इसी दिन। सुबह नौ बजे। संचार मंत्री ए राजा का सरकारी निवास। कुछ लोग नाश्ते के लिए बुलाए गए थे। इनमें टेलीकॉम सेक्रेट्री सिद्धार्थ बेहुरा डीडीजी (एक्सेस सर्विसेज आर के श्रीवास्तव, मंत्री के निजी सहायक आर. के. चंदोलिया वायरलेस सेल के चीफ अशोक चंद्रा और वायरलेस प्लानिंग एडवाइजर पी के गर्ग थे। कोहरे से भरी उस सर्द सुबह गरमागरम चाय और नाश्ते का लुत्फ लेते हुए राजा ने अपने इन अफसरों को अलर्ट किया। राजा आज के दिन की अहमियत बता रहे थे। खासतौर से दोपहर २बजे ४५ से ४बजे ३० बजे के बीच की। राजा ने बारीकी से समझाया कि कब क्या करना है और किसके हिस्से में क्या काम है चाय की आखिरी चुस्की के साथ राजा ने बेफिक्र होकर कहा कि मुझे आप लोगों पर पूरा भरोसा है। अफसर खुश होकर बंगले से बाहर निकले और रवाना हो गए। दोपहर तीन बजे। संचार भवन। आठवीं मंजिल। एक्सेस सर्विसेज का दफ्तर। फोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ डीडीजी (एक्सेस सर्विसेज आर के श्रीवास्तव थे। यहां मौजूद अफसरों को चंदोलिया के कमरे में तलब किया गया। मंत्री के ऑफिस के ठीक सामने चंदोलिया का कक्ष है। एक्शन प्लान के मुताबिक सब यहां इकट्ठे हुए। इनका सामना स्वॉन टेलीकॉम और यूनिटेक के आला अफसरों से हुआ। चंदोलिया ने आदेश दिया कि इन साहेबान से ड्राफ्ट और बाकी कागजात लेकर शीर्ष वरीयता प्रदान करो। बिना देर किए स्वॉन को पहला नंबर मिला, यूनिटेक को दूसरा। सबकुछ इत्मीनान से। यहां कोई धक्कामुक्की और अफरातफरी नहीं मची। बाहर दूसरी कंपनियों को साढ़े तीन बजे तक जरूरी औपचारिकताएं पूरी करने में पसीना आ रहा था। अंदर स्वॉन और यूनिटेक को पंद्रह मिनट भी नहीं लगे। इन कंपनियों को पहले ही मालूम था कि करना क्या है। इसलिए इनके अफसर चंदोलिया के दफ्तर से प्रसन्नचित्त होकर विजयी भाव से मोबाइल कान से लगाए बाहर निकले। दूर कहीं किसी को गुड न्यूज देते हुए। ४५ मिनट के तेज रफ्तार घटनाक्रम ने एक लाख ७६ हजार करोड रुपए के घोटाले की कहानी लिख दी थी। राजा के लिए बेहद अहम यह दिन सरकारी खजाने पर बहुत भारी पड़ा था।



एक महिला ९ फोन लाइनें ३०० दिन ५८५१ कॉल्स


फोन कॉल्स में दर्ज फरेब
२जी स्पेक्ट्रम घोटाले की मुखय किरदार नीरा राडिया के नौ टेलीफोन ३०० दिन तक आयकर विभाग ने टैप किए। कुल ५बजे ८५१ कॉल्स रिकार्ड की गईं। इनमें से सौ का रिकॉर्ड लीक हो चुका है। अपने पाठकों के लिए भास्कर प्रस्तुत कर रहा है - टेप हुई गोपनीय बातचीत के मुख्य अंश। साथ में इससे जुड़े संपादकों और किरदारों की सफाई भी। ताकि पता चले कि दुनिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले खुद क्या कर रहे हैं।


हमले के बाद भी शान से दौड़ती मुंबई

कभी न रुकने-थकने वाला शहर मुंबई २६ नवंबर २००८ को थम गया था। मुंबईकरों ने ये सपने में भी नहीं सोचा था कि आतंकवादी इस तरह कहर कब मिलेगा मुंबईवासियों और देश को न्याय? १० हमलावरों ने मुंबई को खून से रंग दिया था हमलों में १६० से ज्यादा लोग मारे गए थे, कई घायल हुए थे। १० हमलावर कराची से नाव के रास्ते मुंबई में घुसे। रात के तकरीबन आठ बजे थे, जब ये हमलावर कोलाबा के पास कफ परेड के मछली बाजार पर उतरे, तो वहां से वे चार ग्रुपों में बंट गए और टैक्सी लेकर अपनी मंजिलो का रूख किया। कहते हैं कि इन लोगों की आपाधापी को देखकर कुछ मछुवारों को शक भी हुआ और उन्होंने पुलिस को जानकारी भी दी। लेकिन इलाके की पुलिस ने इस पर कोई खास तवज्जो नहीं दी और न ही आगे बड़े अधिकारियों या खुफिया बलों को जानकारी दी। १८७१ से मेहमानों की खातिरदारी कर रहे लियोपोल्ड कैफे की दीवारों में धंसी गोलियां हमले के निशान छोड गईं। १० बजकर ४० मिनट पर विले पारले इलाके में एक टैक्सी को बम से उड़ाने की खबर मिली जिसमें ड्राइवर और एक यात्री मारा गया, तो इससे पंद्रह बीस मिनट पहले बोरीबंदर में इसी तरह के धमाके में एक टैक्सी ड्राइवर और दो यात्रियों की जानें जा चुकी थीं। खासतौर से ताज होटेल की इमारत से निकलता धुंआ तो बाद में हमलों की पहचान बन गया। तीन दिन तक सुरक्षा बल आतंकवादियों से जूझते रहे, इस दौरान धमाके हुए, आग लगी, गोलियां चली और बंधकों को लेकर उम्मीद टूटती जुड ती रही और न सिर्फ भारत से सवा अरब लोगों की बल्कि दुनिया भर की नजरें ताज, ओबेरॉय और नरीमन हाउस टिकी रही लेकीन आज एक बार फिर से मुंबई अपनी उसी शान और रफतार से दौड रही हैं।

05 June 2012

क्या अन्ना रामदेव फिर से शुरू कर पाएंगे एक नया आन्दोलन ?

बाबा रामदेव और समाजसेवी अन्ना हजारे इस बार भ्रष्टाचार के खिलाफ एक साथ लड़ाई लड़ेंगे । हरिद्ववार में स्वामी रामदेव ने केन्द्र सरकार के साथ एलान ए जंग में कहा भ्रष्ट केंद्र सरकार को इस बार बचाने वाला कोई नहीं है। जन लोकपाल बिल भी पारित होगा और लाखों करोडो का काला धन भी वापस आएगा। मगर यहा सवाल खड़ा होता है की क्या अन्ना और रामदेव का आंदोलन एक बार फिर से उसी उग्र रूप में खड़ा हो पाएगा। दिल्ली के रामलीला मैदान में रामदेव और मुंबई में अन्ना के आंदोलन का जो हश्र हुआ उसके बाद से ही दोनों की मुहिम पर सवाल उठने लगे थे। ५ राज्यों में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बुरे नतीजों का सामना करना पड़ा जिसने देश में कांग्रेस विरोधी लहर को सामने लाया। अब इसी सोच के बूते अन्ना और रामदेव अपने आंदोलन का भविष्य फिर से तलाश रहे हैं। अन्ना और रामदेव एक- दूसरे की इसी प्रकार से सहायता सकते हैं। बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस और यूपीए सरकार को यह खबर परेशान जरूर करेगी। सवाल सिर्फ एक है क्या देश अब एक नया आंदोलन देखेगा अन्ना की टीम में सेकूलर छवि के चलते अब भी कुछ ऐसे लोग है जिनका राष्ट्रवाद से दूर दृ दूर का नाता नही है ! उन्ही में से एक नाम है प्रशांत भूषण का जो काद्गमीर को अलग करने की वकालत कर चुके है। वही अपनी फिसलती जुबान से सुर्खिया पाने वाले केजरीवाल भी कभी इस्लामिक टोपी पहनकर मुसलमानों को रिझाने की कोशिश करते है। ऐसे में सवाल यह उठता है की क्या ऐसी टीम देद्गा के लोगो को एक बार फिर से जोड पाएगी। क्या ये लोग सरकार पर दबाव डाल सकेंगे पिछले कुछ दिनो से सरकार लगातार एक के बाद रामदेव और अन्ना हजारे के उपर तिखी वार कर रही है ऐसे में इस बार का आंदोलन काफी दिलचस्प होना वाला है। इस आंदोलन में आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक रविद्गांकर भी सामिल हो रहे है। ऐसे में सरकार की मुद्गिकले बढ़ना तय है। खुद अन्ना हजारे कह रहे है की अगर सरकार हमारे इस मकसद में अड चन बनती है तो उसे इसका फल भुगतना पड़ेगा ।२०१४ के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर भी अन्ना और रामदेव अगस्त से मिलकर अपना बिगुल फूकेंगे। तो ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है की क्या सरकार अपनी रूख से झुकेगी या अपनी अडि यल रूख का परिणाम भुगतेगी ये आने वाले कुछ समय में पता चल जाएगा। अन्ना देश के अन्ना हैं इस बार जंतर मंतर पर गम और गुस्से का अजीब संगम है, हर तरफ बस एक ही शोर है कि शायद अन्ना का ये अनशन आम आदमी के हक में एक ऐसा कानून बना सके जिसके डर से भ्रष्टाचारी को पसीने आ जाएं क्योंकि अन्ना के समर्थन में आने वालों का ये मानना है कि अन्ना जो कहते हैं सही कहते हैं। और रामदेव भी इस बार साथ है तो ये आंदोलन और महतत्वपूण हो गया है। बेईमान सियासत के इस न खत्म होने वाले दंगल में आम आदमी थक कर चूर हो चुका हैं। मगर फिर भी बेईमान नेताओं मंत्रियों अफसरों और बाबुओं की बेशर्मी को देखते हुए अन्ना और रामदेव लड रहे हैं। बेईमान और शातिर सियासतदानों की नापाक चालें हमें चाहे जितना जख्‌मी कर जाएं अन्ना हजारों और रामदेव के आगे दम तोड देती हैं। ऐसे में इस बार ये देखना है की अन्ना और रामदेव की ये दाव कितना रंग लाती है।

वार्ताकारो की रिपोर्ट जम्मू कश्मीर को देश से अलग करने वाली है ?

जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर भारत सरकार द्वारा बनाई गई वार्ताकार समिति कि रिपोर्ट विवादो के घेरे में है। रिपोर्ट के अंदर कई ऐसे सुझाव दिए गए है जो जम्मू काद्गमीर को भारत से अलग करती है। रिपोर्ट के अंदर जो बाते कही गई है उसमें प्रमुख रूप से १९५२ के बाद से वहाँ लागू केंद्रीय कानूनों और भारतीय संविधान के अनुच्छेद जैसे मुद्‌दे द्यामिल है। रिपोर्ट में कहा गया हैं कि ये कानून और अनुच्छेद राज्य के विशेष दर्जे को क्षति पहुचाती है। इन सब के अलावे जो सबसे प्रमुख कानून की धारा ३७० है उसे राज्य में लागू रखने की बात कही गई है। जबकी इसे हटाने की मांग पिछले कई बर्च्चो से हो रही है। साथ ही धारा ३७० के लिए इस्तेमाल किए गए टेंम्पोरेरी द्याब्द को हटा कर इसे स्पेद्गाल द्याब्द में बदलने की बात कही गई है। इन द्याब्दों के पिछे भी कानूनी साजिद्गा है क्योकी अगर टेंम्पोरेरी द्याब्द को स्पेद्गाल में बदल दिया जाएगा तो इसे भारत के राच्च्ट्र नही हटा पाएगा इसे हटाने के लिए संसद के दोनो सदनो से दो तिहाई बहुमत से पास कर ही हटाया जा सकता है। तीन सदस्यों की वार्ताकार समिति ने लगभग १७९ पन्नों की अपनी रिपोर्ट सौपी है। ये वार्ताकार हैं राधा कुमार ,एम एम अंसारी और दिलीप पडगाओंकर । वार्ताकारों ने ये भी सिफारिश की है कि संवैधानिक जांच समिति की रिपोर्ट छह माह के भीतर सौंपी जाए और ये सभी पक्षों को मान्य हो। तो सवाल यहा भी खड़ा होता है की ऐसे कौन से आपात स्थिति आ गई की इसे छह महिने के अंदर लागू करने और सभी पक्षों को मान्य करने की वकालत की गई है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है की संसद राज्य के लिए किसी भी तरह का कानून न बनाए जब तक कि वो देश के आंतरिक और बाहरी सुरक्षा और उसके आर्थिक सरोकारों के लिए जरूरी न हो। यानी की संसद को भी राज्य के लिए कानून नही बनाने के लिए बाध्य किया जा रहा है। शिक्षाविद राधा कुमार, एमएम अंसारी और पत्रकार दिलीप पडगाओंकर की इस समिति का गठन अक्तुबर २०१० में किया गया था। इसने प्रदेश के जम्मू, कश्मीर और लद्दाख - तीनों क्षेत्रों में ७०० प्रतिनिधियों से मुलाकात की और तीन गोलमेज सम्मेलन किए। रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के तीनों इलाकों के लिए क्षेत्रीय काउंसिलों का गठन किया जाना चाहिए और इन तीनों क्षेत्रों को कानूनी, कार्यकारिणी और वित्तीय मामले में भी कुछ अधिकार हासिल होने चाहिंए। साथ ही ये भी कहा गया है कि राज्य की आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया जाए, नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा के आरपार लोगों और सामान की आवाजाही जल्द सुनिश्चित की जाए। साथ ही जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान अधिकृत हिस्सों में लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम किया जाए। अगर इन सब से उपर उठ कर रिपोर्ट के गहराइयो को टटोले तो ये अपने आप में आपको चौकाने वाला जरूर नजर आएगा, क्योकी यहा पर राज्यपाल की नियूक्ति राज्य सरकार के द्वरा सुझाए गए नाम के अनुसार करने, धारा ३७६, जो की राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आता हैं इसके अलावे धारा ३१२ जारी रखने, राट्रपति के अधिकार में कटौती करने और केंन्द्र सरकार के दखल को कम करने, जैसे बाते शामिल है। मतलब साफ है की ये रिपार्ट जम्मू काद्गमीर को भारत से जोड ने के बजाय तोड ने वाली लग रही है। या कह सकते है की दुराग्रह से ग्रसित है जो जम्मू- काद्गमीर को शांति के रास्ते पर लाने के बजाय आग में घी डालने जैसा है।

