इतिहास ने जितना अन्याय जम्मू कश्मीर के अंतिम
महाराजा हरि सिंह के साथ किया उतना शायद किसी अन्य के साथ न किया हो।
जम्मू कश्मीर को लेकर जितना कुछ लिखा गया है शायद भारत की किसी भी रियासत
को लेकर इतना न लिखा गया हो। जब किसी विषय पर ज़रुरत से ज़्यादा लिखा, बोला
या कहा जाये, स्वभाविक ही संदेह होता है कि या तो सच्चाई को छिपाने का
प्रयास किया जा रहा है, या फिर उसे इतना उलझाने का प्रयास किया जा रहा है
कि बाद में सत्य तक पहुँचना ही मुश्किल हो जाये। या फिर इतना ज़ोर से
चिल्लाया जाता है कि उस शोर में सत्य दब कर रह जाये। अपराध बोध से मुक्ति
का एक और तरीक़ा भी होता है। अपने पक्ष में ही दूसरे लोग खड़े कर लिये
जायें ताकि भीड़ देखकर स्वयं को ही लगने लगे कि मेरा पक्ष और निर्णय ठीक
था। यह अपनी अन्तरात्मा को दबाने की कठिन साधना ही कही जा सकती है। जम्मू
कश्मीर के बारे में पंडित जवाहर लाल नेहरु के भाषण, आलेख और स्पष्टीकरण
पढ़ेंगे तो आपको वे एक साथ, ये सभी साधनाएँ करते दिखाई देते हैं।
जम्मू कश्मीर में जो कुछ हो रहा था, उसके लिये किसी न किसी को
अपराधी ठहराना ज़रुरी था, ताकि इतिहास का पेट भरा जा सके। इसके लिये
महाराजा हरि सिंह से आसान शिकार और कौन हो सकता था, ख़ासकर उस समय, जब उनका
अपना बेटा कर्ण सिंह भी उनका साथ छोड़ कर नेहरु के साथ मिल गया हो। बक़ौल
कर्ण सिंह, नेहरु की लिखी दो किताबें पढ़ कर ही मेरे अन्दर के दरवाज़े खुल
गये थे और मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो गई थी। हरि सिंह के अपने ही
चिराग़-ए-ख़ानदान कर्ण सिंह ज्ञान प्राप्ति के बाद रीजैंट बन गये और हरि
सिंह मुम्बई में निष्कासित जीवन जीने के लिये अभिशप्त हुए। लेकिन कम्बख़्त
सच्चाई ऐसी चीज़ है जो इन सभी तांत्रिक साधनाओं के बावजूद पीछा नहीं
छोड़ती। हर युग का इतिहास साक्षी है कि जब सत्य का सामना करना बहुत मुश्किल
हो जाता है तो उससे बचने के लिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाना ज़रुरी हो
जाता है।
बीसवीं शताब्दी में जब जम्मू कश्मीर को लेकर सक्रिय भूमिका निभाने वाले
सभी पात्रों के पाप उन्हीं पर भारी पड़ने लगे तो उनके लिये ज़रुरी हो गया
था कि उनके झूठ को ही सत्य का दर्जा दे दिया जाये और उनके पाप को ही पुण्य
मान लिया जाये। इसलिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाया जाना ज़रुरी हो गया
था। जिस महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर से जम्मू कश्मीर रियासत ने देश की
संघीय लोकतांत्रिक सांविधानिक व्यवस्था को स्वीकार किया, बाद में उस्तादों
ने उन्हीं को कटघरे में खड़ा कर दिया और ख़ुद न्यायाधीश के आसन पर जा
बिराजे। दुर्भाग्य से महाराजा हरि सिंह के बारे में अभी तक जो कहा सुना जा
रहा है, वह इन्हीं न्यायाधीशों द्वारा न्याय के तमाम सिद्धान्तों को ताक पर
रखते हुये, जारी फ़तवे मात्र हैं। सीनाज़ोरी यह कि उन्हीं फ़तवों को
इतिहास मानने का आग्रह किया जा रहा है।
