19 October 2013

असल मुद्दा क्या ? घोटाला या आवंटन ?

देश के सभी प्रमुख राष्ट्रीय अखबारों के पहले पन्ने पर कुमार मंगलम बिरला और सीबीआई की तरफ से कोयला आवंटन घोटाला में उनपर नामजद एफआईआर की खबर जगह बनाए हुए हैं। हर रोज एक नयी खबर सनसनी बनकर पाठकों के दरवाजे पर फेंके जा रहे हैं। जनता के कई बड़े हुक्मरानों के नाम भी हर रोज इस मामले में सामने आ रहे हैं। कभी सिफारिशी चिट्ठी को लेकर नवीन पटनायक सामने आ जाते हैं तो कभी खुद वजीरे- आलम मनमोहन सिंह कटघरे में खड़े दिखते हैं। इन अखबारी सुर्खियों के साथ-साथ हमारे देश का शहरी मध्यवर्ग भी उफान मार रहा है। क्या फेसबुक और क्या ट्विटर। हर जगह कोयला घोटाले को लेकर सरकार की आलोचना हो रही है। रोज सुबह कोलगेट से अपने दांतों में छिपे हुए किटाणु भगानेवाला मध्यवर्ग भी इस कोलगेट को लेकर गुस्से में है।

उस सफेद दांत वाले शहरी मध्यवर्ग के लिए भ्रष्टाचार रावण है। हर समस्या का एक ही स्रोत है- भ्रष्टाचार। लेकिन भ्रष्टाचार की उसकी अपनी परिभाषा है। भ्रष्टाचार वही जो शहरी मध्यवर्ग बताए कि तर्ज पर वह अपने भ्रष्टाचार खुद तय करता है। अभी पिछले साल ही तो अन्ना का आंदोलन किया था। भ्रष्टाचार के खिलाफ। अब फिर से कोयले की कालिख? शहरी मध्यवर्ग को साफ सुथरा चाहिए सब कुछ। सड़कें भी। शहर भी और सरकार भी। कहीं कोई कालिख नहीं होनी चाहिए। लेकिन शहरी मध्यवर्ग द्वारा सफाई की यह मांग इतनी सीधी भी नहीं है। इस पूरे घोटाले से जो तबका सबसे अधिक प्रभावित होगा उसको बहस से दूर कर दिया गया है। इसी कोयले खदानों के आवंटन से लाखों गरीब-आदिवासी परिवारों के घर उजड़ते हैं तो हमारे शहरी मध्यवर्ग को कहीं कोई भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता। वह सब तो डेवलपमेन्ट है। गांव के लोग तो रिसोर्स हैं। उनका जल जंगल जमीन सब शहर के लिए संसाधन है, और कुछ नहीं।

तो भ्रष्टाचार को देखने का वह नजरिया यह है गांव के लोगों ने शहर के संसाधनों पर कब्जा कर रखा है। ऐसे में दिल्ली में बैठी सरकार जब नेचुरल रिसोर्स की खुदाई के लिए खदानों का आवंटन करती है तो वह सभ्य समाज का के लिए निहायत नेचुरल तरीके से किया गया न्यूट्रल वर्क होता। उस पर कोई बात होनी भी नहीं चाहिए। दिल्ली में लूट की नीति बनाते समय पैसे के लेन देन को लेकर गड़बड़ हो जाए तो वह भ्रष्टाचार है लेकिन अगर उसी नीति पर अमल लाते हुए जमीन पर खुदाई कर दी जाए, लोगों की जिंदगी को काले धुएं से भर दिया जाए तो वह डेवलपमेन्ट है।
कोयला खदानें भी इस मानसिकता से अछूती कहां हैं? सभ्यता की कालिख में कोयले की इतनी सी कालिख बर्दाश्त नहीं, भले ही पूरी की पूरी शहरी सभ्यता काजल की कोठरी में बैठी हो। नहीं तो भला कौन नहीं जानता कि इन्हीं कोयला खदानों से जंगलों पर अपनी जीविका के लिए निर्भर लोगों की रोजी-रोटी छिनी जानी है, इसी कोयले खदान के आवंटन से गांवों और जंगलों में रहने वाला कोई आदिवासी उजराज खैरवार कल को फिर किसी फैक्ट्री में मजदूर हो जाएगा (अगर काम मिला तो) या फिर भीख मांगने को मजबूर होगा। तो क्या फर्क पड़ता है। वो सब डेवलपमेन्ट के लिए नेचुरल वर्क है। होना ही चाहिए।

