मीडिया के परिदृश्य में पिछले दो दशकों में अत्यधिक बदलाव आया है। इस रूपांतकरण ने मीडिया उद्योग के समक्ष चुनौतियां भी पेश की हैं। आज भारत वैश्विक क्रास मीडिया उपभोग पैटर्न में दुनिया का आइना है। इस युग का बेहद दुर्भाग्यपूर्ण आनुषांगिक प्रिंट उद्योग में वैश्विक बदलाव आया है। यह जानकार दुख होता है कि दुनिया भर में महत्वपूर्ण अखबार और पत्रिकाएं प्रिंट बंद कर रहे हैं। हालांकि भारत में ऐसा प्रतीत होता है कि यहां यह रुझान नहीं है। भारतीय अखबार बाजार मीडिया एवं मनोरंजन पर उद्योग की रिपोर्ट के अनुसार 10 प्रतिशत की डबल डिजिट सी.ए.जी.आर (कंपाउंडेड एन्युअल ग्रोथ रेट) से बढ़ेगा और 2017 तक दुनिया का छठा सबसे बड़ा अखबार बाजार हो जाएगा। उद्योग सूत्रों के अनुसार प्रिंट की बाजार में संयुक्त रूप से करीब 14 प्रतिशत दखल है इसलिए प्रिंट उद्योग में राष्ट्रीय स्तर पर अपने और पाठकों में विस्तार की क्षमता है। इसलिए यह क्षेत्र कम से कम भारतीय संदर्भ में प्रौद्योगिकी के बदलते दृष्टिकोण को सहन करने में सक्षम होगा।
भारतीय प्रसारण क्षेत्र 1991 में एक चैनल से बढ़कर 852 तक आ पहुंचा है। वैधानिक तार्किकीकरण के बाद यह संख्या अब 795 चैनल है। इससे बहुलता के साथ बाजार में विखंडन भी हुआ है। भारत में 15.4 करोड़ घरों में टीवी है। दुर्भाग्य से समाचार और सामयिक मुद्दे कुल टेलीविजन दर्शकों में सिर्फ 7 प्रतिशत ही देखते हैं (2012 के लिए टैम सीएस 4$ अखिल भारतीय साप्ताहिक औसत के अनुसार)। समाचार एवं सामयिक मुद्दों के 395 चैनलों के बावजूद शेष 93 प्रतिशत सामान्य मनोरंजन चैनलों को ही देखते हैं। इससे आशा पैदा होती है कि समाचार प्रसारण में असीम वृद्धि की क्षमता है और मल्टी सिस्टम आप्रेटर्स अपने कंटेंट और कैरिएज पैराडिग्म के बारे में फिर से सोचने के लिए तैयार हैं। प्रिंट और टेलीविजन क्षेत्र में राजस्व मॉडल विज्ञापन पर बहुत अधिक निर्भर है।
सेवा की बेहतरीन क्वालिटी का लाभ उपभोक्ताओं को देने और प्रसारण क्षेत्र में राजस्व के मॉडल को सही करने के लिए सरकार ने 2012 में व्यापक डिजिटलीकरण अभियान शुरू किया। पहले चरण में 1 करोड़ सेट टॉप बॉक्स लगाने के बाद, दूसरे चरण में 2 करोड़ सेट टॉप बॉक्स और लगाए गए तथा तीसरे और चौथे चरण में 2014 के आखिर तक 8 करोड़ सेट टॉप बॉक्स और लगाए जाएंगे और प्रसारण क्षेत्र में कोई यह नहीं कह सकता कि अक्तूबर 2012 की तुलना में अगस्त 2013 में बॉटम लाइन और बैलेंस शीट बेहतर नहीं दिखाई दे रही है। समाचार प्रसारण उद्योग में विज्ञापन पर सीमा के लिए डिजिटाइजेशन के साथ तालमेल बिठाने वाले पथ की जरूरत है।
अकेले भारत में ही आज 86.7 करोड़ मोबाइल फोन हैं 12.4 करोड़ इंटरनेट यूजर हैं और 2017 तक यह संख्या 37 करोड़ होने की उम्मीद है। 8 करोड़ लोग फेसबुक पर हैं। 1.8 करोड़ लोग ट्वीटर पर हैं। यह बहुत अधिक विस्तार कर रहा है जो सही मायने में भविष्य का माध्यम है। सरकार ने हाल ही में इस विजुअल सभ्यता में सांस्थानित उपस्थिति दर्ज कराने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में नया मीडिया प्रकोष्ठ खोलने का निर्णय लिया है। दशक पहले जो माध्यम टेक्टोनिक प्रौद्योगिकीकय शिफ्ट माना जाता था लेकिन अब नए मुकाम पर खड़ा है वह है रेडियो। मोबाइल की संख्या बढ़ने और देश में सस्ती कॉल दरों के कारण यह पुनर्जागरण हुआ है।
