28 November 2012

26/11 के शहीदों को सलाम, एक बार फिर जागा हिंदुस्तान

जख्मो को अगर कुरेदो तो दर्द का सैलाब आखों से आसू बनकर बहने लगते है और जब ये आसू चेहरे पर आकर सूख जाते हैं तो छोड़ जाते है कुछ निषान। जी हा हम बात कर रहे हैं उन जख्मो की जिसे पाकिस्तान से आए 10 आतंकियों ने हिन्दुस्तान के दिल पर ऐसे दिए जिसकी टीष आज भी हर हिन्दुस्तानी के चेहरे पर देखी जा सकती है। बात उन दिनों की है हम जब में मीडिया में कदम रख ही रहा था पड़ाई भी पूरी हो रही थी और में नौकरी की तलास में न्यूज चैनलों की ओर दस्तक दे रहा था उन दिनों मुझे भी अचानक सूचना मिली की मुंबई में आतंकी घुस आए हैं। तब में उत्तराखंड के एक खूबसूरत हिल इस्टेषन बागेष्वर में छुट्टिया मना रहा था। मुझे भी जानने की उत्सुकता बढ़ी और में एक टेलिविजन की दुकान के आग आकर खड़ हो गया दुकान में जितनी भी टेलिविजन थे सभी पर अलग अलग न्यूज चैनल मुंबई हमले की कवरेल दिखा रह थे। मेरे आसस पास खड़े सभी लोगों का एक हसाथ दिल पर था और मुह से हे मगवान और ओ माई गाड जैसे सांत्वना देने वाले षब्द निकल रहे थे। और मेरी नजर इस आतंकी वारदात पर टिकी थी। एक ओर मीडिया कवरेज में बीजी थी तो दूसरी तरफ आतंकी गोलियां बरसाने में मसगूल थे। मौके पर पहुंची मुंबई पुलिस की चिंता साफ देखी जा सकती थी। उस समय जितने भी सुरक्षा बल मौके पर मैजूद थे उनमें से आधे तो फोन और वायरलैस पर बीजे थे तो आधे आतंकियों को अपने सर्विस राईफल से जवाब दे रहे थे। अकसर जनता को सुरक्षा और अपराधियों को डराने के लिए कंधे पर लटकाई जाने वाले हथियारों की उस दिन असली अग्नी परिक्षा थी। उस दिन आतंकियों ने मुंबई की तो इलैक्ट्रनिक मीडिया ने देष की बेचैनी बढ़ा रखी थी। इस कातिल रात में देष पर सबसे बड़े आतंकी हमले ने अपनी कारवाई षुरू कर दी थी। आतंकी हमले के बाद आतंकियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्श की सुरूवात वास्तव में मुंबई के कुलावा क्षेत्र में इस्थित नरीमन हाउस से हो हुई थी।

नवंबर 2006 की रात वहा करीब पौने दस बजे गोलिया चलने की आवाज सुनकर लोगों को लगा कि था कि इस बिंल्डिग में रहने वाले यहूदी समुदाय में आपसी संघर्श हो गया है। लेकिन जल्दी ही सीएसटी रेलवे स्टेषन गेटवे आफफ इंडिया के सामने सिथत होटल जात नरीमन हाउस स्थित होटल ट्राईडेट जो पहले ओबेराय के नाम से जाना जाता था कुलाबा के एक पब लियोपोल्ड सहित दक्षिण मुंबई की सड़को पर भी जब गोलियों की आवाजें गूजने लगी तो लोंग और प्रषासन को समझ में आ गया कि ये कोई आतंकी हमला है। लेकिन ये अहसास उस समय भी किसी को नहीं हुआ था कि ये देष पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला साबित होगा। हमला षुरू होने के कुछ ही घंटों के अंदर मुंबई पुलिस ने दो आईपीएस अधिकारियों सहित करीब एक दर्जन पुलिस कर्मी खो दिए तो मामला गंभीर नजर आने लगा। उस समय महाराश्ट्र के मुख्यमंत्री महाराश्ट्र से बाहर थे। गृह मंत्रालय के प्रभारी उपमुख्यमंत्री आरआरपाटिल थे तो मुंबई में ही लेकिन उनकी कारवाई बयानों से आगे बड़ती हुई नजर नहीं आ रही थी। मुख्य सचि जानी जोसेफ, एक कैबिनेट मंत्री अनीस अहमद, कुछ और वरिश्ठ अधिकारियों ने रात करीब 12 बजे मंत्रालय के कंट्रोल रूम में बैठक मुख्यमंत्री को सारी स्थिति की जानकरी दी और कंेन्द्र से सुरक्षा बल मगवाने का अग्रह किया। पता चला कि इसी टीम ने दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल को भी स्थिति की जानकारी दी और राश्ट्रीय सुरक्षा गार्डो को मुंबई बुलवाने का मामला आगे बढ़ा। इधर देष और राज्य की कमान सभाले मंत्रियों और अपषर षाहों में अफरातफरी मची थी तो उधर पाकिस्तान में आराम से बैठे मुंबई हमले के षाजिष कर्ता फोन के जरिये मुंबई में आतंकियों को कमांड दे रहे थे। 26 तारीख 2008 की मध्यरात्री के बाद करीब 2 बजकर 45 मिनट पर मरीन कमांडोज ने मोर्चा संभाल लिया।

27 तारीख की सुबह करीब 4 बजे विलासराव देषमुख केरल यात्रा अधूरी छोड़ मुंबई एयरपोर्ट से सीधे मंत्रायल पहुचे। वहां इंतजार कर रहे अपने अधिकारियों के साथ जल्द ही वो राजभवन के लिए रवाना हो गए। तब तक दिल्ली से एनएसजी के कमांडो के 200 जवान मुंबई में उतर चुके थे। उनका नेतृत्व कर रहे अधिकारी भी सोधे राजभवन पहुंचे बचाव कार्य में लगे अन्य सुरक्षा बलों और सेना के अधिकारियों को वहीं बुला लिया गया। हालात इतने नाजुक और युद्ध जैसे हो गए थे कि एनएसजी के साथ साथ सेना के तीनों अंगों के इस्तेमाल की नौबत दिखाई दे रही थी। और निर्णय भी ऐसा की किया गया। 27 तारीख की सुबह सात बजते बजते एनएसजी के जाबाजों को होटल ताज, ओबेराय और नरीमन हाउस में घुसने के आदेष दे दिए गए। तब तक आतंक की एक काली रात गुजर चुकी थी। और उम्मीद की किरण लिए नए सुबह का उदय हुआ, लेकिन मुंबई अभी भी सोई हुई नहीं थी। इधर आतंकी मोर्चा सभाले हुए थे और पाकिस्तान से मिल रहे संकेतों के हिसाब से बेकसूर लोगों की बली ले रहे थे। हालात बेकाबू हो चले थे ऐसे में ताज, ओबेराय और नरीमन हाउस पर अब एनएसजी के जवानो ने अपनी जान हथेली पर रखकर आपरेषन सुरू किया। ताज ओबेराय और नरीमन हाउस तीनों जगहो पर एनएसजी के कमांडोज  ने मुख्य द्वार सहित सभी दरवाजों को पहले अपने कब्जे में ले लिया। फिर कमांडोज ने सावधानी के साथ अंदर घुसना सुरू किया। नीचे से उपर की ओर जाना आसान नहीं था। तो कमांडो कही छुपकर तो कही लेटकर आगे बढ़ रहे थे। होटल के जो कमरे खुले पाए गए उनमें घुसना आसान लेकिन आषंका भरा था। यही कारण है कि एक एक कमरे की तलाषी लेकर उन पर अपना कब्जा जमाना के लिए समय की दृश्टि से काफी खर्चीला साबित हो रहा था। लेकिन एकमात्र सुरक्षित तरीका भी यही था। इसके अलावा कमांडोज की टीम जिन कमरो का निरिक्षण कर लेती थी, उनमें लगे परदे हटा लिए जात थे। ताकि बाहर खड़े अपने साथियों को संकेत दिया जा सके कि आपरेषन कहा तक पहुचा। साथ ही बाद में आवष्यकता पड़ने पर बाहर से भी इन कमरो के अंदर देखा जा सके। इन दोनों होटलों के उपरी कमरों के अंदर का द्ष्य देखने के लिए तो नौ सेना के हेली काप्टरों की मदद ली गई। होटल ओबेराय में इस आतंकी घटना के गवाह रहे। 

