08 October 2013

तेलंगाना पर राजनीति रार !

तेलंगाना के मुद्दे पर राजनीति सिर्फ कांग्रेस और संप्रग की पार्टियाँ ही नहीं कर रही हैं। सभी राजनैतिक दलों ने इस मुद्दे पर अपने-अपने राजनैतिक हितों के लिहाज से ही रुख अपनाया है। कुछ ने तो परिस्थितियाँ बदलते देखकर अपने ही कुछ महीने पहले के नजरिए से एकदम विपरीत स्टैंड ले लिया है। नए तेलंगाना राज्य की स्थापना आज नहीं तो कल होनी ही थी। इसके लिए आंदोलन कई दशकों से चला आ रहा है जिसने बहुत से लोगों की आहूति भी ली है। लेकिन यह आंदोलन तेलंगाना की स्थापना का अकेला कारण नहीं है। दूसरा बड़ा कारण है राजनीति, जिसकी वजह से नए राज्य के गठन का फैसला सन 2014 के आम चुनावों के कुछ ही पहले हुआ है। कुछ विपक्षी दलों की यह दलील निराधार नहीं लगती कि केंद्र सरकार ने फैसला करते समय राजनैतिक लाभ-हानि को ध्यान में रखा है। खास तौर पर फैसले के समय को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं। यह बात दीगर है कि तेलंगाना के मुद्दे पर राजनीति सिर्फ कांग्रेस और संप्रग की पार्टियाँ ही नहीं कर रही हैं। सभी राजनैतिक दलों ने इस मुद्दे पर अपने-अपने राजनैतिक हितों के लिहाज से ही रुख अपनाया है। कुछ ने तो परिस्थितियाँ बदलते देखकर अपने ही कुछ महीने पहले के नजरिए से एकदम विपरीत स्टैंड ले लिया है। 

तेलुगू देशम पार्टी के प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू और वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगन मोहन रेड्डी के अनशन राजनैतिक अवसरवादिता के उतने ही प्रबल उदाहरण हैं, जितना कि कांग्रेस द्वारा इस मामले को ठीक चुनावों तक लटकाए रखना। कुछ महीने पहले तक दोनों नेता तेलंगाना के गठन के हिमायती थे। चंद्रबाबू नायडू ने बाकायदा गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर नए राज्य के गठन की मांग की थी। जगन मोहन ने भी कुछ इसी तरह का पत्र लिखकर तेलंगाना के प्रति अपने सकारात्मक रुख का इजहार किया था। असल में तब आंध्र प्रदेश में हालात ही ऐसे थे। तेलंगाना राज्य के पक्ष में जबरदस्त आंदोलन, बंद और हिंसा का दौर चल रहा था। तब सभी राजनैतिक दल जन भावनाओं के इस उभार के साथ जुड़ने के लिए बेताब थे- कांग्रेस, भाजपा, तेलुगूदेशम और वाईएसआर कांग्रेस सभी। लेकिन हालात तब बदले जब घटनाक्रम तेलंगाना राज्य के गठन की दिशा में आगे बढ़ा और इसके विरोध में तटीय आंध्र प्रदेश और रायलसीमा क्षेत्रों (जिन्हें सीमांध्र कहा जा रहा है) में असंतोष के स्वर भड़कने लगे।

 अब सभी दलों में इस बात की होड़ और चिंता मची है कि कैसे गैर-तेलंगाना क्षेत्र की राजनीति में अपनी जगह बचाई जाए। इसके लिए वे अपने पूर्व-घोषित दृष्टिकोण से पीछे हटने के लिए भी तैयार हैं। जनता की याददाश्त कमजोर जो होती है!

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने, जो कांग्रेस में आंध्र प्रदेश के प्रभारी और तेलंगाना मुद्दे पर पार्टी के प्रतिनिधि, समन्वयक, संदेशवाहक, पर्यवेक्षक और वार्ताकार की भूमिका निभा रहे हैं, इस मामले में पार्टी और सत्तारूढ़ गठबंधन की स्थिति स्पष्ट कर दी है। भले ही कितना भी विरोध क्यों न हो, केंद्र सरकार नए राज्य के गठन के फैसले से पीछे नहीं हटेगी। अब तो मामला औपचारिक रूप से आगे बढ़ाने के लिए मंत्री-समूह का भी गठन हो गया है और कहा गया है कि संसद के शीतकालीन सत्र में तेलंगाना के गठन संबंधी विधेयक पेश हो जाएगा। हालाँकि कांग्रेस ने बड़ा राजनैतिक दाँव जरूर खेला है, लेकिन उसका फैसला वही है जो कुछ महीने पहले के माहौल में कोई भी सरकार करती। फिर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस बारे में भाजपा समेत अन्य राजनैतिक दलों को भी विधिवत विश्वास में लिया गया था। भाजपा ने तो मानसून सत्र में ही बिल पेश करने की मांग की थी।