जम्मू कश्मीर रियासत का विलय देश की नई प्रशासनिक व्यवस्था में
अंग्रेजों के चले जाने के लगभग दो महीने बाद 26 अक्तूबर 1947 को हुआ। वह भी
तब जब रियासत पर कबायलियों के रुप में पाकिस्तानी सेना ने आक्रमण कर दिया
और उसके काफ़ी हिस्से पर कब्जा कर लिया। महाराजा ने तब विलय पत्र पर
हस्ताक्षर किये। बाद में इतिहास में यही प्रचारित किया गया कि महाराजा हरि
सिंह भारत में शामिल होने के इच्छुक ही नहीं थे और जम्मू कश्मीर को आजाद
देश बनाना चाहते थे। इसे भारतीय इतिहास की त्रासदी ही कहा जायेगा कि
महाराजा ने भी कभी जनता के सामने अपना पक्ष रखने की कोशिश नहीं की । शेख
अब्दुल्ला ने बाद में अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार के माध्यम से महाराजा पर
और ज्यादा दोषारोपण किया।
महाराजा हरि सिंह के पुत्र डा० कर्ण सिंह अवश्य
अपने पिता का पक्ष देश के सामने रख सकते थे लेकिन उससे पंडित जवाहर लाल
नेहरु के नाराज होने का ख़तरा था जिससे उनकी भविष्य की राजनीति गड़बड़ा
सकती थी। वैसे भी कर्ण सिंह संकट काल में अपने पिता का साथ छोड़कर नेहरु के
साथ हो लिये थे क्योंकि उनके पिता हरि सिंह अब भूतकाल थे और नेहरु भविष्य ।
कर्ण सिंह अपने पिता को सामन्ती परम्परा की खुरचन बताते हैं और स्वयं को
लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुयायी। अपने इसी लोकतांत्रिक प्रेम को वे हरि
सिंह का साथ छोड़ देने का मुख्य कारण बताते हैं । लेकिन ताज्जुब है उसी
सामन्ती परम्परा के प्रसाद के रुप में वे सालों साल सदरे रियासत और
राज्यपाल का पद भोगते रहे।
इसमें अब कोई शक नहीं कि ब्रिटेन सरकार हर हालत में जम्मू कश्मीर रियासत
पाकिस्तान को देना चाहती थी। लेकिन उनके दुर्भाग्य से भारत स्वतंत्रता
अधिनियम १९४७ के माध्यम से वे केवल ब्रिटिश भारत का विभाजन कर सकती थी,
भारतीय रियासतों का नहीं। महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने के
लिये। दबाव डालने के लिये लार्ड माँऊटबेटन १५ अगस्त से दो मास पहले
श्रीनगर भी गये थे। महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने लिये तैयार नहीं थे
और अंतिम दिन तो उन्होंने दबाव से बचने के लिये माँऊंटबेटन से मिलने से ही
इन्कार कर दिया था। महाराजा कहीं रियासत को भारत में न मिला दे,इसको रोकने
के लिये ब्रिटेन ने पंद्रह अगस्त तक भारत और पाक की सीमा ही घोषित नहीं की
और अस्थाई तौर पर गुरदासपुर ज़िला पाकिस्तान की सीमा में घोषित कर दिया।
इस तकनीक के बहाने महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये परोक्ष
दबाव ही डाला जा रहा था, लेकिन वे इस दबाव में नहीं आये। उन्होंने कहा
किश्तवाड को हिमाचल प्रदेश के चम्बा से जोड़ने वाली सड़क बना ली जायेगी।
लेकिन सीमा आयोग की रपट को लार्ड माँऊटबेटन आखिर बहुत देर तक तो दबा नहीं
सकते थे। जब सीमा आयोग की रपट आई तो शकरगढ़ तहसील को छोडंकर सारा गुरदासपुर
ज़िला भारत में था और इस प्रकार जम्मू कश्मीर रियासत सड़क मार्ग से पंजाब