लेकिन दिक्कत यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर जारी  मध्यवर्गीय चिंताओं में खैरवार जैसे लोगों को शामिल ही नहीं किया गया है जो सबसे ज्यादा कोयले खदानों से या फिर इस कथित भ्रष्टाचार से प्रभावित हुए और होने वाले हैं। मध्यवर्गीय चिंताओं-बहसों में बड़े आसानी से इसे विकास का नाम दे दिया जाता है और इससे भी ज्यादा क्रूर शब्द की बात करें तो कई लोग आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन से विस्थापन को विकास के लिए जायज ठहराते हुए 'कोलैटेरल डैमेज' जैसे जुमले भी उछाल दिया करते हैं। बात बहुत सीधी सी है- आपका नुकसान घोटाला और भ्रष्टाचार लेकिन दूसरी तरफ उन आदिवासियों का विस्थापन विकास के लिए जरुरी 'कोलैटेरल डैमेज'।

चलो मान लेते हैं कि कोयले खदानों का आवंटन बड़े ही निष्पक्ष तरीके से किया जाता है। सरकार को जितने पैसे मिलने चाहिए उतना पैसा भी मिल जाता है लेकिन क्या इन सबसे आदिवासियों के साथ किए जा रहे भ्रष्टाचार को जस्टिफाई किया जा सकता है? क्या निष्पक्ष ढंग से किए गए कोयला खदानों के आवंटन को जंगलों पर निर्भर रहने वाले लोगों के लिए न्याय माना जा सकता है? क्या मध्यवर्गीय चिंता से ओतप्रोत मीडिया कभी इन विस्थापितों की चिंताओं को पहले पन्ने की सुर्खियां बनाता? या फिर क्या मध्यवर्ग कभी इन विस्थापनों को विकास की जगह भ्रष्टाचार मानेगा? बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कोयला खदानों में खुदाई जरूरी है लेकिन क्या बिजली की डिमांड करनेवाली कौम कभी यह भी जानना चाहती है कि कोयले की कालिख से हर साल अकेले बिजली कारखानों से निकलनेवाले धुएं और गुबार के कारण एक लाख से अधिक लोग अकाल काल के गाल में चले जाते हैं।

और यह सब करनेवाला कोई और नहीं बल्कि मध्यवर्ग का वही आदर्श कोई कुमार और मंगलम हुआ करता है जो अपनी कूवत से टाटा बिड़ला बन बैठता है। तब तो किसी सीबीआई द्वारा किसी कुमार या अकुमार के खिलाफ भी कोई शिकायत दर्ज नहीं की जाती कि उनके विकास के कारण इतने लोग उजड़ रहे हैं, बिखर रहे हैं, मर रहे हैं। लेकिन आवंटन में घोटाला हो जाए तो बात दूसरी है। सीबीआई की तरफ से कुमार मंगलम बिरला पर किए गए एफआईआर को लेकर जिस तरीके से देश और जनता के हुक्मरान हल्ला मचा रहे हैं वो अपने आप में शर्मनाक है। केन्द्रीय मंत्री आनंद शर्मा सीबीआई की आलोचना सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि बिरला देश के बड़े उद्योगपति हैं और उनपर कोई एफआईआर दर्ज नहीं होना चाहिए। सिर्फ आनंद शर्मा ही नहीं सचिन पायलट, मिलिंद देवरा और मनीष तिवारी जैसे कद्दावर केन्द्रीय नेता भी देश की अर्थव्यवस्था के बहाने सीधा-सीधा संदेश दे रहे हैं कि बड़े कॉरपोरेट घराने देश के संविधान और कानून से उपर हैं।

अपने जंगल-जमीन बचाने के लिए संघर्ष कर रहे आदिवासियों पर टिप्पणी करते हुए कई बार शहरी मध्यवर्ग को कहते सुनता हूं कि ये लोग देश की अर्थव्यवस्था में बाधा ही हैं। इसी तरह अगर इन संघर्षों में कुछ हिंसा हो जाय तो यही लोग अहिंसा के गीत गाने शुरू कर देते हैं। शायद उस समय कोलैटेरल डैमेट की इनकी थ्योरी गायब हो जाती है। अगर अब भी सरकार, शहरी मध्यवर्ग, मीडिया उजराज खैरवार जैसे आदिवासियों को न्याय नहीं दे पाएगा, उनके साथ हो रहे भ्रष्टाचार को विकास का नाम देता रहेगा तो फिर इस कॉरपोरेट व्यवस्था में कोलगेट जैसे घोटाले होते रहेंगे जिनके जर्म किसी कोलगेट से भी कभी साफ नहीं होंगे।

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