31 January 2014

देश अक्लमंदी की गुलामी से कब आजाद होगा ?

देश में शिक्षा व्यवस्था की पोल एक बार फिर से खुलकर सामने आई है। "एजुकेशन फॉर ऑल" के तहत यूनेस्को की ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में चार साल तक स्कूल जाने के बावजूद 90 फीसदी गरीब बच्चे कुछ नहीं सीख पाते। 30 फीसदी बच्चे पांच-छह साल की स्कूली पढ़ाई के बावजूद सामान्य जोड़-घटाना नहीं जानते। अगर पूरे रिपोर्ट पर नजर डालें तो  ग्रामीण महिलाओं को साक्षर करने में अभी 66 बरस और लग सकते हैं।

सवाल यहां ये है कि देश का जो मध्यवर्ग अपने बच्चों को सेंट्रल बोर्ड स्कूलों में पढ़ाकर संतुष्ट है, वे पूरी तरह निजी हाथों में हैं, लिहाजा देश के 85 फीसदी बच्चों के लिए उनकी कोई उपयोगिता नहीं है। सरकारी नियंत्रण में चलने वाली प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता देश के लिए गहरी चिंता का विषय होनी चाहिए, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की खींचतान के बीच इसे अब अजेंडा से बाहर ही मान लिया गया है। केंद्र द्वारा राइट टु एजुकेशन का एलान करने के बाद तो बुनियादी शिक्षा पूरी तरह से चरमरा गई है। केंद्र सरकार को सिर्फ स्कूलों में भर्ती के आंकड़ों से मतलब है और राज्य सरकारें सोचती हैं कि इस मामले में ज्यादा मशक्कत करने से उनका वोट बैंक तो बढ़ने वाला नहीं है, उल्टे शिक्षक यूनियनों के नाराज हो जाने का खतरा अलग है। ऐसे में देश का भविष्य आज अंधेरे में नजर आरहा है। 

तो वहीं दुसरी ओर बचपन से ही रोजी-रोटी के काम में मां-बाप का हाथ बंटाने को मजबूर गरीब बच्चों को स्कूल तक खींच कर लाने के लिए बनाई गई मिड डे मील योजना खुद में एक राष्ट्रव्यापी स्कैंडल बनकर रह गई है। तो वहीं शिक्षक पढ़ाई-लिखाई का स्तर गिरने का ठीकरा, खाना पकाने और परोसने की काम को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। 

इनसभी समस्यों और सवालों से इतर एक बात और है कि “जिसे हम आजकल ‘शिक्षा’ कहते हैं, वह एक उपभोक्ता माल बन चुका है। यानी जैसी हैसियत वैसी शिक्षा। यही कारण है कि आज देष में लाख दावे और वायदों के बावजूद ऐसी असामानता दिखाई देरही है। 

आज हमारा देश लार्ड मैकाले द्वारा बनाया गया 1858 का भारतीय शिक्षा अधिनियम के तहद ही शिक्षा ग्रहण कर रहा है। जिसका मकसद था भारतीय परपरागत शिक्षा व्यवस्था को तोड़ कर अपनी कुरीतियों को थोपना। अपनी शिक्षा में सुधार लाने के लिए आज हमें मैकाले द्वारा लिखित 1835 का उसपत्र की साजिश को याद करना होगा जिसमे लार्ड मैकाले ने लिखा था.......

"मैं भारत में काफी घुमा हूँ। दाएँ- बाएँ, इधर उधर मैंने यह देश छान मारा। मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी, चोर या गरीब हो। इस देश में मैंने इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है। इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पौराणिक और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें। जिससे इस देश का प्रत्येक व्यक्ति शक्ल से भारतीय मगर से अक्ल से ब्रिटीश का मुलाम होगा" तो सवाल आज इस अक्लमंदी की गुलामी को लेकर खड़ा होता है कि आज  देश इससे कब आजाद होगा?

देश में बेरोजगारी दर: 
  •  दुनिया में सबसे अधिक बेरोजगार युवा हमारे देश में हैं।
  •  15 से 29 वर्ष आयु वर्ग में ग्रामीण इलाकों में स्नातक बेरोजगारी का दर 36.6 प्रतिशत है।
  • जबकि शहरी इलाकों में बेरोजगारी का दर 26.5 प्रतिशत है।
  • श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसारए वर्ष 2012.13 में 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग के बीच बेरोजगारी का दर 18.1 प्रतिशत है।
  •  18 से 29 वर्ष आयु वर्ग के बीच बेरोजगारी का दर 13 प्रतिशत है।
  •  15 से 29 वर्ष आयु वर्ग के बीच के लोगों में ज्यादातर स्वरोजगार से जुड़े हैं।
  •  भारत में बेरोजगारी 3.8 प्रतिशतए गुजरातए दमन एवं दीव में सबसे कम है।
  •  सबसे ज्यादा बेरोजगारी हिमाचल प्रदेश में है जो 17.7 प्रतिशत है।

26 January 2014

राष्ट्रीय त्योहारों पर राजनीति क्यों ?

                                               पावन है गणतंत्र यह, करो खूब गुणगान।
                                              भाषण-बरसाकर बनो, वक्ता चतुर सुजान॥

जी हां, कुछ इसी अंदाज में आज गड़तंत्र दिवस की गुणगान राजनीति हलकों में होने लगी है। गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि लोकलुभावन अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती। झूठे वादों की परिणीति मोहभंग में होती हैं। जिससे गुस्सा पैदा होता है और गुस्से का एक ही लक्ष्य होता है, वो जो सत्ता में हैं। जनता का गुस्सा तभी कम होगा जब सरकारें वो करेंगी जो करने के लिए उन्हें चुना गया है। बड़बोले लोग जो हमारी रक्षा सेनाओं पर शक करते हों गैरजिम्मेदार हैं और उनका सार्वजनिक जीवन में कोई स्थान नहीं है। प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा चुनावों को लेकर कहा कि खिचड़ी सरकार विनाशकारी हो सकती है।

राष्ट्रपति के इस तीखे बयान पर भला आम आदमी पार्टी कहां चुप रहने वाली थी। झट से जवाब भी आगया। आप पार्टी के प्रमुख प्रवक्ता योगेंद्र यादव ने कहा कि राष्ट्रपति के भाषण में इसतरह की बातें उत्तर प्रदेश और गुजरात के बारे में कही गई है। राष्ट्रपति त्योहारों पर राजनीति कोई नई बात नहीं है। इससे पहले 2011 में भाजपा नेताओं को सिर्फ इसलिए हिरासत में लिया गया था, क्योंकि ये लोग श्रीनगर के लाल चैक पर तिरंगा फहराना चाहते थ। इस घटना के बाद उमर अब्दुल्ला सरकार की जमकर आलोचना हुई थी। जिसके बाद भाजपा नेता नितिन गडकरी ने कहा था कि तिरंगा फहराने पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।

आज इस राष्ट्रीय पर्व पर अरविंद केजरीवाल भी राजनीति करने में आगे दिखे। केजरीवाल एक मुख्यमंत्री होते हुए भी हमेशा की तरह सादे कपड़े में मफलर बांधे राजपथ पर गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में शामिल हुए। जबकी इस मौके पर एक मुख्यमंत्री को सफेद कपड़ा पहनना चाहिए। साथ ही केजरीवाल ने गणतंत्र दिवस परेड को लेकर पहले हीं अपना विरोध जताया था। केजरीवाल ने कहा था कि कुछ वीआईपी लोगों को देखने के लिए निकलने वाली झांकियों से आम आदमी को कोई सरोकार नहीं है। तो ऐसे सवाल केजरीवाल के दावे को लेकर उठता है कि अपने आप का आम अदमी बताने वाले केजरीवाल वीआईपी लोगों के समूह में क्यों शामिल हुए?

इस मौके पर एक राजनीति और देखने को मिली। कर्नाटक राज्य की झांकी में टीपू सुल्तान को हाथ में तलवार लिए दिखाया गया। ये वही टीपू सुल्तान है जिसने बारह हजार से अधिक हिन्दुओं को इ्रस्लाम से धर्मान्तरित किया। तथा लाखों कि संख्या में बन्दी बना कर वध करने का हुक्म दिया था। साथ ही 20 वर्ष से कम आयु के एक खास समुदाय को जेल में रखा और पेड़ से लटकाकर मार डाला। ऐसे में टीपू सुल्तान हमारे राष्ट्रीय पर्व का हिस्सा कैसे हो सकता है। क्या ये एक खास समुदाय को लुभाने की राजनीति नहीं है? तो सवाल खड़ा होता है राष्ट्रीय त्योहारों पर राजनीति क्यों?

जंगल में अमंगल !

आजादी के बाद बनी भारतीय वननीति की समीक्षा सन 1988 में की गई थी। लेकिन परिस्थितियों के अनुसार उसमें हेर-फेर किए बिना फिर से उसे यथावत लागू कर दिया गया, जबकि वर्ष 1975 में नेपाल राष्ट्र द्वारा अपनाई गई वननीति का भारतीय वनों पर प्राकृतिक एवं मानवजनित कारणों का विपरीत प्रभाव पड़ा है। किंतु छत्तीस साल व्यतीत हो जाने पर भी भारतीय वनों पर पड़ रहे कुप्रभावों को निष्प्रभावी करने के लिये भारत सरकार द्वारा अभी तक कोई ठोस वननीति नहीं तैयार की गई है। जबकि भारत-नेपाल सीमावर्ती भारतीय वनों पर बढ़ रहे नेपालियों के दबाव को रोकने, वन संपदा व जैव-विविधता की सुरक्षा के लिये वर्तमान वननीति में बदलाव किया जाना अतिआवश्यक हो गया है।

भारत के सभी राष्ट्रीय उद्यानों एवं वंयजीव विहारों में दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत के हिमालय की तराई में आबाद राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यपशु बिहार सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं। देश के वनों की सुरक्षा के लिये आजादी के बाद 1952 में पहली ‘वननीति’ बनी थी। इसके बाद बदलते परिवेश तथा समय की मांग के अनुरूप वर्ष 1978 में दूसरी वननीति बनी, जो अद्यतन अभी यही लागू है। हालांकि वन्यजीवों के अवैध शिकार को रोकने के लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1976 भी बनाया जा चुका है। विडम्बना यह कही जाएगी कि भारत की वननीति में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर स्थित महत्वपूर्ण जैव विविधता के संरक्षण एवं वनों की सुरक्षा को नजरन्दाज किया गया है। जबकि मित्र राष्ट्र नेपाल से भारत की लगभग 1400 किमी लम्बी सीमा सटी हुई है। सन् 1975 से पूर्व भारत-नेपाल सीमा के दोनों ओर घने और विशाल वनक्षेत्र स्थित थे, सीमा पर समृद्ध वनक्षेत्र होने के कारण वन्य-पशुओं का आवागमन निर्बाध रूप से होता था। 

उत्तर भारत में हिमालय की तराई में फैले अधिकांश वनक्षेत्र की सीमा पूर्व में पश्चिम बंगाल, दार्जलिंग जिले से लेकर पष्चिम में उत्तरांचल में पिथौरागढ़ तक स्थित है। पिथौरागढ़ में काली नदी के दोनों तरफ नेपाल राष्ट्र का इलाका एवं भारत का धारचूला कस्बा आबाद है। आवागमन की दृष्टि से दुर्गम होने के बाद भी यह क्षेत्र तिब्बत में पाए जाने वाले ‘चीरू’ नामक हिरन के बालो से बने ‘शाहतूष शालों’ की तस्करी के लिये विश्व विख्यात है। अपनी अति विशेष खासियत के कारण उच्च वर्ग में इस शाहतूस शालों की खासी मांग बनी रहती है। यही कारण है कि अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव तस्कर बाघ, तेदुंआ आदि विलुप्तप्राय वन्यजीवों के अंगों के बदले शाहतूस शाल प्राप्त करके उसकी तस्करी करते हैं।

सन् 1975 में नेपाल सरकार द्वारा अपनाई गई ‘सरपट वन कटान नीति’ के कारण हिमालय की तराई के वनाच्छादित भू-भाग से नेपाल के इलाकों से वनों का सफाया हो गया। नेपाल सरकार ने अपनी सुनियोजित नीति के तहत सीमा पर वनकटान के बाद खाली हुए क्षेत्रों में सेवानिवृत्त नेपाली सैनिकों को बसा दिया। जिसका प्रमुख उदेश्य भारतीय सीमा पर मजबूत नेपाली नागरिकों की ‘सामाजिक फौज‘ की स्थापना था। खाली हुई वनभूमि पर आबाद हुए पूर्व नेपाली फौजियों को नेपाल सरकार द्वारा प्राथमिकता से असलहों के लाईसेंस भी प्रदान किए गए। हालांकि कालान्तर में नेपाल की लोकतात्रिंक सरकारों की स्थिति आयाराम-गयाराम की रही इसके कारण इन क्षेत्रों में आबाद हुए गांव माओवादियों के गुप्त शरणगाह बन गए थे, जो अब भी नेपाल सरकार के लिये समस्या का प्रमुख कारण बने हुए हैं।

नेपाल की सरपट वन कटान नीति का भारतीय वनों पर अच्छा-खासा प्राकृतिक एवं मानवजनित कारणों से भारी विपरीत प्रभाव पड़ा है। नेपाल की ओर से वनों  के कट जाने के कारण भारतीय क्षेत्र में स्थित प्रमुख जैवविविधता से परिपूर्ण  क्षेत्रों में जलप्लावन के साथ मिट्टी एवं बालू आदि की गाद (सिल्टिंग) जमा होने की समस्या बढ़ी है। पिछले आधा दशक से नेपाल से सटे भारतीय क्षेत्रों में बाढ़ की विनाशलीला का कहर लगातार जारी है। इसके परिणाम में सीमावर्ती वनक्षेत्रों का हरा-भरा जंगल सूख गया है साथ ही जंगल के अंदर भी घास के मैदानों पर भी इसका भारी कुप्रभाव पड़ा है। इससे चारा की पैदा हुई विकट परिस्थियों के कारण वनस्पति आहारी वन्यजीव जंगल के बाहर आने को विबश हैं, इनके पीछे बाघों के बाहर आने लगे हैं, वन्यपशु फसलों का खासा नुकसान पहुंचाते हैं। जिससे अब जंगल के सीमावर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में वन्यजीव और मानव के बीच संघर्ष का नया अध्याय शुरू हो गया है। जबकि मानवजनित कारणों से आबादी का दबाव जंगलों पर लगातार बढ़ रहा है और साथ ही वनों की सुरक्षा भी प्रभावित हुई है।

यह भी सर्वविदित है कि नेपाल, चीन, कोरिया, ताईवान आदि कई देश वंयजीव-जंतु उत्पाद के प्रमुख व्यवसायिक केंद्र हैं। जिसमें भारी मात्रा में ऊँचे दामों पर वंयजीव उत्पादों की खरीद-फरोख्त होती है। जिनके लिये कच्चा माल हिमालय एवं हिमालय की तराई में बसे जैव-विविधता क्षेत्रों में उलब्ध है। ये राष्ट्र वंयजीव एवं उससे निर्मित सामग्री का आयात-निर्यात करने वाले देषों की भूमिका अदा करते हैं। इन्ही क्षेत्रों में सारा सामान विश्व बाजार में प्रवेश करता है। जहां प्रतिवर्ष 2-5 बिलियन अमेरिकी डालर का व्यापार होता है। वयंजीवों के अंगो का यह अवैध कारोबार नारकोटिक्स के बाद दूसरे नम्बर पर आता है। यह भी जगजाहिर हो चुका है कि वन्यजीवों के अंगों की तस्करी के अवैध कारोबार का चीन सबसे बड़ा खुला बाजार है। जहां वंयजीवों के अंगों के उत्पादों की खरीद-फरोख्त और बिक्री खुलेआम होती है।

इस स्थिति की गंभीरता का अनुमान नेपाल सरकार ने पहले ही समझ लिया था। शायद इसी का परिणाम है कि नेपाल सरकार ने अपने प्रमुख राष्ट्रीय उद्यानों के वंयजीवों की सुरक्षा का दायित्व नेपाल आर्मी को सौंप दिया था। इसका परिणाम यह निकला कि नेपाली सैनिकांे के दबाव के कारण वंयजीव तस्कर भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मलेशिया जैसे देशों में सक्रिय हो गए। हाल ही में यहां पकड़े गए वंयजीव अंगो के तस्कर भी अपने बयानों में स्वीकार कर चुके हैं कि नेपाल के प्रमुख बाजारों में निर्बाध वंयजीवों के उत्पादों की तस्करी जारी है तथा नेपाल में एकत्र होने के बाद वंयजीवों के अंग तिब्बत, चीन, कोरिया पहुंचकर ऊँचे दामों पर बिकते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है अपनी वनसंपदा एवं वयंजीवों की सुरक्षा के लिये नेपाल सरकार ने यथोचित प्रबंध कर रखा है लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय तस्करी के मार्गो पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है।

नेपाल द्वारा ‘सरपट वन कटान नीति’ के अन्तर्गत बृहद पैमाने पर किए गए वन कटान का भारतीय क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से क्या प्रभाव पड़ा अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं किया गया है। इतना ही नहीं उपरोक्त नीति के कारण भारतीय वन क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रतिप्रभाव को निष्प्रभावी करने के लिये भी कोई नीति भारत सरकार द्वारा नहीं अपनाई गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस गंभीर स्थिति का मूल्यांकन किए बगैर इसे राज्यों के ऊपर छोड़ दिया गया है। यदि पूर्व में पश्चिम बंगाल से पश्चिमम में उत्तराखंड तक फैले महानंदा वंयजीव बिहार, मानस वंयजीव बिहार, बुक्सा टाइगर रिजर्व, बाल्मीकी टाइगर रिजर्व, सोहागीबरवा वन्यजीव प्रभाग, सुहेलदेव वंयजीव प्रभाग, कतर्नियाघाट वन्यजीव प्रभाग, दुधवा टाइगर रिजर्व, किशनपुर वंयजीव बिहार, पीलीभीत का लग्गा-भग्गा वनक्षेत्र और उत्तराखंड के जंगलों की स्थिति को देखा जाए तो ज्ञात होता है कि भारतीय सीमा की ओर नियंत्रण एवं संरक्षण की यथोचित व्यवस्था है, परंतु नेपाल की तरफ इन क्षेत्रों में पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को न्यूनतम स्तर पर ले जाने के लिये वनकर्मी अपने को असहज महसूस करते हैं।

भारतीय वनों पर लगातार नेपाली नागरिकों का दबाब बढ़ता जा रहा है। जिससे वंयजीवों का अवैध शिकार हो अथवा पेड़ों को काटना हो, इसमें नेपाल नागरिक जरा भी कोताही नहीं बरतते हैं। स्थानीय स्तर के प्रंबध को यदि नजरन्दाज कर दिया जाए तो छत्तीस वर्ष बाद भी हमारे देश की वननीति में उपरोक्त कुप्रभावों को समाप्त करने के लिये अभी तक न तो कोई मूल्याकंन किया गया है और न ही नई वननीति तैयार की गई है, तथा भविष्य में भी ऐसी कोई आशा दिखाई नही पड़ती है। परंतु बदलते परिवेश में अब यह आवश्यक हो गया है कि हिमालय एवं हिमालय की तराई में नेपाल राष्ट्र की सीमा पर भारतीय क्षेत्र में बसे जैव-विविधता क्षेत्रों की सुरक्षा हेतु एक व्यवहारिक ठोस ‘वननीति‘ बनाई जाए, अन्यथा की स्थिति में भारतीय वनों पर नेपाल की तरफ से पड़ रहे दुष्प्रभावों के भविष्य में और भी घातक परिणाम निकल सकते हैं, इस बात से भी कतई इंकार नही किया जा सकता है।

25 January 2014

क्या मतदान अनिवार्य किया जाय ?

