फैसला दूर देश मलेशिया की एक अदालत का है
जिसका भारत से कानूनन कोई लेना देना नहीं है। लेकिन आज नहीं तो कल इसी आधार
पर दुनिया के दूसरे देशों में ऐसे फरमान जारी करने के दबाव बनाये जा सकते
हैं कि अल्लाह का जिक्र करते समय कृपया गॉड, भगवान या ईश्वर जैसे अमूर्त
नामों का जिक्र न किया जाए। मलेशिया की संघीय न्यायपालिका ने द हेराल्ड
अखबार के मामले में हाईकोर्ट के उस फैसले को उलट दिया जिसमें कहा गया था कि
अखबार गॉड के लिए अल्लाह शब्द का इस्तेमाल कर सकता है। मलेशिया की
सर्वोच्च कानूनी अदालत की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि
चर्च के पास इस बात का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है कि वह गॉड के लिए
अल्लाह शब्द का इस्तेमाल कर सके। एकबारगी यह फैसला चौंकानेवाला है। सीधे
तौर पर सांप्रदायिक सद्भाव को खराब करनेवाला फैसला भी लग सकता है लेकिन अगर
आप मलेशिया की संस्कृति और फैसले के तकनीकि पहलुओं पर गौर करेंगे तो
पायेंगे कि मलेशिया की शीर्ष अदालत ने मलेशिया के ईसाई समुदाय और मुसलमानों
के लिए उतना भी असहज फैसला नहीं दिया है जितना बताया जा रहा है।
श्री (सेरी) मोहम्मद अपांदी अली की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय
खंडपीठ ने जो फैसला दिया है वह उनके सामने उपलब्ध करवाये गये साक्ष्यों के
आधार पर ही दिया है। खबरों में उन साक्ष्यों का जिक्र भी किया गया है जिनके
आधार पर मलेशिया की शीर्ष अदालत इस नतीजे पर पहुंची है। इन साक्ष्यों में
अरबी में अल्ला के वे 99 नाम भी शामिल हैं जो मुसलमान ईश की आराधना के लिए
इस्तेमाल करते हैं। जाहिर है, गॉड उनमें से एक नहीं है। इसलिए गैर
मुस्लिमों के लिए यह गैर वाजिब है कि वे अपने ईश को अल्लाह के नाम से
परिभाषित करें। तब तो और भी नहीं जब मामला ईश की बजाय ईशा से जुड़ा हो। और
मलेशिया के मामले में ईश से ज्यादा यह मामला ईशा से ही जुड़ा हुआ है।
मलेशिया में कैथोलिक ईसाई समुदाय द्वारा प्रकाशित किया जानेवाला द
हेराल्ड अखबार न तो सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने के लिए गॉड का परित्याग
करके गॉड के लिए अल्लाह का नाम ले रहा है और न ही उसे इस्लाम से कोई ऐसा
लगाव हो गया है कि अपने आप को अल्लाहमय कर रहा है। हकीकत यह है कि
इक्कीसवीं सदी की शुरूआत से (संभवत: रोम के आदेश पर) पूरी दुनिया में
कैथोलिक ईसाई समुदाय स्थानीय आराध्यों के साथ घालमेल पैदा करके ईसाईयत को
बढ़ावा दे रहा है। अगर आप भारत में भी देखें तो ईशा को न जाने कबका ईश्वर
बताया जा चुका है और उनके प्रभु जैसे सात्विक हिन्दू संबोधनों का उच्चारण
तो लंबे समय से किया ही जा रहा है। मलेशिया में भी गॉड के साथ अल्लाह का
ऐसा ही घालमेल था जिसके कारण मलेशिया की पैन मलेशियन इस्लामिक पार्टी
(पीएएस) ने इसका प्रबल विरोध शुरू किया।
इसी साल जनवरी दो हजार तेरह में पीएएस ने निक अब्दुल अजीज निक मत की
अध्यक्षता में एक बैठक करके हाईकोर्ट के उस आदेश और सरकार के रूख को चुनौती
देने का ऐलान किया था जिसमें गॉड को अल्लाह के समानार्थी बताया जा रहा था।
हालांकि अब जबकि यह फैसला आया है निक मत का निधन हो चुका है लेकिन भारत
में देवबंद से इस्लाम की पढ़ाई करनेवाले निक मत के उस विरोध के पीछे अरब का
वही बहावी इस्लाम रहा होगा जिसका प्रबल पैरोकार भारत का देवबंदी मदरसा है।
जनवरी की बैठक में जो तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया था उसमें साफ
तौर पर कहा गया था कि अरबी में अल्लाह के जितने नाम हैं उसमें गॉड शब्द का
कहीं कोई जिक्र नहीं है। ऐसे में अगर मलेशिया में ईशा के भक्त भी गॉड की
जगह अल्लाह शब्द का उल्लेख करेंगे तो भ्रम पैदा होगा। अल्लाह एक है, न वह
किसी की संतान है और न ही उसकी कोई संतान है। जाहिर है, मलेशिया की कोर्ट
ने जो फैसला दिया है वह निक मत के मत से बिल्कुल मेल खाता है।
लेकिन अगर सिर्फ फैसले को एकरंगी चश्मे से देखेंगे तो फैसले का बहुत गलत
मतलब निकलकर सामने आयेगा। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस्लाम की
आक्रामकता को अगर दुनिया में कोई चुनौती दे रहा है तो वह ईसाईयत है। ईसाई
समुदाय में भी कैथोलिक ईसाई तंत्र अपने प्रबल धनबल (बाजार) और बाहुबल
(प्रशासन) के जरिए जगह जगह इस्लाम को चुनौती पेश कर रहा है। खासकर एशिया और
