1919 में कोलकाता में पैदा होनेवाले मन्ना दा
देश के पद्मविभूषण पहले हुए बंग विभूषण बाद में। 1942 से संगीत की दुनिया
में प्रवेश करनेवाले मन्ना डे को भारत की सरकार ने 1971 में पहले पद्मश्री
पुरस्कार से नवाजा था, जिसके बहुत बाद में 2005 में उन्हे पद्म श्रेणी के
ही एक उच्च पुरस्कार पद्म विभूषण से विभूषित किया। लेकिन कोलकाता के जिस
बंगाली परिवेश और परिवार में मन्ना दा पैदा हुए थे, उस बंगाल को मन्ना की
याद तब आई जब बंगाल का निजाम बदल गया। आमतौर पर गीत संगीत को पुरस्कारों से
सुशोभित करनेवाले वाम विचारधारा ने मन्ना को नजरअंदाज ही कर रखा था। लेकिन
2011 में ममता बनर्जी के नये निजाम ने बंग विभूषण पुरस्कारों की जो शुरुआत
की तो पहला पुरस्कार मन्ना को ही मिला। और यही मन्ना को मिला आखिरी
पुरस्कार भी था।
1942 में तमन्ना फिल्म से उन्होंने अपने संगीतमय सफर की शुरूआत
की थी जब वे अपने चाचा के पास कोलकाता से मुंबई आये थे। फणी मजूमदार की इस
फिल्म में उन्होंने गाना तो नहीं गाया था लेकिन संगीत में जरूर हाथ आजमाया
था। कोलकाता के जिस घर में उनका पालन पोषण हुआ था, वह संयुक्त परिवार था और
उसी परिवार में उनके चाचा कृष्ण चंद्र डे संगीताचार्य थे। जाहिर है, संगीत
की शुरूआती शिक्षा उन्हें अपने चाचा से ही मिली और मुंबई में प्रवेश भी
चाचा कृष्ण दत्त की मर्जी से ही हुआ। संगीतज्ञ के तौर पर भी और गायक के
बतौर भी।
संगीत की शुरूआत सचिन देव बर्मन के साथ हुई तो गायकी की शुरूआत सुर की
मलिका सुरैया के साथ। बाद में कई और संगीत निर्देशकों के साथ भी काम किया।
लेकिन जल्द ही प्रबोध चंद्र डे ने अपना स्वतंत्र अस्तिव बनाने की दिशा में
कदम उठा दिया।
जिस दौर में प्रबोध चंद्र डे मुंबई आये थे, मुंबई नयी नयी फिल्म नगरी के
रूप में बस रही थी। लाहौर और बंगाल के लोग चलकर मुंबई आने लगे थे जो बाद
में पश्चिमी पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान में तब्दील हो गया था। उन दिनों
लखनऊ का भी मुंबई फिल्म इंडस्ट्री पर अच्छा खासा दबदबा था इसलिए मन्ना के
लिए मन का काम करने में बहुत मुश्किल नहीं आनेवाली थी जैसा कि उन्हें बाद
में शिकायत हुई। संगीत में आगे बढ़ने के लिए बेसुरा होना कोई कसौटी नहीं
थी। इसलिए तीन दशक तक मुंबई फिल्म संसार में मन्ना मन के मुताबिक गाते रहे
जिसमें बंगाली संस्कृति और भारतीय संगीत दोनों का पुट समाहित होता था।
लेकिन जिस दौर में मन्ना मुंबई आये थे, उसी दौर में एक और नौजवान मुंबई
पहुंचा था। किशोर कुमार। मुंबई फिल्म संसार उसी दौर में उद्योग की दिशा में
आगे भी बढ़ने की कोशिश कर रहा था जिस दौर में उसे संस्कृति का
प्रतिनिधित्व भी करना था। इसलिए संगीत की दुनिया में जितना मौका
प्रबोधचंद्र डे (मन्ना) को मिला उतना ही मौका किशोर कुमार को भी। किशोर
कुमार में गायकी की पहचान भी उन्हीं सचिन देव बर्मन ने कर ली थी जिन्होंने
मन्ना को मौका दिया था। फिर भी मन्ना रहे। और पूरे मन से रहे।
मुंबई फिल्मों के संसार के जरिए उनकी आवाज देश विदेश में घर घर तक
पहुंची। एक संदेश बनकर। एक तराने के रूप में तरन्नुम बनकर। इसी दौर में
राजेश खन्ना की फिल्म सफर में उनका वह गाया वह गाना उनके लिए भी आखिरी
संदेश साबित हुआ जो उनके जाने के बाद आज बरबस समय की वह सच्चाई सामने लाता
है। सब जा रहे हैं। एक दिन तुम्हे भी जाना होगा। समय की धारा में कोई रुक
नहीं सकता। ठहर नहीं सकता। लेकिन जानेवाले अगर मन्ना दा जैसे लोग हों तो
उन्हें मन में संभालकर तो रखा ही जा सकता है। तब तक, जब तक निज मन समय की
धारा में तिरोहित न हो जाए।
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