आज देश भर में राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाया जा रहा है। कहीं पर कार्यक्रम की तैयारियां हो रही है, तो कहीं पर रंगीन मतदाता पहचानपत्र बांटे जा रहे हैं। मगर इनसब से इतर सवाल कई है। सवाल ये है कि रंगारंग कार्यक्रम और रंगीन कार्ड बांटने से क्या हम लोकतंत्र की उस शक्ति को हासिल कर सकते हैं जिसका मुख्य अधार पूर्ण मतदान में ही समाहीत है ?

हम भारत के नागरिक उच्चारण के साथ शुरू होने वाला संविधान का अध्याय आजके बदलते राजनीतिक स्वरूप में अब बेमानी लगने लगा है। सवाल भी खड़ा होता है कि क्योंन इस देश में अनिवार्य मतदान करने की कानून लागू किया जाय?

आज वोट देने की परंपरा जाति, धर्म की बेडि़यों में जकड़ी हुई है। ऐसे में आज हम सब को ये सपथ लेना होगा कि अपने देश की लोकतांत्रिक परंपराओं की मर्यादा को बनाए रखेंगे तथा स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं शांतिपूर्ण निर्वाचन की गरिमा को अक्षुण्ण रखते हुए निर्भीक होकर धर्म, वर्ग, जाति, समुदाय, भाषा अथवा अन्य किसी भी प्रलोभन से प्रभावित हुए बिना सभी निर्वाचनों में अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे।

गुजरात में स्थानीय निकायों और पंचायत संस्थाओं में मतदान अनिवार्य करने संबंधी विधेयक गुजरात विधान सभा पहले हीं पारित कर चुका है। गुजरात देश में इस तरह का विधेयक पारित करने वाला पहला राज्य बन गया है। ऐसे में आज देश की संसद को भी अनिवार्य मदतादान करने संबंधि कानून बनाने कि जरूरत है। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने मतदान को अनिवार्य किए जाने की पैरवी पहले हीं कर चुके हैं।

आज देश में एक प्रत्याशी अपने निर्वाचन क्षेत्र में डाले गए कुल मतों के मात्र 25 फीसदी मत पाकर जीत हासिल कर लेता है। जबकि जीतने वाला उमीवार 75 फिसदी जनता के उमीदों के विपरीत कार्य करने के लिय योग्य होजाता है। तो ऐसे सवाल ये है कि क्या आज हम लोकतांत्रिक व्यवस्था का पूर्ण रूप से सहभागी बन पाये हैं?

किसी भी देश के लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब शत-प्रतिशत मतदान से जनप्रतिनिधि चुने जाएं। पंजाब और जम्मू-कश्मीर में यह आकड़ा 20 प्रतिशत तक भी रहा है। आज दुनिया के 32 लोकतांत्रिक देशों में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू है।

 अनिवार्य मतदान से देश के अंदर मतदाताओं के किसी एक समुदाय को लामबंद करने के लिए जाति या संप्रदाय का कार्ड खेलने से भी बचाया जा सकता है। आज देश में 18 से 25 वर्ष की उम्र के मतदाताओं में से 70 फीसदी ने अपने आप को मतदाता सूचियों में नाम दर्ज ही नहीं करवाया जाये हैं। ऐसे में हम एक स्वच्छ लोकतंत्र की कल्पना कैसे कर सकते हैं। तो फिर सवाल खड़ा होता है कि क्या मतदान अनिवार्य किया जाय?

क्या नेताजी सुभाशचंद्र बोस को हम भूल गये हैं ?

देश के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’  का उद्घोष कर देशवासियो में मातृभूमि को स्वतंत्र कराने का प्रबल जज्बा पैदा करने वाले महान राष्ट्र नेता सुभाषचंद्र बोस को आज के हमारे राजनेताओं को फुर्सत नहीं है। मौका था 23 जनवरी का यानी कि राष्ट्र के महान सपूत का जन्म दिवस। मगर इस मौके पर जिस प्रकार से हमारे माननीय सांसदों ने अपनी बेरूखी दिखाई उससे साफ जाहीर होता है कि अब उन्हें कोई याद नहीं करना चाहता है।

सरकारी कैलेंडर में जन्म दिवस का उल्लेख होने के कारण खानापूर्ति के नाम पर मात्र औपचारिकता ही निभाई। लोकतंत्र के मंदिर कहेजाने वाला संसद भवन परिसर में इसे मनाने की जहमत तो जरूर उठाई गई, मगर वर्तमान लोकसभा और राज्य सभा के 775 संसद सदस्यों में से केवल एक बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी उपस्थित हुए। संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित इस समारोह में आडवाणी के अलावा तीन पूर्व सांसद भी इस अवसर पर मौजूद थे।

ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या हम वाकई नेताजी को भूल गये हैं? या फिर हमारी सरकार और माननीय जानबूझकर इसे नज़र अंदाज कर रहे है? या फिर आज के राजनैतिक दौर में राजनेताओं को सुभाशचंद्र बोस भी संप्रदायिक दिखने लगे हैं? सवाल कई है जिसे लेकर आज हरकोई जानना चाहता है। नेता और सांसदों को तो आपने देखलिया मगर इसमौके पर देश के अधिकारी भी इनसे कम नहीं है। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों में से भी कोई भी इस मौके पर नहीं आया। परंपरा के अनुसार आम तौर पर संसद भवन के ऐसे कार्यक्रमों की अगुवाई पीठासीन अधिकारियों की अगुवाई में होती है।

यूपीए सरकार ने एक साल में भारत के जानेमाने व्यक्तित्वों के जन्म दिवस की सुभकामना देने और श्रधांजलि अर्पित करने के नाम पर पीछले साल विज्ञापनों में करीब 200 करोड़ रुपया खर्च किया। मगर यहां गौर करने वाली बात यह कि इसमें से एक रुपया भी नेताजी ने नाम पर खर्च नहीं किया गया। आजादी हासिल करने से करीबन 3 साल पहले भारत की जमीन पर भारत का झंडा बुलंद करने का श्रेय नेताजी की इंडियन नैशलन आर्मी को दिया जाता है। यही कारण है कि कुछदिन पहले नेताजी को देष के पहले कमांडर इन चीफ का दर्जा देने की मांग उठी थी। मगर सरकार ने नेताजी को देश के पहले कमांडर इन चीफ का दर्जा देने से इनकार दिया। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या नेताजी सुभाशचंद्र बोस को हम भूल गये हैं?

सड़क से सियासत तक !

आशा है तुम जहाँ कहीं भी होगी सफ़र में होगी । आज तुम्हारी बहुत याद आ रही है। तुम कब से मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हो मगर कभी तुमसे बात नहीं की । पता है लोग तुमसे नफ़रत करने लगे हैं । नफ़रत करने वाले वे लोग नहीं हैं जो सड़क पर रहते हैं बल्कि वे लोग हैं जो कभी कभार सड़क पर उतरते हैं मगर कितनी बार कोई उतरे उसे लेकर भ्रमित और क्रोधित हैं ।

धूमिल की एक कविता की किताब का नाम ही है संसद से सड़क तक। दो चार दिनों से अख़बारों और टीवी में कई बयान आ रहे हैं जिनमें सड़क को ग़ैर वाजिब और ग़ैर लोकतांत्रिक जगह के रूप में बताया जा रहा है । लोगों को आपत्ति है कि कोई बार बार सड़क पर उतर आता है। सरकार सड़क पर आ गई है। तुम जानती ही होगी कि सड़क पर आने का एक मतलब यह भी होता है कि किसी का घर बार सब चला गया है। वो बेघर और बेकार हो गया है। कई अंग्रेज़ी अख़बारों में तुम्हें स्ट्रीट लिखा जा रहा है। इस भाव से कि स्ट्रीट होना किसी जाति या वर्ग व्यवस्था में सबसे नीचले और अपमानित पायदान पर होना है। क्या राजनीति में भी सड़क पर आना हमेशा से ऐसा ही रहा है या आजकल हो रहा है।

सड़क, तुम्हें याद है न कि इससे पहले तुम्हारे सीने पर कितने नेता कितने दल और कितने आंदोलन उतरते रहे हैं। ख़ुद को पहले से ज़्यादा लोकतांत्रिक होने के लिए दफ़्तर घर छोड़ सड़क पर आते रहे हैं। सड़क पर उतरना ही एक बेहतर व्यवस्था के लिए व्यवस्था से बाहर आना होता है ताकि एक नये यात्री की नई ऊर्जा के साथ लौटा जा सके। सड़क तुम न होती तो क्या ये व्यवस्था निरंकुश न हो गई होती। पिछले दो दिनों में सड़क पर आने का मक़सद और हासिल के लिए तुम्हें ख़त नहीं लिख रहा हूँ। यह एक अलग विषय है। जो राजनीतिक दल अपनी क़िस्मत का हर फ़ैसला बेहतर करने के लिए सड़क पर उतरते रहे वही कह रहे हैं कि हर फ़ैसला सड़क पर नहीं हो सकता। क्या सड़क ने कभी सरकार नहीं चलाई। महँगाई के विरोध में रेल रोक देने या ट्रैफ़िक जाम कर देने से कब महँगाई कम हुई है। हर वक्त इस देश में कहीं न कहीं कोई तुम्हारा सहारा लेकर राजनीति चमकाता रहता है। तुम तो यह सब देखती ही आ रही हो।

प्यारी सड़क, तुम्हें कमतर बताने वाले ये कौन लोग हैं। उनकी ज़ात क्या है। कौन हैं जिन्हें किसी के बार बार सड़क पर उतर आने को लेकर तकलीफ़ हो रही है। क्या वे कभी सड़क पर नहीं उतरे। लेकिन सड़क पर उतरना अमर्यादित कब से हो गया। कब से ग़ैर लोकतांत्रिक हो गया। सत्ता की हर राजनीति का रास्ता सड़क से ही जाता है। तो फिर कोई सड़क पर रहता है तो उसमें तुम्हारा क्या दोष। रहने वाले का क्या दोष। दोष तो उसकी सोच में निकाला जाना चाहिए न। तुम्हें लोग क्यों अनादरित कर रहे हैं। तुम तो जानती ही होगी कि कितने नेता तुम पर उतरे और पानी के फ़व्वारे से भीग कर नेता बन गये। संघर्ष कहाँ होता है कोई बताता ही नहीं। संघर्ष कमरे में होता है या सड़क पर। क्या तुम पर उतरना उस विराट का नाटकीय या वास्तविक साक्षात्कार नहीं है जिसकी कल्पना में नेता सोने की कुर्सी देखते हैं।

प्यारी सड़क समझ नहीं आता लोग तुमसे क्या चाहते हैं। तुमसे क्यों किसी को घिन आ रही है। तुमने तो किसी को रोका नहीं उतरने से फिर ये बौखलाहट क्यों। तुम तो अपने रास्ते चलने वाली हो लेकिन कोई तुम पर आकर भटक गया तो इसमें तुम्हारा क्या क़सूर। तुमसे लोगों को क्यों नफ़रत हो रही है ख़ासकर उन लोगों को जो सड़क पर उतरना नहीं चाहते या नहीं जानते । तुम इन तमाम मूर्खों को माफ़ कर देना। कोई नेता मिले तो कहना यार बहुत हो गया कुर्सी कमरा अब ज़रा सड़क पर तो उतरो। सड़क पर उतरना सीखना होता है। सड़क पर उतरना नकारा होना नहीं होता है।

कश्मीर की भाषा पर सियासत !

जम्मू कश्मीर में इन दिनों एक अलग तरह का विरोध दिखाई दे रहा है। यह विरोध है अपनी भाषा की उपेक्षा का विरोध। बिल्कुल अंग्रेजियत अंदाज में जम्मू कश्मीर सरकार इन दिनों राशनकार्ड का फार्म भरवा रही है। फार्म स्थानीय कश्मीर की भाषाओं में न होकर अंग्रेजी में हैं। जिसे लेकर जम्मू कश्मीर राज्य के अलग अलग हिस्सों में मांग उठ रही है कि राशनकार्ड का फार्म उनकी भाषा में होना चाहिए। मसलन जम्मू संभाग में यह डोगरी में, लद्दाख में भोटी में, कारगिल में बल्ती में और कश्मीर संभाग में कश्मीरी भाषा में प्रकाशित किया जाना चाहिये। लेकिन हुर्रियत कान्फ्रेंस का वह धड़ा जिसकी अगुवाई सैयद अली शाह गिलानी करते हैं, शायद कश्मीरियों द्वारा कश्मीरी भाषा को लेकर दिखाये जा रहे इस भावनात्मक लगाव को बर्दाश्त नहीं कर पाये हैं और अपनी भाषा से मोहब्बत को नापाक करार दे दिया है। 

पिछले दिनों ख़ुद गिलानी ने बाक़ायदा अख़बारों को एक बयान जारी कर अपनी और उनकी जैसी सोच रखने वाले अपने दूसरे साथियों की कश्मीर विरोधी जहनियत का ख़ुलासा कर दिया है। गिलानी का कहना है कि राशन कार्ड के ये फ़ार्म उर्दू भाषा में प्रकाशित किये जाने चाहिये। उनका कहना है कि उर्दू एशिया के लोगों के लिये अरबी ज़ुबान के बाद सबसे ज़्यादा पवित्र ज़ुबान है। अब कोई गिलानी से पूछे कि मलेशिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, थाईलैंड और जापान इत्यादि देशों के मुसलमानों का उर्दू भाषा से क्या लेना देना है? सैयद साहिब का कहना है कि इस्लाम की पवित्र किताबों का तरजुमा उर्दू ज़ुबान में हो चुका है, इसलिये मुसलमानों की नज़र में यह ज़बान भी अब उनकी मज़हबी ज़ुबान का पाक दर्जा अख़्तियार कर गई है। अब इनको कौन समझाए कि वह तो दुनिया की हर ज़ुबान में हो चुका है। केवल तरजुमा होने मात्र से उर्दू मुसलमानों की मज़हबी ज़ुबान कैसे हो गई? गिलानी यह ज्ञान भी देते हैं कि उस पार के कश्मीर (यानि जो पाकिस्तान के क़ब्ज़े में है, लेकिन वे इसके लिये इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते। उनकी नज़र में इन शब्दों का प्रयोग नापाक है) के लोग भी उर्दू जानते हैं। लोगों को राशनकार्ड श्रीनगर, बारामुला, कुपवाडा ,शोपियां और अनन्तनाग में बनवाने हैं, लेकिन गिलानी साहिब उस पार के कश्मीरियों के भाषा ज्ञान पर तफसरा कर रहे हैं। वैसे गिलानी इतना तो जानते ही होंगे कि पाकिस्तान द्वारा क़ब्ज़ा किये गये उस पार के हिस्से में कोई कश्मीरी नहीं है, क्योंकि क़ब्ज़ा किया गया वह हिस्सा जम्मू का है जहाँ पंजाबी और डोगरी बोलने वाले लोग हैं या फिर मुज्जफराबाद है यहाँ केवल पंजाबी बोलने बाले लोग हैं। गिलगित और बाल्तीस्थान की अपनी अलग भाषा है, इसका पता भी गिलानी साहिब को इस उम्र तक आते आते पता चल ही गया होगा।