अमित गुप्ता बताते है कि 26 तारीख की रात पौने दस बजे उन्होंने चैक इन किया तभी होटल पर आतंकियों ने हमला बोल दिया। उस समय वो सत्रहवी मंजिल स्थित अपने कमरे में थे। 27 तारीख की सुबह नौबजे किसी ने उनका दरवाजा खटखटाया दजवाजा खुला तो हथियारों से लैस एनएसजी के कमांडो उनके सामने थे। एनएसजी ने उनके कमरे को ही अपनी करवाई का केन्द्र बनाकर आगे की करवाई षुरू की। अमित 17हवी मंजिल पर थे और आतंकवादी 18हवी। आतंकियों ने वहा तीन महिलाओं को 6 आदमियों को बंधक बना रखा था जिन्हें बाद में मार डाला गया। एनएसजी के कमांडो को 17हवी मंजिल से 18हवी मंजिल तक पहुचने में काफी समय लग गया। इसके बाद की कारवाई बहुत मुष्किल थी। जो कमरे बद थे और नही खुले थे उन्हें विस्फोटों के जरिए खोला गया। फूक फूक कर चलते हुए कमांडो टीम ने 27 तारीख 2008 की रात करीब दो बजे एक आतंकी को मार गिराने में सफलता हासिल की जबकि दूसरा आतंकी 28 तारीख की सुबह पाच बजे मारा गया। तलाषी अभियान धीरे धीरे होटल ओबेराय की 34वीं मंजिल तक ले जाया गया लेकिन काम अभी भी खत्म नहीं हुआ था। ओबेरोय के बगल में ही उसी समूह का दसरा होटल द ओबेराय भी है जो उचाई में उससे काफी छोटा है। कमांडो टीम ने 28 तारीख की सुबह से इस होटल पर अपना अभियान नीचे के बजाय उपर से षुरू किया और उसी प्रकार एक एक कर कमरे की तलरषी लेकर उनके परदे उतारते हुए नीचे तक आए। नरीमन हाउस के बारे में कहा जाता है कि इस पर आतंकियों की पहले से नजर थी। कुछ सूत्रों का तो यहा तक कहना है कि आतंकी इसी इमारत में पिछले कुछ महीनों से रह रहे थे और इसे अपने नापाक अभियान के केन्द्र के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे। स्टेट रिजर्व पुलिस ने तो इस इमारत को बुधवार की रात से ही घेर लिया था। उधर 27 तारीख की सुबह से यहां पहुंचे एनएसजी के 30 जवानों ने खुद को 10-10 की तीन टीमों में बाटकर बिल्डिग में छिपे आतकियों पर दबाव बनाना षुरू कर दिया था। लेकिन कोई विषेश सफलता मिलता ना देख 28 तारीख को छत के रास्ते इमारत में घुसने की रणनीति अपनाई गई इसके लिए सीकिंग हैलीकाप्टरों की मदद ली गई हैलीकाप्टरों के जरिए नरीमन हाउस की एक एक मंजिल पर निगाह रखी जा सके और इमारत में घुस रहे अपने जवानों को कवर दिया जा सके। छत पर उतरते ही जवानों ने नीचे उतरना षुरू कर दिया। उपर से तीन मंजिलें नीचे आने तक उन्हें किसी विषेश दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन इसके बाद उनके कदम रूक गए। क्योंकि इसके बाद आतंकियों ने यहूदी परिवार के 5 सदस्यों को बंधक बना कर उसी कमरे में रखा था जिसमें वो खुद थे आतंकियों द्धारा रूक रूक कर जवानों पर गोलिया भी चलाई जा रही थी। और अंदर आने पर बंधकों को मारने की धमकी भी दी जा रही थी।

 जवनों को ये डर भी सता रहा था कि उनकी आक्रामक कारवाई में कहीं निर्दोष बंधकों की जान न चली जाए। लेकिन षाम 5 बजे तक इस स्थिति में कोई परिवर्तन न होता देख जब एनएसजी के कमांडोज आतंकियों पर अपना दबाव बढ़ाया तो बचने का कोई रास्ता न देख आतंकियों ने एक एक कर पाचों बंधक  को मार डाला। इस स्थिति का अनुमान लगाते ही कमांडो फोर्स ने दूसरी बिंल्डिग में खड़े अपने साथियों से राकेट लांचर के जरिए नरीमन हाउस के उस भाग पर हमला करने को कहा जहा उन्हें आतंकियों के होने की उम्मीद थी। ये हमला षुरू होने के बाद आतंकियों पर बाहर निकलने का दबा बढ़ने लगा। इसके बावजूद उनके बाहर न आने पर एनएसजी द्धारा किए गए दो तरफा हमलों में सभी आतंकी मारे गए। 28 तारीख की दोपहर करीब ढाई बजे जब एनएसजी के कमरंडो मुंबई के नरीमन हाउस स्थित होटल ओबेराय से बाहर मुस्कुरात हुए निकल रहे थे तो उनके चहरे की मुस्कुराहट जीत का संकेत दे रही थी। वो मुस्कुराहट इस बात का सबूत दे रही थी कि करीब 42 घंटे तक चली आतंकियों के साथ एनएसजी का सघ्सर्ष देष की जीत में बदल चुका है। कुछ तारखों ने दुनिया का इतिहास बदल दिया। ये वो तारख बन चुकी है। जिन्हें याद कर कभी सिसरन होती है तो कभी अपनी क्षमता पर षर्म और गुस्सा भी आत है। 26 नवंबर 2008 भी उन तारीखों में से एक बन चुकी है जो दुनिया के इतिहास में 26/11 की काली रात के रूप में लिखी जा चुकी है। इस दिन दुनिया गवाह बनी खून से सने मासू लोगों के लाषें के बीच गोलियों की बैछारों से फर्ष पर टूटते काच के टुकड़ो की। बदहवासी में जान बचाकर भागते लोग, सीमित हथियारों के बल पर अदम्य हौसले से  आतंकी हमले का मुकाबला करते सुरक्षा कर्मियों के दिलेरी की। अपनी जान की परवाह न करते होटल ताज और ओबेराय के कर्मचारियों के अनोखे अतिथि सत्कार की।  भय पीड़ा गुस्से गर्व की मिश्रित अनुभूति से मानों दिमाग सुन्न हो चुका हो, और होट सिल चुके थे। तीन दिन तक भारत की आर्थिक राजधानी कही जाने वाले मुंबई में 10 आतंकियों ने नरीमन हाउस, ताज होटल और ट्रायडेट ओबेराय में निहत्थे लोगों को बंधक बना दुनिया को आतंक का एक ऐसा रूप दिखा दिया था जिससे अमेरिका से ब्रिटेन, रोम, लंदन से लकर आस्ट्रीया तक बैठे लोग सिहर उठे।