ममता की क्रिकेट प्रेम और अल्पसंख्यक राजनीती की राह

पश्चिम बंगाल की मुखयमंत्री ममता बनर्जी द्वारा शाहरुख खान के लिए सरकारी खजाने से की गई दरियादिली बिवादो का रूप ले चुका है। इस स्वागत के बाद ममता की कर्मठ और प्रखर प्रशासक की छवि दागदार हुई है। रॉयटर्स बिल्डिंग में सम्मानित किए जाने के बाद जब केकेआर टीम ईडन गार्डन पहुंची, तो ममता वहा भी खुब बिवादित सुर्खिया बटोरी। जब फरमान ममता का हो तो कोई मानने से कैसे इंकार करे, ईडन गार्डन में ममता बनर्जी के इस रूप को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ईवेंट मैनेजमेंट का जिम्मा भी पश्चिम बंगाल के मुखयमंत्री ने ही संभाल रखा हो। जिस टीम में कोलकाता या बंगाल के सिर्फ दो बंदे हों, जिसका मालिक तक कोलकाता या बंगाल का न हो, जिसके खिलाड़ी पैसों के बल पर खरीदे गए देशी-विदेशी क्रिकेटर हों, उस टीम की जीत के लिए अगर कोलकाता पागल हो रहा हो तो कहना पड़ेगा कि कहीं कोई केमिकल लोचा है। आज बंगाल को खुद को बेचने के लिए शाहरुख खान जैसे एक बाहरी शोमैन की जरूरत आ पड़ी है जो अपने घमंड और बदतमीजी के लिए कुखयात हैं। शाहरुख ने कोलकाता के नाम से एक टीम बनाई जिसने किस्मत से पांच साल बाद आईपीएल ट्रोफी जीत ली है। अब कोलकता वासी उसी को अपने सर का ताज बना रहे हैं। ममता ने कहा पद्गिचम बंगाल की सांस्कृतिक स्वर्णिम भूमि को साहरूख ने प्रतिष्ठा दिलाई है। तो यहा सवाल खड़ा होता है की क्या ममता के राज में शायद ऐसे ही बंगाल की प्रतिष्ठा बढ़ेगी ? जहा पर लोग गरिबी से तंग आ कर अपनी किडनी को बेचने तक को मजबुर है। क्या ममता के लिए ये द्यार्म की बात नही है। आईपीएल चौम्पियन बनने के बाद पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा आयोजित सम्मान समारोह की वामपंथी दलों की ओर तिखी प्रतिक्रिया आई है। विरोधी पार्टियों का कहना है कि ममता ने जश्न को राजनीतिक रूप में इस्तेमाल किया। पश्चिम बंगाल में खजाना खाली का रोना रोकर केंद्र सरकार पर बार-बार पैकेज के लिए दबाव डालने वालीं ममता बनर्जी का चौंपियन बनी शाहरुख की टीम के स्वागत और सम्मान में पानी की तरह पैसा बहाने की खूब आलोचना हो रही है।महज घरेलू टूर्नामेंट जीतने पर कोलकाता नाइट राइडर्स के खिलाड़ियों का सरकारी खजाने से शाही स्वागत पर बवंडर मचा हुआ है, की आखिर ममता को ये अधिकार दिया किसने? इस दरियादिली पर लेफ्ट पार्टियों ने खुलेआम मोर्चा खोल दिया है। तो वही कांग्रेस और बीजेपी भी ममता को आड़े हाथों लिया है। सरकार ने मंगलवार को केकेआर की टीम को सम्मानित करने के लिए ईडन गार्डन्स में भव्य स्वागत समारोह आयोजित किया था। समारोह में शाहरुख खान, जूही चावला, केकेआर के खिलाडि यों और सपोर्ट स्टाफ को १०-१० ग्राम के गोल्ड मेडल बांटे गए। ममता सरकार ने इस समारोह पर करीब ८० लाख रुपये फूंके। ममता से हलकान कांग्रेस नेता खुलकर तो कुछ नहीं बोल रहे, लेकिन यह जरूर कह रहे हैं कि केंद्र के सामने भीख मांगने वाली ममता की दरियादिली समझ से परे है। शाहरुख खान का शो उनके व्यावसायिक हितों के अनुकूल है, लेकिन जिस तरह से इस व्यावसायिक तमाशे को सियासी बना दिया गया, ये भी किसी से छुपा नही है। तो ये कहना गलत नही होगा की ममता दिदी अब मा माटी मानुस की राह छोड कर क्या आईपीएल प्रेम की ओर कदम बढ़ा रही है।

गोडसे ने आखिर क्यों किया गाँधी वध ?

नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के समक्ष गान्धी-वध के जो १५० कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण इस प्रकार से है।
१- अमृतसर के जलियाँवाला बाग गोली काण्ड १९१९से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाये। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से स्पष्ठ मना कर दिया।
२- भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था, कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचायें, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया।
३- ६ मई १९४६ को समाजवादी कार्यकर्ताओं को दिये गये अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।
४- मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए १९२१ में गान्धी ने खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग १५०० हिन्दू मारे गये व २००० से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन्‌ खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।
५- १९२६ में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये अहितकारी घोषित किया।

६- गान्धी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोबिन्द सिंह को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।
७- गान्धी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निजाम के शासन का हिन्दू बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।
८- यह गान्धी ही थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आजम की उपाधि दी।
९- कांग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिये बनी समिति (१९३१) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गान्धी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
१०- कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टाभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे, अतरू सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पद त्याग दिया।

११- लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
१२-१४ से १५ १९४७ जून को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
१३- जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थेय ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और १३ जनवरी १९४८ को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
१४- पाकिस्तान से आये विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
१५- २२ अक्तूबर १९४७ को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड रुपये की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।


क्या संसद की गरिमा घटी है ?

भारतीय संसद १३ मई को अपनी साठवीं वर्षगांठ मनाएगी। रविवार होने के बावजूद इस दिन संसद की विशेष कार्यवाही भी चलेगी। संसद के साठवें जन्मदिवस के उत्सव के बीच यह उसके कामकाज पर नजर डालने का सही वक्त है। पहली लोकसभा में करीब ३६ फीसदी वकील, और १० फीसदी पत्रकार व लेखक थे लेकिन आज दो दशकों में लोकसभा का काम काज पहले से कहीं अधिक संतुलित हुआ है। पहली लोकसभा में ११२ सदस्य दसवीं पास भी नहीं थे। संसद में सकारात्मक प्रकृति की कुछ अन्य घटनाओं में कमेटी व्यवस्था की शुरुआत और १९९३ में स्पीकर शिवराज पाटिल द्वारा संसद की कार्यवाही का टीवी पर प्रसारण जैसे बदलाव काफी महत्वपूण है। संसदीय कार्यवाही के टीवी पर प्रसारण ने संसद से परदा उठा दिया है और अब लोग इसका असली रंग देख पा रहे हैं। सांसद संसद के अंदर कई ऐसे कार्य करते है जो संसदीय प्रक्रिया के तहद सही नही है। यही कारण है की आज सांसदो के संसद के अंदर आचरण को लेकर सवाल खड़ा होने लगा है। इससे कही न सांसदों के चरित्र पर असर होता है। आज के दौर में प्रश्नकाल अपनी महत्व को खो चुका है। पहले प्रश्नकाल में भूपेश गुप्ता अटल बिहारी वाजपेयी, पीलू मोदी और मधु दंडवते जैसे प्रखर नेता जब सवाल-जवाब पर उतरते थे तो अच्छे-अच्छे मंत्रियों को पसीना छूट जाता था। मगर आज के दौर में सांसद बिना तैयारी या नैतिक साहस के रस्म अदायगी मात्र के लिए सवाल पूछते हैं। इसी कारण अक्सर उन्हें चुप करा दिया जाता है। आज के दौर में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आदि भी बेजान हो चुके हैं। देद्गा में सांसदों और जनता के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। सांसद अपने पैसे और रुतबे का प्रदर्शन करते हैं और आम आदमी से उनका लगाव कट गया हैं। वे अपनी गाडि यों पर लाल बत्ती लगाने और अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करने से नहीं हिचकते, रहे है। आज के दौर में सांसद संसदीय समितियों की बैठक से अधिकांश सदस्य नदारत रहते हैं।१९५२ में लोकसभा और राज्यसभा का गठन होने के बाद नैतिक मुद्दों में लगातार गिरावट आने लगी। शराब के आयात की अनुमति के लिए एक सदस्य द्वारा २० सांसदों के जाली हस्ताक्षर करने पर संसद मौन रही। बाद में अदालत में उस पर मुकदमा चला और उसे जेल हुई। जन असंतोष को देखते हुए १९९० के दशक में स्पीकर शिवराज पाटिल ने सदस्यों के लिए आचार संहिता का प्रस्ताव रखा था और लोकसभा की विशेषाधिकार समिति को मामला सौंपा था। दोनों सदनों में आचार कमेटियों का गठन किया गया, किंतु कुल मिलाकर कमेटियां काफी धीमी गती से काम करती रहीं। इस बीच सांसदों के नैतिक मापदंड बराबर गिरते चले गए। समाचार चैनलों द्वारा किए गए दो स्टिंग ऑपरेशनों ने इसकी पोल खोल दी। इनमें से पहला ऑपरेशन सवाल पूछने के लिए सदस्यों द्वारा पैसे वसूलने से जुड़ा था। जैसे ही यह टीवी चैनल पर प्रसारित हुआ, देद्गा की जनता दंग रह गई। इस घटना की जांच के लिए एक कमेटी का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट आने के बाद ११ सांसदों को संसद से बर्खास्त कर दिया गया। इसी समय एक और खुलासा हुआ। एक चैनल ने दिखाया कि चार सांसद सांसद निधि के तहत परियोजना की अनुशंसा के लिए रुपयों की मांग कर रहे थे। एक बार फिर घोटाले की जांच के लिए लोकसभा कमेटी का गठन किया गया और सांसदों को दोषी पाया गया। इन सांसदों को सदन से निलंबित करने की सिफारिश की गई। सदन ने इस रिपोर्ट पर कार्रवाई की। इसी प्रकार एक सांसद कबूतरबाजी में लिप्त पाया गया। उसका भी निष्कासन किया गया। भ्रष्टाचार में लिप्त सांसदों के निलंबन और निष्कासन से एक हद तक संसद में लोगों की आस्था बची रही है। फिर भी सदन की कार्यवाही में व्यवधान एक नई समस्या बन कर उभरा है, जिसे दूर किया जाना बेहद जरूरी है। संसद का तीस फीसदी से अधिक समय आज व्यवधान की भेंट चढ जाता है। तो ऐसे में सवाल खड़ा है की क्या संसद की गरिमा घटी है।

क्या हो राष्ट्रपति चुनाव का आधार ?