से जुड़ती थी। हरि सिंह एक ओर से निश्चिंत हो गये।
इस पृष्ठभूमि में इस प्रश्न पर विचार करना आसान होगा कि महाराजा ने
रियासत को भारत में शामिल करने में इतनी देर क्यों की? इस मरहले पर नेहरू
और शेख अब्दुल्ला की भूमिका सामने आती है। ब्रिटिशकाल में रियासतों में
काँग्रेस ने अपनी शाखायें नहीं खोली थीं जबकि मुस्लिमलीग की शाखा प्राय
प्रत्येक रियासत में थी । रियासतों में राजाओं के अत्याचारी शासन के खिलाफ़
लोगों ने प्रजा मंडल के नाम से संगठन बनाये हुये थे जिनका संघर्ष का शानदार
इतिहास है। मुस्लिम सांप्रदायिकता की केन्द्रस्थली अलीगढ़ विश्वविद्यालय
के छात्र शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में प्रजा मंडल के नाम से नहीं बल्कि
मुस्लिम कान्फ्रेंस के नाम से आन्दोलन शुरू किया लेकिन वह राजाशाही के
खिलाफ़ न होकर डोगरों के खिलाफ़ था। शेख अब्दुल्ला का नारा राजाशाही का नाश
नहीं था बल्कि डोगरो कश्मीर छोड़ो था। मतलब साफ था कि डोगरों का राज कश्मीर
से समाप्त होना चाहिये , राज्य के अन्य संभागों में रहता है तो शेख को कोई
एतराज नहीं था।
वैसे तो अब्दुल्ला चाहते तो मुस्लिम लीग ही बना सकते थे
लेकिन मुस्लिम नेतृत्व को लेकर अब्दुल्ला और जिन्ना में जिस कदर टकराव था
उसमें यह संभव ही नहीं था। जिन्ना अपने आप को पूरे दक्षिण एशिया के
मुस्लमानों का नेता मानने लगे थे। उनकी नज़र में शेख अब्दुल्लाल की हैसियत
स्थानीय नेता से ज्यादा नहीं थी, फिर ब्रिटिश सरकार भी जिन्ना के पक्ष में
ही थी। उधर अब्दुल्ला भी दोयम दर्जा स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। लेकिन
शेख अब्दुल्ला को डोगरों के खिलाफ़ अपनी इस लड़ाई में किसी न किसी की सहायता
तो चाहिये ही थी। जिन्ना के कट्टर विरोधी जवाहर लाल नेहरू से ज्यादा
उपयोगी भला इस मामले में और कौन हो सकता था? लेकिन उसके लिये ज़रूरी था कि
अब्दुल्ला पंथ निरपेक्ष और समाजवादी प्रगतिवादी शक्ल में नज़र आते।
इस मौके पर साम्यवादी तत्वों की अब्दुल्ला के साथ संवाद रचना महत्वपूर्ण
है। साम्यवादी नहीं चाहते थे कि रियासत का भारत में विलय हो। रियासत की
सीमा रूस और चीन के साथ लगती है और साम्यवादी पार्टी चीन के साथ मिल कर ही
उन दिनों भारत में सशस्त्र क्रांति के सपने देख रही थी। उनकी दृष्टि में इस
क्रांति की शुरूआत कश्मीर से ही हो सकती थी। इसके लिये ज़रूरी था या तो
कश्मीर आजाद रहता या शेख अब्दुल्ला के कब्जे में। तभी साम्यवादियों का
क्रांति का सपना पूरा हो सकता था। वैसे भी साम्यवादी उन दिनों पूरे
हिन्दोस्तान को विभिन्न राष्ट्रियताओं का जमावडा ही मानते थे और उस नाते
कश्मीर की आजादी के सबसे बडे पक्षधर थे। शेख अब्दुल्ला और साम्यवादियों ने
इस प्रकार एक दूसरे का प्रयोग अपने अपने हित के लिये करना शुरू किया। शेख
अब्दुल्ला को तो इसका तुरन्त लाभ हुआ। नेहरू की दृष्टि में अब्दुल्ला
समाजवादी बन गये जबकि श्रीनगर की मस्जिद में वे हिन्दुओं के खिलाफ़ पहले की