इस बार आतंकियों ने छुपकर बम धमाके करने के बजाय सीधे भारत की आत्मा पर ही हमला कर दिया। आतंकवाद के इस नए तरीके ने दुनिया भर को हिला कर रख दिया था। आतंकियों ने सीएसटी पर मध्यवर्गी लोगों से लेकर पाच सितारा होटल में ठहरे कई मजहब के लोगों लियोपाल्ड कैफे में प्र्यटकों और बच्चो  से लेकर अस्पताल में बिमार लोगों सड़को पर राहगिरो और नरीमन हाउस जैसे सामुदायिक केन्द्र तक में लोगों की हत्याये की। अमेरिकी, ब्रिटिष इजराइल के अलावा और भी बहुत से देषों के नागरिकों के साथ समाज के हर वर्ग पुलिस दमकल कमिर्यो डाक्टर्स और सफाईकर्मियों तक को गोलियों से छलनी कर दिया। ये एक सोचा समझा सामुहिक नर संहार था। जिसमें किसी भी तबके को नहीं बकसा गया था। आतंकि युद्ध में निपुण और पाक में बैठे आकाओं की सरपस्ती से मानवता के दुष्मनों ने हर कदम पर सुरक्षाबलों का कड़ा विरोध किया। इस पूर्वनियोजित हमले से सन्न मुंबई के ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस हमले में गोली खाकर बच तो गए यहा तक गोलियों के घाव भी भर गए लेकिन उनकी आत्मा पर लगे जख्म षायद ही कभी भर पाऐंगे। इस हमले की याद में अभी भी समय मानों ठहर सा जाता है। सारा जमाना लग गया मुंबई हमलें की याद भुलाने में फिर कोई आतंकी पकड़ा गया और फिर 26/11 की याद आ गई। इस त्रासदी की याद हमेषा हर हिंदुस्तानी के दिल में रहेगी। उधर होटल ताज को वापस उसी अपने पुराने स्वरूप्प में लाने के लिए रतन टाटा ने दिन रात एक कर दिए और हमले के सिर्फ एक महीने बाद ताज एक बार फिर मेहमानों के लिए तैयार था। ताज को दोबारा चमका तो दिया गया लेकिन इस चमक में जख्म अभी भी साफ नजर आते हैं। इस हमले ने कई मामलों में देष के सरकार और नीति तंत्र की पोल खोल दी। इस संकट पर तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री षिवराज पाटिल रटा रटाया बयान देते नजर आए। 

राज्य सरकार और सुरक्षा ऐजेंसियों के बीच तालमेल का भारी अभाव नजर आया। एनएसजी कमांडों को मुंबई पहुचने में 12 घंटे से भी अधिक लग गए। मीडिया ने भी सबसे पहले फुटेज दिखाने की होड़ के चलते होटल में छुपे लोगों की जगह और सुरक्षा बलों की हर हरकत की जानकारी जिस तरह दिखाई उससे पाक में बैठे आतंकियों के आकाओं को बाहर की पोजिषन का पूरा अंदाजा मिल रहा था।  जो कई मासूमों की जान पर बन आई। पर इसी अफरातफरी में कई बहुत से वाकये ऐसे भी मिले जो मानवता की मिषाल बने, और घोर संकट में नेतृत्व करने वाले कुछ चेहरे भी सामने आए, चाहे वो घायलों को अस्पताल पहुचाने वाले आम लोग हो या गोलियों की बौझारों में लोगों को आश्रय देने के लिए अपने घर दुकानों में षरण देने वाले मुंबईकर, एकमात्र जिंदा पकडे गए आतंकी कसाब कोे रोकने वाले षहीद तुकाराम आंबले। होटल ताज के कर्मचारी जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर अपने मेहमानों को सुरक्षित निकालने में मदद की। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे जो दरसाते हैं कि आतंकियों के खौफनाक मंसूबों पर आम  आदमी का हौसला भारी पड़ा। दुख कितना भी बड़ा क्यों न हो वो गुजर ही जाता है। लेकिन इतिहास साक्षी है गलत इरादों पर मानवता के बुलंद हौसलों ने हमेषा विजय पाई है।  मुंबई हमले के बाद की कहानी भी यहीं से आगे बड़ती है। जब लहुलुहान मुबई अपने आपको समेट कर पूरी जिंदादिली के साथ फिर उठ खड़ी हुई और यहां के वाषिंदे जख्मों को सीकर हादसे से सबक लेकर फिर तैयार हो गए कर्मठता और हिम्मत की नई परिभाशा रचने को। देष के ऐसे वीरों को हम भी सलाम करता है जय हिंद जय भारत। 

23 November 2012

कसाब को गोपनीय तरीके से फांसी देना कितना सही ?

आपरेशन एक्स के तहत बेहद गोपनीय तरीके से कसाब को मुंबई की यरवडा जेल में दिए गए फांसी को लेकर कई सवाल खड़ा होने लगा है। भारत की ओर से पाकिस्तान को कसाब की लिखित सूचना भी दे दी गई। जब पाकिस्तान ने उसे लेने से मना कर दिया तो फैक्स भी किया गया। कसाब की मां को भी उसकी मौत की सूचना दी गयी थी। इसके बाद भी एैसी गोपनीयता बरतने की क्या जरूरत थी। इसको लेकर हर कोई सवाल खड़ा कर रहा है। कसाब की गोपनीय मौत पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर भी प्रातक्रिया देने वालों का ताँता लग गया है। फांसी चढ़ाने की पूरी घटना को इतना गोपनीय रखा गया कि किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगी। आपरेशन एक्स के इस मिशन में सत्रह ऑफिसर्स की स्पेशल टीम बनायी गयी थी। जिनमें से पंद्रह मुम्बई पुलिस के थे। जिस वक्त कसाब मौत की तरफ बढ़ रहा था, पंद्रह ऑफिसर्स के फोन स्विच ऑफ थे। सिर्फ दो ऑफिसर्स ऐंटि-टेरर सेल के चीफ राकेश मारिया और जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस देवेन भारती के सेलफोन ऑन थे। शायद इस डर से की इस बात की खबर बाहर तक न पहुंचे। इसी औचक फांसी से कुछ सवाल जरूर उठने लगे हैं कि आखिर इतने बहुचर्चित मामले को अंजाम देने में इतनी गोपनीयता क्यों बरती गयी। सरकार की तरफ से मीडिया को दी गयी जानकारी में बताया गया है कि  गृह मंत्रालय ने 16 अक्टूबर को राष्ट्रपति से कसाब की दया याचिका खारिज करने की अपील की थी। 5 नवम्बर को राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज कर गृह मंत्रालय को लौटा दी और 7 नवंबर को गृहमंत्री सुशील शिंदे कागजात पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने 8 नवंबर को महाराष्ट्र सरकार के पास भेज दिए थे। गृहमंत्री के अनुसार 8 तारीख को ही इस बात का फैसला ले लिया गया था कि 21 नवंबर को पुणे की यरवडा जेल में कसाब को फांसी दी जाएगी। अभी कुछ दिन पहले ही मीडिया में कसाब को डेंगू होने की खबर आई थी। इस बात पर मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर जमकर खिल्ली उड़ी थी। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि कसाब की मौत फांसी से ही हुई है या किसी दूसरी वजह से। अभी एक दिन पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में भारत ने उस याचिका का प्रतिरोध किया था जिसमें फांसी की सजा को खत्म करने की मांग की गयी थी। तो क्या इसकी वजह भी यही थी। पिछले चार सालों में सरकार ने उसपर पचास करोड़ खर्च कर दिए। कसाब जब तक जिंदा था उसपर सियासत का खेल खेला गया और उसकी फांसी के बाद भी यह जारी है। सरकार इसे अपनी उपलब्धि बता रही है। मगर सवाल यहा ये भी है की क्या सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की राह पर नहीं चल रही। अमेरिका भी इसी तरह से ओसामा बिन लादेन की मौत को अंजाम दिया था। और बाद में इसी मुद्दे को चुनावी हथकंडा बनाया था। भारत सरकार की ये जल्दबाजी भी कही लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तो नहीं थी। मीडिया से कोसो दूर देश के राश्ट्रपति, गृह मंत्री, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और पुलिस और जेल के चुनिंदा अधिकारियों के अलावा किसी को हवा तक नहीं था कि कसाब को फांसी दी जा रही है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की कसाब को इतने गोपनीय तरिके से फांसी देना कितना सही है ?