भारत के राष्ट्रपति राष्ट्रप्रमुख और भारत के प्रथम नागरिक हैं साथ ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं के प्रमुख सेनापति भी हैं। राष्ट्रपति को भारत के संसद के दोनो सदनो तथा साथ ही राज्य विधायिकाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा पाँच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है। यह चुनाव करीब है और राजनीतिक सत्ता के खिलाड़ी अभी से हवा में नाम उछाल रहे हैं। कभी ऐसी स्थिति हुआ करती थी कि कांग्रेस राष्ट्रपति तय करती थी और विपक्ष उसे समर्थन देता था। आज स्थिति यह है कि कांग्रेस अपने बूते पर अपनी पसंद का राष्ट्रपति नहीं बना सकती हैं। उसे अपने साथी दलों की मदद लेनी होगी। अब कौन किसका साथी है कुछ ही दिन बाद अस्पस्ट हो जाएगा। इसका फैसला इस बात से होता है कि आपका साथ देने से देने वाले को क्या मिलने वाला है ! और आज के दौर में यह सवाल और ज्यादा प्रबल होता दिख रहा है। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और ममता बनर्जी की तृणमूल का हिसाब सीधा है कि आज जो राष्ट्रपति होगा, वह २०१४ में क्या उनके काम का होगा मतलब कि २०१४ में होने वाले लोकसभा के चुनाव के बाद जो भी स्थिति बनेगी उसमें राष्ट्रपति की भूमिका अहम होगी। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का नाम भी काफी आगे किया जा रहा है तो गोपाल कृष्ण गांधी की याद भी की जा रही है। मीरा कुमार से लेकर ए के एंटनी का नाम भी हवा में है। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की चुप्पी के बीच राष्ट्रपति पद के लिए उनकी दावेदारी मजबूत होती चली जा रही है। अगले लोकसभा चुनाव में सियासी हालात के मद्देनजर राष्ट्रपति की भूमिका खासी अहम होगी। राष्ट्रपति के चुनाव में देशभर में कुल लगभग ११ लाख वोट हैं जिनमें से पांच लाख ४९ हजार ४४२ वोट जिसे मिलेंगे वो राष्ट्रपति चुना जाएगा। यूपीए के पास चार लाख ४६ हजार ३३५ वोट हैं जो कुल वोट का लगभग ४१ फीसदी हैं। इसमें से कांग्रेस के पास तीन लाख ३० हजार ९४५ वोट हैं और ये कुल वोट का लगभग ३० फीसदी है। अगर यूपीए को बाहर से समर्थन दे रहीं पार्टियों के वोटों को जोड़ लिया जाए तो ये वोट पांच लाख ८० हजार ३२६ तक पहुंच जाते हैं। मतलब साफ है कि अगर यूपीए को बाहर से समर्थन दे रहीं पार्टियां एक नाम पर सहमत हो जाती हैं तो फिर उनके हिसाब से राष्ट्रपति को चुना जा सकता है। लेकिन कोई पार्टी अपने पत्ते नहीं खोल रही है। जाहिर है यूपीए में खलबली है इसलिए राष्ट्रपति पद के लिए आम सहमति बनाने की कोशिश जारी है। इतिहास के पत्रों से हमें दूसरा कुछ मिले या न मिले एक दिशा तो मिलती ही है। इसलिए सत्ता के आज के खिलाडी जो भी करें। आज के दौर में संविधान विशेषज्ञ राष्ट्रपति नहीं बल्कि हमें संविधान का विवेक सम्मत इस्तेमाल करने वाला राष्ट्रपति होना चाहिए। देश के ऐसे उच्च पद के लिए घिनौनी राजनीति या छींटाकसी किसी भी अस्तर पे शोभा नहीं देती। क्या देश का कोई भी नागरिक ऐसी परिस्थिति के लिए तैयार नहीं है। देश सर्वोपरि है और देश सर्वोपरि ही रहेगा।

क्या राष्ट्रवादी संस्थाओ को साथ मिल कर काम करना चाहिए ?

संकीर्ण दृष्टिकोण से उत्पन्न स्थिति के चलते आज देद्गा में सत्ता की छीना-झपटी, नागरिक समुदाय में राष्ट्र प्रेम की भावना का गिरता स्तर, व भय और घृणा का माहौल - ये हालात हर देशवासी को सोचने पर मजबूर कर देते हैं, कि हम आज कहाँ खड़े हैं और किस दिशा की ओर अग्रसर हैं ? राष्ट्रीय एकता का नारा आज हम भले ही बुलंद कर रहे है मगर देद्गा के अंदर लगातार रास्ट्रीयटा बढ ने के अलावे घट रहा है। लगातार देद्गा के अंदर कई सारे राच्च्ट्रीय संस्थाए काम कर कर रही है मगर आज वे अलग अलग मुद्‌दे को लेकर भटकाव की ओर बढ रहे है। कई सारे लोग देद्गा भर में अपने स्तर से मुहिम चला रहे है चाहे वह भ्रटाचार को लेकर हो या काले धन को लेकर हो या फिर नागरिक अधिकारो को लेकर हो । यहा बड़ा सवाल खड़ा होता है की क्या इन्हें एक साथ मिल कर काम नही करना चाहिए। अगर ये सभी लोग एक साथ मिल कर काम करते है तो कही न कही इसका एक ब्यापक स्तर पर इसका प्रभाव पडेगा । पर अफसोस कि देश की स्वतंत्रता के बाद हम सब राष्ट्रीय एकता के सबक को भूल बैठे है। जो कि हमारा पहला धर्म होना चाहिए था। एक अजीब स्थिती में आज देद्गा आ खड़ा हो गया है। कभी दुनिया को धर्म के मार्ग पर चलना सिखाने वाला राष्ट्र आज खुद धर्म के अर्थ से अलग होते जा रहा हैं। आज राट्रीयता के नाम पर पता नहीं कितनी संस्थाए काम कर रही हैं मगर कभी- कभी लाभ के मोह में ये संस्थाए अपनी ताकत खोती जा रही है। यही कारण हैं की देश के विशाल नागरिक समुदाय अलग अलग बटा हुआ है। राष्ट्रीय एकता के अभाव में ही अंग्रेजों ने अपने राज्यकाल में फूट डालो-राज्य करो की नीति से राट्रीयता के लिए काम करने वाले लोगो को आपस में लड़ाया लगता हैं हम सब देश के स्वतंत्र होने के बाद भी हमने इतिहास से सबक नहीं सीखा। राष्ट्रीय एकता के अभाव में हमारा देश उतनी प्रगति नहीं कर पा रहा है जितनी प्रगति की उम्मीद की राट्रीय सोच रखने वाले संस्थाए जिनका सोच एक हैं लक्ष्य एक है - फिर भी आज जनमत को जोड़ नही पा रहे है। आज हमारी भलाई एक हाने में है ना कि पृथक होने में और अपार जनसूह की शक्ति किसी एक धारा में लगा दिया जाये तो कोई भी कार्य असंभव नहीं रहता। अगर राष्ट्रीय एकता हो तो समाज टुकडो में नही बट पाएगा। और सरकार को भी राट्रीयता के लिए काम करने वाले लोगो के आगे झुकना पड़ेगा । राट्रीय संस्थाओ के आपसी मन मुटाव के चलते आज देद्गा में कोई बहुत बड़ा आंदोल खड़ा नही हो पा रहा है। अगर कोई कदम आगे बढावा है तो सरकार खुद दमनकारी नीती के तहद दबाने का प्रयास कर रही है। भारत के टुकड़े टुकड़े करने का पूरा षडयंत्र चल रहा है। और इसका सुत्रपात हो रहा है सिमापार और अमेरीकी के दबाव के चलते। चाहे आसाम हो या गुजरात, बंगाल हो या कश्मीर, राच्च्ट्रीय संस्थओ के जनाधार कमजोर होने के कारण छिन्न-भिन्न होते जा रहे है। राष्ट्र समृद्ध तभी संभव होगा, जब सारा राष्ट्रीय जनसमूह एक हो राष्ट्र के विकास के लिये प्रयत्नशील हो। राष्ट्रीय एकता जब हमारे लिये लक्ष्य न होकर हमारा धर्म हो जायेगा, यानि हमारी आदत बन जायेगा - तब ही हमारा देश गर्व से सर उठाकर जी सकेगा, उसका अपना अस्तित्व होगा। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा।

सचिन संसद और सियासत की खेल

क्रिकेट के मैदान पर गेंदबाजों के पसीने छुड़ाने वाले सचिन सियासत की पिच पर राज्य सभा में बैटिंग करने जा रहे हैं। सरकार द्वारा सचिन को मनोनीत करने के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने भी उनके नाम को मंजूरी दे दी है। लेकिन इन सब के बिच सचिन के इस फैसले का सियासी और राजनीतिक हलकों में विरोध शुरू हो गया है। शिवसेना ने इसका जोरदार विरोध किया है। शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत का कहना है कि कांग्रेस कुछ खास स्वार्थ के चलते सचिन का इस्तेमाल कर रही है। कहीं न कहीं कांग्रेस सचिन की लोकप्रियता को भुनाना चाहती है। कांग्रेस के इस फैसले से सवाल खड़ा होता हैं की क्या कांग्रेस इस समय बोफोर्स जैसे कई मुद्दों से घिरी हुई है ध्घ्यान हटाने के लिए सचिन को राज्घ्यसभा भेज रही है? वैसे भी कांग्रेस बिना फायदे के किसी को कोई पद नहीं देती है। आज पूरा देद्गा जहा एक ओर सचिन को भारत रत्न देने के लिए मांग उठा रहा है तो वही दुसरी ओर सरकार सचिन को राज्यसभा में भेज कर क्या उनके गरिमा को कम करना चाहती है। सचिन रमेश तेंडुलकर का नाम किसी पहचान के मोहताज नहीं है इस नाम को सुनकर विपक्षी टीम के हौसले पस्त हो जाते हैं। तो यहा सवाल खड ा होता है की फिर कांग्रेस आखिर कौन सा पहचान देना चाहती है सचिन को ? यह सब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ सचिन तेंडुलकर और उनकी पत्नी अंजलि की मुलाकात के बाद हुआ है। यानी कही न कही सचिन को मोहरा बनाने के पिछे सोनिया गांधी का भी हाथ है। किसी खेलते हुए खिलाडी को राज्यसभा के लिए मनोनीत करने का यह पहला मामला है। अक्सर ऐसा देखा गया गया है कि जो भी पार्टी किसी बड़ी हस्ती को राज्यसभा के लिए मनोनीत करती है वो दरअसल उस हस्ती को पार्टी से जोड ने की एक कवायद होती है। सचिन अभी सपत लिए भी नही की इसके लिए कांग्रेस अभी से ही कवायद तेज कर दी है। इससे साफ जाहीर होता है, की सरकार सचिन को राजनीतिक इस्तेमाल करना चाहती है। सवाल यहा यह भी है, की क्या सचिन कांग्रेस के नजदीक चले गए हैं या फिर वो राजनीति से अब भी दूरी बनाए रखेंगे? क्या सचिन को राजनीति में आना चाहिए? और क्या राजनीति में आने के बाद सचिन की छवि वही रहेगी जो अब तक है?

क्या केंद्र सरकार राज्यों के अधिकारों को हानि पंहुचा रही है ?

राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र यानि एनसीटीसी गृह मंत्रालय की एक महात्वाकांक्षी परियोजना है जो गृह मंत्री पी चिदंबरम की पहल पर गठित हुई है। आतंकवाद से जुड़े मामलों के आईबी रिसर्च एंड एनलिसिस विंग ज्वायंट इंटेलिजेंस कमेटी और राज्यों की खुफिया एजेंसियों के लिए नोडल एजेंसी का काम करेगा। ये सारी एजेंसियां आतंकवाद से जुड़े मामलों में नेशनल काउंटर टेरररिज्म सेंटर को रिपोर्ट करेंगी। एडीजी स्तर का पुलिस अफसर इस सेंटर का प्रमुख होगा जो सीधे गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करेगा। यहा प्रद्गन खड़ा होता है की क्या आंतरिक सुरक्षा को अलग-थलग करके देखा जाना सही है क्योंकि एनसीटीसी देश की आंतरिक सुरक्षा से सीधे तौर पर जुडा है। आतंकवाद निरोधी केंद्र का गठन कानून एवं व्यवस्था के मसले पर राज्यों के एकाधिकार में हस्तक्षेप है। क्योकी संविधान के सातवीं अनुसूची में राज्य सरकारों को उनके अधिकार क्षेत्र में कानून और व्यवस्था को कार्यान्वित करने का एकाधिकार है। इसी अनुसूची की सूची ३ में केंद्र को देश के कानून बनाने का और देश की सुरक्षा का भी उत्तरदायित्व दिया हुआ है। एनसीटीसी के उपर यही से सुरू होता है, राज्य बनाम केन्द्र की लड़ाई । इस नियम के तहद गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम-१९६७ के अनुभाग ४३ अ के तहत गिरफ्तारी और तलाशी के लिए अधिकृत करने का प्रस्ताव है। गैर कांग्रेस शासित राज्यों का कहना है कि केंद्र सरकार द्वारा राज्यों की अनुमति के बिना एनसीटीसी को उनके अधिकार क्षेत्रों में गिरफ्तारी आदि के लिए अधिकृत करना संघीय व्यवस्था का उल्लंघन है। संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य सरकारों को उनके अधिकार क्षेत्र में कानून और व्यवस्था को संचालित करने का एकाधिकार है। इस कानून का बिरोध करने वाले मुखयमंत्रियों में भाजपा शासित राज्यों के मुखयमंत्रियों के साथ-साथ सहयोगी राज्यों के मुखयमंत्री भी इसका विरोध कर रहे है। इसमें तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी सबसे आगे हैं। इनके अलावा ओडिशा के मुखयमंत्री नवीन पटनायक और तमिलनाडु की मुखयमंत्री जे जयललिता ने भी इसका विरोध कर रही है। सुरक्षा से जुडे महत्वपूर्ण मसलों पर राज्य सरकारों से सलाह मशविरा नहीं करने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए गुजरात के नरेन्द्र मोदी ने कहा है की इसका भी इस्तेमाल केन्द्र सरकार उसी प्रकार करेगी जिस प्रकार से सीबीआई का कर रही है। दरअसल एनसीटीसी के पास कहीं से भी किसी को गिरफ्तार करने और जांच करने का अधिकार होने की बात सामिल की गई है। इसके लिए उन्हें उस राज्य की पुलिस या सरकार को जानकारी देना जरूरी नहीं होगा। राज्यों को सबसे ज्यादा ऐतराज इसी बात का है। एनसीटीसी के तहद देश में किसी भी विशेष बल सहित एनएसजी की सहायता लेने का अधिकार है। अधिकारियों के संबंधित राज्यों की पूर्व अनुमति के बिना बाहर छापेमारी कर ले जाने के लिए कर सकते हैं। और अधिकारी आतंकवाद से संबंधित मामलों पर किसी को भी गिरफ्तार कर सकते हैं। राज्य के अन्य सरकारी अधिकारियों को जानकारी साझा करने के लिए बाध्य कर रहे हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या केन्द्र सरकार राज्यो के अधिकारों को हांनी पहुंचाना चाहती है।

रिहाई के लिए नक्श्लियो आतंकियों को छोड़ना कितना सही ?

नक्सलवाद का सूरूआत पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुआ है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने १९६७ में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी। लेकिन आज यही नक्सलवाद देद्गा के लिए नासूर बन गई है। दुनिया के एकमात्र हिन्दू राष्ट्र को खत्म कर इस समय माओवादी तत्व भारत और नेपाल में अपने चरम पर हैं और चीन की तथाकथित शहर से भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्र संगठनों से हाथ मिलाकर नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर आंध्रप्रदेश के तिरुपति तक रेड कॉरिडोर बनाने की जुगत में लगे हैं। इनकी मंशा है कि दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को भारत से अलग किया जा सके तथा पूर्वोत्तर राज्यों को भी भारत से अलग किया जा सके, ताकि माओवादी अपना शिकंजा इन राज्यों पर जमा उन्हें भी नेपाल की भाँति हडप लें। छत्तीसगड के दंतेवाड़ा जिले में नक्सली हमले में एक साथ ७६ लोगों की मौत ने देश को झकझोर कर रख दिया। इन नक्सलीयो को गोला बारूद और अत्याधुनिक हथियार राच्च्ट्रविरोधी ताकते मुहैया करा रही है। चिन और पाकिस्तान के रास्ते नक्सलीयो को भरपूर मद्‌द दी जा रही है। आए दिन ये नक्सली और आतंकी अपनी मांगे मनवाने के लिए नेता, विधायक सांसद और कलेक्टर तक को हाल के आतंकी घटनाओ के उपर अपहरण करते हैं तो कभी जान से उन्हे मार भी देते है। अगर हाल के माओवादियो द्वारा किए गए अपहरण के उपर नजरडाले तो सत्तारूढ़ बीजद के विधायक झीना हिकाका को बंधक बनाने वाले माओवादियों ने अपनी मांगों को पूरा करने के लिए पहले ३० कैदियों की रिहाई की मांगे रखी। चेंदा भूषणम उर्फ घासी को रिहाई के लिए ये लगातार सरकार के उपर दबाव बना रहे है। जो कम से कम ५५ पुलिसकर्मियों को मारने का आरोपी है। अगर २४ दिसंबर १९९९ को हुए इंडियन एरलाइस के विमान के अपहरण की घटना के उपर एक नजर डाले तो पांच नकाबधारी हथियार से लैस आतंकवादियों ने आईसी ८१४ पांच आतंकियों का मोहताज हो गया था। लिहाजा सबकुछ आतंकियों के हाथ में था। और फिर वो वहां पहुंचे जो जगह अलकायदा का गढ था। जहां तालिबान का राज था। और फिर भारत सरकार को आतंकियों के मांग के सामने झुकना पड़ा । और भारत को तीन खूंखार आतंकवादियों को छोड ना था। एक आतंकवादी को पकड ने के लिए अनेको सेना के जवान को द्याहिद होना पड ता है। मगर ये आतंकवादी और नक्सलवादी असानी से आज नेता और प्रशाशनिक अधिकारीयो को अपहरण कर इन्हें इन्हे छुड़ा ले जा रहे है।

क्या सरकार अप्रवासी भारतीय के प्रति उदाशिन है ?

एक भारतीय नागरिक जो रोजगार के लिए विदेश में रहता है। और वहा पर रह कर देद्गा का नाम रौद्गान करता हैं मगर आज सरकार एनआरआई को लेकर बिलकुल गंभिर नजर नही आ रही है। अमेरिका की सिलिकॉन वैली से लेकर जापान, वियतनाम, चिन ,फिलीपींस और सिंगापुर के विकास में एनआरआई अहम भूमिका निभा रहे है। आज के दौर में ये एनआरआई प्रतिभाशाली, उत्साही और मेहनती हैं। इन्ही के दम पर आज इन देशो में एपल, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट के कुछ नामी गिरामी कंपनियां फल फल फूल रही है। इंजीनियरींग और टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ ये भारतीय पूरे दुनिया में अपना परचम लहरा रहे हैं। मगर प्रवासी भारतीयों को भारत सरकार सहयोग नहीं मिलता रहा हैं। अनिवासी भारतीयों यानी एनआरआइ को ऐसा अहसास होता है कि वे अपने ही देश में कोई अजनबी हैं। भारत में तंत्र की उपेक्षा से प्रंवासी भारतीयों को कई तरह की दिक्कत होती है। आज प्रंवासी भारतीयों का दर्द यहीं खत्म नहीं हो जाता। कदम-कदम पर उन्हें अपने ही देश में अजनबी होने का अहसास कराया जाता है। जब भी भारत आते हैं, तो वापसी पर हवाई अड्डे के अधिकारी उनसे सवाल पूछते हैं- इतने दिनों तक भारत में क्यों रहे? आज एनआरआई के साथ पत्नियों, बच्चों के अपहरण, विदेशी गोद लेने और किराए रिश्तों का आदि का सामना आए दिन करना पड़ रहा है। आज एनआरआई अपने देश छोड ने के लिए मजबूर है, आज दुनिया के हर कोने में एनआरआई मौजूद हैं। भारतीयों एनआरआई अपने व्यापार को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास और कठिन काम करने के साथ अपने आप को स्थापित किया है। आज एनआरआई देश छोड ना शुरू कर दिए है। विशेष रूप से पंजाब, कनाडा और अन्य यूरोपीय देशों में इनका पलायन लगातार जारी है। इसका एकमात्र कारण आज के सरकार है जो एनआरआई के महत्व को नही समझ रही है। आज एनआरआई कई कीर्तिमान स्थापित करने और अपने देश का नाम और प्रसिद्धि को आगे बढ या है।मगर ये खुद अपने ही देद्गा से अलग हो रहे है और वे अपने देश के साथ अपने संबंधो को भूल गए है। एनआरआई, जब भी वे अपने देश में लौटने है तो वे मंदिरों को बनाने, स्कूल की इमारत के लिए अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा दान करने के लिए तैयार रहते हैं। हमेशा से ही अपनी मातृभूमि के लिए एनआरआई खुद अपनी मातृभूमि का सबसे अच्छा बेटों साबित करने के लिए तैयार रहते है। एनआरआई हर क्षेत्र में लाखों डॉलर के निवेश करना चाहते हैं, लेकिन हमारे प्रशासनिक माहौल ऐसे हैं की ये चाह कर भी कुछ नही कर पाते है। आज के दौर में मौजूदा सरकार एनआरआई के उपर बिलकुल उदासिन नजर आ रही है। बढ ती जनसंखया और बेरोजगारी भारतीयों को अपने देश छोड ने के लिए भी मजबूर कर रही है। उनके साथ दुर्व्‌यवहार और उपेक्षा भी एक कारण सामिल है। आज उनके प्रयासों का सम्मान करने की जरूरत है। ताकी आज भारत जो आत्म निर्भर अर्थव्यवस्था का सपना देख देख रहा है उसे पूरा किया जा सके । और साथ ही भारतीय प्रशासन को भी उन्हें उचित तरीके से मद्‌द करने की जरूरत है।

क्या बैश्विकरण के युग में श्रमिको का शोषण बढ़ा है ?

एक भारतीय नागरिक जो रोजगार के लिए विदेश में रहता है। और वहा पर रह कर देद्गा का नाम रौद्गान करता हैं मगर आज सरकार एनआरआई को लेकर बिलकुल गंभिर नजर नही आ रही है। अमेरिका की सिलिकॉन वैली से लेकर जापान, वियतनाम, चिन ,फिलीपींस और सिंगापुर के विकास में एनआरआई अहम भूमिका निभा रहे है। आज के दौर में ये एनआरआई प्रतिभाशाली, उत्साही और मेहनती हैं। इन्ही के दम पर आज इन देशो में एपल, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट के कुछ नामी गिरामी कंपनियां फल फल फूल रही है। इंजीनियरींग और टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ ये भारतीय पूरे दुनिया में अपना परचम लहरा रहे हैं। मगर प्रवासी भारतीयों को भारत सरकार सहयोग नहीं मिलता रहा हैं। अनिवासी भारतीयों यानी एनआरआइ को ऐसा अहसास होता है कि वे अपने ही देश में कोई अजनबी हैं। भारत में तंत्र की उपेक्षा से प्रंवासी भारतीयों को कई तरह की दिक्कत होती है। आज प्रंवासी भारतीयों का दर्द यहीं खत्म नहीं हो जाता। कदम-कदम पर उन्हें अपने ही देश में अजनबी होने का अहसास कराया जाता है। जब भी भारत आते हैं, तो वापसी पर हवाई अड्डे के अधिकारी उनसे सवाल पूछते हैं- इतने दिनों तक भारत में क्यों रहे? आज एनआरआई के साथ पत्नियों, बच्चों के अपहरण, विदेशी गोद लेने और किराए रिश्तों का आदि का सामना आए दिन करना पड़ रहा है। आज एनआरआई अपने देश छोड ने के लिए मजबूर है, आज दुनिया के हर कोने में एनआरआई मौजूद हैं। भारतीयों एनआरआई अपने व्यापार को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास और कठिन काम करने के साथ अपने आप को स्थापित किया है। आज एनआरआई देश छोड ना शुरू कर दिए है। विशेष रूप से पंजाब, कनाडा और अन्य यूरोपीय देशों में इनका पलायन लगातार जारी है। इसका एकमात्र कारण आज के सरकार है जो एनआरआई के महत्व को नही समझ रही है। आज एनआरआई कई कीर्तिमान स्थापित करने और अपने देश का नाम और प्रसिद्धि को आगे बढ या है।मगर ये खुद अपने ही देद्गा से अलग हो रहे है और वे अपने देश के साथ अपने संबंधो को भूल गए है। एनआरआई, जब भी वे अपने देश में लौटने है तो वे मंदिरों को बनाने, स्कूल की इमारत के लिए अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा दान करने के लिए तैयार रहते हैं। हमेशा से ही अपनी मातृभूमि के लिए एनआरआई खुद अपनी मातृभूमि का सबसे अच्छा बेटों साबित करने के लिए तैयार रहते है। एनआरआई हर क्षेत्र में लाखों डॉलर के निवेश करना चाहते हैं, लेकिन हमारे प्रशासनिक माहौल ऐसे हैं की ये चाह कर भी कुछ नही कर पाते है। आज के दौर में मौजूदा सरकार एनआरआई के उपर बिलकुल उदासिन नजर आ रही है। बढ ती जनसंखया और बेरोजगारी भारतीयों को अपने देश छोड ने के लिए भी मजबूर कर रही है। उनके साथ दुर्व्‌यवहार और उपेक्षा भी एक कारण सामिल है। आज उनके प्रयासों का सम्मान करने की जरूरत है। ताकी आज भारत जो आत्म निर्भर अर्थव्यवस्था का सपना देख देख रहा है उसे पूरा किया जा सके । और साथ ही भारतीय प्रशासन को भी उन्हें उचित तरीके से मद्‌द करने की जरूरत है।

लव जेहाद का सच !