तरह ही जहर उगलते थे।
पंडित नेहरु को महाराजा से अपना पुराना हिसाब चुकता करना था। कुछ महीने
पहले ही कश्मीर की सीमा पर खडे होकर नेहरु ने कश्मीर के राज्यपाल को कहा
था," तुम्हारा राजा कुछ दिन बाद मेरे पैरों पड़कर गिडगिडायेगा।" शायद
महाराजा का कसूर केवल इतना था कि १९३१ में ही उन्होंने लंदन में हुई गोल
मेज कान्फ्रेंस में ब्रिटेन की सरकार को कह दिया था कि,"हम भारतीय
स्वतंत्रता संघर्ष में एक साथ हैं।" उस वक्त वे किसी रियासत के राजा होने
के साथ साथ एक आम गौरवशाली हिन्दुस्तानी के दिल की आवाज की अभिव्यक्ति कर
रहे थे। हरि सिंह ने तो उसी वक्त अप्रत्यक्ष रुप से बता दिया था कि भारत की
सीमाएं जम्मू कश्मीर तक फैली हुई हैं। लेकिन पंडित नेहरु १९४७ में भी इसे
स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अडे हुए थे कि जम्मू कश्मीर को भारत का
हिस्सा तभी माना जायेगा जब महाराजा हरिसिंह सत्ता शेख अब्दुला को सौंप
देंगे। ऐसा और किसी भी रियासत में नहीं हुआ था। शेख इतनी बडी रियासत में
केवल कश्मीर घाटी में भी कश्मीरी भाषा बोलने वाले केवल सुन्नी मुसलमानों का
प्रतिनिधित्व करते थे।
बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक पद्धति से शेख को
सत्ता सौंप देने का अर्थ लोगों की इच्छा के विपरीत एक नई तानाशाही स्थापित
करना ही था। नेहरु तो विलय की बात हरि सिंह की सरकार से करने के लिये भी
तैयार नहीं थे। विलय पर निर्णय लेने के लिये वे केवल शेख को सक्षम मानते
थे, जबकि वैधानिक व लोकतांत्रिक दोनों दृष्टियों से यह गलत था। महाराजा इस
शर्त को मानने के लिये किसी भी तरह तैयार नहीं थे।
नेहरु चाहते थे कि हरि सिंह उसके पैरों पर गिरकर गिडगिडायें, लेकिन इतना
तो कर्ण सिंह भी मानेंगे कि उस वक्त तक डोगरा राजवंश में यह बीमारी आई
नहीं थी। नेहरू का दुराग्रह इस सीमा तक बढ़ा कि उन्होंने अब्दुल्ला की
खातिर कश्मीर को भी दाँव पर लगा दिया। माऊंटबेटन के खासुलखास रहे और उस
वक़्त रियासती मंत्रालय के सचिव वी.पी.मेनन के अनुसार, हमारे पास उस समय
कश्मीर की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं था । दिल्ली के पास महाराजा से बात
करने का समय ही नहीं था और नेहरु शेख के सिवा किसी से बात करने को तैयार
ही नहीं थे, उस वक़्त पूरी योजना से अफ़वाहें फैलाना शुरु कर दीं कि
महाराजा तो जम्मू कश्मीर को आज़ाद देश बनाना चाहते हैं। कहानी होगा कि
सरकारी इतिहासकारों ने इन अफ़वाहों को हाथों हाथ लिया और इसे ही इतिहास
घोषित करने में अपना तमाम कौशल लगा दिया। जब की असलियत यह थी कि नेहरु के
लखत-ए-जिगर शेख अब्दुल्ला ही रियासत को आजाद देश बनाना चाहते थे। खतरा उनको
इतना ही था कि आजाद जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान ज्यादा देर आजाद रहने नहीं
देगा और उस पर कब्जा कर लेगा ।
इसलिये अपने स्वपनों के आजाद जम्मू कश्मीर
को स्थायी रुप से आजाद रखने के लिये शेख को केवल भारतीय सेना की सुरक्षा