17 November 2012

बाला साहेब ठाकरे के सपनो का भारत कैसे बनाया जाए ?

23 जनवरी 1926 को मध्यप्रदेश के बालाघाट में जन्में बाल ठाकरे ने अपना करियर फ्री प्रेस जर्नल में बतौर कार्टूनिस्ट शुरु किया था। बाल ठाकरे स्वयं को एक कट्टर हिंदूवादी और मराठी नेता के रूप में प्रचारित कर महाराष्ट्र के लोगों के हितैषी के रूप में अपने आप को पेष किया। उनकी इसी छवि के लिए हिन्दु हृदय सम्राट के नाम से भी जाना जाता था। भले ही महाराष्ट्र के बाहर के लोग बाल ठाकरे को एक कठोर नेता के तौर पर जानते हों लेकिन मराठियों के लिए बाल ठाकरे एक मसीहा से कम नहीं थे। बाल ठाकरे अपने भाषणों के जरिए महाराष्ट्र की राजनीति में उबाल लाते रहे हैं। 1966 में जब उन्होंने शिवसेना का गठन किया था तो इससे पहले उन्होंने ‘मार्मिक’ नाम से एक वीकली पॉलिटिकल मैगजीन शुरू की थी। इस वीकली मैगजीन के जरिए वह अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाने की कोशिश करते थे। मराठी मानुष के मुद्दे को सबसे अधिक अहमियत देने वाले बाल ठाकरे को मराठियों का बहुत प्रेम मिला है। शिवसेना के लोग उन्हें एक पिता की तरह मानते हैं। यही वजह है कि बाल ठाकरे की एक आवाज पर शिवसैनिक कुछ भी करने से गुरेज नहीं करते। मुंबई के बारे में कहा जाता है कि इस शहर में पैदाइश और बचपन बिताना यह सबसे बड़ी डिग्री होती है। मगर आज बाला साहेब के सपनो के भारत बनाने के लिए कई एसे युवा है जो इसी को अना डीग्री और करियर मानकर पूरा जिवन सर्मर्पित कर चुके है। पिछले दशकों और सदियों से मुंबई में अपनी ‘सत्ता’ होने और ‘मालिकाना’ हक जतानेवाले कई खड़े होते रहे हैं। दावे करते रहे हैं। दावों की बदौलत बड़े बनते रहे हैं लेकिन एक शख्स जिसने कोई दावा नहीं किया और इसके बावजूद जिसकी पिछले चार दशक में एकछत्र तूती बोलती रही, वे हैं बालासाहेब ठाकरे। चुनाव जीतने का आशीर्वाद मांगते लगभग हर पार्टी के शीर्ष नेता उनके पास जाते थे। फिल्मी कलाकारों से लेकर बड़े से बड़े तुर्रम खां मातोश्री जाकर अपनी नाक रगड़ते थे। कृष्णा देसाई कांड में उंगली उठी हो या ठाणे में खोपकर कांड का आरोप हो या फिर आनंद दिघे का विद्रोह कुचलने की बात हो, सभी को बाला साहब ने बिंदास तरीके से निपटाया। आपातकाल में इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ निरूपित करने से लेकर प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाते वक्त बीजेपी के विरोध तक के फैसलों में न तो उन्होंने किसी की परवाह की और न ही परिणाम की चिंता। प्रेम हरी को रूप है त्यों हरी प्रेम स्वरूप। प्रेम हरि का स्वरूप है, इसलिए जहां प्रेम है,वहीं ईश्वर साक्षात रूप में विद्यमान हैं। बिना कोई राजनितिक पद के हमेशा सिंघासन पे विराजमान रहने वाले बालासाहेब ने मुंबई, महाराष्ट्र से अगाध प्रेम के जरिये पूरी दुनिया को अपना मुरीद बना लिया। माइकल जैक्सन से लेकर अमिताभ बच्चन और लता मंगेशकर तक। बिना कुर्सी या पद की अभिलाषा की राजनीती अगर सीखनी है तो बालासाहेब से सीखे। ये वही राजनीती है जिसने आज भी पूरी मुंबई को एक धागे में पिरोकर रखा है। क्षेत्रीय स्तर पर राजनीति कर राष्ट्रीय हैसियत हासिल करना कोई आम बात नहीं है और बालासाहेब की मुंबई, महाराष्ट्र से अगाध प्रेम की इसी पराकाष्ठा ने मराठी राजनीती में बाल ठाकरे की सख्सियत को अमर कर दिया।

क्या अधिकारियो पर कार्यवाही नेताओ का अधिकार हो ?

जिसकी खाओ बाजरी उसकी करो चाकरी। यानी जिसके कारण आपका और आपके परिवार का पेट पलता है उसकी नौकरी मन से करनी चाहिए। मगर आज के दौर में लगता है कि ये कहावत  हमारे राजनेताओं के लिए सत्त की जागिर बन गई है। प्रशासनिक सुधार विभाग की 2010 की सिविल सर्विस सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, ईमानदार अधिकारी को परेशान करने, उसके मनोबल को तोड़ने और मानसिक यातना पहुंचाने के लिए ही उनके तबादले किए जाते है। दो साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें स्वीकार की थीं। इन सिफारिशों के तहत आइएएस अधिकारी का कम से कम दो साल तक तबादला नहीं करने का फैसला किया गया था। मगर आज भी हिमाचल प्रदेश और झारखंड एसे राज्य है जहा पर सरकारी अधिकारियों के उपर नेताओं के तबादले वाले हुक्म की खौफ बरकरार है। यहा औसतन नौ महीनों में ही आइएएस को तबादले का आदेश थमा दिया जाता है। वही हरियाणा, कर्नाटक और छत्तीसगण की बात करे तो यहां पर तेरह महीनों में तबादले होते हैं, जिसका ताजा उदाहरण अषोक खेमका है जिनका 19 साल की नौकरी में 43 बार किया गया है। मगर जब इस बार तो रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ की जमीन डील की पोल खुल गई, साथ ही राजनीतिक गलियारों में हडकंप मच गया। आज देष में खेमका जैसे सैकड़ो अधिकारी है जो नेताओ के तबादले का दंष झेल रहे है। एक नया बहस खड़ा हो गया हैं की क्या अधिकारियों पर कार्रवाई करने का अधिकार नेताओं पर होना चाहिए? इतनी जल्दी-जल्दी तबादले के पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार एक प्रमुख कारण माना जा रहा है। इसी लिए जो इमानदार अधिकारी नेताओ के अनुरूप काम नही करते उनको तबादले का पत्र थमा दिया जाता है। सत्ता में बैठे नेताओं को लगता है कि सारे अहम पदों पर उनकी पसंद के अधिकारी हों, ताकि निजी हित के काम किए और कराए जा सकें। इसीलिए जब सरकार बदलती है तो थोक में अधिकारियों के तबादले होते हैं। मामला सिर्फ तबादले तक ही सीमित नही है, कई बार एपीओ यानी नई तैनाती का इंतजार कराया जाता है और फिर ऐसे महकमे में डाल दिया जाता है जो उनकी वरिष्ठता के अनुकूल नहीं होता। अगर कोई इमानदार अधिकारी नेताओं के नजर से बच गया, तो आज के माफिया उसे अपना षिकार बनाते है। जिसकी हत्या कभी कोल माफिया कर देते है तो कभी तेल माफिया। अगर कोई गलत  काम  करने से  मना  करता है या उसके विरुद्ध आवाज  उठाता  है तो  उसकी  जान  पर बन जाती है। ईमानदारी के साथ काम करने की सजा अगर तबादला ही है तो फिर योग्य अधिकारियों से पारदर्शी काम की उम्मीद कैसे की जा सकती है उसका अंदाजा आप खुद लगा सकते है। तो एैसे में सवाल खड़ा होता है की क्या अधिकारियों पर कार्रवाई नेताओं का अधिकार होना चाहिए।

16 November 2012

क्या राहुल गाँधी कांग्रेस को बचा पाएंगे ?