लव जेहाद। इन दो शब्दों के इर्द-गिर्द आतंकियों ने बुना है हिंदुस्तान को बर्बाद करने का जाल। इन दो शब्दों के शायद हजारो खूबसूरत चेहरे शिकार हो चुके हैं। सिमी जैसे प्रतिबंधित संगठन देश के अलग-अलग हिस्सों में लव जेहाद को अंजाम देने की कोशिश में हैं। आतंकियों की इस नई साजिश का ब्लूप्रिंट सीमापार तैयार किया गया है। यहीं से आता है पैसा और यहीं से सप्लाई होता है लव जेहाद का मैनुअल। आतंकी स्लीपर सेल के जरिए धीरे-धीरे पूरे देश में इसका नेटवर्क तैयार करते जा रहे हैं। आतंकियों ने मिशन लव जेहाद को अंजाम देने के लिए बाकायदा मैनुअल और कोडवर्ड भी तैयार किए हैं। उन्हें लड़कियों के हॉस्टल, उनके कॉलेज और कोचिंग इंस्टीटूट पर नजर रखने के लिए कहा जाता है। ताकि मौका मिलने पर आतंकी उनसे दोस्ती कर सकें और उन्हें अपने प्यार के जाल में फंसाकर अपना काम करवा सकें। लव जेहाद - यानि प्यार के नाम पर जेहादी लड कियों की फौज खडी करना। इसके दो कोड वर्ड हैं -लव कृष्ण का मतलब है हिंदू धर्म मानने वाली लड कियों को प्यार के जाल में फांसना। वहीं लव जीजस का मतलब ईसाई धर्म मानने वाली लड कियों को फर्जी प्यार के जाल में फांसना। लव जेहाद की नींव डाली जा रही है स्कूल-कॉलेज और कोचिंग संस्थानों के आसपास और शिकार तलाशने के लिए सहारा लिया जा रहा है दिखने में ठीक-ठाक लड कों का। ऐसे लड के जो कॉलेज जाते हों, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हों और लगे कि उनके पास खासा पैसा है। सो आतंकवादी नेटवर्क ऐसे लड कों के लिए न केवल अच्छी गाडियों का जुगाड करता है बल्कि कपडे और पैसे की सप्लाई भी की जाती है। लव जेहाद के लिए लड कियों को तैयार करने के काम में उतरे ज्यादातर लड के सिमी और दूसरे प्रतिबंधित संगठनों के हैं। जो जितनी जल्दी कामयाब होता है उसे इतना बड़ा इनाम भी दिया जाता है। जानकारी के मुताबिक लड कियों को जाल में फांसने के लिए बाकायदा एक मैनुअल भी तैयार कर लिया गया है।


जानिए  कैसे करते है लव जेहाद के नाम पर लड़कियो का शिकार !

-लड़कियो को प्यार में इस कदर पागल कर दें कि वो आपकी कोई बात ठुकरा ना सकें।

-लड़कियो से दोस्ती बढ़ाने के लिए मोबाइल और इंटरनेट का भी करते है इस्तेमाल करें।

-कॉलेज और हॉस्टल के आसपास मोबाइल रिचार्ज कराने वाली जगहों पर जाकर करते है सिकार ।

-इंटरनेट कैफे में भी लड कियों से दोस्ती करने की कोशिश कर भी करते हैं।

-किसी भी तरह लड़कियो का मोबाइल नंबर हासिल करें ताकि उन्हें फोन और एसएमएस किया जा सके।

मोबाइल कॉल और एसएमएस लव जेहाद का शुरुआती हथियार है। आतंकवादियों को सोशल नेटवर्किंग साइट पर चौट करना भी सिखाया जा रहा है। कोशिश ये साबित करने की कि लड़का हर मायने में अच्छा है। आतंकियों को ये भी ताकीद की गई है कि अगर किसी लड की के पास मोबाइल फोन ना हो तो दोस्ती गांठने के बाद सबसे पहले उसे मोबाइल फोन तोहफे में दें और इसके बाद महंगे गिफ्ट्‌स का सिलसिला। कपड़े परफ्यूम.. और फिर पिकनिक। लड का-लड की के साथ पिकनिक जाता है और वहीं उसका अश्लील वीडियो बना लिया जाता है, फिर तो लड की मुट्ठी में। लड की को घर से भागने पर मजबूर कर दिया जाता है। इसके बाद उसका धर्म परिवर्तन और फिर उसके दिमाग को सम्मोहित करने की मुहिम। इसके बाद एक साथ दो बातें होती हैं लड की का कथित शौहर अचानक गायब हो जाता है और उसके दोस्त कहते हैं कि वो तो जेहाद के लिए चला गया है, अब तुम भी जेहाद के लिए काम करो। यहां से शुरू होता है लव जेहाद। उसे इस्लाम के नाम पर भड काया जाता है। भड काऊ सीडी दिखाई जाती है ताकि एक भले चंगे दिलोदिमाग में जहर भर जाए। घर के दरवाजे पर जैसे ही कोई आहट होती है स्टैनली भाग पर वहां पहुंच जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी बेटी की कोई खबर आई होगी। लेकिन हर बार उन्हें सिर्फ मायूसी मिलती है। ६ महीना पहले उनकी बेटी अजीबो गरीब ने लायक नहीं रहतीं। उन्हें पता नहीं होता कि वो क्या कर रही हैं। कैसे कर रही हैं। जब तक वो कुछ समझती हैं उनके हाथ से सब कुछ निकल चुका होता है। लेकिन पुलिस और सरकार अब भी खामोश बैठी है। कुछ लड कियों को जबरन धर्म परिवर्तन कराने के बाद छोड दिया गया जबकि कुछ जिस्मफरोशी में धकेल दी गईं। कुछ दिनों पहले कालीकट और कोचीन के वेश्यालयों पर छापे के दौरान मिली ज्यादातर लड कियां हिंदू धर्म की थीं जिन्हें जबरन इस्लाम धर्म कबूल करवा दिया गया था। धर्म परिवर्तन के बाद कई लड़कियों का आज तक पता नहीं चला जबकि कुछ लड कियां बांग्लादेश भेज दी गईं। केरल पुलिस के पास ये भी खुफिया जानकारी है कि कुछ बुर्काधारी औरतें हथियारों की तस्करी में लगी हैं। लव जेहाद के झांसे में आई लड कियां अगर आसानी से आतंकवादियों की बात नहीं मानतीं तो उन्हें कई-कई दिनों तक भूखा भी रखा जाता है। इतना ही नहीं जो लड कियां पूरी तरह लव जेहाद के फंदे में फंस चुकी हैं वो खुद भी बाकी लड कियों को टॉर्चर करती हैं।