राशन कार्ड का आवेदन पत्र अंग्रेज़ी में नहीं होना चाहिये, इसको लेकर तो कोई बहस नहीं है, लेकिन कश्मीर घाटी में वह कश्मीरी भाषा में होना चाहिये, इसको कहते हुये सैयदों की ज़ुबान बन्द क्यों हो जाती है ? जो ज़ुबान कश्मीर का बच्चा बच्चा बोलता है, उसे ये सैयद पवित्र ज़ुबान मानने को तैयार क्यों नहीं हैं? जिस ज़ुबान में हब्बा खातून ने अपने दर्द का इज़हार किया, जिस में नुंद रिषी ने भाईचारे के गीत गाये , जिस में लल द्यद ने अपने वाखों की रचना की, ये सैयद उस ज़ुबान को मुक़द्दस मानने से मुनकिर क्यों हैं? आज कश्मीर की युवा पीढ़ी में अपनी ज़ुबान कौशुर को लेकर एक नई चेतना का इज़हार हो रहा है। पहचान के संकट के समय हर आदमी अपनी मादरी ज़ुबान में अपनी पहचान की तलाश करता है। कश्मीर विश्वविद्यालय में कश्मीरी ज़ुबान के पक्ष में माहौल है। इस भाषा में नये साहित्य की रचना ही नहीं हो रही बल्कि पाठकों की संख्या भी बढ़ रही है। कश्मीरी ज़ुबान में रोज़ाना अख़बार छप रहे हैं। कश्मीरी ज़ुबान को इतने लम्बे अरसे बाद एक बार फिर तमाम कश्मीरियों की ओर से बिना किसी मज़हबी नज़रिए से इज़्ज़त मिल रही है। चाहिये तो यह था कि हुर्रियत कान्फ्रेंस के नाम पर इक्कठे हुये ये बुज़ुर्ग लोग नौजवान पीढ़ी के इस आन्दोलन का खैरमकदम करते , लेकिन इसके उलट इन सैयदों ने कश्मीरी को दरकिनार करते हुये कश्मीर की वादियों में अरबी उर्दू के तराने गाने शुरु कर दिये हैं।

दरअसल कश्मीरियों की और सैयदों की यह जंग आज की नहीं कई सौ साल पुरानी है। यह एक प्रकार से उसी दिन शुरु हो गई थी जब शम्सुद्दीन शाहमीर ने कश्मीरी शासकों की हत्या कर इस प्रदेश पर क़ब्ज़ा कर लिया था। शाहमीर द्वारा स्थापित वह सुल्तान वंश कई सौ साल चला। उस काल में शासन की रीति नीति पर असल क़ब्ज़ा सैयदों का ही रहा, जिन्होंने कश्मीरियों पर बेहिसाब अत्याचार किये। यही कारण है कि कुछ इतिहासकार इस काल को विदेशी सैयद शासन काल भी कहते हैं। कश्मीरी भाषा को समाप्त कर उसके स्थान पर अरबी फ़ारसी थोपने के प्रयास तभी से शुरु हो गये थे। लेकिन क्योंकि कश्मीरी आम जनता की भाषा थी, उस जनता की भी जिसने इस्लाम मज़हब को तो चाहे अपना लिया था, लेकिन अपनी मातृ भाषा कश्मीरी को नहीं त्यागा था, इसलिये यह भाषा आज तक भी ज़िन्दा ही नहीं रही बल्कि साहित्य और बोलबाला की भाषा भी बनी रही। बहुत से लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जनगणना में दिये गये आँकड़ों के अनुसार कश्मीर संभाग में केवल 3830 लोगों ने उर्दू को अपनी भाषा स्वीकार किया। 28,06,441 कश्मीरियों ने कश्मीरी को अपनी भाषा बताया। यह भी सभी जानते हैं कश्मीरी को अपनी भाषा बताने वाले कश्मीरियों में से 95 प्रतिशत लोग मज़हब के लिहाज़ से मुसलमान ही हैं। लेकिन इसके बावजूद आज २०१४ में सैयद अली शाह गिलानी ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि कश्मीरी ज़ुबान के ख़िलाफ़ उनकी यह लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है। उर्दू और अरबी के नाम पर कश्मीरियों का मज़हबी जुनून उभारने की कोशिश कर , सैयद गिलानी कश्मीरी ज़ुबान को हाशिए पर धकेलने की पुरानी चालें चल रहे हैं, लेकिन आशा करनी चाहिये इस बार कश्मीरियों की सामूहिक चेतना के आगे वे यक़ीनन हार जायेंगे। हैरानी इस बात की है कि जम्मू कश्मीर रियासत के पाँचों संभागों में से किसी की भी भाषा उर्दू नहीं है।

जम्मू की डोगरी, कश्मीर की कश्मीरी, लद्दाख की भोटी, बाल्तीसतान की बल्ती और गिलगित की अपनी जनजाति भाषा है, लेकिन फिर भी राज्य के संविधान में उर्दू को राजभाषा का दर्जा दिया हुआ है। कश्मीर घाटी में कश्मीर के हितों के लिये लड़ने का दावा करने वाले, कश्मीरी भाषा को उसका उचित स्थान दिलवाने के प्रश्न पर रहस्यमय चुप्पी साध लेते हैं। नेशनल कान्फ्रेंस और पी डी पी बाक़ी हर प्रश्न पर लड़ते हैं लेकिन जब कश्मीरी भाषा को ठिकाने लगाने का प्रश्न आता है तो आगा सैयद रुहुल्लाह से लेकर सैयद मुफ़्ती मोहम्मद तक सभी सैयद शाह गिलानी के साथ खड़े दिखाई देते हैं। ध्यान रहे बाहरवीं शताब्दी के आसपास अरब और ईरान से आने वाले इन सैयदों की मातृभाषा अरबी या फ़ारसी थी। लेकिन इतनी शताब्दियाँ कश्मीर घाटी में गुज़ार देने के बाद भी ये कश्मीरी भाषा को अपनी नहीं मान सके। यदि ऐसा होता तो आज सैयद अली शाह गिलानी अपनी आवाज़ कश्मीरी भाषा के हक़ में उठाते न कि उर्दू के हक़ में। वैसे यह देखना भी रुचिकर रहेगा कि राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, जो ख़ुद कश्मीरी हैं, राशन कार्ड का आवेदन पत्र कश्मीरी भाषा में छपवा कर कश्मीरियों का साथ देते हैं या फिर उसे अंग्रेज़ी या उर्दू में ही रखकर परोक्ष रुप से इन सैयदों की ही सहायता करते हैं?

वोट फॉर मोदी के मायने !

अब बात साफ साफ है। सीधे सीधे। लोकतंत्र की दुहाई और आदर्श राष्ट्रवादी विचारधारा जैसी कोई बात नहीं है। पार्टी भी शायद किनारे कर दी गई है। बात सीधे सीधे जनता और मोदी के बीच है। दिल्ली के रामलीला मैदान से मोदी ने अपना रुख पूरी तरह बदल दिया है। अभी तक पार्टी के नाम पर मोदी वोट मांग रहे थे और मोदी के नाम पर पार्टी। लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। अब मोदी सीधे सीधे अपने नाम पर अपने लिए वोट मांग रहे हैं। उस दिन रामलीला मैदान में भी जब भाजपा की राष्ट्रीय परिषद में मोदी ने साठ साल बनाम साठ महीने की मांग की थी तब उनका हाथ अपने आप उनके सीने की तरफ चला गया था। उसी सीने की तरफ जो अब गोरखपुर पहुंचकर 56 इंच का हो चला है। 

बात साफ है। साठ महीने चाहिए। किसी और के लिए नहीं चाहिए। नरेन्द्र भाई मोदी को अपने लिए चाहिए। मोदी मॉडल पर देश के विकास के लिए चाहिए। वह विकास जिसमें सुख चैन और आराम के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है। नरेन्द्र मोदी के पास न सिर्फ विकास का कोई बेहतरीन फार्मूला है बल्कि उस फार्मूले पर काम करने का मजबूत माद्दा है। बीते कुछ महीनों से मोदी का प्रचारतंत्र विकास के उसी फार्मूले को दुनिया के सामने रख रहा है जिसे दस साल में मोदी गुजरात में लागू कर चुके हैं। उनका गुजरात देश का ही नहीं दुनिया का सबसे विकसित राज्य बन चुका है। अब वे देश को गुजरात बनाना चाहते हैं। इसलिए उन्हें सिर्फ साठ महीने चाहिए। सिर्फ पांच साल का सवाल है।

जनता को घेरने की बारी तो अब आ रही है। इससे पहले मोदी प्रचारतंत्र के इसी गिरोह ने मोदी की अगुवाई में भाजपा को घेरने का काम किया था। जिन दिनों भाजपा को घेरने के लिए मोदी गिरोह सोशल मीडिया पर सक्रिय हो रहा था उस वक्त एक प्रचार जमकर किया गया था। कमल निशान और मोदी की पहचान (उनका चेहरा) एक साथ जोड़कर सोशल मीडिया पर जमकर प्रचार करवाया गया था कि अगर बीजेपी को वोट चाहिए तो वह तत्काल "गुजरात के शेर'' को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करे। सोशल मीडिया पर भी उस वक्त अघोषित रूप से गुजरात के इस शेर को विकास पुरुष ही घोषित किया गया था। गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद जब यह प्रचार अभियान चलाया जा रहा था उस वक्त तक केन्द्र में गुजरात के शासन के नाम पर गुजरात की जनता से तीसरी पारी हासिल कर चुके थे। गुजरात की जनता से किया गया वादा किसी भी कीमत पर पूरा करना ही था। इसलिए मोदी गिरोह ने बहुत सुनियोजित तरीके से सोशल मीडिया और फिर मुख्यधारा की मीडिया के जरिए यह साबित करने में सफलता हासिल कर ली कि बीजेपी के भीतर अगर सबसे लोकप्रिय नेता कोई है तो वह सिर्फ नरेन्द्र भाई दामोदार दास मोदी हैं।

अब कौन सी ऐसी पार्टी होगी जो अपने सबसे लोकप्रिय नेता को सबसे आगे नहीं कर देगी? विभिन्न टीवी चैनलों के सर्वे, सोशल मीडिया के शोर में सब तरफ एक ही आवाज सुनाई दे रही थी कि नरेन्द्र मोदी ही बीजेपी के सबसे लोकप्रिय चेहरे हैं। और जब ऐसा हो चला था तब चेहरे को मोहरा बनाने में क्या हर्ज था? चेहरे ने चाल चली और बीजेपी का मोहरा बन गया।

जिन दिनों नरेन्द्र मोदी और उनका प्रचार तंत्र यह स्थापित कर रहा था कि वे ही बीजेपी के सबसे लोकप्रिय चेहरे हैं उन दिनों बीजेपी लोकसभा चुनावों को लेकर बिल्कुल भी तैयार नहीं दिख रही थी। कांग्रेस के घोटालों पर संसद के भीतर लड़ने के लिए आमादा बीजेपी के लीडर्स यह भांप ही नहीं पा रहे थे कि 2014 की तैयारी का समय आ गया है। यह काम नरेन्द्र मोदी ने कर रखा था। और जैसे ही नरेन्द्र मोदी को बीजेपी ने पीएम इन वेटिंग घोषित किया मोदी का वह प्रचारतंत्र सक्रिय हो गया जिसका नेतृत्व अमित शाह कर रहे हैं। उसी प्रचारतंत्र ने मोदी को हिन्दुत्व के मुद्दे से अलग होने की रणनीति अख्तियार की और उनको बतौर विकास पुरुष स्थापित करने की योजना बनाई। हो सकता है इस योजना का अहम हिस्सा यही रहा हो जिस हिस्से पर अब नरेन्द्र मोदी बोलते हुए दिखाई दे रहे हैं। रामलीला मैदान में अपने भाषण के बाद अब गोरखपुर में नरेन्द्र मोदी ने बीजेपी के लिए वोट मांगने की बजाय खुद अपने लिए वोट मांगना शुरू कर दिया है। यह बहुत सूक्ष्म बदलाव है लेकिन है बहुत अहम।

इसलिए मुलायम सिंह यादव को अगर नरेन्द्र मोदी यह समझाते हैं कि गुजरात होने का मतलब क्या होता है तो मुलायम के बहाने ही वे पूरे देश को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि मोदी होने का मतलब क्या होता है? मोदी होने का मतलब होता है चौबीसों घण्टे बिजली। दिन रात बिजली। गांव गांव बिजली। और फिर ऊपर से ताना यह कि नेताजी आप यूपी को गुजरात नहीं बना सकते क्योंकि इसके लिए तो छप्पन इंच का सीना लगता है। मोदी ने मुलायम को याद दिलाया कि कैसे बीते दस सालों में गुजरात सुख चैन का जीवन जी रहा है और शांति, एकता सद्भावना लेकर आगे बढ़ रहा है। अन्य विपक्षी दलों का नरेन्द्र मोदी पर जो सबसे बड़ा आरोप है वह यही है कि अगर नरेन्द्र मोदी देश के शीर्ष पर पहुंचते हैं तो वे देश को गुजरात बना देंगे। विपक्षी दल या फिर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब यह कहते हैं तो उनका सीधा सा मतलब गुजरात के उस नरसंहार से होता है जिसके बूते नरेन्द्र मोदी ने गुजरात पर अपनी पकड़ मजबूत की थी।

नरेन्द्र मोदी गुजरात होने का मतलब न समझते हों, ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन जानते हुए भी उन्हें एकसाथ दो काम करने हैं। पहला, जिस गुजरात को दूसरे दल उन्हें याद दिलाना चाहते हैं उस गुजरात का नाम जुबान पर लाये बिना उस ब्रांड गुजरात को पेश कर देना है जो इतना विकसित है कि वहां आने के लिए इंद्रदेव भी तरसते हैं। गुजरात कभी बहुत पिछड़ा राज्य तो रहा नहीं है। बिजली, उद्योग और प्रशासनिक सक्रियता के नाम पर गुजरात मोदी के आने से पहले ही शिखर पर विराजमान राज्यों में मौजूद था। नब्बे के दशक के आखिर तक औद्योगिक विकास के मामले में महाराष्ट्र और गुजरात दो ही राज्यों का नाम आता था। इसलिए दस सालों में नरेन्द्र मोदी ने कोई बहुत तीर मार दिया हो ऐसा नहीं है, हां जो किया है वह यह कि औद्योगिक राज्य में बड़े पूंजीपतियों की बड़ी परियोजनाओं को बड़ी संख्या में बढ़ावा दिया है जिसके कारण बड़ी पूंजी का शोर गुजरात से सुनाई देता है। हालांकि यह सब करते हुए उनकी महत्कांक्षी वाइब्रंट गुजरात परियोजना फ्लाप शो ही साबित हुई और पर्यावरण की खराब दशा तथा कुपोषित बच्चों की कालिख मिटाये नहीं मिट रही है। लेकिन मोदी का प्रचारतंत्र इतना सशक्त है कि उन्होंने वह प्रचार हासिल कर लिया जो ब्रांड गुजरात के साथ साथ ब्रांड मोदी को स्थापित कर सकता है। और वही हो रहा है।

यहां यह सवाल बेमानी है कि अब बीजेपी कहां है? उसके बाकी नेताओं की क्या भूमिका है? भाजपा की वैचारिक विरासत का क्या होगा? जिस हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर मोदी ने संघ समर्थन हासिल किया था, उस हिन्दू राष्ट्रवाद का क्या होगा? उन्हीं के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने किसी एकात्म मानववाद की कोई विचारधारा सामने रखी थी, जो कि जनसंघ के बाद भाजपा के लिए आर्थिक दिशानिर्देश का काम करती रही है। वे दीनदयाल और उनकी विचारधारा कहां चली गयी? दूसरों को छोड़िये कोई संघ, बीजेपीवाला भी इस वक्त इन सवालों पर सन्नाटे में है। गोरखपुर के मंच से जब बीजेपी नेता कलराज मिश्र को भी अगर दीनदयाल का एकमात्म मानवाद नहीं बल्कि मोदी का विकसित गुजरात दिखाई देता है इस पार्टी तंत्र के वैचारिक दिवालियेपन पर किसी मोदी का भारी पड़ जाना असहज और अस्वाभाविक नहीं रह जाता है। भाजपा के पास अब जो कुछ है, नरेन्द्र मोदी है। गुजरात है। इसलिए अगर लोग मोदी को वोट देते हैं, तो बदले में मोदी लोगों को 'गुजरात' देंगे। लेकिन कौन सा 'गुजरात'? वह गुजरात जिसे विपक्षी पार्टियां 'मोदी का गुजरात' कहती हैं या फिर वह जिसे मोदी और उनका प्रचारतंत्र 'मेरा गुजरात' बताता है?

23 January 2014

एक था मुजफ्फरनगर !

पिछले महीनों में उन्होंने अपने घर छोड़े, गांव छोड़ा और अपनी पुस्तैनी जमीनों से ज़िंदगी का नाता भी छूट गया. हर रोज उनके लिए मुश्किलें हैं, शहर की, सरकार की, मौसम की, बाज़ार की. इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है कि साम्प्रदायिक दंगों के बाद किसी शहर की सूरत में कोई बदलाव आता है? शायद वक्त के साथ लोगों के चेहरों से खौफ थोड़ा उतर जाता है. शायद वह खौफ कहीं बहुत भीतर गुजर जाता है. कहना यह भी मुश्किल है कि चार महीने पहले हुए मुजफ्फर नगर दंगे के वक्त स्टेशन के बाहर टंगी यह बड़ी वाली होर्डिंग थी या नहीं. जो फिलहाल नई-नई सी दिख रही है और जिस पर लिखा है- हर-हर मोदी, घर-घर मोदी. 