भारतीय राजषाही षाशन में एक परंपरा थी, राजा के परिवार में बेटा जन्म लेता है तो यह तय होता है कि आने वाले समय में राजा का बेटा ही राजा बनेगा। वंशवाद को लोकतंत्र के विपरीत माना जाता है क्योंकि अधिकतर लोकतंत्रों की स्थापना वंशवाद पर आधारित राजतंत्र के विरुद्ध की गई। मगर आज के भारतीय लोकतंत्र में एैसा लगता है, जैसे की षाशन लोकतांत्रीक है मगर परंपरा आज भी वही राजषाही का। स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस ही अधिकांश समय राज करती रही है। कभी कभी मौका दूसरी पार्टियों को भी मिलता रहा है पर मुख्य रुप से भारत में हमेशा कांग्रेस पार्टी ने ही राज किया है और कांग्रेस पार्टी की डोर गांधी परिवार के हाथों में रही है। राहुल गांधी को भविष्य का प्रधनमंत्री माना जा रहा है पर सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं? क्या राहुल गांधी कांग्रेस को बचा पायेंगें। सवाल ये भी है की आज के रानीतिक दौर में आखिर राहुल गांधी का रास्ता जाता किस ओर है। क्या राहुल गांधी कांग्रेस को उस आर्थिक मंत्र से आगे ले जा कर भारतीय समाज को मथने के लिये तैयार कर सकते हैं, जो मनमोहन सिंह के आर्थिक बिसात पर प्यादा बनकर हांफ रहा है। क्या राहुल गांधी वाकई कांग्रेस को पहली बार उस सामाजिक सरोकार का पाठ पढ़ा पाने की तैयारी में है, जहां सत्ता खोकर कांग्रेस को दोबारा खड़ा किया जा सके। क्या मनमोहन सरकार में पांच युवाओं को स्वतंत्र प्रभार देना राहुल का पहला रास्ता मान लिया जाये। असल सवाल यही से सुरू होता है कि क्या राहुल गांधी अब मनमोहन सरकार को कांग्रेस के पीछे चलने की दिशा दिखा सकते हैं। क्या राहुल गांधी काग्रेस के आम आदमी के नारे से सरकार के खास लोगो की नीतियों को मुक्त कर सकते हैं। या फिर पहली बार गांधी परिवार की राजनीति हर सत्ताधारी में कांग्रेसी मनमोहन सिंह को देखेंगी और भविष्य के कांग्रेस की घुरी राहुल गांधी नहीं मुनाफा बनाना और पाना होगा। जिसमें आज काग्रेस के मनमोहन सिंह फिट है क्योकी आज के दौर में कांग्रेंसी सत्ता भी इसी ओर इषारा करती है।
मगर कांगे्रस बनाम राहुल की बात की जाय तो कई एैसे सुलगते सवाल है जो लोगो के दिलों दिमाग पर आज भी कायम है जहा राहुल ने अपने अपरिपक्वता होने का चरिचय दिया। जिसमें ग्रेटर नोएडा के भट्टा-पारसौल गाँव में महिलाओं के साथ बलात्कार और राख के ढेर में लाशें दबी होने के आरोप लगाकर काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में हलचल मचा दी थी। मगर ये आरोप बाद में झुठे सावित हुए। ब्रिटिश पत्रिका ‘द इकॉनमिस्ट’ में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पर छपे एक लेख में राहुल गांधी की शख्सियत पर सवाल उठाते हुए उन्हें कन्फ्यूज्ड और नॉन-सीरियस बताया गया था. ‘द राहुल प्रॉब्लम’ शीर्षक से प्रकाशित इस लेख में लिखा गया , “राहुल गांधी क्या करने की काबिलियत रखते हैं, यह कोई नहीं जानता। यहां तक कि राहुंल को खुद नहीं मालूम कि अगर उन्हें सत्ता और जिम्मेदारियां मिल जाएं, तो वह क्या करेंगे.” राहुल गांधी को यह समझने की जरूरत है कि राजनीति मात्र भाषणों का ही खेल है। कांग्रेस जब-जब टूटने के कगार पर आई तो नेहरू वंश ने उसकी नैय्या पार लगाई। पिछले चुनावों में बिहार और उत्तर प्रदेश में राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने खराब प्रदर्शन किया, जिससे उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवालिया निषान लग गया है। आठ वर्ष की संसदीय यात्रा में राहुल ने संसद के अंदर भी कोई विशेष ख्याति प्राप्त नहीं कर सके। 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए राहुल गांधी को कांग्रेस समन्वय समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। जिससे कांगे्रस फुले नही समा रही है। सलमान खुर्शीद ने खुशी जताई है। उन्होने कहा है की राहुल गांधी कांग्रेस के सचिन तेंदुलकर हैं और उनकी चमक फींकी नहीं पड़ी है। खुर्शीद ने कहा कि राहुल को यह जिम्मेदारी सौंपना एक बड़ा कदम है और वह हमेशा से ही कांग्रेस का चेहरा रहे हैं। एैसे में सवाल खड़ा होता है की कमजोर संगठनात्मक ढांचे और समर्पित कार्यकर्ताओं के अभाव की पूंजी लेकर सत्ता की राजनीति करने को उत्सुक राहुल गांधी क्या कांग्रेस को बचा पायेंगें।

15 November 2012

क्या सरकार कैग, कोर्ट और मीडिया से डरी हुई है ?

