27 जनवरी 1996। पश्चिमी सिंहभूम जिले के
डिपुटी कमिश्नर अमित खरे ने चाइबासा के पशुधन विभाग के दफ्तर पर छापामारे
की। चापेमारी में अमित खरे को कुछ संदेहास्पद दस्तावेज हाथ लगे जो किसी
बड़े घोटाले की ओर से इशारा करते थे। बात पटना तक पहुंची और मुख्यमंत्री
लालू यादव ने तत्काल इस मामले में जांच के आदेश दे दिये। मामले की लपट
कितनी भयावह थी कि मुख्यमंत्री की कमेटी की जांच से पटना हाईकोर्ट संतुष्ट
नहीं हुआ और सरयू राय की एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए तीन महीने के
भीतर मार्च 1996 में चारा घोटाले की जांच का काम सीबीआई को सौंप दिया।
तब से अब सत्रह साल नौ महीने बाद उसी सीबीआई की विशेष अदालत ने
लालू यादव को उसी चारा घोटाले के लिए दोषी करार दे दिया है जिसकी जांच का
आदेश बतौर मुख्यमंत्री खुद लालू यादव ने दिया था। सीबीआई ने जांच को अपने
हाथ में लेते ही लालू यादव को घेरना शुरू कर दिया था क्योंकि चारा घोटाले
के सरगना कोई और नहीं बल्कि खुद लालू यादव ही थे। शुरूआती जांच पड़ताल के
बाद 950 करोड़ के चारा घोटाले में वे जुलाई 1997 में गिरफ्तार कर लिये गये।
बिहार की राजनीति में दबंग राजनेता के तौर पर उभरे लालू यादव के लिए यह
उनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा झटका था। हालांकि जेल जाने से पांच दिन
पहले 25 जुलाई 1997 को उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार की गद्दी
सौंप दी थी और जेल के नाम पर पटना के पुलिस गेस्ट हाउस से सत्ता को संचालित
करते रहे लेकिन लालू के लिए चारा को जो संकट शुरू हुआ तो अठारह सालों तक
अनवरत चलता ही रहा।
भारत में चारा घोटाला कुछ उसी तरह से चर्चित हुआ जैसे बोफोर्स घोटाला।
चारा और लालू को लेकर इतनी कहावतें और कहानियां प्रचलित हो गईं कि लालू
प्रसाद यादव की छद्म छवि चाराचोर की ही बन गई। राजनीतिक रूप से जिस पिछड़े
वर्ग के उभार के तौर पर बिहार में लालू यादव ने सत्ता संभाली थी, चारा
घोटाले ने लालू को अगड़े ही नहीं बल्कि उस पिछड़े वर्ग में भी संदिग्ध कर
दिया जिसका खामियाजा आनेवाले दिनों में लालू यादव को भुगतना पड़ा। पहले
मुख्यमंत्री की कुर्सी गई, फिर गेस्टहाउस भी गया और बेउर जेल जाना पड़ा।
चारा घोटाले के बाद उनके ऊपर आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज किया गया
जिसमें भी वे रिमांड पर जेल गये। इन्हीं झंझावातों के बीच बिहार में नीतीश
कुमार का उदय हुआ और उनका राष्ट्रीय जनता दल भी प्रदेश में सिमटकर लालू
आकार का रह गया।
नीतीश कुमार को एक बार नहीं बल्कि दो बार प्रदेश ने
नेतृत्व सौंप दिया और लालू सिर्फ ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी का आरोप लगाते
रह गये। इस बीच दिल्ली दरबार में सोनिया गांधी से सेटिंग की वजह से उन्हें
रेल मंत्रालय जरूर मिल गया लेकिन 2009 के चुनाव में लालू के धराशाई होते ही
सोनिया गांधी लालू यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया। 1977 से सत्ता की
संसदीय राजनीति में समा चुके लालू धीरे धीरे करके छीजते ही चले गये और 2009
आने के साथ ही एक तरह से वे खत्म हो चले थे।
खुद को बिहार छात्र आंदोलन की पैदाइश कहनेवाले लालू यादव ने 29 साल की
उम्र में ही संसदीय राजनीति का सफर शुरू कर दिया था जब 1977 में वे पहली
बार लोकसभा के लिए चुने गये। उस वक्त वे सबसे कम उम्र के सांसदों में शुमार
थे। इसके बाद समाजवादी राजनीति में सक्रिय रहे लालू को सबसे बड़ा मौका
मिला 1990 में जब वे बिहार के मुख्यमंत्री बने। 1990 से लालू का उभार केवल
बिहार में नया राजनीतिक उभार नहीं था बल्कि देश की राजनीतिक क्षितिज पर एक
ऐसे राजनीतिज्ञ के उभार के तौर पर देखा गया जो सभ्य जनों की सभा में मसखरे
से ज्यादा महत्व नहीं रखता था। खुद लालू को यह मसखरा व्यक्तित्व पसंद था
क्योंकि उन्हें लगता था कि यही उनकी सफलता का राज है। दुनिया लालू को जोकर
कहती थी और लालू उसी जोकर वाली छवि के पीछे छिपकर एक दबंग की भांति बड़े
बड़े कारनामों को अंजाम दिया करते थे। चारा घोटाला संभवत: उन्हीं कारनामों
में से एक था।
जुलाई 1997 में पहली बार गिरफ्तारी के साथ लालू के राजनीतिक कैरियर का
उतार शुरू हुआ तो वह दोबारा कभी चढ़ नहीं पाया। लालू की राजनीतिक मटकी
एकसाथ धड़ाम से भले नहीं फूटी लेकिन क्रमश: छीजन में उनकी मटकी खाली होती
चली गई। और लालू की खत्म होती राजनीति के मूल में जितनी उनकी नियति और कर्म
था उतना ही चारा घोटाला भी था। जानवरों का चारा खानेवाले लालू को आखिरकार
वही चारा चर गया और रांची की विशेष अदालत द्वारा वे दोषी करार दे दिये गये।
अब दो दिन बाद जब सजा का ऐलान करते समय यह बताया जाएगा कि उन्हें कितने
साल की सजा दी गई। लेकिन अगर आप लालू के राजनीतिक कैरियर को गौर से देखें
तो पायेंगे कि बीते सत्रह साल उनके लिए किसी सजा से कम नहीं रहा है।
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