गाय बचाओ देश बचाओ एक यात्रा

विश्व की सबसे बड़ी गौशाला श्री गोपाल गोवर्धन गौशाला पथमेड जहां लाखो की संखया में गायों का पालन पोच्चण हो रहा है। इस गौशाला के संस्थापक श्री दत्तद्गारणानन्द जी महाराज के निर्देद्गान में श्री ब्रज गो अभयारण्य का निर्माण किया जा रहा है। यह गौशाला राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित जड खोर में चलाया जा रहा है। इस गौशाला एकमात्र उद्देद्गय ब्रज के गायों का संरक्षण एवम्‌ देख रेख करना और घर- घर में गो सेवा का सुरुआत करना है। इस गांव के लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, मगर जब से यहां पर गौशाला की सुरुआत हुई है। यहां के लोगों में एक उम्मीद की आशा है। यह स्थान भगवान श्री कृच्च्ण की लीला भूमी है। एक समय था जब यहां पर करोड़ो की संखया में गौवंद्गा हुआ करता था। आज यहां पर मात्र २-३ लाख में सिमट कर रह गया है। यह गौशाला पहाड़ी इलाकों में स्थित है लिहाजा यहा पर प्रर्याप्त संखया में चारा की मौजूदगी बहुत ही कम रहती है खास कर मई-जून के महीनें में गौशाला के नज दीक ये पहाडि या गायों के लिए काफी उपयोगी भी हैं। इन पहाडि यों पर गायें चरने आती हैं और पूनः चारा लेने के बाद वापस गौशाला में लौट जाती है। गौशाला के अंदर अधिकतर गायें ऐसी हैं जो बिल्कुल दूध नहीं देती है। फिर भी इन गांयो को यहां पर रखा गया है ताकि गायों को समाप्त होने से बचाया जा सके। देद्गा के अंदर आज लगातार गायों की संखया घटती जा रही है। ऐसे में इसको बचाना बहुत ही आवद्गयक है। इसगौशाला में तरह तरह के गांय मौजूद है। मगर अधिकतर गांयें बिना दूध देने वाली ही हैं। इस गौशाला चारो तरफ से जालीदार लोहे के तार से घेराव किया गया है। ताकी जंगली जीवों से इनकी रक्षा की जा सके। गौशाला के आस पास बने ऊंची पहाडि यों के साथ साथ कांटेदार जंगल भी है। ऐसे में यहां पर गायों की सुरक्षा काफी अहम हो जाती है। इस गौद्गााला को संचालित होने के बाद से यहां के लोगों को रोजगार के साथ- साथ खेतों की उपज द्याक्ति में भी काफी ज्यादा वृद्धि हुई है। पहाड़ी इलाके में स्थित पथरीली भूमी आज हरे भरे फसलों से लहलहा रहे हैं। और इन सब का एक मात्र कारण यहा का गौशाला है। गोबर के इस्तेमाल से खेतों की प्राकृतिक उपज द्याक्ति बनी रहती है। साथ ही पैदावार भी काफी ज्यादा बढ जाती है। आज सबसे ज्यादा खराब स्थिती बछड की है। किसान ट्रैक्टर से खेती कर रहें हैं इसलिए बछडो के लिए खेतों में योगदान दिन प्रतिदिन बढ ते जा रहा है। जीव जंतु कल्याण बोर्ड के दिशा निर्दोशो अनुसार यह संस्थान कार्यशील है। इस संस्थान का प्रयास है की बैलों को पुनः खेती के कार्य में नियोजित किया जाय। साथ ही गोबर की खाद व गौमूत्र कीटनाद्गाक का बड़े स्तर पर उपयोग कर जैविक खेती द्धारा अन्न पैदा किया जा सके। इस गौशाला में लगातार गायों को लाया जा रहा है। इस समय यहां पर एक हजारो गायों को लाया जा चुका है। यहां पर कमजोर गायें एक महीनें के अंदर ही पुच्च्ट दिखाई देने लगती है। यहां पर गायों के लिए ३२ फिट चौड़े एवं ७०० फिट लंम्बे गो गृह का निर्माण हो चुका है। इतना ही नहीं यहां पर ११०० फिट लंम्बे एक और गो गृह का कार्य निर्माणाधीन है। इसके अलावा नंदीशाला भुसागोदाम संतनिवास के कार्य तेज गति से चल रहा है। इन सब के अलावा यहां पर गो संरक्षण के लिए हजारों मीटर में गो गृहों भूसा गोदाम तथा संत कुटियों का निर्माण कार्य आगे किया जा रहा है। इस गौद्गााला की स्थापना दिल्ली से महज १३५ किलोमीटर दूर ब्रज चौरासी के श्री कामां क्षेत्र में हो रही है। इस क्षेत्र में हज़ारों बीघा प्राकृति जंगल एवं पहाड मौजूद हैं। संतों महापुरुच्चों का मानना है कि यह वही क्षेत्र है जहां पर नंदबाबा तथा ठाकुर जी ने ग्वाल वालों के साथ गो सेवा किया था। गौ माता के लिए भूमिदान अक्षय दान के समान माना जाता है। वेद द्याास्त्रों में इसको अक्षय पुण्य कहा जाता है। जो कभी पूरा न हो नच्च्ट न हो। पृथ्वी तात्विक रुप से अबिनाशी । इसी लिए यह नच्च्ट नहीं होती है। मुगल काल में गो हत्या पूरी तरह से बंद हो गया था। यह भारतीय इतिहास के लिए एक स्वर्णर्निम लम्हा था। जिसे पूरा देद्गा ने स्वागत किया। मगर मुगल शासन के समाप्त होने के बाद से अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक माहौल बिगाड नें के लिए देद्गा में कई जगहो पर कत्लखाने का निर्माण करवाया। यह भारतीय संस्कृति के लिए एक काला अध्याय था। जिसे एक सुर में पूरा देद्गा ने विरोध किया। मगर अंग्रेजो के तानाशाही और फुट डालो शासन करो की निती ने गौ हत्या प्रतिबंध आन्दोलन को कमजोर बना दिया। अंग्रेजो के अडि यल रूख और तोपों के परवाह किए बिना लोग अपनी मांगो को लेकर अवाज उठाते रहे । भले ही आज देद्गा में कुछ राज्यों ने कानून बना कर इसे रोकने का भर सक प्रयास किया हो मगर आज भी देद्गा हमारे देद्गा में गायों की संखया घटती जा रही हैं। यह एक चिंता विषय का है । जिस प्रकार से सेभ टाईगर का अभियान चलाकर बाघों को बचाने के लिए अभियान चलाया गया उसी तरह से सेव काउ के नाम से अभियान चलाने की मांगे उठने लगी हैं। साथ ही आज व्यापक स्तर पर गाय बचाने की अभियान चलना चाहिए। ताकी लगातार घटती हुई गांयों की संखया पर रोक लग सके। गायों को बचाने के लिए आज हर स्तर पर प्रयास सुरू हो चुका हैं, चाहे आम हो या खास इसके लिए जगह- जगह सभाए हो रही हैं। ताकी गौ वंद्गा को बचाया जा सके। राजस्थान, से भरतपूर नगर के भाजपा विधायक अनिता सिंह लगातार गायों को बचाने के लिए प्रयास कर रही है। अनिता जी गौ पूजन को अपना धर्म समझती हैं। गौशाला के निर्माण में इनका हर तरह से सर्मथन प्राप्त हैं। अनिता जी बताती है की यह स्थान वृज का क्षेत्र है लोगो को आज गाय की महत्व को समझने की जरूरत है । यह गौशाला पहाड़ी इलाके में स्थित है जहा पर आने जाने की समस्या है। मगर अनिता जी जल्द ही इस गौशाला तक पहुंचने के लिए सड को का निर्माण करवाने जा रही है ताकी ज्यादा से ज्यादा गायों को यहा पर लाया जा सके। गाय को पुराणो में काफी महत्व दिया गया है । गाय माता प्रत्यक्ष देव है । शास्त्रों में गाय के गोबर में महालक्ष्मी का निवास बताया गया है। गौमूत्र में भागीरथी गंगा का निवास बताया गया है । गाय माता जहा पर द्यवांस लेती है उस स्थान की सोभा में वृध्दि होती है । और वहा पे किया हुआ सारा पाप उतर जाता है । आज महानगरो की बात करे तो वहा पर ऐसी वेवस्था बन गई है की कोई चाह कर भी गाय नही रख सकता। बहुमंजिले इमारतो में सुख सुविधाओ की हर छोटी बड़ी बात का ध्यान रखा जाता है। कार के लिए अलग से गैरेज का निर्माण किया जाता हैं, मगर गाय को आज लोगो के घरो में रखने के लिए एक छोटे से स्थान नही है । रिहाईशी इलाको में गाय पालना प्रतिबंधित है। यह अपने आप में एक दुरर्भाग्य की बात है। गाय जीवन यापन के लिए सबसे बड़ी जरूरत है। साथ ही हिंदू धर्म में इसे मां का दर्जा दिया गया है । का गौद्का खुलना अति आवद्गयक हैं। गौशाला खुलने के बाद से यहा पर लोगो को एक रोजगार का साधन भी मिला है। इसे लेकर लोगो में काफी उत्साह है। यह गौशाला बहुत ही पिछड़े और पहाड़ी इलाके में स्थित है। गौशाला उची उची पहाड़ी के चोटियों से घिरा हुआ है। कुछ दिन पहले यह इलाका घने जंगलों से घिरा हुआ था, मगर अब यहां पर लोगों ने अपना जीवन यापन शुरू कर दिया है। इलाके की जमीन काफी ज्यादा उपजाऊ बन गई तथा यहां पर तरह-तरह के निर्माण कार्य किए जा रहे है। प्राकृतिक सुन्दरता और स्वच्छ वातावरण के कारण लोग यहां पर एकांतवास जीवन यापन करने के लिए अपना आशियाना भी बनाने लगे हैं। भरतपुर का यह इलाका बहुत ही सुंदर और दर्द्गान योग्य भी है। सुबह का सुर्योदय यहां की पहाडि यों से देखने का एक अलग ही अंदाज है। नारंगी के आकार में उगता हुआ सुरज ऐसा प्रतीत होता है मानो ये पहाडि यां इसे अपनी गोद में लेने के लिए लालायित हो। इन सभी प्राकृतिक सौंदर्य के बीच यहां के खेतों में लगी हुई फसल भी यहां के उगते हुए सूरज का स्वागत करने के लिए अपने पत्तो को फैला देती है। तो वहीं दूसरी ओर यहां के घने जंगलों में पंछी अपने कलरव और मिठे कोलाहल से मनमोह लेती है। इन सबके बीच यहां के किसान कुदाल उठाकर खेतों में चल देते है तो गौ सेवक गायो के सेवा में लग जाते है। यह पूरा प्राकृतिक घटनाक्रम एक जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करता है। और यहां आने वाले शिलानियो का भी मनमोह लेता है।

पुरातत्व बिभाग धरोहरों के रक्षक या भक्षक ?

भारतीय पुरातत्घ्व सर्वेक्षण राष्ट्र की सांस्घ्कृतिक विरासतों के पुरातत्घ्व अनुसंधान तथा संरक्षण के लिए एक प्रमुख संगठन है । भारतीय पुरातत्घ्व सर्वेक्षण का प्रमुख कार्य राष्घ्ट्रीय महत्घ्व के प्राचीन स्घ्मारकों तथा पुरातत्घ्व स्घ्थलों और अवशेषों का रखरखाव करना है। लेकिन आज देद्गा के अंदर ऐसा लगता है की यह संगठन अपना उदेद्गय भूल गया है। प्राचीन स्घ्मारक तथा पुरातत्घ्व स्घ्थल और अवशेष अधिनियम, १९५८ के प्रावधानों के अनुसार यह देश में सभी पुरातत्घ्व गतिविधियों के उपर नजर रखता है। इस संगठन के पास मंडलों, संग्रहालयों, उत्घ्खनन शाखाओं, प्रागैतिहासिक शाखा, पुरालेख शाखाओं, विज्ञान शाखा, उद्यान शाखा, भवन सर्वेक्षण परियोजना, मंदिर सर्वेक्षण परियोजनाओं के माध्घ्यम से पुरातत्घ्व अनुसंधान परियोजनाओं के संचालन के लिए बड़ी संखघ्या में प्रशिक्षित पुरातत्घ्वविदों, संरक्षकों, पुरालेखविदों, वास्तुकारों तथा वैज्ञानिकों का कार्य दल है । मगर ये भी सिर्फ स्मारको के तरह चुप बैठे है। इस समय राष्घ्ट्रीय महत्घ्व के ३६५० से अधिक प्राचीन स्घ्मारक तथा पुरातत्घ्व स्घ्थल और अवशेष मौजूद हैं, मगर ये स्घ्मारक आज ऐसे हालातो से गुजर रहे है जैसे की कुड ेदान में किसी बस्तु को फेक दिया गया हो। ये स्मारक और अवद्गोस सिर्फ इतिहास के पन्नो में दब कर रह गये है। इनके लिए कोई उचित कदम सरकार की ओर से नही उठाया जा रहा है। इनमें प्रमुख रूप से मंदिर, मस्घ्जिद, मकबरे, चर्च, कब्रिस्घ्तान, किले, महल, सीढदार कुएं, शैलकृत गुफाएं तथा दीर्घकालिक वास्घ्तुकला तथा साथ ही प्राचीन टीले आदि शामिल हैं। इन स्घ्मारकों तथा स्घ्थलों का रखरखाव तथा परिरक्षण भारतीय पुरातत्घ्व सर्वेक्षण के विभिन्घ्न मंडलों द्वारा किया जाता है जो पूरे देश में फैले हुए हैं । मगर इन मंडलो के हालात भी आज प्राचिन स्मारको के तरह हो गया है।इन स्घ्मारकों के अनुसंधान तथा संरक्षण कार्यों को देखने के लिए इन मंडल कार्यालयो में फंड की कमी हैं। राष्घ्ट्रीय महत्घ्व के प्राचीन स्घ्मारकों तथा पुरातत्घ्व स्घ्थलों और अवशेषों के सुरक्षा के लिए सम्घ्पूर्ण देश को २४ मंडलों में बांटा गया है । इस संगठन के पास अपनी उत्घ्खनन शाखाओं, प्रागैतिहास शाखा, पुरालेख शाखाओं, विज्ञान शाखा, उद्यान शाखा, भवन सर्वेक्षण परियोजनाओं, मंन्दिर सर्वेक्षण विभाग होने के वावजूद भी ये संगठन आज देद्गा के धरोहरो को नही बचा पा रहे है। प्राचिन काल से ही जूनागढ़, गुजरात में ऐसे कई सारे साक्ष्घ्य मिला है, यह उन संरचनाओं पर किए गए थे जो तत्घ्कालीन समाज के लिए लाभकारी थे । फिर भी स्घ्मारकों को उनके महत्व के अनुरूप सुरक्षित नही किया जा सका। कला विध्घ्वंश को रोकने के लिए कानूनी जामा पहनाने के लिए आरम्घ्भ में दो प्रयास किए गए थे । दो विधान बनाए गए नामतरू बंगाल के रेगुलेशन ऑफ १८१० और मद्रास रेगुलेशन ऑफ १८१७ । फिर भी उन धरोहरो को आज तक को उचित स्थान नही मिल पाया ।अगर १९वीं शताब्घ्दी की बात करे तो जिन स्घ्मारकों और स्घ्थलों को नाम मात्र की धनराशि प्राप्घ्त हुई और जिन पर कम ध्घ्यान दिया गया उनमें ताजमहल, सिकन्घ्दरा घ्स्थित मकबरा, कुतुब मीनार, सांची तथा मथुरा थे । १८९८ में प्रस्घ्तुत प्रस्घ्ताव के आधार पर भारत में पुरातत्घ्वीय कार्य करने के लिए ५ मंडलों का गठन किया गया था । इन मंडलों से संरक्षण कार्य को ही करने की अपेक्षा की गई थी । मगर धरोहरो के बचाने के बजाय खुद इन मंडलो के अस्तित्व ही स्माप्त हो गया। बाद में प्राचीन स्घ्मारक तथा परिरक्षण अधिनियम, १९०४ इस प्रमुख उद्देश्घ्य से पारित किया गया कि धार्मिक कार्यों के लिए प्रयुक्घ्त स्घ्मारकों को छोड़कर ऐसे निजी स्घ्वामित्घ्व वाले प्राचीन भवनों का समुचित रख-रखाव और मरम्घ्मत सुनिश्घ्चित किया जा सके मगर ये भी पूर्ण रूप से प्रभावी नही है। भारत सरकार की यह नीति रही है कि प्राचीन स्घ्थलों से प्राप्घ्त किए गए छोटे और उन खंडहरों के निकट संपर्क में रखा जाए जिससे वे संबंधित है ताकि उनके स्घ्वाभाविक वातावरण में उनका अध्घ्ययन किया जा सके और स्घ्थानांतरित हो जाने के कारण उन पर से ध्घ्यान हट नहीं जाए। मगर यहा भी हालात जस के तस बना हुआ है। भारत के पास प्राचिन समय से निर्मित विरासत, पुरातत्घ्व स्घ्थलों तथा अवशेषों के रूप में असाधारण रूप से मूल्घ्यवान, विस्घ्तृत तथा विविध सांस्घ्कृतिक विरासत हैं । बड़ी संखघ्या में स्घ्मारक ही उत्घ्साहवर्धक हैं तथा ये सांस्कृतिक विचार तथा विकास दोनों के प्रतीक हैं । अब ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की विरासत को स्घ्थापित करना इसके विद्यमान होने में शासित प्रक्रिया तथा किस तरह यह विरासत लोगों से संबंधित है, इसके अतीत के हमारे ज्ञान, समझ तथा शायद रुचि में कमी हुई है जो सांस्घ्कृतिक रूपों में औद्योगिक वृद्धि के युग में तेजी से बदल रही जीवन शैली में अपनी पारम्घ्परिक महत्घ्ता को खो रहे हैं । इसी प्रकार डाटाबेस के रूप में ऐसा कोई व्घ्यापक रिकार्ड नहीं है जहां इस प्रकार के पुरातात्घ्विक संसाधनों को निर्मित विरासतों, स्घ्थलों तथा अवद्गोसो के रूप में सुरक्षित किया जा सके। इसके परिणामस्घ्वरूप हमारे देश में सीमित, गैर-नवीकरणीय संसाधन भावी पीढियों के लिए कोई रिकार्ड रखे बिना तेजी से विलुप्घ्त हो रहे हैं । इस प्रकार के संसाधनों के उपयुक्घ्त सर्वेक्षण और सुरक्षा की तुरन्घ्त आवश्घ्यकता है ।

क्या सेना के प्रति युवाओ का रुझान कम हुआ है ?

