30 October 2013

क्या राजनीति हिंसात्मक हो गई है?

पटना के गांधी मैदान में नरेंद्र मोदी की रैली से पहले पटना रेलवे स्टेशन पर आज सुबह 10 बजे प्लेटफॉर्म नंबर 10 पर 8 बम धमा हुआ। साथ ही 9 जिंदा बम मिले। जबकी 6 धमाके गांधी मैदान में हुए हैं। प्लेटफार्म नंबर 10 पर ही रैलियों में शामिल होने वाले लोगों से खचा खच भरी हुई ट्रेन आने वाली थी। इस बम ब्लास्ट में 5 लोग मारे गए हैं। किसी राजनीतिक दल की रैली से ठीक पहले रेलवे स्टेशन पर बम धमाका होता है जहां से होकर हजारों कि संख्या में लोग नेताओं के भाशण सुनने आते है। इन सभी तथ्यों के उपर नजर डाले तो इसको लेकर कई अहम सवाल खड़े होते है। साथ राजनीति में बढ़ते हिंसा का मुद्दा फिर से एक नई बहस को जन्म दे दिया है।

संविधान को बनाने वाली जनता है और जनता को चलाने वाली विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका है। यानि लोकतत्र में आम नागरिक ही सर्वोपरि है। लेकिन, लोकतंत्र का पिछले 66 साल का इतिहास बताता है कि न्याय और समानता का संविधान लिखने वाली जनता ही आज यहां सबसे अधिक राजनीतिक हिंसा की शिकार है।

दुनिया भर का इतिहास और सभ्यता और संस्कृति भी यही कहती है कि लोकतंत्र में हिंसा और प्रतिशोध का कोई स्थान नहीं है। राजनीति के अपराधिकरण के विरूद्ध बोलते तो सब बढ़-चढ़ कर हैं पर जब इसे रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की बात आती है तो राजनीतिक हीत सर्वोपरी हो जाती है। लाभ हानी का यही गणीत राजनीतिक हिंसा को आज चरम सिमा पर ला खड़ा किया है। इसे रोकने के लिए कोर्ट को आगे आना पड़ रहा है मगर राजनीतिक दल हिंसा की चासनी को छोड़ने को तैयार नहीं है। आज जो जितने बड़े अपराध करता है वह उतने ही बड़े पदों पर सुशोभित हो रहा है। फिर भी लोगों को यही बताया जाता है कि देश में कानून का शासन है। मगर कानून का पालन करने वाले मुकदर्षक बन कर मौत का इंतजार करते है।

देश में आजादी के बाद विकास का जो मॉडल अपनाया गया उसमें सरकार पर निर्भरता बढ़ा दी गई। जनता से उसकी आत्मनिर्भर जीवनशैली को छीन लिया गया। उसे विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए। इन्हीं सपनों को दिखाने और खुद को एक दुसरे से बड़ा सेकुलर बताने की राजनीति आम आदमी को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया जहा पर विकास सपना बन कर पीछे छुट गया और राजनीति हिंसासत्मक होकर सत्ता की चासनी बन गई।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि राजनीति में आज हिंसा का हथियार ने अपनी पहचान बना ली है। पिछले कई ऐसे राजनीतिक आयोजनों में दुघर्टनाएं, भीड़ और भगदड़ की घटनाएं बढ़ी है। गृह मंत्री खुद इस बात को स्वीकार करते हुए कहते है कि, राजनीतिक हिंसा व अशांति का क्रम चुनाव के समय बढ़ने वाला है। अपने विरोधियों की हत्या करने रैलियों को कुचलने के लिए हिंसा का सहारा लेने और असमाजिक गतिविधियों को अंजाम देने की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या राजनीति हिंसात्मक हो गई है?

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