अफ्रीका महाद्वीप में। मलेशिया भी इस ईसाई आक्रमण से अछूता नहीं है। रोमन
कैथोलिक चर्च समूह द्वारा ईसाईयों की संख्या में बढ़ोत्तरी के लिए ईसा के
स्थानीयकरण (लोकलाइजेशन आफ जीसस) की जो कोशिश की जा रही है वह उन्हें
धर्मांतरण में प्रमुख रूप से मदद करता है। सेवा के बाद ईसा स्थानीयकरण, यह
ऐसा दूसरा बड़ा प्रयास है जिससे इसाईयत को बढ़ाने के लिए चर्च तंत्र द्वारा
इस्लेमाल किया जा रहा है। भारत जैसे हिन्दू बहुल देश में ईसाईयत को इस काम
में कोई खास चुनौती नहीं मिल रही है लेकिन जहां इस्लाम प्रबल है, वहां
रोमन कैथोलिक चर्च समूह को इस काम में बाधा आना स्वाभाविक है। मलेशिया में
निक मत ने कैथोलिक ईसाईयों के रास्ते में वही बाधा पैदा कर दी।
मलेशिया में जब से कैथोलिक समुदाय के अखबार हेराल्ड ने गॉड को अल्लाह
बताना शुरू किया था तब से ही तनाव था। 2009 में अखबार के इस रुख के कारण
हिंसक झड़पें भी हो चुकी थीं। ये झड़पें ईसाई समूह द्वारा ''ईश्वर अल्ला
तेरो नाम'' की तर्ज पर सद्भावना प्रचार का विरोध नहीं थी बल्कि चर्च समूह
द्वारा धर्मांतरण को दिये जा रहे बढ़ावे का परिणाम थीं। मलेशिया की 2.8
करोड़ की आबादी में 2010 की जनगणना के मुताबिक 9.2 प्रतिशत ईसाई हैं। इसमें
भी ज्यादातर ईसाई पूर्वी मलेशिया (इंडोनेशिया से सटे हुए हिस्से) में रहते
हैं। जाहिर है, इंडोनेशिया के करीबी मलेशिया के इस हिस्से में अगर ईसाइत
का प्रचार और प्रसार है तो इस्लामिक कट्टरता भी धर्म के मामले में कहीं से
कमजोर नहीं होगी। मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों ही देशों में इस्लाम के बाद
ईसाईयत ही दूसरा बड़ा धर्म बन चुका है। मलेशिया और इंडोनेशिया की शिक्षा और
चिकित्सा पर भी ईसाई मिशनरियों का उसी तरह प्रभुत्व है जैसे भारत में है।
मलेशिया के वर्तमान प्रधानमंत्री मोहम्मद नजीब उब्दुल रज्जाक खुद एक ईसाई
मिशनरी स्कूल की पैदाइश हैं और नेता से ज्यादा मलेशिया के दूसरे सबसे बड़े
कारोबारी की हैसियत रखते हैं।
लेकिन मलेशिया में धर्म के आधार पर बंटवारा उतना गहरा दिखाई नहीं देता
जितना बनाने की कोशिश की जा रही है। मलेशिया की संस्कृति पर आज भी भारतीय
संस्कृति की गहरी छाप है जिसे मलेशिया ने इस्लाम के नाम पर खारिज करने की
बजाय बहुत जतन से सहेजकर रखा है। मलेशिया में धर्म की बजाय जातीय और नस्लीय
पहचान ज्यादा मायने रखती है। शायद यही कारण है कि अन्य देशों की तरह
मलेशिया में जन समुदाय की गणना मुस्लिम, ईसाई या हिन्दू की बजाय नस्लीय
आधार पर की जाती है। मलेशिया में सबसे अधिक 51 प्रतिशत मलय नस्ल के लोग
हैं। इसके बाद चीन नस्ल, भारतीय नस्ल और स्वतंत्र तथा विभिन्न नस्लीय
समुदाय से जुड़े लोग हैं। मलेशिया संभवत: एकमात्र ऐसा मुस्लिम बहुल देश
होगा जहां मलय मुस्लिम की पहचान तब कायम होती है जब वह मलय भाषा बोलता हो।
40 हजार साल पुराने इस देश को अपनी संस्कृति और परिवेश से पूरा लगाव है और
ईसाईयत अपने विस्तार के लिए उसी का इस्तेमाल कर रहा है जिसके कारण मलेशिया
में ईसाई और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ा है।
इसलिए अगर मलेशिया की सुप्रीम कोर्ट के फैसले को फौरी तौर देखें तो वह
ईसाई और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक खाईं को चौड़ी करनेवाला दिखाई देता
है लेकिन ऐसा है नहीं। मलेशिया जैसे भूमिपुत्रों के देश में ईसाईयों की
नस्लीय दखल इस्लाम के लिए चिंता से ज्यादा उन भूमिपुत्रों के लिए चिंता का
विषय है जो अपनी पहचान अपने धर्म में नहीं बल्कि अपनी संस्कृति में खोजते
हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को मलेशिया की धार्मिक कट्टरता के
रूप में परिभाषित करने की बजाय दो धार्मिक समूहों के बीच बनाई गई व्यवस्था
के रूप में ही देखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मलेशिया के दो
धार्मिक समूहों के लिए दिया गया दिशा निर्देश है, इसलिए इसे न तो मलेशिया
में उभरती इस्लामिक कट्टरता के रूप में देखा जा सकता है और न ही इस फैसले
को मलय संस्कृति का दिशानिर्देश मानना चाहिए। क्योंकि अगर इस फैसले को
इस्लामिक या ईसाई नजरिये से देखा जाएगा तो मलेशिया में वही धार्मिक कट्टरता
मजबूत होगी जो फिलहाल उसकी पहचान नहीं है।
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