कांग्रेस तेलंगाना के निर्माण का सैद्धांतिक फैसला पहले ही कर चुकी थी। पिछले लोकसभा चुनाव में उसके चुनाव घोषणापत्र में भी इसका वायदा किया गया था। इसी पृष्ठभूमि में 2004 के लोकसभा चुनावों से पहले चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का हिस्सा बनी थी और श्री राव केंद्र में मंत्री भी बने थे। कांग्रेस ने फैसले में देर जरूर लगाई है लेकिन अब ऐसा लगता है कि उसे इस पर टिकना जरूरी महसूस हो रहा है। यह ठंडे दिमाग से, तमाम नतीजों को ध्यान में रखते हुए किया गया फैसला है, जो बदलेगा नहीं। भले ही सीमांध्र में कितना भी बड़ा आंदोलन क्यों न हो, विपक्षी दल कितना भी वास्तविक या दिखावटी दबाव क्यों न डालें और खुद कांग्रेस के मंत्री केंद्र तथा राज्य सरकारों से इस्तीफे क्यों न दे दें। जरा सोचिए कि नए तेलंगाना राज्य की गैर-मौजूदगी में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस का चुनावी हश्र क्या होता? एक तरफ वाईएसआर कांग्रेस की अपार लोकप्रियता, दूसरी तरफ चंद्रबाबू नायडू का मजबूत होना और तीसरी तरफ तेलंगाना में प्रबल कांग्रेस-विरोधी भावना। यानी पूरी तरह सफाया! लेकिन अगर तेलंगाना राज्य की स्थापना हो जाती है तो आंध्र प्रदेश, जहाँ पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 42 में से 33 सीटें जीती थीं, के राजनैतिक समीकरण काफी बदल जाएंगे।

हालाँकि सीमांध्र क्षेत्र में कांग्रेस का सफाया अब भी तय है लेकिन तेलंगाना क्षेत्र में लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में स्थितियाँ उसके पक्ष में होंगी। विभाजन के बाद तेलंगाना में 17 लोकसभा सीटें रहेंगी। तेलंगाना राष्ट्र समिति के सहयोग से वह इनमें से ज्यादातर पर कब्जा कर सकती है। उधर सीमांध्र क्षेत्र में पार्टी का नुकसान कम करने की कोशिशें जारी हैं और इन्हीं के तहत अनेक कांग्रेस नेता विभिन्न पदों से इस्तीफे दे रहे हैं। मुख्यमंत्री किरण रेड्डी भी यदा-कदा हाईकमान के सामने विद्रोही की सी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर सीमांध्र क्षेत्र की 25 लोकसभा सीटों में से पार्टी तीन-चार पर भी जीत हासिल करने में सफल हो जाए तो उसका आंकड़ा बीस सीटों के आसपास पहुँच जाता है। तेलंगाना की गैर-मौजूदगी में यह सिर्फ तीन-चार तक ही सिमट जाना तय था। लेकिन अगर पार्टी जगन मोहन रेड्डी के साथ चुनावी तालमेल या चुनाव-पश्चात गठबंधन में सफल हो जाती है तो वह आंध्र प्रदेश में नकारात्मक जनभावनाओं के नतीजों से सुरक्षित बनी रह सकती है। खबर है कि कांग्रेस और जगन मोहन रेड्डी के बीच कोई 'करार' हुआ है, और कैद से जगन की रिहाई का भी इसी से संबंध बताया जाता है।

आंध्र प्रदेश के ताजा राजनैतिक बदलावों ने चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी के लिए फिर मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। कांग्रेस सरकार के विरुद्ध प्रतिष्ठान-विरोधी लहर का लाभ उन्हें नहीं बल्कि वाईएसआर कांग्रेस को मिलने वाला है। उधर तेलंगाना में या तो टीआरएस का दबदबा रहेगा या फिर कांग्रेस का। तेलुगूदेशम विकास और सुशासन जैसे मुद्दे उठाने का इरादा रखती थी लेकिन आंदोलन की आंधी में वह अप्रासंगिक हो गया है। वे ज्यादा से ज्यादा यही सिद्ध करने की कोशिश कर सकते हैं कि वे राज्य के विभाजन के घोर विरोधी हैं। यही वे कर भी रहे हैं। लेकिन आंदोलन का श्रेय लेने वाले और भी हैं। जगन मोहन रेड्डी सबसे आगे हैं और यहाँ तक कि कांग्रेस के नेता भी पीछे नहीं हैं।

बदले हुए हालात में चंद्रबाबू के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की ओर मुड़ने के आसार दिखाई देते हैं, जिससे वे धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर असहमत रहे हैं। शायद तेलुगू देशम और भाजपा के वोट मिलकर चंद्रबाबू की स्थिति कुछ सुधर सके। लेकिन दूसरे राज्यों के उलट, आंध्र प्रदेश के दोनों ही हिस्सों में भाजपा की उपस्थिति नगण्य दिखाई देती है। वह बदले हुए हालात से ऊहापोह की स्थिति में है। जगन मोहन रेड्डी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करके पार्टी के भीतर थोड़ी उम्मीदें जरूर जगाई हैं लेकिन जगन पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि वे भाजपा के साथ जाने वाले नहीं हैं। यूँ भी चंद्रबाबू और जगन एक ही गठबंधन का हिस्सा नहीं बन सकते।

भाजपा तेलंगाना के प्रति अपना समर्थन पहले ही जाहिर कर चुकी है। उसने यह भी कहा था कि अगर संप्रग-2 के कार्यकाल में इसका गठन नहीं होता तो वह सत्ता में आने के बाद ऐसा करेगी। एक जिम्मेदार राजनैतिक दल होने के नाते उसके पास अपना रुख बदल लेने का वैसा विकल्प मौजूद नहीं है जैसा आंध्र प्रदेश के दलों ने किया है। ऐसा हुआ तो भी परिस्थितियों में विशेष बदलाव नहीं आने वाला। ऐसे में वह राजग शासनकाल में शांतिपूर्ण ढंग से हुए तीन नए राज्यों के निर्माण की याद दिलाते हुए सीमांध्र आंदोलन और तेलंगाना पर फैसले में राजनैतिक कारणों से देरी करने के लिए केंद्र को निशाना बनाने में जुटी है। राजनीति कांग्रेस ने जरूर की है। लेकिन किस दल ने नहीं की?

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