एक अन्य क्षेत्र है फिल्म जिसने अभी-अभी अपने अस्तित्व की सदी पूरी की है। यह उद्योग बढ़ा है लेकिन अब भी इसमें असीम संभावनाएं हैं। उद्योग के अनुमान के अनुसार करीब 14 मिलियन भारतीय रोज फिल्म देखते हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार फिल्म उद्योग 112.4 अरब रुपये का है तथा 2017 तक करीब 193.3 अरब रुपये का होने का अनुमान है। क्षेत्रीय फिल्म उद्योग भी इसमें योगदान दे रहा है। उद्योग रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि मीडिया क्षेत्र 2007-12 के दौरान 9 प्रतिशत चक्रवृद्धि सालाना दर से बढ़ा है तथा 2012-17 के दौरान 15 प्रतिशत चक्रवृद्धि सालाना दर से बढ़ने की आशा है। कुछ ऐसे विरोधाभास हैं जो इस क्षेत्र में सभी हितधारकों को मिकलर दूर करने के प्रयास करने चाहिए।
भारत के मीडिया क्षेत्र का व्यापक विस्तार 1990 के दशक में शुरू हुआ। यह एक संयोग कहा जाएगा कि उस अवधि में देश में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की लहर का लाभ उठाने वाले प्रमुख वर्गों में मीडिया भी शामिल था। बढ़ते आर्थिक क्रियाकलापों ने बेहतर और गहन संचार की आवश्यकताओं को जन्म दिया, जिसके साथ एक वाणिज्यिक पहलू भी जुड़ा हुआ था। संचार व्यवस्था में एक सुखद चक्र की शुरुआत हुई, जिससे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही प्रकार के मीडिया की पहुंच में बढ़ोतरी हुई, नए बाजारों का विकास हुआ, जिसका लाभ निर्माताओं और उपभोक्ताओं दोनों को समान रूप से पहुंचा।
मीडिया क्षेत्र में सुधार और उदारीकरण स्वाभाविक रूप से सफल रहे हैं और तत्संबंधी प्रक्रिया अभी भी जारी है। इस बात का अंदाजा मीडिया उद्योग के आकार से ही भलीभांति लगाया जा सकता है। किंतु मीडिया सिर्फ व्यापारिक गतिविधियों का दर्पण नहीं है; वह समूचे बृह्त्त समाज को व्यक्त करता है। पिछले दो दशकों और उससे भी अधिक समय से आर्थिक सुधार और उदारीकरण हमारे देश में व्यापक सामाजिक परिवर्तन लाने में सफल रहे हैं। परिवर्तन अपने साथ चुनौतियां भी लेकर आता है। पिछले दो दशकों के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों से उत्पन्न चुनौतियों को समझना, उनसे निपटना और उन पर काबू पाना मीडिया उद्योग के विशेषज्ञों के नाते आपका परम दायित्व है। हमारे जैसे सशक्त लोकतंत्र में, जो मुक्त जांच और सवालों के जवाब के लिए अन्वेषण में विश्वास रखता है, यह दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। किंतु इस दायित्व का निर्वाह करते समय सावधानी की आवश्यकता है।
विश्वसनीयताएं मीडिया का मूल्य है जो उसके पाठकों या दर्शकों के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। सामाजिक सद्भाव और सार्वजनिक व्यवस्था के दायित्व का सवाल इससे जुड़ा हुआ है। यह वास्तविकता है कि पत्रकारिता को उसके काम से अलग नहीं किया जा सकता। किसी भी मीडिया संगठन का दायित्व सिर्फ उसके पाठकों और दर्शकों तक सीमित नहीं है। कंपनियों का दायित्व अपने निवेशकों और शेयरधारकों के प्रति भी होता है। बॉटम लाइन और हेड लाइन के बीच खींचतान उनके लिए जीवन की सच्चाई है। किंतु, इसकी परिणति ऐसी स्थिति में नहीं होनी चाहिए कि मीडिया संगठन अपने प्राथमिक लक्ष्य को भूल जाएं, जो समाज को दर्पण दिखाने का है तथा सुधार लाने में मदद करने का है।