चाहिये थी और इसी के लिये वे जवाहर लाल नेहरु की मूंछ के बाल बन कर घूम रहे
थे । इतना ही नहीं जब पाकिस्तान ने रियासत पर हमला ही कर दिया और उसका
काफ़ी भूभाग जीत लिया तब भी पंडित नेहरू रियासत का विलय भारत में स्वीकारने
के लिये तैयार नहीं हुये। उनकी शर्त राष्ट्रीय संकट की इस घडी में भी वही
थी कि पहले सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दो तभी जम्मू कश्मीर का भारत में
विलय स्वीकारा जायेगा और सेना भेजी जायेगी। यही कारण था कि महाराजा को विलय
पत्र के साथ अलग से यह भी लिख कर देना पड़ा कि अब्दुल्ला को आपातकालीन
प्रशासक बनाया जा रहा है। एक बार हाथ में सत्ता आ जाने के बाद उसने क्या
क्या नाच नचाये, यह इतिहास सभी जानते हैं। अब्दुल्ला ने नेहरू के साथ मिल
कर महाराजा हरि सिंह को रियासत से ही निष्कासित करवा दिया और मुम्बई में
गुमनामी के अन्धेरे में ही उनकी मृत्यु हुई
महाराजा हरि सिंह एक साथ तीन तीन मोर्चों पर
अकेले लड रहे थे। पहला मोर्चा भारत के गवर्नर जनरल और ब्रिटिश सरकार का था
जो उन पर हर तरह से दबाव ही नहीं बल्कि धमका भी रहा था कि रियासत को
पाकिस्तान में शामिल करो। दूसरा मोर्चा मुस्लिम कान्फ्रेस और पाकिस्तान
सरकार का था जो रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा को
बराबर धमका रही थी और जिन्ना २६ अक्तूबर १९४७ को ईद श्रीनगर में मनाने की
तैयारियों में जुटे हुये थे। तीसरा मोर्चा जवाहर लाल नेहरु और उनके
साथियों का था जो रियासत के भारत में विलय को तब तक रोके हुये थे, जब तक
महाराजा शेख के पक्ष में गद्दी छोड़ नहीं देते। नेहरु ने तो यहाँ तक कहा
कि यदि पाकिस्तान श्रीनगर पर भी क़ब्ज़ा कर लेता है तो भी बाद में हम उसको
छुड़ा लेंगे, लेकिन जब तक महाराजा शेख की ताजपोशी नहीं कर देते तब तक
रियासत का भारत में विलय नहीं हो सकता। इसे त्रासदी ही कहा जायेगा, जब
महाराजा अकेले इन तीन तीन मोर्चों पर लड़ रहे थे तो उनका अपना बेटा, जिसे
वे सदा टाईगर कहते थे, उन्हें छोड़ कर नेहरु के मोर्चे में शामिल हो गया।
महाराजा हरि सिंह ने माँऊटबेटन के प्रयासों को असफल करते हुये रियासत को
भारत में मिलाने के लिये जो संघर्ष किया उसे इतिहास में से मिटाने का
प्रयास हो रहा है। जून १९४७ में लार्ड माऊंटबेटन का श्रीनगर जाकर हरि सिंह
से बात करने को इतिहास में जिस गलत तरीके से लिखा गया है और अभी भी पेश
किया जा रहा है, उसे पढ कर दुख होता है। माऊंटबेटन के ब्रिटिश जीवनीकार
लिखें यह समझ में आता है, लेकिन भारतीय इतिहासकार भी उसी की जुगाली कर रहे
हैं। माऊंटबेटन हरि सिंह के पुराने परिचित थे। वे विभाजन पूर्व हरि सिंह को
समझाने के लिये श्रीनगर गये । आध्कारिक इतिहास के अनुसार उन्होंने हरि
सिंह को कहा कि १५ अगस्त से पहले पहले आप किसी भी राज्य भारत या पाकिस्तान
में शामिल हो जाओ। यदि १५ अगस्त तक किसी भी देश में न शामिल हुए तो
तुम्हारे लिये समस्याएं पैदा हो जायेंगीं। ऊपर से देखने पर यह सलाह बहुत ही