घपले घोटाले से घीरी यूपीए 2 की सरकार अब अपनी नकामीयत की ठीकरा देष के स्वतंत्र संस्थाओं पर फोड़ना चाहती है। आज देष के अंदर जिस प्रकार से कोर्ट कैग और मीडिया आए दिन सरकार की भ्रश्ट नीतियों का खुलासा कर रही है उससे कही न कही सरकार अब डरने लगी है, तभी तो कांग्रेस के संचार मंत्री कपिल सिब्बल ये कहते नही चुक रहे है की सरकार को नीतिगत फैसले लेने में कोर्ट कैग और मीडिया आड़े आ रही है। संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने ‘कैग की विद्वता, मीडिया और न्यायालय को’ राजनीतिक लाचारी के लिए जिम्मेदार ठहराया है। भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और, निश्पक्ष्ता इन्ही संस्थाओं में आज मौजूद है अगर ये संस्थाए जितनी मजबूत होंगी उतना ही हमारा लोकतंत्र भी प्रभावी और आम आदमी के सरोकार के प्रति जिम्मेवार होंगी। मगर आज देष के अंदर जिस प्रकार से इनकी अवाज़ दबाने की कोसिष सरकार की ओर से हो रही उससे तो यही लगता है की सरकार इन संस्थाओं के उपर उंगली उठा कर इन्हे कमजोर करना चाहती है। आज देष के अंदर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी की सीएजी, पहली बार चर्चा में नहीं है। सबसे पहले जब कैग की रिपोर्ट आई तब बोफोर्स मामले में घोटाले की पुष्टि हुई। कैग तकनीकी और आर्थिक पैरामीटर के आधार पर रिपोर्ट तैयार करती है। कैग द्वारा दिए गए रिर्पोट के अधार पर सरकार को कार्यवाही करनी पड़ती है..सरकार को ये भी बताना पड़ता है कि क्या कार्यवाही की गई ? यही कारण है की सरकार आज कैग के उपर उंगली उठा कर इसको भी सीबीआई की तरह बदनाम संस्था बनाना चाहती है जिसे वो अपने उंगलियों पर नचा सके। देष के अंदर आज चाहे राश्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2 जी घोटाला, सिविल एविएषन घोटाला, आईजी आई घोटाला, हो या फिर हाल ही में हुए कोयला घोटाला कैग जैसी निश्पक्ष संस्थाओं के चलते ही दोशियों को कटघरे में लाना संभव हो पाया है। सिब्ब्ल अपनी लचारी के बजाय 2010 में न्यायालय के फैसले के चलते रद्द हुए 122 लाइसेंस को भी कोर्ट को ही जिम्मेदार ठहराया है। वही अगर कोर्ट की बात करे तो देष के तोकतंत्र और आम आदमी के हक की हिमायत आज न्यालय पर ही टिकी हुई है। जिसने आरक्षण से लेकर गरिबों में अनाज बांटने तक के मत्वपूर्ण फैसले से पूरे देष में एक अलख जगाई जिससे सरकार तक को अपना फैसला बदलना पड़ा। साथ ही लोकतंत्र के चैथे स्तंभ मीडिया ने जिस प्रकार से सेना से लेकर संसद तक हुए भ्रश्टाचार को उजागर किया उससे भ्रश्टतंत्र के दलालो की पोल खुल गई। बड़े बड़े नेताओं और मंत्रिओं को उपना पद छोड़ना पड़ा। साथ ही सरकार को अपने कई सारे फैसले भी वापस लेना पड़े जिनमे प्रमुख रूप से संविधान के धारा 19 के तहद मिले अभिव्यक्ति के अजादी भी षामिल है। जो आम आदमी से लेकर मीडिया तक को बोलने की अजादी देती है। मगर आए दिन सरकार की ओर से जिस प्रकार से इन स्वतंत्र और संबैधानिक संस्थाओं पर किचड़ उछाला जा रहा है उससे तो यही सवाल खड़ा होता है की क्या सरकार कैग, कोर्ट, कोर्ट और मीडिया से डरी हुई है।

क्या बदल रहे है करवाचौथ पर्व के मायने ?

चाँद तो हर रोज निकलता है, लेकिन करवाचैथ के चांद कि बात ही कुछ और है। इस चांद का सभी महिलाओं को बेसबरी से इन्तजा़र रहता है। करवाचैथ कार्तिक मास कि चतुर्थी एवं चंद्रोदय तिथि मे मनाया जाता है। इस व्रत को कर्क चतुर्थी भी कहते है। वक्त के साथ साथ जहां पुरानी और आधुनिक पीढी के विचारों में बदलाव आ गया है। वही करवाचैथ के इस व्रत को आज भी महिलाएं उसी हर्श और उल्लास से मनाती है जैसे पहले भी मनाया करती थी। करवा चैथ का व्रत सिर्फ अखंड सुहाग के लिए किया जाने वाला व्रत ही नही है, बल्कि अपने पति व परिवार पर आने वाले हर संकट के सामने ढाल बनकर खड़ी हो जाने वाली स्त्री षक्ती का प्रतिक भी है। यह व्रत सिर्फ एक रीत ही नही बल्कि हर पत्नि के लिए उसके पति के प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक माध्यम भी है। ऐसे तो त्योहार, पर्व, व्रत, पूजा पाठ, आस्था और भावना से जुड़े ये सारे नियम अपने प्रियज के लिए खुद-ब-खुद होते है। करवाचैथ के व्रत के साथ भी कुछ एसा ही है। अब जो इनसान दिल में बसता हो, उस साथी के कुषल मंगल के लिए व्रत रखना किस स्त्री को नही भाएगा। कहा जाता है कि सावित्री ने इस व्रत के जरिए अपने पती सत्यवान को यमराज के मुंह से छीन ले आई थी तभी से ये व्रत भारतीय मुल की परंपरा बन चुकि है, जिसको मनाना हर भारतीय स्त्री अपना धर्म और अधिकार समझती है।  करवाचैथ का व्रत सिर्फ एक त्योहार ही नही बल्की ये महिलाओं के साज सज्जा का प्रतिक भी है।  इस दिन हर महिला का श्रृंगार देखते ही बनता है। कान के बुंदो से लेकर पैरों कि पायल तक हर औरत गहनो से ढकी होती है। बाजार भी इस त्योहार के चकाचैंध से जगमगा उठते है। हर तरफ महिलाओं के साज सज्जा के सामानो कि धुम लगी होती है। साड़ीयों से लेकर पुजा कि थाल तक कि खरीदारी बड़े जोरो षोरो से कि जाती है। इस दिन हर महिला अपने पति कि लंबी उम्र कि कामना करन के लिए पुरा दिन निर्जला व्रत रखती है और तब तक अपना व्रत नही खोलती है जब तक चांद ना निकल जाए। चांद निकलने के बाद हर महिला अपने पति के हाथों से ही अपना व्रत खोलती है। इस व्रत के दौरान षाम को 4 बजे के बाद सभी महिलाएं सत्यनारायण भगवान और गणेषजी कि कथा भी सुनते है साथ ही सभी महिलाएं एक दुसरे को सुहाग की निषानीयां भी भेंट करती है। ये दिन हर औरत के लिए खास होती है। इस दिन हर सास अपनी बहुओं को करवाचैथ कि पूजा करने के लिए सरगी देतीं है। जिसमें सुहागनो वाले सारे सामान यानी कि चुडि़यों से लेकर मांग के सिंदुर तक सभी सामग्री मौजूद  होतें है। इसी सरगी को लेकर हर महिला इस व्रत को संपन्न करती है। इनको देखकर कहा जा सकता है कि भारत कि जान इन जैसी खुबसुरत परंपराओं में ही बसती है।

09 November 2012

राम का अपमान करने वाले जेठमलानी पर क्या करवाई हो ?

सौगंध राम की खाते है हम मंदिर वही बनायेंगे। 1992 के मंदिर आंदोलन से निकले ये शब्द भाजपा और संघ की आम भाषा बन गई। राम के सौगंध के सहारे सत्ता भी प्राप्त हुई मगर अब लगता है की राम के नाम का आदर्श रामजेठमलानी सरीखे नेतओं के लिए सिर्फ एक सियासत की लकीर बन कर रह गई है। जिसे जब चाहे जिधर चाहे खीच दे। दुनिया में राम जेठमलानी कोई पहले व्यक्ति नहीं, हैं जिसने राम को बुरा कहा हो, ऐसे लोगों की संख्या तो बहुतायत हैं। आये दिन राजनेताओं के ऐसी ओछी बयान बाजी से तो यही लगता है की इस देश से राम बहुत दूर चले गये हैं। वास सिफ रावण राज का ही रह गया है।

एक ओर जहा पुरा देश दिपावली के मौके पर राम के आदर्षो से प्रभावित होकर घी के दिए जलाने के लिए पलक पावरे बैठा है, तो वही दुसरी ओर नितिन गडकरी को विवेकानंद के उपर दिए बयान पर गडकरी को नसीहत देने वाले जेठमलानी इस बार अपने ही बयान में फस चुके है। जेठमलानी के निशाने पर इस बार भगवान राम हैं। जेठमलानी ने अपने बयान में कहा हैं की भगवान राम बुरे पति थे। मैं राम को किसी भी तरह से पसंद नहीं करता। जेठमलानी जैसे नेता राम के आदर्शो पर उंगली उठा कर पूरे हिंन्दु समाज में एक नया बहस खड़ा कर दिया है। भगवान राम पर जेठमलानी के बयान को लेकर अयोध्या के साधु-संत खासे नाराज हैं। विहिप की ओर से जेठमलानी को नसीहत दी गई है की जब उन्हें रामायण और धर्म का ज्ञान नहीं है, तो राम जैसे आदर्श चरित्र पर उंगली नहीं उठानी चाहिए और अपने कृत्य के लिए माफी मांगनी चाहिए। मगर यहा सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा होता है की क्या सिर्फ माफी मात्र से ही इतने बड़े गुनाह को माफ कर दिया जाना चाहिए ?