आज के बदलते इस आधुनिक माहौल में देद्गा के अंदर लोगो का राच्च्ट्र सेवा के प्रति रूख भी बदल गया है। अगर पिछले पांच साल की बात करे तो देश के अंदर ४६,००० जवानों ने अर्घ्द्‌धसैनिक बलों से अवकाश-लेकर अपनी सेवाएं वापस ले लिए है। देद्गा के अंदर सेना में लगातार आत्महत्यों में बढ़ोतरी हुई हैं। इसका प्रमुख कारण लोगो में सेना के प्रति सकरातमक सोच का न होना भी है। सैनिकों और सैन्य-बलों की उपेक्षा इसी का परिणाम है। देद्गा के अंदर जो शिक्षा बेवस्था सरकार के द्वारा चलायी जा रही है, उसमें किसी प्रकार के कोई देद्गा प्रेम नजर नही आती है। इसका प्रमुख कारण आज के सरकार की सत्ता प्रेम की राजनीति भी शामिल है। अगर संसद पर हमला करने वाले को सजा सुनाई जाती है, तो पढ़े लिखे लोगो की एक बड़ी संखया तरफदारी करने के लिए खड़ी हो जाती है। इसका सिधा असर देद्गाभक्तो के उपर पड ता है। एक ओर जहा इस प्रकार के मामले में सरकार को कड़ी फैसला लेना चाहिए, जबकि यहा बिल्कुल उल्टा होता है। खुद सरकार वोट बैक की राजनीति करने लगती है। और फिर यही से सुरू होता है लोगो के मन में राच्च्ट्र प्रेम के भावना में कमी । सेना के अंदर आज योग्य उम्मीदवार न मिलने के कारण २७ प्रतिशत पद रिक्त पड़े हैं। भारत एक अरब जनसंखया वाला देश है। देद्गा में शिक्षित बेरोजगारों की संखया लाखों में है। फिर भी आज के युवा सेना में जाने से कतराता है। अगर लिपिक और चपरासी के दस-बीस पदों के लिए रिक्तिया आती है तो हजारों स्नातक आवेदन देते हैं, मगर सेना में अफसर बनने के लिए कोई भी आगे नही आना चाहता है। कुछ लोग अपने बच्चों को सैनिक स्कूलों में डर से नहीं भेजते। देश के शिक्षित वातावरण में आज देद्गा प्रेम का न होने के चलते सैनिकों का मनोबल गिरा है।

जरदारी का आवभगत कितना सही ?

पाकिस्तान के राष्ट्रपति भारत आए हुए हैं। हालांकि, जरदारी की यह यात्रा निजी है। लेकिन यह यात्रा बिवादो में है। बावजूद इसके तमाम ऐसे मुद्दे हैं, जिसे भारत जरदारी के सामने उठाया है। जिसमें हाफिज सईद का मुद्दा सबसे गर्म रहा है। जियारत के बहाने हो रही ये यात्रा आगरा में अटल-मुशर्रफ की यात्रा से आगे बढ़ कर कुछ इबारत लिख सकती है, ऐसा संभव नही लग रहा है। जरदारी और बेनजीर के बेटे और पीपीपी के चेयरमेन बिलावल की मुलाकात को एक कुटनीतिक चाल के रूप में यहा पर जरूर देखा जा रहा है। क्योकी एक ओर जहा पूरा देद्गा आतंकवाद के मार से कराह रहा है तो वही गांधी परिवार आतंक के पहरादारो से हाथ मिला रहा है। एक ओर जहा प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह जरदारी के मेहमान नवाजी में खास खाने का इंतजाम किया है और जरदारी के मुंह मिठा कराने में मसगूल है तो वही दुसरी ओर पाकिस्तान आतंक का जहर घोल रहा है। तो ऐसे में प्रद्गन खड़ा होता है की जरदारी का यह जियारत कहा तक जायज है पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि दोस्त तो बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोशी नहीं।लेकिन आजादी के ६२ साल बाद भी हम संघर्ष के स्थिति में हैं । तो अब सवाल यह उठता है कि हम पाकिस्तान से अपने रिश्ते कैसे सुधारें। हाल में अमेरिका ने पाकिस्तान स्थित प्रतिबंधित संगठन जमात-उद-दावा के प्रमुख और मुंबई आतंकी हमले के आरोपी हाफिज सईद पर ५० करोड़ रुपये के इनाम की घोषणा की है। आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का संस्थापक सईद भारत की मोस्घ्ट वांटेड अपराधियों की सूची में शामिल है। मुंबई में २६/११ को हुए हमले में १६६ लोग मारे गए थे और सैकड़ो अन्घ्य घायल हुए थे। उसके तीन वर्षो बाद भारत और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता तो बहाल हो गई है, लेकिन दोनों देशों के बीच मुम्बई हमले के दोषियों को न्याय के कटघरे में खड़ा करने सहित कई मुद्दों का ठोस समाधान अभी तक नहीं निकल पाया है। वहीं, पाकिस्तान में राष्ट्रपति जरदारी के अजमेर में जियारत को लेकर हंगामा मचा हुआ है। जमात-उद-दावा के प्रमुख और मुंबई हमलों के साजिशकर्ता हाफिज सईद के सिर पर अमेरिकी ईनाम की घोषणा के बाद दियाफ-ए-पाकिस्तान परिषद (डीपीसी) ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से अपनी भारत यात्रा रद्द करने को कहा है। यानी कही ना कही जरदारी खुद जरदारी इस यात्रा को लेकर अपने ही देद्गा में घिरे हुए है।

क्या दलितों की स्थिति में परिवर्तन आया है ?

आज भले ही देद्गा बदल रहा है दुनिया बदल रही है मगर इन सब के साथ एक बड़ा सवाल जरूर खड़ा होता है की क्या दलितो के विकाद्गा में कोई परिर्वतन आया है। आज जितनी भी दलित राजनीतिक पार्टियां हमारे सामने मौजूद हैं। उनमें बहुजन समाज पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है। मगर ये भी सिर्फ दलितो को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया । यहा एक और सवाल खड़ा होता है की क्या दलित समाज के जन-जन तक उनके हक की लड़ाई लडने वाले दलित महापुरूस के संर्घच्च को हम सब जिवंत रख पाए है। अगर वर्तमान में दलित नेताओ की बात करे तो अपनी वैचारिक सीमाओं के चलते वह इस जन भागीदारी को दलित जनता की ताकत न बनाकर सत्ता पाने का औजार बना लिया है। आज देद्गा में दलित सशक्तिकरण के नाम पर सिर्फ सत्ता पाने के सिवाय और कुछ नही हो रहा है तो ऐसे में क्या देद्गा सचमुच अंबेडकर के सपनो पर चल रहा है। इन सब काम में मायावती सबसे आगे आगे निकल गईं हैं। कभी अपने आप को दलित की बेटी बताने वाली मायावती आज के जमाने की दौलत की बेटी बन गई। देश में जाति धर्म से भी ज्यादा मजबूत है। जब भी देद्गा में दलितो के विकास में परिर्वतन की बात होती है जाति ही आगे आकर खड़ी हो जाती है। जब भी इस देश में चुनाव होते हैं और सरकार को चुनने का समय आता है तो न विकास मुद्दा रहता है न बिजली न पानी न किसान की समस्या। जो दलित किसान आज आत्महत्या कर रहे है कल उसी परिवार के लोग मुद्दे की जगह जाति के आधार पर वोट देंते है।दलित आदिवासी की बात की जाय तो औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड कर उनके स्थान पर बड़ी बड़ी बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है। जिसके चलते आदिवासियों को अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष की अटूट श्रद्धा के सम्बन्धो से अलग किया जा चुका है। क्या ये दलित उतपिड न नही है सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में दलित जनजातियों के लिये लिए जो संबैधनिक अधिकार दिए गए है वो भी आज उन्हें नही मिल पा रही है। निर्धारित एवं आरक्षित पदों का बड़ा हिस्सा सत्ता के दलालो के चंगुल में बंध कर रह गया है। जो दलित अधिकारी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और ऐशो आराम से ही फुर्सत नहीं रहती है। इन सब के अलावा लोगों की मानसिकता भी कही न कही जिम्मेदार है जिसके हाथों ने काम किया उनकी हमेशा उपेक्षा हुई और जो लोग बैठकर खाते रहे पाखंड फैलाते रहे उनकी पूजा की जाती रही। काम के जरिए सम्मान देद्गा में दलितो को कभी कभी नहीं मिला। आज यही कारण है की दलित वर्ग ठगा महसुस कर रहा है। आज अंबेडकर को कोई सत्ता के लिए नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके जरिए आर्थिक लाभ ही है। इन सब का सबसे बड़ी वजह है राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव। आज राज्य विधानसभाओं और संसद में बहस जरूर होती है मगर इसके उपर अमल विलकुल नही होता है। अगर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को देखे तो इसने पिछले कई वर्षों से अपनी रिपोर्ट ही पेश नहीं की है जबकि इन्हें हर वर्ष अपने रिपोर्ट पेश करनी होती है और उसपर विचार विमर्श होता है। मानवाधिकारों के संदर्भ में जो भी सरकारी प्रयास हुए हैं वो लागू करने के स्तर पर एकदम विफल रहे हैं। उत्पीड न निरोधक कानून के लागू न होने के चलते अत्याचार बढ ता ही गया है। आज से नहीं पिछले पाँच दशकों से जबसे उत्पीड न विरोधी कानून आए हैं चाहे वो तमिलनाडु का मामला हो सिंगूर की घटना हो या भरतपुर में दलितों को मारने की घटना रही हो इन कानूनों को इस्तेमाल नहीं किया गया है। यही कारण है की आज देद्गा में दलितो में कोई खास परिर्वतन नही आया है।

बाबाओ का बढ़ता जाल उठ रहा सवाल ?

बबाओ का जाल देष में लगातार बढ़ते जा रहा है, मगर कुछ ऐसे बाबा है जो पुरे संत समाज को सर्मषार किया है। स्वामी नित्या नंद के खिलाफ टीवी चौनलों ने कथित विडियो फुटेज प्रसारित किए थे। इसके बाद मामले को जांच के लिए अपराध जांच विभाग को सौंपा गया था। बलात्कार समेत विभिन्न आपराधिक मामलों में नित्यानंद को २१ अप्रैल को हिमाचल प्रदेश के सोलन से गिरफ्तार किया गया था। सेक्स ट्रेड के आरोप में पुलिस ने इच्छाधारी संत भीमानंद महाराज को गिरफ्तार किया। वही दुसरी ओर पुलिस ने एक और बाबा को गिरफ्तार किया जिनके पास से लड कियों और कई अन्य लोगों के नाम, फोन नंबर और उनके साथ हुए पैसों के लेन-देन का का पता चला । पुलिस ने हिसाब-किताब वाले खाते को जब्त किया। पुलिस को पता चला कि ३९ वर्षीय बाबा विवाहित है और उसकी पत्नी मुन्नी देवी गांव में ही बाबा के माता-पिता के साथ रहती है। बाबा की १३ साल की एक बेटी भी है। दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे और बाबा को गिरफ्तार किया जो सिर्फ ऐसे लड कियो को अपने जाल में फंसाता था जो ज्यादा मेहनत किए बिना दौलत कमाना चाहती थीं। इस रैकेट में ज्यादातर ऐसी लड कियां शामिल थीं जो एमबीए, एयरहोस्टेस, अभिनेत्री, आदि बनने की तमन्ना रखती थीं। उन्हीं लड कियों को बाबा अपना शिकार बनाता था और काल गर्ल के बतौर इस्तेमाल करता था। यह भी पता चला है कि कालगर्ल के धंधे से साठ प्रतिशत खुद बाबा रखता था और चालीस प्रतिशत लड कियों को दिया जाता था।

भारतीय सिनेमा के सौ साल तरक्की या गिरावट ?