बहुत कम समय में यह भी कहना मुश्किल है कि होर्डिंग पर लिखा यह सिर्फ तुकबंदी है या हर घर में मोदी को पैदा किए जाने की कवायद. हर शहर अपनी छोटी-छोटी चीजों के जरिए सवाल पैदा करता है और अपने छोटे-छोटे प्रतीकों में जवाब देता है. शहरों के मोड़ पर लगी होर्डिंगें शहर की कलाई पर बधी घड़ियां होती हैं जो शहर की संस्कृति और राजनीति के मिजाज का समय बताती हैं. ऐसा क्यों होता है कि जिन शहरों में दंगे होते हैं वहां मोदी की होर्डिंग का कद बढ़ जाता है. ऐसा क्यों होता है कि ऑटो के स्टीयरिंग पर चिपका किसी मस्जिद का फोटो उधड़ जाता है. हमशक्ल दिखते लोगों के बीच वह कौन सा संतुलन है जो कुछ दिनों के भीतर इतना बिगड़ जाता है कि वे अपने पड़ोसी का कत्ल कर देते हैं. हाजिरा खातून जिन पडोसियों के घर रोटियां खाती थी वे इतने उन्मादी कैसे हो गए कि खा़तून को अपना गांव खेड़ी छोड़ना पड़ गया. इन सवालों के जवाब संसद के दरवाजे खोलकर आते हैं. जहां देश का हर नागरिक, धर्म और जाति में बांटकर वोट बन जाता है. जो संसद जाने की तैयारी में जुटी पार्टियों के लिए एक ‘ओट’ का काम करता है.

पिछले चार महीने से मुजफ्फर नगर, दंगे होने और दंगे गुजर जाने के बाद का शहर बना हुआ है. दंगाईयों के उन्माद कुछ दिनों के थे अब उन्माद के बाद का भय है, असुरक्षा है और कहीं पनाह न मिल पाने की बेबसी और एकजुट रहने का साहस है. दंगे में पीड़ित ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग अपना गांव छोड़कर कई किलोमीटर दूर चले आए हैं. उनके घर छूट चुके हैं, जानवर भी छूट चुके हैं. कई लोगों से बात करते हुए ऐसा लगा कि वे खुद को भी छोड़ आए हैं, उनके साथ बस एक मुसलमान चला आया है. शिविरों में मौलवियों का भाषण जिसे और मजबूत बना रहा है. उनके बच्चे, उनका परिवार है और उन सबके साथ उनके गांवों का भुगता हुआ का डर है. किन्हीं सड़क के किनारे उन्होंने झुग्गियां बना ली हैं. कई-कई गांव एक साथ हो गए हैं. हजार झुग्गियों वाले गांव, जिसने आसमान और जमीन के बीच लाल-नीली पालीथीन से खुद को ढक लिया है. एक साथ और एकजुट होना शायद उनके भय को थोड़ा कम करता है. हिन्दू उन्मादियों जो मुजफ्फर नगर की स्थानीयता में जाट हैं, उनसे खुद को उन्होंने बचा लिया है. सरकारों के लिए उनका जीवन-मौत, भय-आक्रोश, उजड़ना-बसना २०१४ के चुनाव में किन्हीं तारीखों का सवाल है. सभी पार्टियां इस सवाल को ठीक ढंग से हल कर लेना चाहती है.            

अलग-अलग पार्टियों के काफिले यहां घूम रहे हैं. सब यहां रोटियां सेंकना चाहते हैं और राहत शिविरों के लोग अपने चूल्हे पर रोटी छोड़कर यह देखने के लिए जुट रहे हैं कि बात-बेबात से रोटियां कैसे सेंकी जाती हैं. थोड़ी देर बाद भूख उन्हें फिर से उनकी झुग्गियों की तरफ लेकर चली जाती है. इस बीच मौत की संभावनाएं और बढ़ती गई है. कई बच्चों को निमोनिया ने जकड़ रखा है. इन मौतों को ठीक-ठीक सरकार के द्वारा की गई हत्या नहीं कहा जाता क्योंकि ऐसी हत्याएं ईश्वर की मंजूरी के बिनाह पर होती हैं. जबकि इतनी सारी हत्याओं के बाद ईश्वर को भी हत्यारा कहना मुमकिन नहीं. वोट की राजनैतिक विद्रूपताओं ने पिछले कुछ वषों में प्राकृतिक आपदाओं और मौसमों के बदलाओं को अपने सियासती संभावनाओं में तब्दील करने की प्रवृत्ति अपनाई है. साम्प्रदायिक दंगे में हुई हत्याओं से उपजी जन असुरक्षा, सरकारों और पार्टियों के लिए राजनैतिक रूप से सुरक्षा और सुविधा मुहैया कराती है. यह अखबारों के लिए ख़बर, गैर-सरकारी संगठनों के लिए ‘समाज-सेवा’, राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं के लिए जन ‘पक्षधर’ होने का समय है. वे सब व्यस्त हैं और एक मामूली हो चुकी सड़क की अहमियत बढ़ गई है. कई सफेद गाड़ियां उन पर घूम रही हैं. 
  
४ जनवरी वह आखिरी तारीख थी जब मुजफ्फर नगर के दंगा पीड़ितों को अपने कैम्प खाली कर देने का आदेश सरकार ने दिया था. एक कैम्प की कुछ झुग्गियां उठकर सांझक के कब्रिस्तान में जा चुकी हैं. यह अखबार की खबर है जिसने सरकार की भाषा में लोगों के शिविरों में बसने पर आपत्ति सी दर्ज की है. अमर उजाला अहमियत देते हुए अपनी पहली ख़बर में शिइर में बसे पीड़ित लोगों फटकार रहा है. उसका ऐसा मानना है कि मुख्यमंत्री यह तय करेगा कि राज्य में कौन कहां रहे, कहां न रहे, जिए या मर जाए. जनता ने उसे पांच साल के लिए यह अधिकार दे रखा है. झुग्गियों में बसने की बेबसी को दुसाहस की तरह दर्ज किया गया है. मौत और हत्याओं के पहले कब्रिस्तान में बसना एक प्रतीक सरीखे है. जैसे दफ्न होने से पहले अपनी कब्र का मुआयना कर लेना, जैसे कब्र में जाने की पूरी तैयारी खुद करना, जैसे दंगे में बचकर सरकारी आदेश से मर जाना. कई कैम्प के लोगों ने कैम्प छोड़ने से मना कर दिया है. लगातार पुलिस की गाड़ियां आकर झुग्गियां हटाने का दबाव बना रही हैं. प्रदेश का मुख्यमंत्री झुग्गियों में बसे लोगों को भाजपा और कांग्रेस के लोग कह रहा है. क्योंकि सरकार ने दंगे में हुई हत्याओं के मुआवजे दे दिए हैं. पर हत्याओं और मौतों की संभावनाओं से उपजे व्यापक भय का कोई मुआवजा किसी सरकार के पास नही है. किन्ही और हत्याओं के बाद सरकार फिर से उनकी मौत के मुआवजे दे सकती है. सरकारों का यही चलन है वह जिंदा लोगों के लिए कुछ नहीं करती. मुआवजे देकर वह लोगों के लाशों की कीमत अदा कर देती है. अलग-अलग हत्याओं में मारे गए लाशों की दरें तय कर दी जाती हैं. जो दो लाख से पांच लाख तक हो सकती है.

मलकपुर कैम्प दंगा पीड़ितों का सबसे बड़ा कैम्प है. कुल छः वार्डों का कैम्प और हजार से ज्यादा झुग्गियों वाला कैम्प. दोनों किनारों पर अस्थाई रूप से दो मस्जिदें भी बनाई जा चुकी हैं. इसलिए अस्थाई रूप से अल्लाह को भी यहां रहने की मजबूरी सी है और उसकी गवाही में ३२ लोगों की मौतें इस ठंड में यहां हो चुकी हैं. लोगों की जिंदगियां बचाने में जैसे वह असफल सा रहा हो. बोराखुर्द, कैथल, सिसोली अलग-अलग गांवों के लोग अब पड़ोसी हो चुके हैं. ये सब के सब पीड़ित हैं और सब के सब मुस्लिम समुदाय के लोग हैं. यह कहते हुए मोदी, आडवानी और भाजपा के नेताओं का वह वाक्य याद आता है जिसे आतंकवाद और मुस्लिम के लिए वे अक्सर अपनी जन सभाओं में दुहराते रहते हैं. जिस समुदाय के आतंक में ये मुसलमान, झुग्गियों में रहने पर विवश हैं वे सब के सब हिन्दू हैं और शायद हिन्दू होने का उन्हें गर्व भी है. कैम्प छोड़ने के सरकारी आदेश पर बाते करते हुए अयूब, यासीन और सादिक खुद को अलाव से गर्म कर रहे हैं. कुछ झुग्गियों में चाय बन रही है और कुछ चूल्हों पर रोटियां सेंकी जा रही है. इन अस्थाई कैम्पों से जो बच्चे पढ़ने के लिए बगल के स्कूलों में जाते थे वे आज नहीं गए हैं. नजदीकी कस्बे में जो कुछ लोग मजदूरी के लिए जाते थे उनका काम आज बंद है. सरकार के आदेश को न मानने के लिए एक साथ और एकजुट रहना जरूरी है. सरकार उन्हें उनके घर लौटने का दबाव बना रही है. अनवर बताते हैं कि दंगे के कुछ दिन बाद उनका भाई काशिम घर के हालात देखने के लिए गांव की तरफ गया और दो महीने से नहीं लौटा. फिलहाल अनवर अपने भाई के न लौटने की आशंकाओं से घिरे हैं पर पड़ोसी उनकी आशंका को यकीन की तरह मान रहे हैं. उन्हें यकीन है कि अब वह कभी नहीं लौटेगा. यह उनकी असुरक्षा के प्रमाण हैं और यही वजहे हैं कि वे अपने गांव नहीं लौटना चाहते. कैम्पों में रहना मुश्किल है, अस्थायी जिंदगियां बसर करना दुरूह भी पर यह सब जीवन बच जाने के बाद की बातें हैं.

शम्सुद्दीन, मलकपुर कैम्प के पांच नम्बर वार्ड में रहते हैं. वे कहते हैं कि वे सभी वार्डों में रहते हैं, वे घूमते रहते हैं और अपनी स्थितियों के साथ शिविर के और परिवारों का जायज़ा लेते रहते हैं. वे नज़्म लिखते हैं और शिविर के बच्चों को नजदीक के मदरसे में भेजने के लिए कहते हैं. एक अस्थायी जिंदगी में यह स्थायीत्व सा प्रयास है. वे हमे स्थानीय और उर्दू भाषा में मिश्रित अपनी लिखी एक नज्म सुनाते हैं. जिसके मायने हैं कि लफंगे, चौधरी हो गए हैं. चुनाव और वोट की राजनीति गुंडों का त्योहार बन गई है. जब इनका काम निकल जाता है तो नेता अपनी नज़र घुमा लेते हैं और ओड़ी-सोड़ी बात करते हैं. शमसुद्दीन कहते हैं कि हमे कोई सरकार नहीं बचाएगी. जब हमे कैम्पों से हटा दिया जाएगा तो हर जगह ऊपर आसमान है और नीचे जमीन हम इसी के बीच कहीं ठहर जाएंगे. यह एक बड़ा दायरा है और इसके बीच ठहरना नाउम्मीदी की हद तक गुजर जाने की बयानी है. कैम्प से कुछ लोग आज आसपास के गांवों की तरफ गए हैं. ताकि समर्थन जुटाया जा सके. ताकि कैम्प हटाने से बचाया जा सके. ज्यादातर महिलाएं चूल्हे पर कुछ न कुछ पका रही हैं, जैसे वे पकाती आई हैं. थोड़ी आग और थोड़ा धुआं हर झुग्गी पर दिख रहा है. 

नूरपुर खुरगान कैम्प में राहुल गांधी के बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए हैं. किसी दिन की गुनगुनी धूप में यहां आकर राहुल गांधी ने अपना ‘फर्ज अदा’ कर दिया है. बच्चों को कपड़े बांटे गए हैं जिस पर ‘कांग्रेस’ लिखा हुआ है. इसी ‘कांग्रेस’ को पहनकर वे दिनभर झुग्गियों और सड़कों पर घूमते हैं. बच्चों के लिए यह ठंड से बचने की मजबूरी है और उनकी पीठ कांग्रेस के प्रचार के लिए जरूरी है. २०१४ के गर्मियों तक सभी पार्टियों को इस तरह के पीठ की जरूरत है. भाजपा कुछ पीठों को नंगा करती है और कुछ पार्टियां उसे ढक देती हैं. इस तरह से नंगा करने वाला भाजपा का और नंगा होने वाला ढंकने वाले का हो जाता है. साइस्ता इस कैम्प के पहले छोर पर रहती है, वे बागपत के तिलवाड़ा गांव से हैं. वे मानती हैं कि सब गड़बड़ हैं, कांग्रेस थोड़ी ठीक है. उसने ही हमारी थोड़ी मदद की है. उनके पति मोहसिन पेंटर का काम करते थे. पिछले तीन महीने से वे इसी कैम्प में रह रही हैं. यहां से उनके नातेदारों के घर नजदीक हैं. गांव में कुल दस घर मुस्लिमों के थे. दंगे के भय से सब चले आए. सब के सब अब नूरपुर कैम्प की झुग्गियों में रह रहे हैं. वे गांव जाने के बजाय यहां मरने को बेहतर मानती हैं. वे कहती हैं कि यहां अपने लोग हैं. कम से कम मरने के बाद वे दफन तो कर देंगे. कम से कम हमारी इज्जत तो बची रहेगी. उनके पड़ोस की झुग्गी डूंगर गांव मुजफ्फर नगर की है.

 दंगे के वक्त जब रात में वे लोग भागे तो अपने साथ एक बूढ़े को न ला सके. बाद में उन्हें पता चला कि मेरू नाम के उस बूढ़े को फासी लटकाकर मार दिया गया. दंगाई उनके जानवर अपने घर लेकर चले गए. इन सबके पास गांव में जमीने नहीं थी. जितना बड़ा इनका घर था उतनी ही बड़ी कुल जमीन थी. पर वह जमीन इन झुग्गियों से बड़ी थी और स्थाई भी. मौत और हत्याओं के भय से अपने घर को फिर से पाने की उम्मीद उन्होंने छोड़ दी है. ज़ाकिर कहते हैं कि आने वाले चुनावों के चलते यह सब और ज्यादा बढ़ सकता है. वे बेहद गरीब लोग है, बहुत कम पढ़े-लिखे, मुसलमानों की स्थिति के लिए बरसों पहले बनाई गई सच्चर कमेटी की फाइलों में दर्ज ये वे लोग हैं जिनके हालात पिछले कई सालों से सरकारें सुधारने का वायदा कर रही थी और कर रही हैं. अपने जीवन के अनुभवों से उन्होंने चुनाव, हिंसा और भय को पढ़ लिया है. इस बार ये समाजवादी पार्टी से नाराज है और कांग्रेस को ठीक मान रहे हैं, इसके पहले नाराज हुए थे तो बहुजन समाज पार्टी की तरफ गए थे. वे अपनी हालातों और प्रायोजित दुर्घटनाओं के चलते पार्टियां बदल देते हैं पर इस सब के बीच जो स्थायी बचा रह जाता है वह है उनके हालात.

इसके अगले पड़ाव में कुछ ही दूरी पर एक मदरसा है. जिसके बगल में बनाए गए कैम्प को मदरसा कैम्प कहा जाता है. यह पिछले कैम्पों से छोटा है. शाहीन, फातिमा, ज़ोया ये बच्चियां है जिनकी ठंड और बीमारी से मौत हो चुकी है. इसके अलावा भी और कई बच्चे मर चुके हैं. जुवैदा और अनवरी खा़तून सरकारी आदेश से क्रोधित हैं. वे कहती हैं कि इस मौसम में कैम्पों में रहना हमारी चाहत नही है, यह हमारी मजबूरी है. यहां हम सब एक साथ हैं. अगर सरकार ने हमे यहां से भी हटाया तो हम कहां जाएंगे पर उनमे निराशा या हताशा के भाव नहीं हैं. वे एक मोटा सा डंडा उठाती हैं और कहती हैं कि हमने तय कर लिया है कि अगर हमे हटाया गया तो हम कहीं नहीं जाएंगे. हम सरकार को मार देंगे या मर जाएंगे. मर्दों से यह न होगा, हम ही लड़ेंगे उनसे, हम यहीं पर रहेंगे.

22 January 2014

क्या सुनंदा की 'सौतन' ने लेली जान !