निर्दोष लगती है। इस पृष्ठभूमि में कोई भी कह सकता है कि रियासत में जो
घटनाक्रम हुआ उस का कारण महाराजा का १५ अगस्त तक निर्णय न ले पाना ही नहीं
था।
लेकिन यह उतना सच है जितना दिखाई देता है। छिपा हुआ सच कहीं ज्यादा
कष्टकारी है। माऊंटबेटन भारत सरकार से यह आश्वासन लेकर गये थे कि यदि
महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में शामिल होते हैं तो उनको कोई एतराज नहीं
होगा। परोक्ष रुप से माऊंटबेटन हरि सिंह को गारंटी दे रहे थे कि पाकिस्तान
में शामिल होने के लिये भारत सरकार से डरने की जरुरत नहीं है। इसके साथ
माऊंटबेटन ने एक और शर्त लगाई कि किसी देश में भी शामिल होने से पहले प्रजा
की राय लेना बहुत जरुरी है। ताज्जुब है माऊंटबेटन यही सलाह अपने दूसरे
मित्र हैदराबाद के नबाब को नहीं दे रहे थे, जिसके सेनाएँ भारत की सेना से
भिड़ने की तैयारी कर रही थी। माऊंटबेटन के लिये प्रजा कि राय जानने का
स्पष्ट अर्थ यही था कि हर हालत में पाकिस्तान में शामिल हो जाओ। एक संकेत
और भी कर दिया कि पाकिस्तान की संविधान सभा भी गठित हो जाने दो। माऊंटबेटन
स्पष्ट ही रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा की
घेराबन्दी कर रहे थे।
जब हरि सिंह ने उस घेराबन्दी को तोड दिया तो
माऊंटबेटन ने गुस्से में हरि सिंह के बारे में कहा,"बलडी बास्टर्ड"। वैसे
तो यह गाली ही हरि सिंह की भारत भक्ति का सबसे बडा प्रमाणपत्र है। यदि
नेहरु इस ज़िद पर न अडे रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को
सौंपी जाये, तो रियासत का विलय भारत में १५ अगस्त १९४७ से पहले ही हो जाता
और राज्य का इतिहास दूसरी तरह लिखा जाता। बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी
की कि महाराजा हरि सिंह ने तो पूरे का पूरा राज्य दिया था, लेकिन नेहरु ने
उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिये था, बाक़ी उन्होंने पाकिस्तान
के पास ही रहने दिया।
माऊंटबेटन और उसकी जीवनी लेखकों ने तो कभी इस बात को नहीं छिपाया कि
उनकी रुचि रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की थी । लेकिन नेहरु और उनके
जीवनीकारों ने सदा ही रियासत के मामले में की गई अपनी गल्तियों को महाराजा
हरि सिंह के मत्थे मढ़ने के सफल प्रयास किये। इसे हरि सिंह के ह्रदय की
विशालता ही कहना होगा कि वे मुम्बई में चुपचाप अपमान के इस विष को पीते रहे
लेकिन उन्होंने अन्तिम श्वास तक अपना मुँह नहीं खोला। शेख मुहम्मद
अब्दुल्ला की तरह किसी मोहम्मद युसफ टेंग को पास बिठाकर अपनी जीवनी भी नहीं
लिखवाई।
मुम्बई में टेंगों की कमी तो नहीं थी। लेकिन यदि हरि सिंह किसी
टेंग को पास बिठा लेते तो यक़ीनन नेहरु इतिहास के कटघरे में खड़े होते।
नेहरु को कटघरे में खड़ा करने की बजाय हरि सिंह ने ख़ुद उस कटघरे में खड़ा
होना स्वीकार कर लिया। अब समय आ गया है कि महाराजा हरि सिंह को सलीब से
उतारकर इतिहास में उन्हें उनका सम्मानजनक स्थान दिया जाये ।
No comments:
Post a Comment