06 October 2013

हिंदुत्व बनाम सकारात्मक सोच का शौचालय !

रेजीमेंटड सोच से आप शौचालय की अहमियत नहीं समझ सकते। आपकी समझ सांचे में ढली होती है। इस सांचे का परिसीमन आपका नहीं, आपके अफसर का बनाया होता है। परिसीमित सांचे को आप कभी मर्यादा, कभी धर्म, तो कभी अफसर का आर्डर कहते हैं। इसके पालन के बंधन में बंधे रहने को अभिशप्त होते हैं। कुछ भी समझते या सोचते वक्त आप पर परिसीमन हावी रहता है। सांचे के उल्लंघन को पाप समझते हैं और इसके खतरे से बचने के लिए अतिरिक्त सतर्कता और सावधानी बरतते हैं। इसलिए आप ना तो कांशीराम की सच्चाई को समझते हैं, ना जयराम रमेश के कहे पर पतियाते हैं, ना विद्या बालन आपको समझा पाती है और मोदी तो आपके गुस्से को आसमान पर पहुंचा देते हैं।

रेजीमेंटेड सोच के हैं, तो शौचालय की जरूरत समझते हुए भी कह नहीं सकते। सच बता नहीं सकते कि शौचालय आपकी पवित्रता का अहम आधार है। क्योंकि इस सच के आख्यान से मस्तिष्क में अमर्यादित ठहराए जाने का खतरा मंडरा रहा होता है। आप परवाह नहीं करते कि यह मर्यादा या धर्म आपके परिजीवी होने का निरंतर सबूत देता रहता है। यह कथित मर्यादा या धर्म खुद का बनाया नहीं होता है, बल्कि रेजीमेंट के अफसर की सीख पर आधारित, व्याख्यानित या अफसर के सिपहसलारों की ओर से परिभाषित होता है। इसमें जब भी किसी बदलाव की जरूरत महसूस होती है, तो आप खुद बदलने का विवेक गंवा चुके होते हैं।नीर-क्षीर विवेकको अभ्यास में लाना गलत समझते लगते हैं और मिलावटी दूघ पीकर सबसे ताकतवर होने का भ्रम पालने लगते हैं। इस रेजीमेंटड सोच की शिकार में इस्लामी आंतकवादी से लेकर नक्सलवादी और कट्टरपंथी संघी समान रुप से शामिल हैं।

यह कथित तौर पर घोर धार्मिकता का दोष है । संशोधन या बदलाव के लिए रजीमेंट के अफसर की तरफ भागते हैं। अफसर नहीं मिलता है, तो सिपहसलार से मदद लेते हैं। फिर भी समाधान नहीं निकलता है , तो आप अफसर की बताई बातों को सीमित दृष्टांत से परिभाषित करने लगते हैं। भूल जाते हैं कि इस वैचारिक आचरण की वजह से आप परजीवी जैसा हो जाता है। प्रकृति ने मनुष्य में स्वजीवी बने रहने की तमाम संभावना दे रखी है। इसका अहसास मर जाता है।

स्वजीवी की सोच सहज होती है। सहज सोच से शौचालय की जरूरत को बयां करने में दिक्कत महसूस नहीं होती। सोचते वक्त आपके जेहन में कोई अफसर नहीं अटकता है। बल्कि स्वतंत्रता से जरूरत को परख लेते हैं। आडंबर से दूर ले जाने की ताकत हासिल कर लेते हैं। रेजीमेंटेड और सहज सोच में मौलिक फर्क है। बचपन का दृष्टांत याद आ रहा है। एयरफोर्स स्टेशन के अफसर क्वाटर्स में छुट्टियां बिताने का मौका मिला करता था। हम सिविलियन थे। सो हर आने जाने और मिलने वाले हमतुरिया अजीब सी निगाह से देखा करते। हिलने मिलने की अतिरिक्त पहल करने पर टका सा जवाब मिलता कि तुम सिविलियन हो। विभेद समझकर मन कचोटता। इस हीनभावना को दूर करने के लिए ही एक समय शिद्दत से सेना की नौकरी पाने के लिए मेहनत की। पर अपने खाते में सिविलियन ही बने रहना था, सो बना रह गया।
 
सैन्य अफसर और सिपाहियों के बीच सुनहरा वक्त बिताने के और भी कई मौके मिले। हमने पाया कि सिविलियन की चर्चा में व्यापक होती है। राष्ट्र से इतर अमेरिका, जापान, रुस बिलावजह बातचीत में शामिल होते हैं। वितांड ब्रह्मांड की चर्चा होती है। जबकि सैनिक की बातचीत हमेशा कंटोलमेंट की गतिविधियों तक फोकस रहती है। रह सहकर वही बैचमेट की बात, बटालियन का जिक्र, कैंटीन की कहानी, मेस की घटनाओ पर ही लंबी चर्चाएं। घर परिवार की बहुत कम बात।