राम जेठमलानी पेशे से खुद वकील है ऐसे में सवाल यहा भी खड़ा होता है की क्या जेठमलानी के उपर भी भारतीय दंड सेहिता के धारा 295, 298 और 153 के तहद हिंन्दु भावनाओं को भड़काने के अरोप में कार्रवाई नही होना चाहिए ? क्या जेठमलानी इन कानूनी प्रावधानो को भूल गये है? क्या भापजा इनके बयानो से अनभिज्ञ है क्या जेठमलानी के उपर भाजपा को कार्रवाई नही करना चाहिए? जो हमेशा से चाल चरित्र और चेहरे की बात करती है। जिसके लिए राम ही सत्ता है। और राम राज्य ही जिसका लक्ष्य है। मर्यादा पुरिशोत्तम राम का अपमान सिर्फ जेठमलानी तक ही सिमित नही है। भाजपा नेता रामजेठमलानी द्वारा सीता को बुरा पति बताए जाने के बाद वरिष्ठ भाजपा नेता विनय कटियार ने उनके सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि गर्भवती सीता माता को घर से बाहर निकालकर भगवान राम ने सही नहीं किया था।

 एक ओर जहा नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज राधा रानी, और भगवान गणेश के अपमान को लोक सभा में उठाने की बात करती है वही दुसरी ओर जेठमलानी और विनय कटियार जैसे नेता इनका अपमान करते है तो ऐसे में सवाल फिर से वही आ कर खड़ा हो जाता है की भाजपा की रामराजवाली नीती क्या सिर्फ हाथी की दांत के तरह दिखावे के लिए है? ऐसे में अब ये देखना दिलचस्प होगा की क्या भाजपा राम का अपमान करने वाले रामजेठमलानी के उपर कोई कड़ी कर्रवाई करती है ?

03 November 2012

1984 के दंगा पीड़ित सिखों को कभी न्याय मिल पायेगा ?

1984 में हुए सिख-विरोधी दंगे भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्यायों में एक हैं। जिस प्रकार से ये नरसंहार 31 अक्टूबर 1984 को सिख अंगरक्षक द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप हुआ उसने पुरे देश को झकझोर कर रख दिया था। एक और तीन नवम्बर 1984 के बीच देश भर में अनगिनत बेगुनाह लोगं मौत और विध्वंस सिकार हो गये। सिख दंगों के 28 साल पुरे हो चुके है इस दौरान कितनी बार देश में काग्रेस सत्ता में आयी और गई मगर उसके षाशन काल में हुए सिख दंगे की आग आज भी लोगो के दिलो दिमाग पर काली छाया बनकर मडरा रही है। अपनी अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के नाम पर हर दल सिखों के हिमायती होने का दावा करते है। कांग्रेस के शासन में जब सिखों को मौत के घाट उतारा जा रहा था, उनकी दुकानों को आग के हवाले किया जा रहा था, उनके घर लूटे जा रहे थे और उनकी पत्नियों के साथ बलात्कार किया जा रहा था, तब भी पुलिस और प्रशासन ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।

मगर अब हर हिंदुस्तानी सिर्फ एक ही सवाल पूछ रहा है की आखिर कब मिलेगा सिख दंगा पीड़ितों को न्याय ? आखिर कब भरेगा उन बेगुनाहो का जख्म ? रोंगटे खड़े करने वाले उस अंधेरी रात की साया आज भी जीनके दिलों दिमाग पर डरावनी दहशत की घर कर गयी है। इन दंगों से जुड़े मुकदमों में एक या दो लोग जेल में हैं लेकिन इतने लोगों की मौत के लिए अगर दो या तीन लोगों को जेल होना क्या इंसाफ है। हिंदुस्तान के उपर लगे इस बदनुमा दाग को आज भारत ही नही विश्व में भी आलोचना हो रही है। इस सिख विरोधी दंगों को नरसंहार मानने के लिए ऑस्ट्रेलिया की संसद में याचिका पेश की गई है। इसमें ऑस्ट्रेलिया की सरकार से दंगों के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए भारत सरकार से अपील करने को कहा गया है। अगर इस अपील के पूरे मसौदे के उपर नजर डाले तो याचिका पर करीब साढ़े चार हजार हस्ताक्षर हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या विदेशों में उठाये गये ये कदम से भारत को सिख लेना चाहिए या शर्म करना चाहिए ? 1984 में हुए सिख दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी रही।

 सिखों के खिलाफ हमले साजिश के तहत होते रहे। सज्जन कुमार पर दंगों के दौरान सिखों के खिलाफ लोगों को भड़काने का आरोप है। मगर आज ये भी सत्ता की मलाई खा रहे है। दिल्ली में दंगे के दौरान करीब 150 शिकायतें आई। लेकिन पुलिस ने सिर्फ 5 एफआईआर दर्ज कीं। ये अपने आप में चैकाने वाली बात है। इस पुरे घटनाक्रम में सबसे दुभाग्यपूर्ण बात ये है की पीड़ीतों को मदद पहुंचाने की बात तो दूर, पुलिस उन लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई कर रही थी जो पीड़ीत सिखों को मदद कर रहे थे। दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई आखिर अब तक क्यो नही हुई। दंगों को कई वर्ष बीत चुके हैं हर नेता आज केवल वोट बैंक के लिए इन दंगों का इस्तेमाल करते हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या 84 के दंगा पीडि़त सिखों को न्याय मिल पायेगा।

02 November 2012

क्या प्राकृतिक आपदाए भौतिकवाद का परिणाम है ?

