मितभाषी मनोहर जोशी के कंधे पर किसकी बंदूक
है? महाराष्ट्र की राजनीतिक जिज्ञासा के पिपासु परेशान है। बंदूक से दनादन
गोलियों की बौछार हो रही है और उद्धव ठाकरे चाहकर भी नहीं बच पा रहे हैं।
दशहरा रैली के रंग में भंग करने के बाद अब 75 साल के बुजुर्ग ने चिंघाड़
मारी है कि वो शिवसैनिक है। शिवसेना के पहले मुख्यमंत्री को आखिर गुर्राते
हुए क्यों परिचय देना पड़ रहा है? जिसे शिवसेना ने भारतीय लोकतंत्र की
सर्वश्रेष्ठ कुर्सी यानी लोकसभा के स्पीकर के तख्त पर पहुंचा दिया, उसे
अधेड़पन में बताने की जरूरत क्यों पड़ रही है कि वो शिवसैनिक है। इसका
राजनीतिक मायने यही है कि यह सब शिवसेना के कर्णधार को बिदकाने के लिए किया
जा रहा है।
पकी पकाई कहानी आ रही है कि मनोहर जोशी दादर से लोकसभा चुनाव
लड़ना चाहते हैं। शिवसेना ने मना कर दिया। वो बिफरकर राष्ट्रवादी कांग्रेस
पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार से मिल आए। पवार से मिलने से पहले मिर्ची लगाने
वाला बयान दिया कि उद्धव कमजोर नेता साबित हो रहे हैं। यह सब सरेआम किया
गया। इस पर उद्धव समर्थकों का भड़कना लाजिमी था। ऊपर से उद्धव के पहले बड़े
शो दशहरा रैली में पहुंचकर भांग भर आए। जोशी को देखते ही उद्धव के इशारे
पर सैनिक इस कदर भड़क उठे जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो। मनोहर
जोशी की परिपक्वता का बखान करने वालों ने ही धक्का मुक्की कर इस बुजुर्ग
नेता को मंच से भागने पर मजबूर कर दिया। अपने ही पार्टी कैडर का खौफ इस कदर
छाया रहा कि पांच दिन बाद मुंबई के कोहिनूर कंप्लेक्स में प्रकट हुए।
मनोहर जोशी की सफाई है कि पवार से मुलाकात पहले से तय थी। उनका यह कहना
वैसा ही असहज भरोसे लायक है जैसे बालीबुड का प्रतिस्पर्धी अभिनेता फिल्म
रिलीज के मौके पर दूसरे को घर जाकर शुभकामना दे आए।
महाराष्ट्र की राजनीति का ट्रेक रिकार्ड रहा है कि शिवसेना की पेड़ से गिरे हर बड़े आम को शरद पवार की डलिया मिलती रही है। पवार ने पूर्व शिवसैनिकों को अपने रंग में ढलने का ईनाम देने में कभी कंजूसी नहीं की। नारायण राणे जैसे की पवार से नहीं बनी तो कांग्रेस का आसरा थाम लिया। तो, मान लिया जाए कि मनोहर जोशी ने छगन भुजबल की राह पकड़ ली है। नहीं, शायद ऐसा नहीं है। इतने सीमित आयाम में राजनीति नहीं देखी जाती है। एक तो राजनीति की लिहाज से जलालत झेलने के बाद अब मनोहर जोशी शिवसेना छोड़ने के बजाय अंदर रहकर कमजोर नेतृत्व को और कमजोर करने की रणनीति में लगे रहना ज्यादा पसंद करेंगे। फिर ज्यादा बात बिगडी और पार्टी से निकालने की मजबूरी बनी तो उनकी पसंद पवार के बजाय राज ठाकरे हो सकते हैं।