कभी एक टीवी शो पर बात करते हुए केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर ने थरूर की मौजूदगी में कहा था कि "इनका ट्विटर मेरी सौतन है।" जिस वक्त सुनंदा ने यह बात कही थी, यह कहते वक्त उन्हें भी अंदाज नहीं रहा होगा कि सोशल मीडिया की यही 'सौतन' एक दिन उनके जान की दुश्मन बन जाएगी। शुक्रवार की दोपहर बाद दिल्ली के पॉश इलाके चाणक्यपुरी के होटल लीला के कमरा नंबर 345 में सुनंदा की जान कैसे चली गई, यह तो अब विधिवत जांच पड़ताल के बाद ही पता चलेगा लेकिन शुरूआती तौर पर मनोचिकित्सक मान रहे हैं, भावनात्मक उद्वेग के गहरे आवेग ने उनकी जान ले ली। उनके ऊपर भावनात्मक उद्वेग का यह गहरा आवेग उसी ट्विटर के रास्ते आया था जिसे कभी उन्होंने अपनी सौतन कहा था। 

इसी हफ्ते पहली बार ट्विटर पर ही यह बात सबके सामने आई कि शशि थरूर की पत्नी सुनंदा थरूर ने अपने ही पति का ट्विटर एकाउण्ट हैक करके उल्टा सीधा बहुत कुछ लिख दिया था। यह सब इसलिए क्योंकि उन्हें लग रहा था कि उनके और उनके पति के बीच कोई तीसरा आ रहा है। यह तीसरा कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान की एक अधेड़ पत्रकार मेहर तरार हैं जो कि लाहौर में रहती हैं। सुनंदा और शशि के बीच यह मेहर तरार भी ट्विटर के रास्ते ही उनकी दुनिया में दाखिल हुई थीं।

बात बिगड़ी, ट्विटरबाजी हुई, सुनंदा और मेहर दोनों ने मोर्चा संभाला और शशि पर अपना अपना दावा किया लेकिन जिस तरह से पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सुनंदा के शरीर पर नीले घाव के निशान बताये जा रहे हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं सुनंदा को लग रहा था कि प्यार के इस त्रिकोण में वे बाजी हार रही थीं। तो क्या शशि थरूर और सुनंदा के बीच हल्की झड़प, हाथापाई या मारपीट भी हुई थी? लगता तो है। क्योंकि अब तक टीवी मीडिया ने जितनी जांच पड़ताल की है उसमें इतना तो साफ हो गया है कि गुरूवार को सुंनदा ने अकेले ही होटल लीला में प्रवेश किया था। शशि थरूर बाद में कब आये पता नहीं। शुक्रवार की शाम कांग्रेस कार्यसमिति से खाली होकर शाम आठ से सवा आठ बजे के बीच जब थरूर होटल पहुंचे थे, तब उन्हें सुनंदा जीवित हाथ नहीं आई थीं।

होटल के कमरे से लेकर एम्स के पोस्टमार्टम रूम तक जो बातें उभरकर सामने आ रही हैं उससे हत्या जैसी बात तो कोरी बकवास के अलावा कुछ नहीं हो सकता। सवाल सिर्फ इतना हो सकता है कि आखिर सुनंदा की जान गई कैसे? क्या वे यह मान बैठी थीं कि अब शशि से उनका भावनात्मक संबंध खत्म हो जाएगा और उन्होंने आत्महत्या कर ली या फिर इस हारती बाजी का इतना गहरा सदमा उन्हें लगा कि सोते सोते ही वे इस दुनिया को अलविदा कह गईं? क्या सुनंदा पुष्कर का वह पुराना रोग फिर से उभर आया था जिसके कारण उन्होंने लोगों से बातचीत तक करना बंद कर दिया था? दूसरे पति सुजीत मेनन की मौत के बाद सुनंदा पुष्कर ने करीब तेरह साल अकेले रहते हुए बिताए थे। 2009 में शशि थरूर से दुबई में मुलाकात के पहले उनकी वीरान जिन्दगी कम्युनिकेशन डिसाआर्डर का शिकार हो चुकी थी।

सुनंदा पुष्कर की जिन्दगी एक नारी के संघर्ष की ऐसी कहानी है जो अपने दम पर दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहती है। मूलत: जमींदार कश्मीरी पंडित के परिवार में पैदा हुई सुनंदा पुष्कर भी उसी तरह यायावर हो गईं जैसे बाद के दिनों में अन्य कश्मीरी पंडित हुए। दिल्ली, दुबई और कनाडा में रहते हुए उन्होंने इवेन्ट मैनेजमेन्ट से लेकर विज्ञापन जगत तक सब जगह अपना भाग्य आजमाया। उनकी निजी जिन्दगी की त्रासद शुरूआत दिल्ली से होती है जब उनकी एक कश्मीरी पंडित संजय रैना से शादी हो जाती है। 1988 में दोनों अलग हो जाते हैं और सुनंदा अपनी आकांक्षाओं ओर अकेलेपन के साथ 1989 में दुबई चली जाती हैं। दुबई में वे दूसरी बार 1991 में केरल मूल के सतीश मेनन से शादी करती हैं और करीब छह साल साथ रहने के दौरान उन्हें एक बेटा भी होता है। दोनों मिलकर दुबई और भारत में इवेन्ट मैनेजमेन्ट का काम करते हैं लेकिन 1997 में दिल्ली में हुए एक सड़क हादसे में सतीश मेनन की मौत के बाद से सुनंदा की जिन्दगी फिर से वीरान हो जाती है।

करीब तेरह साल की वीरानी के बाद उसी दुबई में उनकी मुलाकात शशि थरूर से होती है जहां बीते साल मेहर तरार की थरूर से हुई मुलाकात के बाद दोनों के निजी जिन्दगी में हालात बहुत बदतर होते जाते हैं। 2009 में शशि थरूर से मुलाकात के साथ ही पहली बार सुनंदा पुष्कर भारत में चर्चित होती हैं। शशि थरूर तब तक भारत के लिए अपरिचित नाम नहीं रह गये थे और दोनों ही ऐसे खुले माहौल में जीवन जी रहे थे जहां प्यार समाज के डर से छिपाने या दबाने जैसी कोई वस्तु नहीं हुआ करती है। भारत जैसे प्रेम दमित देश में सुनंदा और शशि जल्द ही चटखारे के विषयवस्तु हो गये जिसे रोकने के लिए दोनों ने 2010 में शादी कर ली। जब तक यह सब होता शशि थरूर का मंत्रिपद छिन चुका था। हालांकि जल्द ही उन्हें मंत्रिपद वापस मिल गया लेकिन शायद थोड़े ही दिनों बाद दोनों की जिन्दगी में मेहर तरार का प्रवेश हो जाता है।

सुनंदा की मौत के बाद भले ही मेहर आश्चर्य प्रकट कर रही हों और ट्विटर पर आंसू बहा रही हों लेकिन अगर मनोवैज्ञानिक सही हैं तो संभावना इसी बात की ज्यादा है सुनंदा भावनात्मक रूप से इतना टूट गई थीं अपनी सांसों को जोड़कर नहीं रख पाईं। इसलिए सुनंदा की मौत पर पुलिसिया खोजबीन से ज्यादा जरूरी है उस बात पर भी बहस हो जो भारत की सबसे बड़ी समस्या समझा जाता है। सुनंदा या शशि थरूर कोई नौजवान नहीं थे कि उनके प्रेम को नादान कहकर किनारे रख दिया जाता। दोनों वयस्क थे और अपनी अपनी जिन्दगी का अधिकांश हिस्सा जी चुके थे। फिर भी, शायद उनमें जिन्दगी के प्रति ऐसी जिन्दादिली थी कि अधेड़ उम्र में एक नया जीवन शुरू करने की पहल की। पचास साल की उम्र में बुढ़ाकर घर बैठ जानेवाले देश को भले ही इसमें चटखारे लेने की चरम संभावना दिखाई देती हो लेकिन ऐसी पहल के पीछे छिपी पीड़ा का इलाज भी जरूरी है।

 सामाजिक रूप से भी। और निजी तौर पर भी। शशि थरूर अपनी निजी जिन्दगी में सुनंदा को कब तक और कितना बचाकर रखेंगे यह तो उनके विवेक पर निर्भर करता है लेकिन भावनात्मक रिश्तों को मजाक न बनाने की दिशा में भारतीय समाज एक कदम भी आगे बढ़ता हैं तो शायद यही सुनंदा पुष्कर को भावभीनी विदाई होगी।

राजनैतिक परिवर्तन आज और कल !

दिल्ली के चुनाव परिणामों के पश्चात दिल्ली में एक नई राजनैतिक व्यवस्था का सूत्रपात हुआ, जिसका सीधा असर न केवल दिल्ली की गद्दी पर आसीन श्रीमती शीला दीक्षित के राजनैतिक भविष्य पर पड़ा बल्कि दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष श्री विजय गोयल जी, पूर्व अध्यक्ष श्री विजेंद्र गुप्ता जी और दिल्ली में भाजपा के घोषित मुख्यमंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन जी का खेल भी बुरी तरह से बिगड़ गया। कांग्रेस जहाँ एक ओर किनारे पर आ लगी वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी को भी अपनी राजनैतिक सोच और दिशा को पुनर्निर्धारित करने के लिए मंथन करने की आवश्यकता आन पड़ी। जो भारतीय जनता पार्टी केवल और केवल कांग्रेस को अपना परंपरागत प्रतिद्वंद्वी मानती आई है उस भारतीय जनता पार्टी के लिए एक नया प्रतिद्वंद्वी आम आदमी पार्टी के रूप में उसे चुनौती देता हुआ उसके समक्ष खड़ा है। यही नहीं कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त जो अन्य दल हैं उनकी स्थिति भी कमोबेस इसी प्रकार की है। आज आम आदमी पार्टी अन्य सभी राजनैतिक दलों के लिए विकट समस्या बन चुकी है। आम आदमी का चेहरा बने श्री अरविंद केजरीवाल जी और उनके विचार आज बड़ों-बड़ों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। कम से कम दिल्ली को राजनैतिक पार्टी के रूप में एक ऐसी सरकार मिली है जिसका दृष्टिकोण लीक से हट कर है परंतु केवल दृष्टिकोण को कायम करना और उसे सफल बनाना दोनों अलग-अलग कार्य हैं। 

दिल्ली में बनी सरकार को अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है इसलिए आम आदमी की सोच और उस सोच की सार्थकता की परीक्षा अभी होनी शेष है। दिल्ली की सफलता से आम आदमी की खुशी का ठिकाना नहीं है परंतु आम आदमी को यह भी याद रखना होगा कि अब वह आम आदमी नहीं रह गया है बल्कि अब आम से खास हो गया है। देश की जनता की उम्मीद ने उसे एकाएक खास व्यक्ति की, खास सरकार की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। अब स्वयं को आम आदमी कहने वाला यह उम्मीद बनाए हुए है कि अब वह व्यवस्था परिवर्तन करके अपने सारे कष्टों को दूर कर लेगा। दिल्ली सरकार के द्वारा हाल ही में दिल्ली सचिवालय के बाहर सड़क पर लगाया गया दिल्ली दरबार आम आदमी कि इसी उम्मीद का परिणाम है जिसके कारण दिल्ली के मुख्यमंत्री को दरबार बीच में छोड़कर जाना पड़ा। दिल्ली की इस खास जनता की आम आदमी की सरकार से बहुत-सी उम्मीद अभी शेष हैं जिन्हें पूरा करना दिल्ली के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के लिए एक चुनौती ही है। बिजली और पानी की समस्या के लिए भी दिल्ली आर्थिक सहायता लिए बिना स्थाई समाधान चाहती है। 

आर्थिक सहायता का दूरगामी परिणाम बहुत लाभदायक रहने वाला नहीं है। इसका कुप्रभाव दिल्ली को भुगतना ही पड़ेगा। इसलिए दिल्ली हर समस्या का निश्चित और स्थाई समाधान चाहती है और आम आदमी की सरकार की यह नैतिक ज़िम्मेदारी भी बनती हैं कि वह दिल्ली की समस्याओं का स्थाई और दूरगामी समाधान खोजे। अस्थाई समाधान किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता अपितु वह तो उस समस्या को भविष्य में और भी विकट रूप देने का कारण बनता है। आज देश और देश के आम आदमी की आर्थिक दुर्दशा इसी आर्थिक सहायता की प्रवृति और पद्धति का परिणाम है। आज आम आदमी पार्टी की सरकार के सामने सबसे पहली और सबसे बड़ी चुनौती है ठिठुरती दिल्ली में रैन बसेरों में रहने वाले लोगों की। दिल्ली का तापमान 4 से 7 डिग्री सेल्सियस के बीच बना हुआ है ऐसे में दिल्ली में रात गुजारने वाले लोगों के लिए बनाए गए रैन बसेरों की उपलब्धता और गुणवत्ता दोनों का ध्यान देने की आवश्यकता है साथ ही यह भी सोचने की आवश्यकता है कि दिल्ली में जहाँ चारों और चकाचौंध दिखाई देती है वहाँ रैन बसेरों की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? इन रैन बसेरों में रहने वाले लोग कौन हैं? क्या उनका अपना घर-द्वार नहीं है यदि नहीं तो वे दिल्ली के किस गाँव या क्षेत्र से हैं? इसकी पहचान करके उन्हें स्थायी तौर से आवास उपलब्ध करने की व्यवस्था भी दिल्ली सरकार को अब करनी है। लोग बड़ी उम्मीद लगाए बैठे हैं।

 दिल्ली का एक बेहद खास तबका भी है जिसकी और कभी किसी का ध्यान नहीं जाता और वह तबका है मध्यम वर्गीय किरायदारों का तबका। जो दिल्ली में रोजी-रोटी के लिए आते हैं पर न तो झोपड़ पट्टी में रह पाते हैं और न ही वे अपना खुद का मकान दिल्ली जैसे महंगे शहर में बना पाते हैं कईयों की तो पूरी ज़िंदगी ही दिल्ली में किराए पर रहते बीत गई। अब मकान बनाना उनके लिए केवल एक सपना ही रह गया है। दिल्ली सरकार के द्वारा दी गई बिजली और पानी की छूट का लाभ भी इन लोगों को मिलने वाला नहीं है क्योंकि किराएदारी के कारण दिल्ली सरकार द्वारा दी जाने वाली छूट का लाभ मकान मालिक ले जाएगा केवल वहीं किरायेदार को इसका लाभ होगा जहाँ मकान मालिक स्वयं नहीं रहता है या केवल इकलौता परिवार एक मकान में किराए पर रहता है। दिल्ली सरकार को इस और भी ध्यान देने की जरूरत है और बहुत अधिक जरूरत है क्योंकि दिल्ली की आर्थिक संवृद्धि में इन लोगों का हिस्सा बहुत बड़ा है और बहुत महत्त्व का है। अन्य दलों ने अभी तक इन लोगों की ओर कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया! अनधिकृत कालोनियों में रहने वालों को भी दिल्ली सरकार से बहुत सी उम्मीद हैं। दिल्ली का राजनैतिक परिवर्तन न केवल राजनैतिक पार्टियों के लिए खास है बल्कि परिवर्तन का कारण बनने वाली आम आदमी पार्टी के लिए भी यह परिवर्तन विशेष महत्त्व रखता है।

 सरकार का कहना है कि आम आदमी की जरूरतें बहुत छोटी-छोटी होती हैं और यह बात है भी सच, इसीलिए आम आदमी अपनी इन मूलभूत और अति आवश्यक छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करना चाहता है जिसकी खातिर आम आदमी पार्टी को दिल्ली की गद्दी सौंपी गई है। आम आदमी पार्टी के सभी कार्यकर्ता स्वयं में आम आदमी होने का गौरव रखते हैं चाहे वे कितने ही खास क्यों न हों! फिर भी दिल्ली उन्हें आम आदमी के रूप में ही पहचानती है। दिल्ली का यह परिवर्तन यों ही नहीं हो गया! दिल्ली को आम आदमी पार्टी ने जो सुहाने सपने दिखाये थे दिल्ली उन सपनों को पूरा होते देखना चाहती हैं और वह भी बहुत जल्द। इसीलिए जनता दरबार बेहाल हो गया। दिल्ली की तर्ज पर ही अन्य राज्यों में भी लोगों की उम्मीदें जागी हैं। वे भी सस्ती बिजली और मुफ्त पानी तथा अन्य सुविधाओं को पाने की खातिर लालायित हो गए हैं और दिल्ली की इन सुविधाओं को ध्यान में रखकर ही वे आने वाले चुनावों में मतदान करेंगे। सभी पार्टियों को इस बात को जरूर मद्देनजर रखना चाहिए। दिल्ली का राजनैतिक परिवर्तन केवल दिल्ली में परिवर्तन नहीं कर रहा है अपितु दिल्ली के इस राजनैतिक परिवर्तन से देश में परिवर्तन का एक नया दौर शुरू होने वाला हैं। परंपरागत राजनैतिक व्यवस्था पूरी तरह से परिवर्तित होने की दिशा में अग्रसर हो रही है। 

2014 के चुनावों में इसका असर स्पष्ट रूप से दिखाई देगा ही यह बताने की आवश्यकता ही नहीं रह गई है। केंद्र में परिवर्तन भी अब विशेष महत्त्व रखता है। प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में अब एक नाम और जुड़ गया है और वह नाम होगा आम आदमी पार्टी से संसदीय दल के नेता का। अब समीकरण एक अलग दिशा ले रहे हैं। दिल्ली विधान सभा के विश्वास मत के अवसर पर श्री अरविंदर सिंह लवली जी ने जो चुटकी ले थी शायद वह सच हो जाए और श्री नरेंद्र मोदी जी का प्रधानमंत्री बनने का सपना केवल सपना ही न रह जाए। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए भरसक प्रयास किए जाएंगे। उत्तर प्रदेश का समीकरण समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के बीच विभाजित मतदाता का समीकरण है। कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में कोई खास करिश्मा करने वाली नहीं हैं केवल परंपरागत सीटों पर इनकी जीत निश्चित है। राजनीति के क्षेत्र में नव निर्मित आम आदमी पार्टी अवश्य ही नए समीकरण बना सकती हैं। फिर भी नरेंद्र मोदी को रोकने कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन बनता नज़र आ रहा है। हाँ, इसमें आम आदमी पार्टी की भागीदारी भी गठबंधन को मजबूती प्रदान कर सकती है परंतु इन सब बातों का निर्णय चुनाव परिणाम आने के बाद ही स्पष्ट होगा। 

इसी प्रकार बिहार में भी कांग्रेस, लालू प्रसाद, पासवान और नितीश कुमार के बीच गठबंधन के आसार हैं। मध्य प्रदेश, ओड़ीशा, गोवा, झारखंड, आंध्रा और तेलंगाना क्षेत्र में कांग्रेस का गठबंधन बनने का आसार है ही। इस प्रकार कुल मिलाकर कांग्रेस और सहयोगी दल नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने में कामयाब हो सकते हैं। यदि कांग्रेस की ओर से प्रियंका गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया जाए तो इस पूरे खेल में एक बड़ा मोड़ आ सकता है। फिर भी आम आदमी पार्टी इस बार नि:सन्देह एक बड़ी भूमिका पूरे प्रकरण में अवश्य ही निभाएगी। इसलिए आम आदमी पार्टी और इस पार्टी के कार्यकर्ता अब आम नहीं रह गए हैं। इन्हीं सब कारणों से बड़े-बड़े नाम आम आदमी पार्टी के साथ अपना नाम जोड़ने को तैयार हो गए हैं। परंतु हमें इन सब बातों से परे वास्तविक आम आदमी के विषय में सोचना है कि इन सब परिवर्तनों से उसे क्या लाभ होने वाला है? हमें यह भी सोचना है कि इस नई राजनीति और व्यवस्था परिवर्तन से किसे और कितना लाभ मिलने वाला है। इस नई राजनैतिक नई व्यवस्था का औचित्य क्या होगा? 

