10 October 2013

तीसरे मोर्चे की तिकड़ी और मुलायम की मोह !

मुलायम में गजब की जीजीविषा है। उनको लग रहा है कि 2014 में तीसरे मोर्चा की सरकार बन रही है। मतलब एक ऐसी सरकार जिसका प्रधानमंत्री न तो नरेन्द्र मोदी बन रहे हैं और न ही राहुल गांधी। अरविंद केजरीवाल ने वैसे भी दिल्ली की सीमित दावेदारी जताकर बता दिया है कि वह “न तीन में, न तेरह में” की स्थिति में हैं। किसी को लगे न लगे मुलायम को लग रहा है कि तीसरे मोर्चे की सरकार बनी तो इस बार उनकी लाटरी खुल जाएगी। इसलिए शिद्दत से लगे हैं। प्रकाश करात ने हरी झंडी दी या नहीं दिल्ली में प्रेस कांफ्रेस सजाकर बताने पहुंच गए।

पांच राज्यों की चुनाव 2014 से पहले की आखिरी चुनाव है। इसलिए माहौल अभी से बनाना होगा। चुनाव घोषणा के बाद मुलायम झटके में दिल्ली में अवतरित हुए। उम्मीद थी कि पांचों राज्यों में समाजवादी पार्टी के चुनाव की रणनीति पर बात करेंगे। पर तीसरे मोर्चा के जिंदा होने की उम्मीद के बारे में बात की। सिर्फ यह बताने के लिए सुबह सुबह मीडिया के लोगों को समाजवादी केंद्रीय कार्यालय बुला लिया कि 2014 में तीसरे मोर्चे की सरकार ही बन रही है। यह कैसे बन रही है, इसपर पूछे गए सवाल पर नेताजी बताते रहे कि वक्त आने पर बताया जाएगा।

मुलायम सिंह की तरह ही तीसरे मोर्चा बनने से कई नेताओं को लगता है कि उनके ख्बाव साकार हो सकते हैं। कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा मिलाकर भानुमति के कुनबे जैसा बनने वाली दूसरे या तीसरे मोर्चा की अबतक तीन प्रयोगात्मक सरकारें बनी हैं। दो बार 1977 और 1989 में राजनीतिक तौर पर अछुत मानी जाने वाली नरेन्द्र मोदी की पार्टी यानी जनसंघ के साथ मिलकर तो तीसरी बार 1996-97 में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से। तीनों ही बार इधर उधर से जुटे राजनेताओं ने महत्वाकांक्षा का खुला इजहार किया और अंतर्विरोध की वजह से सरकार असामयिक मौत का शिकार बन गई। जनता को सुदृढ व्यवस्था मिलने के बजाय अराकता हावी रही तो नेताओं ने सत्ता की ताकत पर व्यवस्था का जमकर दोहन किया।

सार्थक प्रयोग 1977 में संपूर्ण क्रांति के संकल्प के नतीजे के साथ हुआ था। घोर अनुशासन के नाम पर आई इमरजेंसी की मुखालफत हुई। लोकनायक जेपी की देखरेख में कांग्रेस में प्रधानमंत्री बनने से वंचित घाघ नेताओं का कुनबा तैयार किया। उसे जनता पार्टी के नाम से जनता के आगे पेश किया गया। तब आजादी के बाद पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी। संप्रदायिक छवि से बचने की बिमारी हावी हुई। जनसंघ के साथियों को विजातीय बताते हुए दोहरी सदस्यता का मामला उछाला गया। इमरजेंसी के नायक संजय गांधी ने राजनारायण के मार्फत चरण सिंह में चौधरी होने का गुमान जगा दिया। और तीसरे मोरचा के भाईयों ने बुजुर्ग मोरारजी देसाई की हाथ पकड़ प्रधानमंत्री की कुर्सी को बाय बाय, टाटा करवा दिया। फिर कांग्रेस की मदद से देश की पहली गैरकांग्रेसी सरकार चौबीस दिनों तक हांफते हुए दौड लगाने के बाद गिर गई।