महाराष्ट्र की राजनीति का ट्रेक रिकार्ड रहा है कि शिवसेना की पेड़ से गिरे हर बड़े आम को शरद पवार की डलिया मिलती रही है। पवार ने पूर्व शिवसैनिकों को अपने रंग में ढलने का ईनाम देने में कभी कंजूसी नहीं की। नारायण राणे जैसे की पवार से नहीं बनी तो कांग्रेस का आसरा थाम लिया। तो, मान लिया जाए कि मनोहर जोशी ने छगन भुजबल की राह पकड़ ली है। नहीं, शायद ऐसा नहीं है। इतने सीमित आयाम में राजनीति नहीं देखी जाती है। एक तो राजनीति की लिहाज से जलालत झेलने के बाद अब मनोहर जोशी शिवसेना छोड़ने के बजाय अंदर रहकर कमजोर नेतृत्व को और कमजोर करने की रणनीति में लगे रहना ज्यादा पसंद करेंगे। फिर ज्यादा बात बिगडी और पार्टी से निकालने की मजबूरी बनी तो उनकी पसंद पवार के बजाय राज ठाकरे हो सकते हैं।
यह सार्वजनिक सच है कि जब तक राज ठाकरे शिवसैनिक थे तो उनके सिपहसलार में
नंबर एक पर नारायण राणे थे। नारायण राणे ने पार्टी में राज को दरकिनार किए
जाने से पहले ही शिवसेना से कन्नी काट ली। शिवसेना को अलविदा कहना मुनासिब
समझा और बालासाहेब ठाकरे को भला बुरा कहते हुए कांग्रेस में ठौर पा लिया।
कांग्रेस में मुसीबत में फंसते हैं, तो इशारे से संभावित घर का पता बताकर
कांग्रेसियों में दहशत पैदा कर देते हैं। नारायण राणे के बाद राज के
शिवसेना छोड़ते वक्त पार्टी में मनोहर जोशी उनके सबसे करीबी थे। इतने करीबी
कि दोनों ने साझा बिजनेस खड़ा करने का काम किया। ठोस व्यवसायिक पार्टनरशिप
का रिश्ता कायम कर लिया। आखिरी पल तक उद्धव को स्थापित करने की इच्छा रखने
वाले बालासाहेब ठाकरे के लिए यह समझना आसान नहीं रहा होगा कि मनोहर जोशी
खुद को शिवसेना प्रमुख का सेवक बता रहे हैं और पुख्ता बिजनेस रिश्ता
पारिवारिक शत्रु से बढा रहे हैं। इस पहलू के राजनीतिक ताकत का जिक्र इसलिए
जरूरी है कि मनोहर जोशी और राज ठाकरे के बीच के प्रगाढ रिश्ते पर बालासाहेब
ठाकरे का कभी कोई बयान नहीं आया। नई पार्टी चलाने के लिए व्यक्तिगत आर्थिक
सुरक्षा जरूरत होती है। जाहिर तौर पर राज की इस जरूरत को पूरा करने में
बिजनेस पार्टनर से मदद मिली होगी। यह उद्धव ठाकरे को अखरना लाजिमी है।
राज ठाकरे की नरेंद्र मोदी से नजदीकी ने शांतचित उद्धव को पहले से परेशान कर रखा है। राज के रिश्ते को लेकर अभी भी शिवसेना मोदी को दिल से नहीं अपना पाई है। यही वजह है कि जेडी(यू) की तर्ज पर कभी आडवाणी पसंद तो कभी सबसे ज्यादा सुषमा पसंद का राग सामना के जरिए अलापा जाता रहा है। कहते है कि उल्टा तो उस रोज भी लिखा जा रहा था, जब बीजेपी मोदी को प्रधानमंत्री पद का विधिवत उम्मीद्वार घोषित करने वाली थी। भनक लगने पर मोदी ने मातोश्री फोन कर शुभकामना लेने की चतुराई कर ली। बिदके उद्धव को अब मनोहर जोशी के बेसुरे अलाप ने आपा खोने पर विवश कर दिया। हैरतअंगेज तरीके से यह भी हुआ कि "सामना" में मनोहर जोशी के खिलाफ और बाचाल शिवसैनिकों के हक में कार्यकारी प्रमुख ने लिख मारा। पार्टी में मौजूदा नेता के खिलाफ पार्टी के मुखपत्र में बयान देना मनोहर जोशी के कद को बढाता है या कम करता है, यह सतही राजनीतिक ज्ञान से वाकिफ व्यक्ति भी समझता है। गलती का अहसास कराए जाने के बाद उद्धव कह रहे हैं कि वो मनोहर जोशी पर बयान को सार्वजनिक तवज्जो देना जरूरी नहीं मानते।