क्या व्यवस्था परिवर्तन वास्तव में आम आदमी को नई दिशा प्रदान कर सकेगा या फिर केवल परिवर्तन मात्र रह जाएगा? देश के लोगों का कहना है कि आम आदमी की नई परिभाषा गढ़ने वाले दिल्ली के मुख्य सेवक नई व्यवस्था लाकर आम आदमी का कितना भला कर पाएंगे! श्री केजरीवाल जी और उनकी टीम के पास तब तक का ही समय है जब तक चुनाव आयोग की ओर से चुनाव की घोषणा जारी नहीं हो जाती। अधिसूचना जारी हो जाने के उपरांत केजरीवाल जी कोई विशेष कार्य नहीं कर पाएंगे इसीलिए समय रहते दिल्ली में समस्याओं का उचित निवारण अनिवार्य है। दिल्ली में किए गए कामों के आधार पर ही देश आम आदमी पार्टी का मूल्यांकन करेगा। परीक्षा जितनी कांग्रेस और भाजपा की है उससे कहीं ज्यादा आम आदमी पार्टी की हैं। यह और बात है कि इनके पास खोने को कुछ नहीं पाने को पूरा आकाश है। अब लोग देखना चाहते हैं कि है आम आदमी, आम आदमी पार्टी, आम आदमी की सोच और नई व्यवस्था परम्परागत राजनीति से कितनी हट कर हैं तभी इस परिवर्तन के औचित्य कि सार्थकता आम आदमी को समझ आ सकेगी।

"आप" भी वैसे हीं है ?

ददा सिर्फ भ्रष्टाचार नहीं था, मुददा सिर्फ महंगाई भी नहीं थी, मुददा वंशवाद और नेताओं का शाही अंदाज़ भी नहीं था, मुददा सिर्फ बढ़ते अपराध भी नहीं थे। असल मुददा था राजनीति में सुचिता और पारदर्शिता का। असल मुददा था जनता को लोकतंत्र का आभास कराने का, तभी दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को विधान सभा चुनाव में अप्रत्याशित समर्थन दिया। हर दिन रोटी की जंग लड़ने वाले के साथ-साथ मध्यम और उच्च वर्ग के अधिकाँश लोगों को यह विश्वास था कि आम आदमी पार्टी शासन-प्रशासन को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण राजनैतिक वातावरण को बदल देगी, लेकिन सब कुछ वैसा ही हो रहा है, कुछ नहीं बदला। वही आरोप-प्रत्यारोप सामने हैं, जो पिछले 66 सालों से जनता देखती और सुनती आ रही है। आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार को बने अभी उंगुलियों पर गिनने लायक ही दिन गुजरे हैं। वास्तव में सरकार और पार्टी शिशु अवस्था में ही है, लेकिन बुजुर्ग दलों से उसकी तुलना की जाये, तो वह शिशु अवस्था में भी बुजुर्ग दलों से कम विवादित नज़र नहीं आ रही। 
दिल्ली के लक्ष्मीनगर क्षेत्र से आम आदमी पार्टी के विधायक विनोद कुमार बिन्नी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल पर जनता को गुमराह करने का आरोप लगा रहे हैं। वह अरविंद केजरीवाल को घमंडी, तानाशाह और धोखेबाज बता रहे हैं। वह विधानसभा चुनाव और अब लोकसभा चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर भी आरोप लगा रहे है। वह पार्टी के संयोजक व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर संबंधों के चलते पूर्वी दिल्ली के कांग्रेस सांसद संदीप दीक्षित के दबाव में निर्णय लेने के आरोप लगा रहे हैं। लोकतंत्र की बात करने वाली पार्टी पर बिन्नी यह भी आरोप लगा रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल के अलावा उनके बचपन के दोस्त संजय सिंह, कुमार विश्वास और  मनीष सिसोदिया ही पार्टी को चला रहे हैं। बिन्नी के तमाम आरोपों को पार्टी के प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने खारिज कर दिया है। बिन्नी के आरोपों को जनता भी महत्वाकांक्षा से जोड़ कर देख सकती है, लेकिन बात सिर्फ  बिन्नी के ही आरोपों तक सीमित नहीं है।

कुमार विश्वास को लेकर भी तमाम सवाल उठ रहे हैं और दिल्ली के साथ देश भर में पार्टी की फजीहत हो रही है। कुमार विश्वास स्टिंग ऑपरेशन में अपने शो के लिए कैश लेने, हवाई जहाज में बिजनेस क्लास का ही टिकट  मांगने के साथ फाइव स्टार होटल में ठहरने की मांग करते नजर आये, इसी तरह एक पुरानी वीडियो क्लिप में नरेंद्र मोदी की तुलना भगवान शिव से करने और एक अन्य वीडियो में इमाम हुसैन का मजाक उड़ाने को लेकर विवादों में हैं, जिसको लेकर सरकार को समर्थन दे रहे जदयू विधायक शोएब इकबाल समर्थन वापसी की धमकी दे चुके हैं। शोयब इकबाल सदन में अमर्यादित भाषा बोल चुके हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी उनसे लगातार  समर्थन ले रही है। बात कुमार विश्वास की ही करते हैं, उनकी इमाम हुसैन पर टिप्पणी को लेकर पिछले दिनों लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस के दौरान बवाल हुआ और उन्हें अंडा मारा गया। फजीहत का सिलसिला यही नहीं थमा,  अगले दिन उन्होंने अमेठी में भाषण देते समय जान कर खुद की जाति बताई, जिसको लेकर उनकी आलोचना की जा रही है, क्योंकि आम आदमी पार्टी तमाम तरह के वाद के साथ जातिवाद की राजनीति का विकल्प कहा  जा रहा है। इस सब पर सफाई देने से पहले कुमार विश्वास को लेकर एक और विवाद तब शुरू हो गया, जब हिंदी अकादमी के कवि सम्मेलन के कार्यक्रम के लिए निमंत्रण पत्र पर सानिध्य में उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर के नाम  की जगह उनका का नाम लिखा था। मतलब, उपाध्यक्ष की घोषणा होने से पहले उनका नाम निमन्त्रण पत्र पर आ गया, साथ ही इससे पद लोलुपता का भी संदेश साफ जा रहा है।

आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में से एक और सुप्रीम कोर्ट के चर्चित वकील प्रशांत भूषण कश्मीर में सेना की तैनाती और जनमत संग्रह कराने को लेकर दिए बयान से खुद के साथ पार्टी की भी फजीहत करा चुके हैं।  पार्टी में एक और वकील व दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती की भूमिका को भ्रष्टाचार के एक केस में सीबीआई जज आपत्तिजनक, अनैतिक और सुबूत के साथ छेड़खानी बता चुके हैं, जिससे पार्टी और सरकार की देश  भर में फजीहत हुई है। इसी तरह दिल्ली सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री राखी बिड्लान गाड़ी का शीशा बच्चे की गेंद लगने से टूटने पर एफआईआर करा कर खुद के साथ पार्टी और सरकार की फजीहत करा चुकी हैं। आम आदमी पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी के भाई राशिद इल्मी मां से मारपीट करने, संपत्ति पर कब्जे और परिवार को आर्थिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का आरोप लगा चुके हैं, साथ ही स्टिंग ऑपरेशन में उनके द्वारा अवैध रूप से धन लेने की बात सामने आई, जिससे पार्टी की फजीहत तो हुई, लेकिन चुनावी माहौल में लोग षड्यंत्र समझ कर इस आरोप को नज़र अंदाज़ कर गये।

दिल्ली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने जनकपुरी इलाके में एक प्राइवेट अस्पताल के बाहर कूड़े में नवजात का शव मिलने पर पत्रकारों से कहा था कि यह मामला निजी अस्पताल का है, इसलिए अस्पताल के मालिक  से जाकर पूछो, जिससे उन्होंने भी सरकार और पार्टी की खूब फजीहत कराई। वीआईपी कल्चर के विरुद्ध नारा देकर सत्ता में आई आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता और दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसौदिया ने सरकारी गाड़ी ही नहीं ली, बल्कि वीआईपी नंबर की बड़ी गाड़ी ली और मयूर फेज-टू में चार बेडरूम का सरकारी आवास भी लिया, जिससे पार्टी और सरकार की जमकर फजीहत हुई। यह सब पार्टी के वो चेहरे हैं, जो पहले दिन से जनता देख रही है और इन पर विश्वास पर पार्टी से जुड़ रही है, ऐसे में यही सब राजनीति को लगातार दूषित करने की दिशा में ही काम करते नज़र आ रहे हैं।

इन सब से अलग पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की बात की जाये, तो वे खुद अपनी किसी बात पर अब तक नहीं टिके हैं। चुनाव पूर्व उन्होंने स्पष्ट कहा था कि वह कभी कांग्रेस और भाजपा को न समर्थन देंगे और न  ही उनसे समर्थन लेंगे, लेकिन कांग्रेस के समर्थन से ही सरकार बनाये हुए हैं। जनता ने कहा या नहीं, यह सवाल ही नहीं है। सवाल यह है कि जनता से पूंछने की नौबत तब ही तो आई, जब सरकार बनाने या कांग्रेस से मिलने की मंशा थी, वरना दिल्ली की जनता सरकार बनाने को लेकर सड़कें जाम थोड़े ही कर रही थी। जनलोकपाल आन्दोलन को लेकर ही जिस पार्टी का उदय हुआ हो, उस पार्टी का नेता आज उस जनलोकपाल की बात तक करता नज़र नहीं आता, इसी तरह सरकारी बंगले में न रहने का वचन देने वाले अरविंद केजरीवाल और भी बड़ा शाही बंगला लेने को तैयार थे, जिसे देश भर में हुई आलोचना के बाद नहीं ले सके। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की व्यक्तिगत छवि और भी खराब थी। उस खराब छवि को बनाने में अरविंद केजरीवाल की बड़ी भूमिका रही, तभी वह खुद हार गईं, लेकिन सरकार में आने के बाद अरविंद केजरीवाल शीला दीक्षित  के प्रति नरम नज़र आ रहे हैं, जिसे अब सत्ता लोलुपता ही कहा जायेगा। वह दलों में लोकतंत्र की बात करते हैं, लेकिन बिन्नी ने आरोप लगा दिए, तो बदले में उनकी भी पार्टी आरोप लगा रही है, साथ में बिन्नी को नोटिस भी दे रही है, ऐसे में उनकी पार्टी में भी लोकतंत्र कहां है? उनकी प्रशंसा तो तब होती, जब वह खुद मीडिया के सामने आते और मुस्करा कर बिन्नी के एक-एक आरोप का जवाब देते। इसी तरह जनता ने अपने बीच के जिस व्यक्ति को नेता बनाया, वो अरविंद केजरीवाल जनसमस्याओं की सुनवाई के दौरान जनता से ही झल्ला गये और छत पर चढ़ कर खुद ही सिद्ध कर दिया कि वह ख़ास आदमी हैं, क्योंकि उस छत पर पीड़ित और गरीब जनता नहीं जा सकती।

आम आदमी पार्टी के नेताओं की भाषा और व्यवहार से हट कर बात की जाये, तो वह घोषणा पत्र के अनुरूप दिल्ली की जनता को अभी तक वास्तव में मुफ्त पानी नहीं दे पाये हैं। आम आदमी के लिए दूसरा सबसे ख़ास  मुददा बिजली था, लेकिन उनकी बनाई स्कीम से दिल्ली के आम आदमी का कोई ख़ास भला नहीं होने वाला। इसी तरह अपराध की बात करें, तो दिल्ली की स्थिति चुनाव पूर्व जैसी थी, वैसी ही आज है। दिल्ली बलात्कार कांड को भुनाने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार में अब विदेशी महिला के साथ बलात्कार हो रहा है। माफियाओं में भी कोई दहशत नहीं है, क्योंकि सरकार बनते ही शराब माफिया के लोग सिपाही की हत्या कर चुके हैं। कुल मिला कर जो राजनैतिक दल मौजूद थे और जैसी उनकी छवि थी, उनसे कहीं बदतर स्थिति तब है, जब आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार शिशु अवस्था में है।

खैर, देश और समाज की चिंता करने वाला वर्ग राजनीति की दिशा और दशा को लेकर बेहद चिंतित था। आम आदमी पार्टी का उदय होने से उस वर्ग के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी ही थी, जो आम आदमी पार्टी के नेताओं और उसकी सरकार के मंत्रियों के क्रिया-कलापों से फिर खो गई है। भ्रष्ट नेताओं के क्रिया-कलापों से 66 वर्षों में जितना नुकसान हुआ था, उससे कई गुना अधिक नुकसान आम आदमी पार्टी के नेताओं ने कर दिया  है, क्योंकि देश और समाज को लेकर चिंतित रहने वाले वर्ग के चेहरे पर अब आसानी से मुस्कान नहीं आयेगी।

21 January 2014

बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ हिंसा !

बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ नाइंसाफी और मजहबी हिंसा कोई नयी बात नहीं है। बांग्लादेश निर्माण के साथ ही हिन्दुओं के साथ यह दुर्भाग्य जुड़ गया था। 1971 के युद्ध में हिन्दुओं के बड़े नेता ज्योतिरमोय गुहा ठाकुरता, गोविन्द चन्द्र देब और धीरेन्द्र नाथ दत्ता की हत्या मजहबी मानसिकता से ग्रसित व पाकिस्तानी सेना के समर्थक संगठनों ने कर दी थी। तीसरी बार सत्ता संभाल रहीं बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हिन्दुओं पर हो रही हिंसा को रोकने के आदेश विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों को दिये हैं फिर भी हिन्दुओं पर बीएनपी और जमात ए इस्लामी के कार्यकर्ताओं के हमले बंद नहीं हुए हैं। पूरे बांग्लादेश में हिन्दुओं को निशाना बनाया गया है, सैकड़ों हिन्दुओं के घरों को आग के हवाले कर दिया गया है और उनकी सम्पत्तियां लूट ली गयी हैं। बांग्लादेश में उदारवादी और भारत समर्थक शेख हसीना की सरकार है जो अभी-अभी एकतरफा चुनावों में जीत हासिल की है और फिर से सरकार का कार्यकाल संभाल लिया है।

शेख हसीना की बीएनपी के नेता जिया और जमात ए इस्लामी पार्टी के साथ राजनीतिक टकराव चरम पर है। बीएनपी और जमता ए इस्लामी पार्टी यह मानती है कि बांग्लादेश की हिन्दू आबादी शेख हसीना की समर्थक है, जिसके कारण शेख हसीना को संसदीय चुनावों में जीत मिलती है। बांग्लादेश की बिगड़ती राजनीतिक स्थिति और उत्पन्न होती गृहयुद्ध जैसी स्थिति से भारत की चुनौतियां बढ़ जाती हैं। भारत को बांग्लादेश की लगातार बिगड़ती स्थिति, हिन्दुओं के कत्लेआम और सत्ता-विपक्ष के बीच राजनीतिक तकरार पर पैनी दृष्टि रखनी होगी और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के साथ मिलकर बांग्लादेश में राजनीतिक तकरार पर विराम लगाने के प्रयास करने होंगे, अगर भारत ऐसा करने में विफल रहा तो फिर बांग्लादेश में भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान की तरह असहज और ग्रास जैसी कूटनीति का सामना करना होगा।