दूसरी बार तीसरा मोर्चा प्रचंड बहुमत वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की बनी छवि पर कीचड उलिचने के लिए बना। स्विस बैंक का एकाउंट नंबर पाकेट में लेकर चले राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह को उन नेताओं की मदद से प्रधानमंत्री बनाया गया जिनके अंदर 1977 में हरही सुरही को प्रधानमंत्री बनते देखकर खुद में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब पाल लिया था। इसबार भी सत्ता प्राप्ति के लिए अछूत संघियों को साथ लिया गया और गजब का गठजोड़ सामने आया। पहली बार ऐसी सरकार बनी जिसमें संघी और वामपंथी दोनो एकसाथ मंत्री बनने का सपना साकार कर पाए। आपसी अंतर्विरोध हावी हो गया और विश्वनाथ प्रताप सिंह को असमय इस्तीफा देना पड़ा। फिर कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा किय़ा।
तीसरा प्रयोग चुनाव पर्यन्त बनी स्थिति की वजह से 1996 में संयुक्त मोर्चा के रुप में आया। यह सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी। 

अंतर्विरोधों की संयुक्त मोर्चा में मुलायम सिंह की पहली कोशिश लालू प्रसाद को प्रधानमंत्री नहीं बनने देने की रही। बिल्लियों की लड़ाई का फायदा कर्नाटक के किसान नेता हरदनहल्ली देवगौडा को मिल गया। अंगूर खट्टे हैं की तर्ज पर खुद को किंगमेकर कहना शुरू करने वाले लालू यादव का देवगौडा की इमानदारी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। सीबीआई को कामकाज का खुली छूट देने का नतीजा रहा कि चारा घोटाले की जांच ने तूल पकड ली। चारा घोटाला तो नहीं बोफोर्स जांच के रफ्तार पकडने से समर्थन दे रही कांग्रेस पार्टी इस कदर नाराज हुई कि संयुक्त मोर्चा को बीच रास्ते में ही प्रधानमंत्री की कुर्सी से देवगौडा को हटाना पडा। कांग्रेस नेताओं से भरोसेमंद रिश्ते की वजह से इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बनाए गए।

नियंत्रित जांच की शर्त पर संयुक्त मोर्चा ने प्रधानमंत्री बदलने के बावजूद कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। लेकिन संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए तीसरे मोर्चे ने जिस तरह के गठजोड की राजनीति का प्रयोग किया उसका फायदा बाद में बनी अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार को मिला। फिर एनडीए को रोकने के नाम पर कांग्रेस नीत यूपीए गठजोड के इसी फार्मूले से लगातार दो बार से सरकार बना और चला रही है। अल्पमत को गठजोड से बहुमत में बदलने के इसी राजनीतिक तरकीब को तीसरे मोर्चा का नाम दिया जा रहा है। तीसरे मोर्चे की राजनीति सरोकार से इसलिए भी दूर है कि जिन नेताओं के आसरे तीसरे मोर्चे के गठन की बात की जा रही है, उनमें से दो बड़ा नेता कभी भी एकदूसरे की मुसीबतों में साथ नजर नहीं आता। मसलन अगर लालू प्रसाद जेल में हैं, मुलायम, ममता, नवीन, चंद्रबाबू, जयललिता, करुणानिधि आदि किसी की ओर से संवेदना दर्शाने वाला बयान नहीं आया। इसी तरह मुलायम जब मुसीबत में होते हैं, तो किसी ने मायावती या कांग्रेस से नहीं कहा कि क्यों परेशान कर रहे हो नेताजी को। सीमित सरोकार की यह बात तीसरे मोर्चा की उम्मीद पाले ज्यादातर नेताओं के बीच है। 

बहरहाल मुलायम को उन राजनीतिक पंडितों के राय की परवाह नहीं जो तीसरे मोर्चा-वोर्चा बनाने की सोच बोगस मानते हैं। नेताजी की खासियत है कि वो भारतीयों के अल्पजीवी यादाश्त में अटूट आस्था रखते हैं। उनका पूरा भरोसा है कि लोग इतिहास की राजनीति में तीसरे मोर्चा की बनी व्यवस्थाओं ने माकूल सफलता हासिल करने की बात को सिरे से भूल चुके हैं। इस बात से अनजान होने का प्रदर्शन करते हैं कि कई लोगों की नजर में तीसरे मोर्चा के सोच की जगह रद्दी की टोकरी में होनी चाहिए। राजनीति असंभावनाओं को संभव बनाने का खेल है, सिद्धस्त मुलायम इसका प्रदर्शन लगातार करते रहते हैं। यही वजह है कि राजनीतिक साधक मुलायम सिंह की सोच में मौलिक अंतर है। हम जिसे काठ की हांडी कहते हैं, उसी काठ की हांडी में मुलायम सिंह बार बार खिचड़ी बनाकर खाने और खिलाने की चेष्टा में रत रहते हैं। इधर, इस चेष्टा बीच उनकी उत्कट इच्छा प्रदर्शित हो रही है कि बहुत हो गया, अब प्रधानमंत्री बनना है।

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