29 October 2013

हिंदुत्व बनाम मुजफ्फरनगर कल और आज !

राजनीति में संयोग पैदा हों कि पैदा किए जाएं, दोनों ही परिस्थितियों में राजनीति अनिवार्य रूप से मौजूद रहती है। इसलिए पटना की हुंकार रैली में हुए धमाकों के बाद सिर्फ सरकारी जांच-पड़ताल का सिलसिला नहीं शुरू हुआ, बल्कि राजनीतिक अटकलों और संभावनाओं का भी दौर शुरू हो गया है। धमाके भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी की रैली स्थल के आसपास हुए। और किसी संयोग से बिल्कुल नहीं हुए। जो जांच पड़ताल अब तक हो रही है, उसमें बताया जा रहा है कि धमाके जान-बूझ कर करवाए गए। बदला लेने के लिए। धमाके कराने वाले के हवाले से मीडिया के सूत्र बता रहे हैं कि जिन्होंने इन विस्फोटों को अंजाम दिया, वे मुजफ्फरनगर का बदला लेना चाहते थे।

उस मुजफ्फरनगर का, जहां अभी हिन्दू-मुस्लिम दंगे करवाकर कुछ लोग फारिग हुए हैं। दंगे खत्म हुए, लेकिन उसके बाद बयानवीर दंगाइयों ने मोर्चा संभाल लिया। नेता जमात अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अपनी-अपनी परिभाषा गढ़ने में लग गई। ऐन इसी वक्‍त इंदौर में बिना किसी संदर्भ के अचानक राहुल गांधी का एक विवादास्पद बयान आया। उन्होंने मुजफ्फरनगर के दंगा पीडि़त युवकों से आइएसआइ के संपर्क करने की बात कह डाली। बिना कोई वक्‍त गंवाए भाजपा ने इसका चुनाव आयोग को लिखे एक पत्र में विरोध किया और अचानक मुस्लिम हितैषी बनकर हमारे सामने आ गई। हो सकता है राहुल गांधी के बयान ने भाजपा का चरित्र और चिंतन परिवर्तित कर दिया हो, लेकिन उन राजनीतिक संयोगों का सिलसिला तो अब यहां से शुरू होने वाला था जो सायास हो भी, तो भी अनायास ही बताया जाता है।

पटना की जिस हुंकार रैली के पहले ये विस्फोट करवाए गए, उस रैली में मोदी हिन्दू-मुसलमान को आपस में लड़ने के बजाय गरीबी से लड़ने का संदेश जारी कर देते हैं। जिनके दामन पर कत्ल के कारोबार के दाग हैं, वे पटना के गांधी मैदान में शांति का संदेश पाठ शुरू कर देते हैं। नीतीश के 'सेकुलर' स्टेट में नरेन्द्र मोदी उनसे भी बड़े 'सेकुलर' नजर आने लगते हैं। और तभी अचानक राहुल गांधी बिना नाम लिए याद आने लगते हैं जिन्होंने मुजफ्फरनगर दंगे के पीडि़तों से आइएसआइ के संपर्क किए जाने की दुहाई दी थी। आखिर धमाके से चंद दिन पहले राहुल कहना क्या चाह रहे थे? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि खुद को मुसलमानों का ज्यादा हितैशी जताकर बीजेपी क्या कहना चाह रही है? क्या भारतीय जनता पार्टी अचानक सेकुलर हो गई है? या मामला कहीं ज्यादा गंभीर है?

जिस पटना में भाजपा की रैली में आज ये धमाके हुए हैं, उसी पटना में आज से करीब साढ़े चार दशक पहले भारतीय जनता पार्टी की पूर्वज भारतीय जनसंघ के पटना अधिवेशन में उसके संस्थापक तथा संघ परिवार में अब भुला दिए गए उसके सबसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी माने जाने वाले बलराज मधोक ने ''मुसलमानों के भारतीयकरण'' का प्रस्ताव पारित कर जब मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाया था, उस वक्त तक जवान हो चुके इस लोकतंत्र के राष्ट्रापति डॉ. ज़ाकिर हुसैन थे। यह कोई संयोग नहीं था। बहरहाल, साल भर बाद उनकी मशहूर पुस्तेक आई ''इंडियनाइज़ेशन'', जिसमें उन्होंहने भारतीयकरण के अपने सिद्धांत को विस्तार से समझाते हुए इसके दायरे में न सिर्फ महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू बल्कि अल्लाकमा इकबाल और गुरु गोबिंद सिंह की वाणी को भी लपेट लिया। कंवल किशोर भारद्वाज जैसे लेखकों ने इस सिद्धांत को राजीव गांधी के उद्धरणों का सहारा लेकर एक समय में पुष्ट करने की कोशिश की (कॉम्बैाटिंग कम्युानलिज्मस इन इंडिया: की टु नेशनल इंटिग्रेशन), तो आज तक राकेश सिन्हा़ जैसे संघ के तथाकथित बुद्धिजीवी अपने भाषणों में मुसलमानों को भारतीय बनाने का आह्वान करते सुनाई दे जाते हैं। जिस लोकतंत्र के सर्वोच्चो पदों पर मुसलमान रह चुके हों, जिस देश की आज़ादी के आंदोलन का अध्याय मुसलमानों के जिक्र के बगैर अधूरा रह जाता हो, वहां बार बार फिर फिर मुसलमानों की देशभक्ति के मसले को उठाने का राजनीतिक एजेंडा क्या हो सकता है?