दरअसल विशाल कद के मनोहर जोशी के खिलाफ शिवसेना में बयान देने की हैसियत उद्धव के सिवा शायद ही किसी के पास है। इस वक्त सबको मनोहर जोशी से सद्भावना है लेकिन उद्धव के हक में खड़ा होकर मनोहर जोशी से कोई नहीं पूछ रहा कि शिवसैनिक हैं, तो फिर शिवसेना के सर्वेसर्वा को चिकोटी क्यों काट रहे? उनकी नेतृत्व हैसियत पर सरेआम सवाल क्यों कर रहे हैं? सामना में छपने के बाद भी मर्यादा का ख्याल करना जरूरी क्यों नहीं समझते और ढीठता से गुस्साए शिवसैनिकों को भड़काने के लिए दशहरा रैली में मंच पर चढ़ना और फिर चढ़कर उतरना जरूरी क्यों समझते हैं?
राज ठाकरे की नरेंद्र मोदी से नजदीकी ने शांतचित उद्धव को पहले से परेशान कर रखा है। राज के रिश्ते को लेकर अभी भी शिवसेना मोदी को दिल से नहीं अपना पाई है। यही वजह है कि जेडी(यू) की तर्ज पर कभी आडवाणी पसंद तो कभी सबसे ज्यादा सुषमा पसंद का राग सामना के जरिए अलापा जाता रहा है। कहते है कि उल्टा तो उस रोज भी लिखा जा रहा था, जब बीजेपी मोदी को प्रधानमंत्री पद का विधिवत उम्मीद्वार घोषित करने वाली थी। भनक लगने पर मोदी ने मातोश्री फोन कर शुभकामना लेने की चतुराई कर ली। बिदके उद्धव को अब मनोहर जोशी के बेसुरे अलाप ने आपा खोने पर विवश कर दिया। हैरतअंगेज तरीके से यह भी हुआ कि "सामना" में मनोहर जोशी के खिलाफ और बाचाल शिवसैनिकों के हक में कार्यकारी प्रमुख ने लिख मारा। पार्टी में मौजूदा नेता के खिलाफ पार्टी के मुखपत्र में बयान देना मनोहर जोशी के कद को बढाता है या कम करता है, यह सतही राजनीतिक ज्ञान से वाकिफ व्यक्ति भी समझता है। गलती का अहसास कराए जाने के बाद उद्धव कह रहे हैं कि वो मनोहर जोशी पर बयान को सार्वजनिक तवज्जो देना जरूरी नहीं मानते।
दरअसल विशाल कद के मनोहर जोशी के खिलाफ शिवसेना में बयान देने की हैसियत उद्धव के सिवा शायद ही किसी के पास है। इस वक्त सबको मनोहर जोशी से सद्भावना है लेकिन उद्धव के हक में खड़ा होकर मनोहर जोशी से कोई नहीं पूछ रहा कि शिवसैनिक हैं, तो फिर शिवसेना के सर्वेसर्वा को चिकोटी क्यों काट रहे? उनकी नेतृत्व हैसियत पर सरेआम सवाल क्यों कर रहे हैं? सामना में छपने के बाद भी मर्यादा का ख्याल करना जरूरी क्यों नहीं समझते और ढीठता से गुस्साए शिवसैनिकों को भड़काने के लिए दशहरा रैली में मंच पर चढ़ना और फिर चढ़कर उतरना जरूरी क्यों समझते हैं?
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