आज का आधुनिक युग भौतिकवादी सुख का आदी होते जा रहा है। इन भौतिकवादीता के कारण कई प्राकृतिक आपदा जन्म ले रहा है। अमेरिका में आये सैंडी तुफान भी एक ऐसा ही आपदा है जिसमें। अब तक 40 लाख अमेरिकी बिजली और संचार आपूर्ति के बिना बदहाली के दौर से गुजर रहे है। न्यूयार्क और न्यूजर्सी के आसपास के इलाकों में अभी तक पानी जमा हुआ है तथा बचावकर्ता मलबे से शव निकाल रहे हैं। मगर यहा सबसे बड़ा सवाल यही है की क्या ये तुफान सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा है या फिर भौतिकवाद का जिता जागता उदाहरण, जो आज पुरी दुनिया को अगाह कर रहा है। धन का भोग या भौतिक सुखों के लिए आज इंसान हर ओर प्राकृतिक का दोहन कर रहा है। लोगो के अंदर इच्छाएँ सीमाओं से आगे बढ़ चुकी है। आज जब हम प्रगति की कगार पर खड़े हैं तो हमें अपनी विवेक से अपने जीवन के शाश्वत मूल्यों की रक्षा करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन अमरीका या यूरोप के अलावे चीन और जापान सबसे ज्यादा आज प्राकृतिक संससधनो का दुरूप्योग कर रहे है। यही कारण है की ये प्राकृतिक प्रभाव इन्ही विकषीत देषों में कर रहा है। 17 मार्च, 1883 को कार्ल मार्क्स की समाधि के पास उनके मित्र और सहयोगी एंजिल ने कहा था, की आज की ये भौतिकवाद सुख आने वाले कल के लिए एक त्रास्दी लाने वाली है। आज ये कथन सही साबित हो रही है।  अमेरिका में भीषण तूफान को देखते हुये अमेरिका में कई राज्यों में आपात स्थिति की घोषणा कर दी गई है। सैंडी की वजह से 6 करोड़ लोग प्रभावित हो हुए हैं। इस तुफान की चपेट में अमेरीका के साथ साथ कुछ अन्य देष में प्रभावित हुए है। आज भले ही इसकी जद में अमेरीका हो मगर कल इसका सिकार एषिया के कुछ अन्य देष भी हो सकते है। ऐसे में ये कहा जा सकता है की ये सिर्फ तुफान मात्र ही नही एक चेतावनी है ? आज हर देष भौतिकवाद के संग्राम में अपने आप को तबाह करने के लिए आंख मुंद कर गोता लगा रहे है। इस भौतिकवाद से हमारा देष भारत भी अछुता नही है। आज हर एक व्यक्ति उच्च स्तरीय जीवन जीना चाह रहा है और वह भौतिकवाद के पीछे इस कदर मोहित हो चुका है कि वह अपनी सारी मानवता के भूलयों को भुल चुका है। दिखावा और त्वरीत लाभ आज इस कदर लोगो के उपर हावी हो चुका है की उसे पाने के लिए इंसान अपनी जान तक को दांव पर लगा कर प्राकुतिक साधनों का लगातार दोहन कर रहा है। भौतिकवाद की पहुँच विश्व के भौतिक पदार्थों में निहित आनन्द को भले ही बढ़ा दिया हो मगर सवाल अब भी वही है की क्या प्राकृतिक आपदायें भौतिकवा का परिणाम है।

क्या बदल रहा है सुहाग का प्रतिक करवा चौथ ब्रत ?

चांद तो हर रोज निकलता है, लेकिन करवाचैथ के चांद कि बात ही कुछ और है। इस चांद का सभी महिलाओं को बेसबरी से इन्तजा़र रहता है। करवाचैथ कार्तिक मास कि चतुर्थी एवं चंद्रोदय तिथि मे मनाया जाता है। इस व्रत को कर्क चतुर्थी भी कहते है। वक्त के साथ साथ जहां पुरानी और आधुनिक पीढी के विचारों में बदलाव आ गया है। वही करवाचैथ के इस व्रत को आज भी महिलाएं उसी हर्श और उल्लास से मनाती है जैसे पहले भी मनाया करती थी। करवा चैथ का व्रत सिर्फ अखंड सुहाग के लिए किया जाने वाला व्रत ही नही है, बल्कि अपने पति व परिवार पर आने वाले हर संकट के सामने ढाल बनकर खड़ी हो जाने वाली स्त्री षक्ती का प्रतिक भी है। यह व्रत सिर्फ एक रीत ही नही बल्कि हर पत्नि के लिए उसके पति के प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक माध्यम भी है। ऐसे तो त्योहार, पर्व, व्रत, पूजा पाठ, आस्था और भावना से जुड़े ये सारे नियम अपने प्रियजनेा के लिए खुद-ब-खुद होते है। करवाचैथ के व्रत के साथ भी कुछ  ही है। अब जो इनसान दिल में बसता हो, उस साथी के कुषल मंगल के लिए व्रत रखना किस स्त्री को नही भाएगा। कहा जाता है कि सावित्री ने इस व्रत के जरिए अपने पती सत्यवान को यमराज के मुंह से छीन ले आई थी तभी से ये व्रत भारतीय मुल की परंपरा बन चुकि है, जिसको मनाना हर भारतीय स्त्री अपना धर्म और अधिकार समझती है। करवाचैथ का व्रत सिर्फ एक त्योहार ही नही बल्की ये महिलाओं के साज सज्जा का प्रतिक भी है। जी हा इस दिन हर महिला का श्रृंगार देखते ही बनता है। कान के बुंदो से लेकर पैरों कि पायल तक हर औरत गहनो से ढकी होती है। बाजार भी इस त्योहार के चकाचैंध से जगमगा उठते है। हर तरफ महिलाओं के साज सज्जा के सामानो कि धुम लगी होती है। साड़ीयों से लेकर पुजा कि थाल तक कि खरीदारी बड़े जोरो षोरो से कि जाती है। इस दिन हर महिला अपने पति कि लंबी उम्र कि कामना करन के लिए पुरा दिन निर्जला व्रत रखती है और तब तक अपना व्रत नही खोलती है जब तक चांद ना निकल जाए। चांद निकलने के बाद हर महिला अपने पति के हाथों से ही अपना व्रत खोलती है। इस व्रत के दौरान षाम को 4 बजे के बाद सभी महिलाएं सत्यनारायण भगवान और गणेषजी कि कथा भी सुनते है साथ ही सभी महिलाएं एक दुसरे को सुहाग की निषानीयां भी भेंट करती है। ये दिन हर औरत के लिए खास होती है। इस दिन हर सास अपनी बहुओं को करवाचैथ कि पूजा करने के लिए सरगी देतीं है। जिसमें सुहागनो वाले सारे सामान यानी कि चुडि़यों से लेकर मांग के सिंदुर तक सभी सामग्री मौजूद  होतें है। इसी सरगी को लेकर हर महिला इस व्रत को संपन्न करती है। इनको देखकर कहा जा सकता है कि भारत कि जान इन जैसी खुबसुरत परंपराओं में ही बसती है। अगर बात कि जाए युवा पीढी कि तो वो भी कुछ कम नही है। जहां एक तरफ विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है वंही कुछ युवा एसे भी है जो मार्डन होने के साथ साथ देष कि परंपराओं से अभी भी दिल से जुड़े है। कालेज कि लड़कियां हो या आफिस गोंइंग गर्ल सभी इस परंपरा में विष्वाष रखती है। तभी तो षादीषुदा औरतों के साथ कई कुंवारी लड़कियों को भी ये व्रत करते देखा जा सकता है। व्रत करने के साथ साथ ये सभी लड़कियां अपने फैषन का भी खास ख्याल रखती है। बात कि जाए डिजाईनर लहंगे या साड़ी कि तो इनकि कौन लड़कि दिवानी नही होती। आज कि हर औरत और लड़कि अपने फैषन सेन्स से किसी भी तरह का समझौता बरदाष्त नही करती। और अगर बात करवाचैथ कि हो तो सभी एक से बढ़कर एक दिखना चाहती है। करवाचैथ के इस त्योहार को सिर्फ लड़कियां ही नही बल्कि लड़के भी उत्साह से मनातें है। कंही कंही तो लड़को को भी अपने जिवन साथी के लिए र्निजला व्रत करते देखा जा सकता है। और एैसा हो भी क्यों ना, कोई भी अपने दिल के करीबी व्यक्ति को खोना नही चाहता। और सही मायने में ये अटूट प्यार कि भावना ही इस त्योहार को चार चांद लगा देती है। ये पर्व हर पति- पत्नि और चाहने वालों के पवित्र रिष्ते को बयां करती है। जब सजी धजी सभी महिलाए चांद के समक्ष अपने पति के हाथों अपना-अपना व्रत खोलती हैं तो नजारा देखने लायक होता है। मन से सिर्फ यही दुआ निकलती है कि पति-पत्नि का ये अटूट बंधन युं ही सदा बना रहे। साथ ही सजता रहे इन खबसुरत त्योहारों का सिलसिला।