बांग्लादेश के निर्माण में भारत की भूमिका सर्वविदित है, अगर भारत ने सैनिक हस्तक्षेप नहीं किया होता और मुक्ति वाहिणी को सैनिक, आर्थिक और राजनीतिक संरक्षण-सहायता नहीं की होती तो हम निश्चित तौर कह सकते हैं कि बांग्लादेश का निर्माण सं व ही नहीं होता? पाकिस्तान की सैनिक हिंसा का शिकार तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के लोग होते रहते और उनके राजनीतिक अधिकार वैसे ही कुचलते रहते जैसे कुचले जा रहे थे। पाकिस्तान के खिलाफ मुक्ति वाहिनी के झंडे तले हिन्दू-मुस्लिम बंगालियों ने साथ-साथ लड़ाई लड़ी थी, उस समय मजहबी आधार पर राजनीतिक-सामाजिक सोच जैसी कोई विखंडन भी नहीं था। मुक्ति वाहिनी के संस्थापक और तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या से पाकिस्तान को एक बार फिर बांग्लादेश में घुसपैठ और मजहबी आधार पर घृणा करने का अवसर मिला था। शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या में पाकिस्तान समर्थकों और मजहबी मानसिकता से ग्रसित संगठनों का प्रत्यक्ष हाथ था। बांग्लादेश पर मुक्ति वाहिणी के संघर्ष, पाकिस्तान विरोध की अस्मिता लगातार कमजोर पड़ी। इसका लाभ पाकिस्तान ने भारत विरोधी भावनाएं फैलाकर उठाया। पाकिस्तान ने बांग्लादेश में मजहबी आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी के बीच विखंडन की खतरनाक स्थितियां उत्पन्न करने में कामयाब हुआ, और आईएसआई के मजहबी आधार पर बुने हुए जाल बांग्लादेश की उदारता व अल्पसंख्यक अधिकार फंसते-कुचलते चलते गये। बांग्लादेश में जमात ए इस्लामी पार्टी सीधेतौर पर मजहबी शासन की पैरवीकार है।

बांग्लादेश में राजनीतिक रार कैसे समाप्त हो और अल्पसंख्यक हिन्दुओं की सुरक्षा कैसे संभव हो सके, यह एक बड़ी और अंतर्राष्ट्रीय चिंता की बात है। शेख हसीना की सरकार ने मजहबी हिंसा को जमींदोज करने के साथ ही साथ उदारवादी राजनीतिक प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाने के लिए जरूर कृतसंकल्प हैं। एक नहीं बल्कि कई वैसे मजहबी नेताओं को फांसी पर लटकाया जा चुका है जिन्होंने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान सैनिकों के साथ दिया था और अल्पसंख्यक हिन्दुओं के कत्लेआम के दोषी थे। शेख हसीना ने अपने पिता शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या में शामिल जमात ए इस्लामी के नेताओं को खोज-खोज कर निकाला और उन्हें कानूनी प्रक्रिया के तहत दोषी ठहरा कर फांसी पर लटकाया है। आतंकवादी मानसिकताओं को भी जमींदोज करने की कोशिश हुई है। शेख हसीना को इसमें पुलिस-सेना और न्यायापालिका का भी साथ मिला है।

सुखद स्थिति यह है कि बांग्लादेश का न्यायापालिका अभी भी न केवल उदार है बल्कि वह मजहबी रंग में नहीं रंगी है। मुस्लिम बहुलता वाले देशों में सरकार, पुलिस, सेना और न्यायपालिका भी मजहबी रंग में रंगी होती है, जिस कारण अल्पसंख्यकों के प्राकृतिक और नैतिक अधिकारों को संरक्षण नहीं मिल पाता है, इसका उदाहरण पाकिस्तान है, अरब देश हैं, जहां पर अल्पसंख्यक मजहबी हिंसा के लगातार-नियमित शिकार हैं और उनकी संख्या लगातार घट रही है। कभी बांग्लादेश की जिया सरकार ने भी बांग्लादेश को जमात ए इस्लामी के साथ मिलकर मजहबी कार्ड खेले थे और मजहबी खतरनाक हिंसा-मानसिकताओं को संरक्षण दिया था। बांग्लादेश भी पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरह आतंकवाद की फांस में कैद हो गया था। जिया सरकार के सत्ता से बाहर होना, बांग्लादेश के लिए वरदान साबित हुआ है। शेख हसीना ने बांग्लादेश को चरमपंथ से बाहर निकालने की जो कोशिश की है और बहादुरी दिखायी है, उसके लिए पूरी दुनिया उन्हें शाबासी देती है। खासकर भारत के लिए भी राहतकारी स्थिति बनी हुई है। बांग्लादेश की ओर से होने वाली आतंकवादी घटनाओं में एक हद तक रोकने में हमें कामयाबी मिली हुई है।

शेख हसीना साहसी हैं, दृढ़ संकल्पित भी हैं पर राजनीति टकराव को टालने में वह दूरदर्शी साबित नहीं हुई है और उन पर भी तानाशाही जैसी स्थितियां कायम करने के आरोप लगे हैं। लोकतंत्र में जय-पराजय का आधार जनादेश है। बांग्लादेश के संविधान में एक निष्पक्ष सरकार में संसदीय चुनाव कराने का प्रावधान था। शेख हसीना भी निष्पक्ष सरकार के अधीन हुए संसदीय चुनाव में जीत दर्ज की थी। सत्ता में आने के बाद शेख हसीना ने संविधान में संशोधन कर निष्पक्ष सरकार के अधीन संसदीय चुनाव कराने के प्रावधान को समाप्त कर दिया। इस प्रावधान को समाप्त करने का विरोध बीएनपी और जमात ए इस्लामी पार्टी ने किया था। शेख हसीना सरकार के पांच साल पूरे होने के बाद हुए संसदीय चुनाव का विपक्ष ने बहिष्कार कर दिया। विपक्षी पार्टी बीएनपी और उसके नेता जिया का कहना था कि जब तक निष्पक्ष सरकार के अधीन संसदीय चुनाव नहीं कराये जायेंगे तब तक वह संसदीय चुनाव में भाग नहीं लेंगी।

शेख हसीना की तमाम कोशिशें बेकार गयी। बीएनपी और जमात ए इस्लामी पार्टी अपनी मांगों पर अड़ी रहीं। बांग्लादेश में लंबी हड़तालें हुईं, हिंसा की लपटों ने कई जानें ले लीं। अतंराष्ट्रीय स्तर पर भी बांग्लादेश के इस राजनीतिक रार ने घ्यान खींचा। अमेरिका-यूरोप के पर्यवेक्षण में बांग्लादेश में संसदीय चुनाव हुए, जिसमें शेख हसीना को जीत मिली है, शेख हसीना को लग ग आधे संसदीय सीटों पर निर्विरोध जीत मिली है। जहां तक आम आदमी का सवाल है तो संसदीय चुनावों में उनकी दिलचस्पी बहुत ज्यादा नहीं रही है, वोटिंग प्रतिशत भी काफी कम रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में शेख हसीना भी यह दावा नहीं कर सकती कि उन्हें जनता का निर्णायक समर्थन हासिल है और उनके पक्ष में बांग्लादेश की जनता है। अमेरिकी-यूरोपीय कूटनीति भी यह चिंता जाहिर कर चुकी है कि बांग्लादेश के राजनीतिक टकराव को टाला जाना चाहिए और सत्ता व विपक्ष के बीच सर्वानुमति के आधार पर सरकार का गठन किया जाना चाहिए।

बीएनपी और जमात ए इस्लामी पार्टी को इस आधार पर हिन्दुओं के कत्लेआम या फिर हिन्दुओं की सम्पत्तियों के लूट का अधिकार नहीं मिल जाता कि हिन्दू सत्ताधारी आवामी लीग और शेख हसीना के समर्थक हैं। यह भी सही है कि शेख हसीना की सरकार के दौरान हिन्दू आबादी अपने आप को ज्यादा सुरक्षित और संरक्षित महसूस करती हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में अल्पसंख्यकों के प्राकृतिक-नैतिक अधिकार सुरक्षित और संरक्षित हैं। बांग्लादेश संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य है, इसलिए वह हिन्दुओं ही नहीं बल्कि अन्य सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और संवर्द्धन के लिए जिम्मेवार है। भारत और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति को हिन्दुओं की हत्या रोकने के लिए बीएनपी-जमात ए इस्लामी पार्टी पर दबाव बनाना चाहिए।

बिन्नी बिद्रोह और बग़ावत !

बात तब की है जब जंतर मंतर से राजनीतिक पार्टी लेकर उठे अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में जगह जगह बैठकें कर रहे थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई में तब विनोद कुमार बिन्नी ही उनके एकमात्र अनुभवी जमीनी 'सिपहसालार' होते थे। उनका अनुभव यह था कि वे 2006 से लगातार निगम पार्षद का चुनाव जीत रहे थे। जमुना पार के जिस दल्लुपुरा इलाके के वसुंधरा एन्क्लेव में वे रहते हैं उस इलाके में बतौर निगम पार्षद रहते हुए एक जबर्दस्त प्रयोग किया था। उनका यह प्रयोग तब अरविन्द केजरीवाल की नजर में बहुत क्रांतिकारी नजर आता था। वह प्रयोग था मोहल्ला सभा का। निर्दलीय और बसपा कांग्रेस में आते जाते रहते हुए भी बिन्नी ने इलाके में इसलिए लोकप्रिय थे क्योंकि वे मोहल्ला सभा को बहुत सफलता से लागू कर रहे थे।
बतौर राजनीतिज्ञ बिन्नी की मोहल्ला सभा में अधिकारी और जनता का मिलन करवाया जाता था। हर मोहल्ले की सभा में सभी संबंधित सरकारी कर्मचारी उपस्थित होते थे और लोगों की शिकायतें सुनते थे। तीन हफ्ते का समय दिया जाता। तीन हफ्ते बाद दोबारा वही अधिकारी और वही शिकायतकर्ता दोबारा से उसी मोहल्ले में इकट्ठा होते और काम काज का हिसाब किताब किया जाता। बिन्नी की यह छोटी सी पहल थी लेकिन इसके कारण उनके लिए इलाके में बड़ी लोकप्रियता मिल चुकी थी। बिन्नी की यही लोकप्रियता मनीष सिसौदिया और अरविन्द केजरीवाल को भी आकर्षित कर रही थी। इसलिए पार्टी बना लेने के बाद अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया ने बिन्नी को बतौर रोल मॉ़डल प्रस्तुत किया।

टिकट बंटवारे का समय आया तब तक बिन्नी आम पार्टी के लिए खास आदमी बन चुके थे। इसलिए इलाकेवार बैठकों में बिन्नी की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। लक्ष्मीनगर विधानसभा सीट के लिए जब नामों का निर्धारण होने लगा तब वहां से चुनाव लड़ने का पहला प्रस्ताव अरविन्द केजरीवाल को ही दिया गया था। उस वक्त बैठक में मौजूद एक आदमी गुमनाम रहने की शर्त पर बताते हैं कि ''लक्ष्मीनगर की सीट इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि यहां से कांग्रेस के एके वालिया चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस के भीतर वालिया की चाहे जो स्थिति रही हो लेकिन लक्ष्मी नगर इलाके में वे एक ईमानदार और काम करनेवाले नेता के तौर पर पहचाने जाते हैं। इसलिए उस वक्त होनेवाली बैठकों में प्रस्ताव आया था कि अरविन्द केजरीवाल को ही लक्ष्मीनगर से चुनाव लड़ना चाहिए ताकि वालिया को हराया जा सके।"

पार्टी वर्करों के इस सुझाव के पीछे कारण था। उस वक्त बिन्नी ने ही यह प्रस्ताव दिया था कि शीला दीक्षित के खिलाफ तो माहौल है इसलिए उन्हें हराने से बड़ी चुनौती होगी वालिया को हराना। अरविन्द ने यह चुनौती तो नहीं स्वीकार की लेकिन तत्काल यह चुनौती बिन्नी को दे दी। बिन्नी ने न सिर्फ चुनौती स्वीकार की बल्कि डॉ अशोक कुमार वालिया को आठ हजार से अधिक वोटो से हरा दिया। दिल्ली में शीला दीक्षित की हार के बाद कांग्रेस को अगर किसी हार का गम था तो वह डॉ अशोक कुमार वालिया के हारने का ही गम था। लेकिन आम पार्टी में रहते हुए बिन्नी ने कमोबेश वही काम किया जो अरविन्द केजरीवाल ने शीला दीक्षित को हराकर किया था।

लेकिन परिणाम आने के साथ ही परिस्थितियां बदलने लगीं। अरविन्द केजरीवाल मीडिया के नये आइकॉन हो गये थे और देखते ही देखते राजनीति ने ऐसी करवट बदल ली कि बिन्नी का नाम मंत्रिपरिषद से हटा लिया गया। बिन्नी अभी भी दावा करते हैं कि उनका नाम पहली लिस्ट में राजभवन भेजा गया था लेकिन बाद में उनका नाम हटा लिया गया। हो सकता है, ऐसा कांग्रेस के दबाव में किया गया हो क्योंकि जिस कांग्रेस से विद्रोह करके अरविन्द केजरीवाल ने पार्टी खड़ी की थी, बिन्नी भी उस कांग्रेस से विद्रोह करके आम आदमी बन चुके थे। इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि कांग्रेस ने जिन कुछ लोगों को काटने-छांटने का फरमान दिया होगा उसमें बिन्नी का नाम सबसे ऊपर रहा होगा। बिन्नी के विद्रोह की पहली खबर यहीं से बाहर आई।

मंत्री न बनाये जाने के बाद उनकी ऐसी खलनायक की छवि बन गई कि लोगों की भावनाओं के साथ कुठाराघात करता है। पहले भी बसपा, कांग्रेस के साथ रहने के कारण उनकी छवि दलबदलू नेता की ही रही है लेकिन आम पार्टी में रहकर अरविन्द से विद्रोह किसी भी अरविन्द समर्थक के लिए असहनीय था। जो भी हुआ लेकिन जल्द ही सबकुछ शांत हो गया। बिन्नी के विरोध के स्वर चुप हो गये और सरकार की गाड़ी आगे बढ़ गई। लेकिन अभी सरकार पटरी पर पंद्रह दिन ही दौड़ी थी कि बिन्नी फिर से विद्रोही हो गये। और इस बार तो सीधे प्रेस कांफ्रेस तक कर डाली। जिस आम आदमी पार्टी के वे कभी सबसे बड़े जमीनी नेता होते थे, उसी आम पार्टी की जमीन यह कहकर खोद दी कि अरविन्द केजरीवाल और कांग्रेस की मिलीभगत है। दिल्ली में जनता को जो राहत दी गई है, वह सब छलावा है।

बिन्नी ने जो कुछ बोला वह बीते एक पखवाड़े से बीजेपी बोलती आ रही है, इसलिए आम पार्टी के योगेन्द्र यादव अगर बिन्नी के बोले को बीजेपी का ड्राफ्ट बता रहे हैं तो अनुमानत: सही कह रहे हैं। जिसने भी बिन्नी को लाइव देखा सुना होगा उसे समझते देर नहीं लगी होगी कि बीजेपी भी तो यही सब बोलती आ रही है। कहनेवाले तो यह भी कह रहे हैं कि गड़करी ने जिस कांग्रेसी नेता (संदीप दीक्षित) उद्योगपति (पवन मुंजाल) और अरविन्द केजरीवाल की मीटिंग का खुलासा किया था, वह जानकारी बिन्नी ने ही गड़करी को मुहैया करायी थी। पहले बिन्नी खुद ही यह खुलासा करनेवाले थे, लेकिन बाद में उन्होंने यह राज खोलने के लिए गडकरी को दे दिया। जो लोग यह दावा कर रहे हैं उनकी सच्चाई वे जाने लेकिन इतना तो तय है कि बिन्नी की बगावत से सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी को ही पहुंचेगा। आम पार्टी को कितना नुकसान होगा, इसका आंकलन फिलहाल इस वक्त करना संभव नहीं है।

पति पत्नी और वो !

लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद और पत्रकार मेहर तरार में दो गहरे इत्तेफाक हैं। पहला इत्तेफाक यह है कि मेहर तरार और हाफिज सईद दोनों की पैदाइश पाकिस्तान के सरगोधा जिले में हुई है। दूसरा यह कि दोनों अब लाहौर में रहते हैं। इन दो इत्तेफाक के अलावा दोनों में तीसरा कोई इत्तेफाक शायद न हो। जिस सरगोधा में दोनों का जन्म हुआ है उसे पाकिस्तान में बाझ का शहर कहा जाता है। ऐसे बाझ जो झपट्टा मारकर शिकार करते हैं और आकाश में ऊचें उड़ जाते हैं। सरगोधा के हाफिज सईद को कौन नहीं जानता लेकिन वहीं पैदा होनेवाली मेहर तरार इस वक्त जिस विवाद के कारण चर्चा में आई हैं उसके पीछे भी यही झपट्टामार कारण जिम्मेदार है। 

अपने खुलेपन के कारण भारतीय राजनीति में चर्चित हुए पूर्व संयुक्त राष्ट्र डिप्लोमेट शशि थरूर भारत आने के बाद जिस एक बात के कारण विवादास्पद बने और अपनी मंत्री की कुर्सी तक गवां दी, वह थी उनकी मोहब्बत। तलाकशुदा शशि थरूर की तलाकशुदा सुनंदा पुष्कर से प्रेम के किस्से मीडिया ने कुछ इस तरह से उछाले कि कांग्रेस ने उनका मंत्रीपद वापस ले लिया और घर बिठा दिया। उस वक्त भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी तक ने शशि सुनंदा संबंधों पर कसीदे पढ़े थे जिसके जवाब में शशि सुनंदा ने मोदी को प्यार की कीमत समझा दी थी।

समय बीतने के साथ विवाद भी खत्म हो गया और शनि सिंगणापुर में शनि दर्शन के बाद दोनों ने शादी कर ली। जल्द ही शशि थरूर को मंत्री पद वापस मिल गया और इस बार उन्हें मानव संसाधन विकास मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दे दिया गया। शनि देव के दर्शन के साथ ही शशि थरूर के सारे संकट खत्म हो गये। हो सकता है किसी पंडित ने दोनों को शनि दर्शन के बाद ही शादी करने का सुझाव इसलिए दिया हो कि आनेवाले दिनों में शशि सुनंदा के जीवन में पहले की तरह फिर से अलग होने का कोई कारण न पैदा हो लेकिन शादी के तीन साल भी नहीं बीते थे कि "संकट" शशि सुनंदा के जीवन में समाने लगा। 22 अगस्त 2010 को दोनों ने केरल में हिन्दू रीति रिवाज के अनुसार शादी कर लिया और सात जन्मों के लिए एक दूसरे के हो गये लेकिन तीन साल के भीतर ही शशि सुनंदा के बीच 'सरगोधा' का दखल बढ़ने लगा।

जैसा कि खुद मेहर तरार दावा कर रही हैं कि शशि थरूर से उनकी पहली मुलाकात दिल्ली में अप्रैल 2013 में हुई थी और इसके कुछ ही महीने बाद जून 2013 में उन दोनों की दोबारा मुलाकात दुबई में हुई जहां शशि थरूर ने उनसे साहित्यिक मदद भी मांग ली थी। मेहर न सिर्फ एक तेजतर्रार लेखिका हैं बल्कि पाकिस्तान में रहते हुए भी आधुनिक और सेकुलर सोच वाली जेहादी महिला हैं। पाकिस्तान के कुछ अखबारों में कॉलम लिखनेवाली मेहर पाकिस्तान के कट्टरपंथ पर करारा हमला करने के लिए जानी जाती हैं और अब अपने 14 साल के बेटे के साथ अकेली जिन्दगी जी रही हैं। सेमिनारों और संगोष्ठियों में भारत और नेपाल आती जाती रहती हैं। अप्रैल में शशि थरूर से मिलने से पहले दोनों एक दूसरे को ट्विटर पर मिल चुके थे।

मेहर तरार हालांकि थरूर की तरह ट्विटर स्टार नहीं हैं लेकिन वे इस सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल करती हैं। करीब पच्चीस हजार फालोवर के साथ ट्विटर पर मौजूद मेहर ने अब तक कुल 42 हजार से अधिक ट्वीट किये हैं। जाहिर है, उनके निजी जीवन में इस सोशल साइट का बहुत अहम रोल है। एक निजी टीव चैनल से बात करते हुए उन्होंने इसे स्वीकार भी किया कि शशि सुनंदा विवाद के बीच उन्हें जो कुछ कहना है वे सार्वजनिक रूप से अपने ट्विटर एकाउण्ट पर कह भी रही हैं। ट्विटर पर भले ही शशि थरूर की हैसियत बहुत बड़ी हो लेकिन मेहर के फालोवरों में उनका नाम भी शामिल है। मेहर कहती हैं कि पहले उन्होंने शशि थरूर को फालो किया था, बाद में शशि थरूर ने उनको फालो करना शुरू कर दिया। और यही से दोनों एक दोनों के नजदीक आने शुरू हो गये। हो सकता है आफलाइन दुनिया में जीनेवाले लोग इस बात को बहुत संजीदगी से न समझ सकें लेकिन सोशल मीडिया में करीब आने का यह सिलसिला बहुत चौंकानेवाला नहीं है। और शायद यही कारण है कि मेहर जब भारत आईं तो वे शशि थरूर से मिलने उनके दफ्तर गईं और जब शशि थरूर दुबई गये तो मेहर की उनसे वहां भी मुलाकात हुई।

लेकिन इस मेल मुलाकात का उस सुनंदा पर बहुत अच्छा असर नहीं हुआ जो पहले शशि थरूर की मोहब्बत बनीं, फिर पत्नी। सुनंदा पुष्कर की बेचैनी कितनी अधिक रही होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने ही पति का ट्विटर एकाउण्ट हैक करके उस पर मेहर के लिए आईएसआई एजंट लिख दिया। निजी जीवन की इस सार्वजनिक लड़ाई में सुनंदा के सामने आने के बाद सरगोधावाली मेहर भी अपने ट्विटर एकाउण्ट पर एक्टिव हो गईं और देखते ही देखते लगभग अनाम सी कॉलम राइटर पूरे सोशल मीडिया के लिए चर्चा का विषय बन गया। अब लाहौर में रहनेवाली मेहर ने खुद मोर्चा संभाल लिया और बहुत बिंदास तरीके से वह सारे रहस्य सार्वजनिक करने शुरू कर दिये जो सुनंदा शशि के संबंधों में आई दरार को और अधिक चौड़ा कर सकता है।

हालांकि शशि सुनंदा ने मेहर को अपने वैवाहिक जीवन के लिए कोई खतरा नहीं माना है लेकिन शशि थरूर के इस ताजा प्रेम प्रसंग से एक बार वे फिर उसी तरह चर्चित हो गये जिस तरह से सुनंदा से प्रेम के कारण चर्चित हुए थे। इस बार मंत्री पद पर वैसा खतरा तो नहीं दिखाई देता क्योंकि अब चुनाव में ही चार महीने बचे हैं लेकिन अंग्रेजी साहित्य में अपने फिक्सन के कारण चर्चित शशि थरूर के रियल लाइफ की जिन्दगी भी किसी फिक्सन से कम नहीं रह गई है।

क्या राजनीति में दाग अच्छे हैं ?

पिछले दिनों दिल्ली पुलिस ने हरियाणा के मेवात से दो आंतकियों को गिरफ्तार किया था। मीडिया रिपेार्ट के अनुसार आतंकी अब्दुल जमीर ने पुलिस पूछताछ में बताया कि, लश्कर के आदेश पर ही दंगा पीड़ितों के संपर्क में थे। उन्होंने बताया कि कुछ युवकों से संपर्क भी किया गया था। आतंकी के अनुसार लश्कर-ए-तैयबा की ओर से मुजफ्फरनगर दंगा का बदला लेने की तैयारी की जा रही थी। गिरफ्तार आतंकी ने मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया। पुलिस के अनुसार लश्कर की नजर दंगा पीड़ितों पर थी और कुछ युवकों को लश्कर में शामिल करने की तैयारी हो रही थी। दो युवक इनकी बातों में आकर लश्कर से जुड़ने के लिए तैयार भी हो गये थे। स्पेशल सेल ने उन युवकों को ढूंढ निकाला और उन्हें गवाह बनाकर कोर्ट में पेश करने के बारे में सोच रही है। गौरतलब हो कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने खुफिया विभाग के एक अफसर के हवाले से दावा किया था कि आईएसआई मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों के संपर्क में है। दिल्ली पुलिस के खुलासे के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि ‘राहुल गांधी की बात सच होती नजर आ रही है। उन्होंने कहा कि अगर यह सच होता है तो देश के लिए समस्या है।’

मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर भाजपा और सपा को घेरने की फिराक राहुल गांधी खुद ऐसे घिरे कि उन्हें चुनाव आयोग को सफाई देनी पड़ती। राहुल के विवादित बयान के बाद कांग्रेस को लगने लगा था कि राहुल का बयान लोकसभा चुनाव में विपक्ष के हाथ में सबसे ताकतवर हथियार के रूप में सामने होगा। हिन्दी पट्टी के राज्यों में मुस्लिम वोटर किसी भी दल का भाग्य बनाने व बिगाड़ने की हैसियत रखते हैं। मुस्लिम वोटरों की नाराजगी के बढ़ते ग्राफ, चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में करारी हार, राहुल गंाधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की तैयारियों, आम आदमी पार्टी का बढ़ता प्रभाव, मोदी की दिनों दिन बढ़ती चुनौती कांग्रेस की गिरती साख, राहुल को स्थापित करने की कोशिशों के बीच हरियाणा से दो आंतकियों की गिरफ्तारी, उनके इकबालिया बयान और दिल्ली पुलिस के खुलासे के पीछे कहीं न कहीं गहरी राजनीतिक साजिश की गंध आ रही है। अगर यह मान लिया जाए कि मामला राजनीति से प्रेरित नहीं है तो भी ये बड़ा गंभीर मामला है। ये हालात देश की खुफिया एजेंसियों की खस्ताहालत और लचर कार्यप्रणाली की पोल तो खोलती ही है वहीं यह सवाल भी खड़ा करती हैं कि अगर राहुल गांधी को  खुफिया विभाग के अधिकारी द्वारा अक्टूबर में इस बारे में जानकारी मिल गयी थी तो खुफिया एजेंसियां और पुलिस जनवरी का इंतजार क्यों कर रही थी। वहीं अगर आंतकी नेटवर्क देश में इस कदर सक्रिय है तो ये आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर खुफिया एजेंसियों की नाकामी के साथ आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे की बड़ी घंटी भी है।

दिल्ली पुलिस का खुलासा एक साथ कई सवालों को खड़ा करता है। क्या ये राहुल गांधी की इमेज बनाने के लिए की गयी कार्रवाई है। क्या आतंकियों की गिरफ्तारी और दिल्ली पुलिस का खुलासा कांग्रेस को लोकसभा चुनाव से पूर्व मुस्लिम वर्ग का हिमायती साबित करना है। क्या यह मुस्लिम वर्ग की नाराजगी दूर करने और राहुल के बयान के बाद डैमेज कंट्रोल करने की कांग्रेसी कवायद है। क्या कांग्रेस राहुल को सत्यवक्ता साबित करने में जुटी है। दिल्ली पुलिस के खुलासे के बाद जिस तरह से राजनीतिक बयानबाजी का दौर चालू हुआ है उससे इस शंका को पुष्टि होती है कि लोकसभा चुनाव से पूर्व मुस्लिम वोटरों की नाराजगी और गुस्सा कम करने के लिए और राहुल गांधी की गिरती छवि को संभालने के लिए सियासत किसी भी हद तक जाने को तैयार है। अगर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के इरादे विशुद्ध राजनीतिक और वोट बैंक की राजनीति के इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं तो ये घातक प्रवृत्ति का परिचायक है। 

24 अक्टूबर 2013 को मध्य प्रदेश के इंदौर के दशहरा मैदान में ‘सत्ता परिवर्तन रैली’ को संबोधित करते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल ने कहा, उत्तर प्रदेश के इस शहर के दंगा प्रभावित मुस्लिम युवाओं को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई बरगलाने की कोशिश कर रही है। ‘परसों मेरे दफ्तर में एक भारतीय गुप्तचर अधिकारी आया। उसने मुझे बताया कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के लोगों ने मुजफ्फरनगर के उन 10-15 मुसलमान लड़कों से बात करके उन्हें बरगलाना शुरू कर दिया है, जिनके भाई-बहन दंगों में मारे गए हैं। उन्होंने कहा कि मैं उन पांच युवाओं को जानता हूं जिन्होंने मुजफ्फनगर के दंगों में अपने परिजनों को खोया और उसके बाद पाकिस्तानी एजेंसी ने उनसे संपर्क साधा। राहुल ने कहा कि मुजफ्फनगर हिंसा के पीड़ितों के संपर्क में है आईएसआई। ये बातें उन्हें एक इंटेलीजेंस अफसर ने बताई हैं। उन्हें यह भी बताया गया कि आईएसआई मुस्लिम पीड़ितों के संपर्क में है। राहुल के बयान पर हडकंप मचना तय था। राहुल ने ये भी कहा कि बीजेपी ने ही मुजफ्फरनगर में झगड़ा लगवाया था। राहुल ने मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर भाजपा पर कड़े प्रहार किये थे। राहुल के इस बयान के बाद बड़ा राजनीतिक बवाल मचा था और बीजेपी ने इस बात पर भी सवाल उठाए थे कि एक खुफिया विभाग का अधिकारी राहुल को अपनी रिपोर्ट क्यों देता है। इस मामले पर चुनाव आयोग ने राहुल को आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप में बीते 31 अक्टूबर को नोटिस जारी किया था, जिसके जवाब में राहुल ने खुद को बेकसूर बताया। समाजवादी पार्टी ने भी राहुल के बयान की कड़ी आलोचना की थी।

दंगा भड़कने के लगभग 20 दिनों के बाद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी व कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने 16 सिंतबर, 2013 को दंगाग्रस्त क्षेत्र का दौरा किया था। इस दौरे के दौरान राहुल गांधी ने खास समुदाय के लोगों से ही मुलाकात की थी। 9 अक्टूबर, 2013 को अलीगढ़ में रैली को संबोधित करते हुए राहुल ने पहली दफा मुजफ्फरनगर दंगों पर चुप्पी तोड़ी थी। राहुल ने कहा कि, वोट के लिए दंगे कराए गए। राहुल ने कहा कि उस दंगे से आम आदमी को क्या फायदा हुआ? हिंदू भी मरे, मुसलमान भी मरे..मैं वहां गया...उन्होंने कहा कि ये सब राजनीतिक लोगों ने किया है...हमारे को बरबाद किया... ‘आम आदमी लड़ना नहीं चाहता, लेकिन राजनीतिक शक्तियां है जो जानती हैं कि अगर लड़ाई नहीं हुई वो जीत नहीं पाएंगे। मैं बता दूं कि हम सब एक हैं और इसीलिए देश आगे बढ रहा है।’ ‘हम किसी एक जाति के लिए अधिकार नहीं मांगते. हम पूरे हिंदुस्तान का ध्यान रखते हैं. हिंदू को मुसलमान से लड़ाया जाता है. हम आपके लिए लड़ेंगे।’

26 अक्टूबर 2013 को  कांग्रेस ने मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों  के बारे में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बयान को उचित ठहराते हुए कांग्रेस के प्रवक्ता एवं हरियाणा में मंत्री रणदीप सुरजेवाला ने प्रेस ब्रीफिंग में कहा कि, ‘राहुल गांधी ने एक जिम्मेदार राजनीतिक नेता के तौर पर ऐसा सत्य कहा जो सभी लोग जानते हैं। उन्होंने कहा कि देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा होने और जाति तथा धर्म के आधार पर बांटने के कोशिश होने पर बाहरी ताकतें फायदा उठाती हैं और गांधी ने समाज के सभी वर्गों को ऐसी ताकतों के प्रति सचेत रहने को कहा है।’ राहुल के बयान की आलोचना उनकी ही पार्टी के नेता और केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने की थी। जयराम ने कहा था कि ‘राहुल को अपने बयान को लेकर माफी मांगनी चाहिए।’ रमेश ने कहा कि उनके कुछ गैर मुस्लिम दोस्तों ने भी आईएसआई वाली टिप्पणी को लेकर नाखुशी जाहिर की है, हालांकि उन्होंने कहा कि राहुल का इरादा किसी को ठेस पहुंचाने का नहीं था।

दरअसल इस बयान के बाद से मीडिया रिपोर्ट और खुफिया विभाग की जानकारी के अनुसार राहुल के बयान ने मुस्लिम समुदाय को बुरी तरह से नाराज करने का काम किया था। डैमेज कंट्रोल की कवायद गुपचुप तरीके से की गयी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। 23 दिसंबर 2013 को मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों से मिलने पहुंचे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को कांधला में विरोध का सामना करना पड़ा था। दंगा पीड़ितों ने राहुल गांधी के काफिले का रास्ता रोककर उन्हें काले झंडे भी दिखाए। दंगा पीड़ित इस बात से नाराज थे कि केंद्र सरकार ने उनकी स्थिति सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। इसके अलावा राहुल गांधी के उस बयान से पर से भी वह गुस्से में थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि कई मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ित पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के संपर्क में हैं। राहुल गांधी केंद्रीय गृह राज्यमंत्री आरपीएन. सिंह के साथ सबसे पहले शामली स्थित मलकपुरा पहुंचे थे। मलकपुरा के बाद राहुल को मुजफ्फरनगर जिले के बसीकला और लोई इलाकों में लगे राहत शिविरों में भी जाना था, लेकिन विरोध के चलते वह इन क्षेत्रों में नहीं जा सके। इसके बाद राहुल का काफिला मुजफ्फरनगर की ओर बढ़ गया, लेकिन बीच में वह  काकड़ा गांव पहुंच गए और लोगों से मुलाकात की। काकड़ा जाते समय राहुल को काले झंडे दिखाए गए। लोगों का कहना था कि जब राहुल हम लोगों को ‘आईएसआई का एजेंट’ बताते हैं तो अब हमसे मिलने क्यों आए हैं?

मुजफ्फरनगर दंगों का असर यूपी में लोकसभा चुनाव में साफ तौर पर देखने को मिलेगा। ऐसे में यूपी में पिछले ढाई दशकों से खोई जमीन की तलाश में लगी कांग्रेस और पार्टी को खड़ा करने में जुटे राहुल गांधी को लगता है कि 2014 का चुनाव उनके जीवन का सबसे मुश्किल मुकाबला साबित होने जा रहा है। ऐसे में चुनाव पूर्व विपक्ष के हाथों से ऐसे मुद्दे छीनने की कवायद तेज हो गयी जिससे विपक्ष चुनाव के समय इन मुद्दों से उस पर हमला न कर पाये। जनलोकपाल बिल का पास होना, मुस्लिम समुदाय की नाराजगी को दूर करने के लिए राहुल की बात को सच साबित करना इसी एक्सरसाइज का ही हिस्सा है। लोकसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस अपने दामन पर लगे दागों को जितना हो सके धोने की कोशिश में लगी है। ऐसे में आने वाले दिनों में ऐसी कार्रवाईयां, चालबाजियां, पैंतरेबाजी और बयानबाजी देखने-सुनने को मिलेंगी। लेकिन इस सारी राजनीति के बीच यह ध्यान रखने वाली बात होगी कि किसी बेगुनाह को गंदी राजनीति का शिकार न होना पड़े। वहीं इस कशमकश और रस्साकशी में कोई गुनाहगार कानून के शिकंजे से बचना भी नहीं चाहिए। आखिरकर यह मामला किसी कौम, राजनीति, वोट बैंक और विपक्ष को शिकस्त देने से बहुत ऊपर देश और नागरिकों की अस्मिता और सुरक्षा से जुड़ा है।