राहुल गांधी इंदौर के अपने भाषण में जब कहते हैं कि मुजफ्फरनगर के पीडि़त मुसलमानों से पाकिस्तांनी खुफिया एजेंसी आइएसआइ भर्ती के लिए संपर्क कर रही है, तो इससे मुसलमान कठघरे में कैसे आ जाते हैं? यह बात ठीक हो सकती है कि उन्होंने अपने पास मौजूद खुफिया सूचना को जो सार्वजनिक किया, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। अब पटना विस्फोट में हो रहे खुलासों के बाद यह बात और साबित हो जाती है कि राहुल गांधी ने जो कुछ कहा उसका स्रोत क्या कुछ हो सकता है। राहुल गांधी को कटघरे में खड़ा करने के साथ ही एक तथ्य तो सभी जानते हैं कि आइएसआइ को खाद-पानी कहां से मिलता रहा है। अगर यह मुसलमानों की देशभक्ति पर संदेह जताने जैसी कोई बात है, तो इस पर सबसे पहला सवाल उठाने का हक उसको होना चाहिए जिसने मुसलमानों की देशभक्ति पर कभी शक न किया हो। बीजेपी और उसके जन्मदाता जनसंघ के पास न तो यह नैतिक अधिकार है, न ही उनका इतिहास और हालिया वर्तमान उन्हें इसकी छूट देता है।

बावजूद इसके नरेंद्र मोदी 2002 के अपने कारनामे भुलाकर राहुल गांधी से माफी की मांग कर डालते हैं। बीजेपी आनन-फानन में चुनाव आयोग को पत्र भेजकर चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर राहुल के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग कर डालती है और बेगुनाह मुसलमानों की ‍रिहाई के लिए संघर्ष कर रहा रिहाई मंच राहुल गांधी को कानूनी नोटिस भेज देता है। इतना ही नहीं, मुसलमान संगठनों की ओर से भी इस भाषण के खिलाफ आवाज़ उठती है जिसकी राजनीतिक अभिव्याक्ति शुक्रवार को शियाओं के धर्मगुरु कल्बे सादिक के बयान में सुनाई देती है कि नरेंद्र मोदी यदि अपनी गलतियों के लिए माफी मांग लें तो मुसलमान उन्हें वोट दे सकते हैं। तो क्या समझा जाए कि 1992 में बाबरी विध्वंस के साथ इस देश में शुरू हुई सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की जुड़वा संसदीय राजनीति का दूसरा अध्याय शुरू हो चुका है? अगर यह वास्तव में सांप्रदायिक राजनीति का एक नया पड़ाव है, तो इसका राजनीतिक पाठ कैसे हो? फिलहाल, इस मामले में कोई भी चुनावी किस्मा का निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी। राहुल गांधी के बयान से शुरू हुई सियासत को समझने के लिए एक नज़र भारत के अतीत पर डाल लेनी चाहिए।

आज़ादी से पहले इस देश में मौजूद सांप्रदायिकता धार्मिक आधार पर नहीं हुआ करती थी। वह अंग्रेज़ों की ''बांटो और राज करो'' नीति से पैदा होती थी। सबसे पहली घटना जिसने इस देश में धार्मिक सांप्रदायिकता को जन्म दिया, वह 1947 का विभाजन कही जा सकती है। विभाजन ने सांप्रदायिकता की समस्याम को सुलझाने के बजाय और उलझा दिया, इसका पहला प्रमाण महात्मा गांधी की हत्याएं है। ध्यान देने वाली बात यह है कि विभाजन कांग्रेस की देन था और गांधी की हत्या  हिंदूवादी ताकतों ने करवाई। आज़ादी मिलने से पहले मुस्लिम लीग सबसे उग्र थी, लेकिन आज़ादी के बाद पहले दशक में कई दंगे हुए। 1950 में पश्चिम बंगाल में गोरा बाज़ार दंगा, दमदम आदि में दंगे फैले। 1954 में कुल 54 दंगे हुए, 1956 में 82 दंगे हुए, 1957 में 58 दंगे हुए तथा 1958 में 40 सांप्रदायिक दंगे हुए। 1959 में 42 और 1960 में 26 दंगे हुए। ये सरकारी आंकड़े हैं। यह सब कुछ तब हुआ जब कांग्रेस का राज था। 1962 में जबलपुर का दंगा आज़ाद भारत का सबसे बड़ा दंगा था, जिससे नेहरू हिल गए थे और उन्होंचने राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन कर डाला। सामान्यक तौर पर भारतीय धर्मनिरपेक्षता और नेहरू में विश्वास करने वाले मुसलमानों का पहली बार मोहभंग हुआ और नेहरू की कैबिनेट के मंत्री सैयद महमूद ने मजलिस-ए-मशावरात नाम का एक मुस्लिम मंच बना लिया जिसके बैनर तले तमाम मुस्लिम संगठन और धर्मनिरपेक्ष संगठन इकट्ठा हुए। यह पहला मौका था जब आज़ाद भारत में मुसलमानों का कांग्रेस से विश्वास उठ गया था।