आज भले ही भारतीय सिनेमा के सौ साल होने को है पर जिस दौर में यथार्थ को परोसने के नाम पर अश्लील फिल्में बनाई जा रही है और उन्हें किसी न किसी तर्क पर सेंसर बोर्ड पास कर देता है। उससे यह सवाल उठा है कि फिल्में बनाने वालों और उन्हें प्रदर्शन की इजाजत देने वालों की क्या कोई सामाजिक जवाबदेही नहीं बनती है आज हालत यह हो चुकी है कि कई संवेदनशील सामाजिक विषयों पर ऐसी भड़काउ फिल्में बनाई और परोसी जा रही हैं जो किसी गंभीर मुद्दे के साथ खिलवाड करती हैं। पहले फिल्में लक्ष्य प्राप्ति प्रेरित करने के लिए बनाई जाती थी मगर आज यह काफी बदल चुका। फिल्मो के इस बदलते स्वरूप के उपर भी २००८ में देश की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित करते हुए उससे यह सवाल पूछा था कि क्या तीन सौ पैंसठ दिनों में ऐसा कोई दिन है जिस दिन परिवार के साथ बैठ कर टीवी देखा जा सके और ऐसा कोई कार्यक्रम आता है जो किसी संवेदनशील व्यक्ति के मन को घायल न करता हो मतलब साफ है की आज का भारतीय सिनेमा काफी बदल चुका है। यह सिर्फ पैसा कमाने छरहने बदन को भड काउ तरीके से पर्दे पर पेद्गा करने के अलावे अंडरवल्ड के बलैक मनी को सफेद करने का जरिया बन गया है। कुछ फिल्मो के प्रभाव इस प्रकार सामने आए कि फिल्म एक दूजे के लिए का क्लाईमेक्स दृश्य देख कई प्रेमी युगलों ने आत्महत्या कर ली थी। यहां तक कि इस फिल्मी रोमान्स ने युवक युवतियों के मन में प्रेम और विवाह के प्रति कई असमंजस डाल दिये जैसे जैसे अपराध की पृष्ठ भूमि पर फिल्में बनती रहीं, अपराध जगत में बदलाव आया। असंतुष्ट बेरोजगार और युवकों को यह पैसा बनाने का शॉर्टकट लगने लगा, और सब स्वयं को यंग एंग्रीमेन की तर्ज पर सही मानने लगे। आए दिन आज देखने को मिलता है कि अमुक डकैति या घटना एकदम फिल्मी अन्दाज में हुई। युवाओं में फिल्मों में अपना कैरियर बनाने के लिए इतना आकर्षण आ गया हैं की फर्जी निर्माता-निर्देशकों की तथा प्रशिक्षण केन्द्रों की बाढ सी आ गई है।आज एक सफल फिल्म बनाने का मूल मन्त्र है खूबसूरत विदेशी लोकेशनें बडे स्टार विदेशी धुनों पर आधारित गाने। विवादित मुद्दों पर फिल्म बना दर्शकों का विदेशी बाजार बनाना और घटिया लोकप्रियता हासिल करना । हाल ही की घटनाओं ने फिल्म व्यवसाय पर अनेकों प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं। गुलशन कुमार की हत्या राकेश रोशन पर हुए कातिलाना हमले फिल्म चोरी-चोरी चुपके-चुपके के निर्माता रिजवी व प्रसिध्द फाईनेन्सर भरत शाह की माफिया सरगनाओं से सांठ-गांठ के आरोप में गिरफ्तारी, इन प्रश्नों और संदेहों को पुखता बनाती है कि हमारा फिल्म उद्योग माफिया की शिकस्त में बुरी तरह घिरा है। आज भारत साल में सर्वाधिक फिल्में बनाने में अग्रणी है मगर कोइ फिल्म रिलीज होती है और उसमे हिरोईन ने गलती से शालीन कपडे पहन लिए तो लोग कहते हैं हिरोईन का रोल बेकार है, दम नहीं है ! किसी फिल्म में अगर हीरो- हिरोईन का अंतरंग दृश्य न हो तो उस फिल्म के लिए मसाला नहीं है जैसे शब्द का उपयोग किया जाता है ! अब सवाल ये उठता है कि इस अश्लीलता के लिए कौन जिम्मेदार है ये अश्लीलता कुछ और नहीं पश्चिमी सभ्यता है जिसे हमने बाकि पश्चिमी चीजों कि तरह अपना लिया है !इसके लिए हमें अपना नजरिया बदलना पड़ेगा अश्लील फिल्मों का विरोध करना पड़ेगा क्योंकी ये अश्लीलता हमारी संस्कृती के लिए बहुत बड़ा खतरा है ! अगर इसे नहीं मिटाया गया तो आने वाले दशकों में ये हमारी बची-खुची संस्कृती को मिटा देगी फिर हमारी अपनी कोइ पहचान नहीं रह जाएगी भारत खुद अपने आप ही मिट जाएगा !

सरकार ने किया आम आदमी को कंपनियों के हवाले

२२ मई को यूपीए सरकार ने तीन साल पूरे किए। दिल्ली में भव्य भोज का भी आयोजन किया गया। अक्सर खामोश रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी यूपीए २ के तीन साल पूरे होने पर कहा कि अब कड़े फैसले लेने का वक्त आ गया है और हैरत की बात तो ये है कि अक्सर अपने वादों को पूरा न करने वाली सरकार के मुखिया ने अगले ही दिन अपनी कही बात पर मुहर लगा दी। पेट्रोल के दाम में साढ़े सात रुपये का ईजाफा हो गया। अब भले ही सरकार इसके पीछे तेल कंपनियों के घाटे के साथ ही कच्चे तेल की बढ ती कीमतों का तर्क दे लेकिन सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। ये साफ हो गया कि उनकी बातों में कितना दम था और उनका ईशारा कौन से कड़े फैसले लेने की ओर था। साढ़े सात रुपये की ताजा बढ़ोतरी के बाद भी तेल कंपनियां डेढ रूपए प्रति लीटर नुकसान की बात कह रही है यानि की आने वाले दिनों में भी पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। पेट्रोल की कीमतों में ईजाफे की खबर के बाद से ही आम लोगों में जबरदस्त गुस्सा है। वहीं मुखय विपक्षी दल भाजपा के साथ ही यूपीए के सहयोगियों ने भी पेट्रेल के दामों में इतनी बढ़ोतरी का विरोध करते हुए सरकार से रोल बैक की मांग की है। बहरहाल पैट्रोल के दामों में बढ़ोतरी के बाद से इस पर बवाल मचा हुआ है और देशभर से आ रही खबरें भी कुछ इसी ओर ईशारा कर रही हैं ऐसे में सरकार पैट्रोल की इन बढ़ी हुई कीमतों पर आम जनता के हित में कोई फैसला लेती है या फिर तेल कंपनियों के दबाव के आगे घुटने टेक देती है ये आने वाले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा।उत्तराखंड सरकार ने पैट्रोल की बढ़ी हुई कीमतों पर २५ प्रतिशत वैट न लेने का फैसला लेकर प्रदेशवासियों को राहत देने की कोशिश की है इससे प्रदेश में पैट्रोल की कीमतों में एक रुपये ८७ पैसे की कमी तो आएगी लेकिन ये राहत पहले से ही महंगाई की मार झेल रहे लोगों के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के समान लगती है। वही गोवा सरकार ने भी बढ़े हुए पेट्रोल के किमतो में कमी की है मगर यहा सवाल खड़ा होता हैं की क्या आम आदमी को राहत देने का जिम्मा सिर्फ राज्यों का हि है। क्या केंन्द्र सरकर को गोवा जैसे राज्यो का उदाहरण नही लेना चाहिए। आज के इस दौर में एक ओर पेट्रोल के दाम में लगातार बढ़ोतरी से हाहाकार मचा हुआ है वही दुसरी ओर पेट्रोल कंपनीया बड़े बड़े विज्ञापन दे कर करोडो रूपए बर्बाद कर रही है।

पेट्रोल की आग से जली जेब जनता सड़को पर

भारत बंद का असर जम्मू काष्मीर से कन्याकुमारी तक दिखरहा है। ये आम आदमी का गुस्सा और आक्रोस है जो पहले महंगाई से कराह रही थीऔर पेट्रोल के दाम में उछाल से उसका जेब जल चुका है। ऐसे में आम आदमी करे तोकरे क्या। यही कारण है की आज ये नजारा सड़को पर देखने को मिल रहा है। बीजेपीवर्कर्स ने सबसे पहले ट्रेनों को निशाने पर लिया। दिल्ली में भारत बंद का असरबाहरी दिल्ली के कई इलाकों में सुबह से ही साफ तौर पर देखने को मिला। सबसेअधिक असर दिल्ली-रोहतक रेलवे लाइन पर देखने को मिला। नांगलोई फाटक परबीजेपी वर्कर्स ने गोरखधाम सुपरफास्ट एक्सप्रेस को रोक दिया। मुंबई में भारत बंदने कुछ जगहों पर हिंसक रूप ले लिया। बंद समर्थकों ने बंद के बावजूद चल रहीं बेस्टकी बसों में जमकर तोड़फोड़ की। पुणे, दादर, वर्ली समेत कई स्थानों पर करीब 26बसों में तोड़फोड़ हुई। फिर भी सरकार चुप्पी साधे हुए है। कांगेस का हाथ आमआदमी के साथ का नारा लगता है इस दौर में कांगे्रस ने बदल दिया है। आम आदमी केदर्द और गुस्से का मतलब दरअसल होता क्या हैं, इस बंद के बाद कांगेस को सम-हजय मेंअब जरूर आ गया होगा। मगर यहा सवाल खड़ा होता हैं की क्या सरकार अब भी आम आदमीके जले पर कुछ राहत दे पाएगी। बीजेपी के साथ-साथ आरपीआई और शिवसेना केभी बंद के समर्थन में उतरने से मुंबई थम सी गई । पेट्रोल के दामों में हुईभारी ब-सजय़ोतरी के खिलाफ एनडीए और लेफ्ट समेत विपक्षी दलों द्वारा बुलाया गयाभारत बंद का उग्र असर देखा गया। कई विधायकों और बड़े नेताओं ने भी बंद केदौरान गिरफ्तारियां दी हैं। पेट्रोल की कीमतें ब-सजय़ाए जाने के विरोध मेंआयोजित भारत बंद के दौरान जेडीयू अध्‍यक्षशरद यादव ने गिरफ्तारी दी। वहीं भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने भी पेट्रोल कीमतों केविरोध में गिरफ्तारी दी है। राजधानी दिल्ली में सीएनजी की कीमतों में इजाफे कोलेकर ऑटो चालक भी हड़ताल पर है। सुबह से जगह-जगह जाम लगा है। हिमाचलप्रदेश में सुबह से दुकानें और व्यवसायिक प्रतिष्ठान बंद हैं। शिमला में करीब 6,000दुकानदारों ने अपनी दुकानें बंद की हुई हैं। बिहार में भारत बंद का व्यापक असरदेखने को मिला। भारतीय जनता पार्टी और जेडीयू के कार्यकर्ताओं ने सड़क औररेलमार्ग पूरी तरह बाधित कर दिया। पेट्रोल मूल्यवृद्धि के खिलाफ राजग एवं वामदलोंकी ओर से आहूत बंद से भाजपा शासित राज्यो में व्यापक असर देखा गया। कर्नाटक बंदसमर्थकों ने तीन बसों में आग लगाने के साथ ही दर्जन भर अन्य बसों पर पथरावकिया जिसके चलते अधिकारियों को शहर से बस सेवा को हटाने के लिए मजबूर होनापड़ा। इस पूरे बंद के बाद सवाल अब भी बरकरार है की क्या सरकार अपने हठ से टस से मसहोगी या फिर वही मनमोहनी राग अलापती रहेगी।