फिर भी सैनिक के सीमित साधन में ही बन ठनकर रहने की सफल कोशिश और दुरूह परिस्थिति में बने रहने की तैयारी प्रभावित कर रही। कठिन मेहनत के बाद अपराह्न घर लौटते वक्त सेना के लोग दुनियादारी के बजाय शाम की पार्टी के ड्रेस पर सोचते हैं। मेडल के जरिए एकदूसरे को पछाडने के लिए कमरतोड़ अंदरूनी होड मचाए रखते हैं। उनका प्रतिस्पर्धात्म जिंदगी जानदार होती है। उनमें रैंक के आधार पर किसी भी पल बडे को छोटा और छोटे को बडा मान लेने की सहजता होती है। उनके स्मार्टनेस का प्रतीक है कि मिलने पर झटके से एकदूसरे को पुरानी पोस्टिंग, पुराने दृष्टांत से याद करने की शानदार अदावत सबको लुभाती है। हमें यह भी लगा कि घनघोर प्रशिक्षण आधारित उनके दिमाग को कंटोलमेंट से बाहर की दुनिया तक विस्तारित होने से रोका जाता है। निगेटिविटी से बचने के लिए सिस्टम के करप्शन पर चर्चा से बचना उनकी आदत में शुमार है। इसलिए रिटायरमेंट के बाद जब वो सहज संसार के सामने होते हैं, तो व्यवहारिक समस्याओं का सामना कर रहे होते हैं।

राष्ट्र के लिए मरने खपने पर आमदा सेना के रेजीमेंटेड दिमाग की बात कुछ हद तक ठीक है। देश की जरूरत और राष्ट्र की रक्षा के लिए सेना के रेजीमेंट में रहने और सोच को उस अनुरूप ढालने और बनाए रखने की जरूरत और मजबूरी दोनों ही समझी जा सकती है। लेकिन उन छद्म सैनिकों को क्या कहेंगे? जो सिविलियन संसार रहते हुए सैनिक होने का भ्रम पाल लेते हैं। फिर दिग दिगंत को अपने परिसीमित सांचे में ढालने में शिद्दत से लगे जाते हैं। यकीन मानिए रेजीमेंडेट सोच में सहजता आ ही नहीं सकती।

जो दुनिया को कंटोलमेंट में बदलने की सोच बना लेते हैं, वो प्राकृतिक सच्चाई से विमुख रहते हैं। अपने रेजीमेंट प्रमुख के सुझाए रास्ते पर दुनिया को चलाने के लिए उद्वेलित हो जाते हैं और हिंसक हिसाब पर उतर आते है। इनका इंसाफ व्यभिचार है। सहज बात है कि विविधता कायनात की पहचान है। इंसान को भिन्न मुंडा, भिन्न मत के सिद्धांत पर करीने से कसा गया है।

पूरी दुनिया को कंटोलमेंट में तब्दील करने की जिद से इंसानियत को नुकसान हो रहा है। इसका विस्तार समस्त सभ्यताओं को हमशक्ल, हम परिधान, हम पोशाक और हमजैसा बनाने पर आमदा जिद है। इस जिद ने इंसान को रक्त पिपासु बना दिया है। इसे एक्सट्रीमिज्म कहा जाता है। इस्लाम, संघ परिवार, नक्सलवाद या फिर रंगभेद से पैदा हुआ एक्सट्रीमिज्म का यह विष प्रकृतिक न्याय के मूलभूत सिद्धांत के विरूद्ध है। इस सच के खिलाफ है कि एक एक्सट्रीमिज्म को दूसरा एक्सट्रीमिज्म कभी रास्ते पर नहीं ला सकता है।

यह वैसा ही है जब आपस में लड़ रहे लोग जोर जोर से बोलते हैं, तो सार्थक आवाज निरर्थक बन जाती है। आवाज जबतक मद्धिम नहीं पडती या तबतक आवाज की निरर्थकता बनी रहती है। दूसरा यह कि अपनी आवाज जोर से कहकर मनवा लेने का भ्रम कभी स्थायी हो ही नहीं सकता। क्योंकि इससे आवाज की कर्कश से कर्कशतम होने जाने रास्ता बनता है। इंसानियत को पटरी से उतार देता है। उग्रता आपको प्रकृति विरोधी बनाने को आतुर कर देती है। आप स्वभाव से कुछ करने को तैयार ही नहीं होते। परभाव के पराधीन होते चले जाते हैं। इसलिए नैसर्गिक क्रिया से निवृति का काम आपको छोटा और ओछा लगने लगता है।

रेजीमेंट का अफसर आपके मस्तिष्क में देवालय की अहमियत को इस कदर भर देता है कि आप सच से मुंह चुराकर झूठ के संसार को बनाए रखने के लिए उद्वेलित रहते हैं। देवालय को शौचालय से ज्यादा महत्व देने का ढोंग पाल लेते हैं।

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