ठीक यही वह दौर था जब 1962 और 1965 की जंग हुई और अचानक जनसंघ की लोकप्रियता में इज़ाफा हुआ। लोगों को लगा कि कांग्रेस के मुकाबले जन संघ ज्यादा देशभक्ति है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंधित संगठन आरएसएस से प्रतिबंध हटा लिया गया और उसे सम्मा‍न देने के लिए पहली बार 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में दिल्ली बुलाया गया जहां इंडिया गेट पर 200 से ज्यादा स्वयंसेवकों ने परेड में हिस्सा लिया। यह सेकुलर-सांप्रदायिक राजनीति के गठजोड़ का एक निर्णायक बिंदु था, जिसके बाद जन संघ की राजनीतिक और चुनावी ताकत बढ़ती गई। इस प्रक्रिया का चरम बिंदु 1969 के अहमदाबाद के भयावह दंगों में देखने को मिला जिसके होने से ठीक पहले बलराज मधोक वहां आए थे और गुजरात में उन्होंने कई जगह भड़काऊ भाषण दिए थे। इसी तनावपूर्ण माहौल में जन संघ ने अपने पटना अधिवेशन में ''मुसलमानों के भारतीयकरण'' का प्रस्ताव पारित किया था।

आज़ाद भारत की सांप्रदायिकता पर सबसे प्रामाणिक काम करने वाले बुद्धिजीवी असगर अली इंजीनियर ने इस तमाम घटनाक्रम को बड़े विस्तार से अपनी पुस्तिक ''भारत में सांप्रदायिकता'' में रखा है। इस इतिहास को देखकर एक बात समझ में आती है कि मुसलमानों की देशभक्ति पर संदेह करने, उनका भारतीयकरण करने की अवधारणा समेत तमाम बातों की ज़मीन दरअसल आज़ादी के शुरुआती दो दशक में कांग्रेस के राजकाज ने ही तैयार की थी और इसका प्रस्थाजन बिंदु विभाजन की त्रासदी और उससे उपजी प्रतिक्रियाएं थीं। जब मुसलमानों का मोहभंग कांग्रेस से मुकम्मल हो गया, तो आरएसएस के लिए दिल्ली में कालीन बिछा दी गई और उसने तीस साल बाद बाबरी विध्वंमस के रूप में सांप्रदायिकता की पकी फसल काट ली। इसके बाद बंबई में भयावह दंगा हुआ और करीब एक दशक बाद गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार। ज़ाहिर है, बीजेपी और उसके संघी घटकों के पास राहुल गांधी की कही बात पर आपत्ति जताने का नैतिक अधिकार नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस के पास सांप्रदायिकता के लिए अकेले बीजेपी को दोषी ठहराने की कोई ठोस नैतिक वजह नहीं। इस आज़ाद देश के सांप्रदायिक इतिहास के लिए दोनों दोषी हैं। लेकिन बात यहीं नहीं खत्म  होती है। राहुल गांधी के बयान का एक छुपा हुआ पाठ है जिसे समझना जरूरी है।

नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद 1992 का बाबरी विध्वंस, बंबई के दंगे और गुजरात-2002 सांप्रदायिक-सेकुलर जुड़वां राजनीति के वे तीन अहम पड़ाव रहे हैं जिनसे किसी भी भारतीय मुस्लिम के आतंकवादी होने को सरकारों द्वारा ''जस्टिफाई'' किया जाता रहा है। राहुल गांधी के बयान का मर्म जानने के लिए इसे समझना ज़रूरी है। आतंकवाद के नाम पर भारत में मुसलमानों की धरपकड़ का सरकारी अभियान अमेरिका द्वारा शुरू की गई ''आतंक के खिलाफ जंग'' के साथ चालू हुआ था जिसमें भारत एक ''रणनीतिक साझीदार'' था। जब भी कोई मुसलमान किसी आतंकी हमले के सिलसिले में पकड़ा गया, हमें बताया गया कि उसे बाबरी मस्जिद विध्वंस, बंबई दंगे या गुजरात दंगे के वीडियो दिखाकर दीक्षित किया गया था और आतंकी जमात में शामिल कर के प्रशिक्षण दिया गया था। बाबरी, बंबई और गुजरात के तीन पड़ाव दरअसल ''स्टेट'' के लिए एक ''रिवेंज थियरी'' का काम कर रहे थे और इसे पिछले एक दशक में भारतीय मध्यावर्ग को टीवी जैसे नए उभरे माध्यमों के सहारे कस के बेचा गया है। प्रतिशोध के इस सिद्धांत में हमेशा नई घटनाओं की जरूरत पड़ती है, लेकिन कुछ समय के बाद, जब राजनीतिक माहौल को इसकी दरकार हो। ध्यान देने वाली बात है कि दस साल बीत जाने के बाद जब बाबरी-बंबई के घाव सूख रहे थे और सारी राजनीतिक बहस विकास व जनता के असली मुद्दों के इर्द-गिर्द सिमट रही थी, गुजरात में अचानक कत्ले आम होता है और अचानक राजनीति की सूई सांप्रदायिक-सेकुलर की बहस की तरफ मुड़ जाती है।

आज गुजरात नरसंहार को भी दस साल बीत चुके हैं और राजनीतिक स्थितियां इस कदर बदल चुकी हैं कि उस नरसंहार के संरक्षक को अगले प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। समूचा खाया-पीया मध्य वर्ग नरेंद्रभाई मोदी के समर्थन में आहें भर रहा है और बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। समस्या यह है कि 2002 के लिए कोई खेद जताए बगैर या माफी मांगे बगैर मोदी ने यह स्थिति हासिल कर ली है। वे ऐसा करेंगे भी नहीं, क्योंकि उससे एक बार 2002 का संदर्भ दोबारा जिंदा हो जाएगा। कहने का मतलब ये कि गुजरात का सांप्रदायिक आख्यांन अब उसी तरह पुराना पड़ने लगा है जैसे 2002 में बाबरी का संदर्भ पुराना पड़ रहा था। अमेरिकी नीतियों से बंधी भारतीय राज्य मशीनरी की नीति चूंकि अब भी मुसलमानों के प्रति वही अलगाववादी दृष्टि रखती है, इसलिए इस मशीनरी को अपनी ''रिवेंज थियरी'' के लिए एक नया आख्यान चाहिए। आखिर आप कब तक बाबरी, बंबई और गुजरात को बेचते रहेंगे? इसीलिए राहुल गांधी का यह कहना जरूरी हो जाता है कि उन्हें इंटेलिजेंस से यह खबर मिली है कि मुजफ्फरनगर के दंगा पीडि़त युवकों से आइएसआइ संपर्क कर रही है। इससे होगा यह कि अगली बार जब कोई मुसलमान युवक आतंकवाद के आरोप में पकड़ा जाएगा तो हमें बताया जाएगा कि उसने ''कुबूल'' किया है कि मुजफ्फरनगर की घटना का बदला लेने के लिए ही उसने फलां-फलां आतंकी कार्रवाई को अंजाम दिया है। पटना की घटना ने तत्काल इस बात का सबूत सामने रख दिया है। इस तरह से दो काम एक साथ होंगे। गुजरात-2002 की स्मृीतियां धुंधली पड़ जाएंगी और नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता राज्य  मशीनरी के एक चेहरे के तौर पर बढ़ेगी तथा ''रिवेंज थियरी'' मे एक नया अध्याय जुड़ जाएगा जिसके सहारे सांप्रदायिक-सेकुलर गठजोड़ की घटिया राजनीति को अगले दस और साल तक जिलाए रखा जा सकेगा।

सवाल उठता है कि फिर कांग्रेस को इस बयान से क्या फायदा होगा? लंबी दौड़ में तो फायदा हर उस ताकत के लिए है जो केंद्र की सत्ता में आएगी और ''आतंक के खिलाफ़ जंग'' में भारत की रणनीतिक साझेदारी को बनाए रखेगी। तात्कालिक फायदा कांग्रेस को यह हो रहा है कि ऐसे बयान और घटनाएं चुनावों का एजेंडा सेट करने वाला साबित हो सकता है। ध्यान दीजिएगा कि इस चुनाव प्रचार में पहली बार ऐसा हुआ है कि राहुल गांधी के किसी बयान पर चर्चा हो रही है और नरेंद्र मोदी उस पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इससे पहले नरेंद्र मोदी बोलते थे और कांग्रेस प्रतिक्रिया देती थी। राहुल गांधी के इंदौर भाषण की पहली प्रत्यक्ष कामयाबी यही है। जिसे अब पटना का सबूत भी हासिल हो गया है।

No comments:

Post a Comment