भारतीय प्रसारण क्षेत्र 1991 में एक चैनल से बढ़कर 852 तक आ पहुंचा है। वैधानिक तार्किकीकरण के बाद यह संख्या अब 795 चैनल है। इससे बहुलता के साथ बाजार में विखंडन भी हुआ है। भारत में 15.4 करोड़ घरों में टीवी है। दुर्भाग्य से समाचार और सामयिक मुद्दे कुल टेलीविजन दर्शकों में सिर्फ 7 प्रतिशत ही देखते हैं (2012 के लिए टैम सीएस 4$ अखिल भारतीय साप्ताहिक औसत के अनुसार)। समाचार एवं सामयिक मुद्दों के 395 चैनलों के बावजूद शेष 93 प्रतिशत सामान्य मनोरंजन चैनलों को ही देखते हैं। इससे आशा पैदा होती है कि समाचार प्रसारण में असीम वृद्धि की क्षमता है और मल्टी सिस्टम आप्रेटर्स अपने कंटेंट और कैरिएज पैराडिग्म के बारे में फिर से सोचने के लिए तैयार हैं। प्रिंट और टेलीविजन क्षेत्र में राजस्व मॉडल विज्ञापन पर बहुत अधिक निर्भर है।
सेवा की बेहतरीन क्वालिटी का लाभ उपभोक्ताओं को देने और प्रसारण क्षेत्र में राजस्व के मॉडल को सही करने के लिए सरकार ने 2012 में व्यापक डिजिटलीकरण अभियान शुरू किया। पहले चरण में 1 करोड़ सेट टॉप बॉक्स लगाने के बाद, दूसरे चरण में 2 करोड़ सेट टॉप बॉक्स और लगाए गए तथा तीसरे और चौथे चरण में 2014 के आखिर तक 8 करोड़ सेट टॉप बॉक्स और लगाए जाएंगे और प्रसारण क्षेत्र में कोई यह नहीं कह सकता कि अक्तूबर 2012 की तुलना में अगस्त 2013 में बॉटम लाइन और बैलेंस शीट बेहतर नहीं दिखाई दे रही है। समाचार प्रसारण उद्योग में विज्ञापन पर सीमा के लिए डिजिटाइजेशन के साथ तालमेल बिठाने वाले पथ की जरूरत है।
अकेले भारत में ही आज 86.7 करोड़ मोबाइल फोन हैं 12.4 करोड़ इंटरनेट यूजर हैं और 2017 तक यह संख्या 37 करोड़ होने की उम्मीद है। 8 करोड़ लोग फेसबुक पर हैं। 1.8 करोड़ लोग ट्वीटर पर हैं। यह बहुत अधिक विस्तार कर रहा है जो सही मायने में भविष्य का माध्यम है। सरकार ने हाल ही में इस विजुअल सभ्यता में सांस्थानित उपस्थिति दर्ज कराने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में नया मीडिया प्रकोष्ठ खोलने का निर्णय लिया है। दशक पहले जो माध्यम टेक्टोनिक प्रौद्योगिकीकय शिफ्ट माना जाता था लेकिन अब नए मुकाम पर खड़ा है वह है रेडियो। मोबाइल की संख्या बढ़ने और देश में सस्ती कॉल दरों के कारण यह पुनर्जागरण हुआ है।
एक अन्य क्षेत्र है फिल्म जिसने अभी-अभी अपने अस्तित्व की सदी पूरी की है। यह उद्योग बढ़ा है लेकिन अब भी इसमें असीम संभावनाएं हैं। उद्योग के अनुमान के अनुसार करीब 14 मिलियन भारतीय रोज फिल्म देखते हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार फिल्म उद्योग 112.4 अरब रुपये का है तथा 2017 तक करीब 193.3 अरब रुपये का होने का अनुमान है। क्षेत्रीय फिल्म उद्योग भी इसमें योगदान दे रहा है। उद्योग रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि मीडिया क्षेत्र 2007-12 के दौरान 9 प्रतिशत चक्रवृद्धि सालाना दर से बढ़ा है तथा 2012-17 के दौरान 15 प्रतिशत चक्रवृद्धि सालाना दर से बढ़ने की आशा है। कुछ ऐसे विरोधाभास हैं जो इस क्षेत्र में सभी हितधारकों को मिकलर दूर करने के प्रयास करने चाहिए।
भारत के मीडिया क्षेत्र का व्यापक विस्तार 1990 के दशक में शुरू हुआ। यह एक संयोग कहा जाएगा कि उस अवधि में देश में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की लहर का लाभ उठाने वाले प्रमुख वर्गों में मीडिया भी शामिल था। बढ़ते आर्थिक क्रियाकलापों ने बेहतर और गहन संचार की आवश्यकताओं को जन्म दिया, जिसके साथ एक वाणिज्यिक पहलू भी जुड़ा हुआ था। संचार व्यवस्था में एक सुखद चक्र की शुरुआत हुई, जिससे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही प्रकार के मीडिया की पहुंच में बढ़ोतरी हुई, नए बाजारों का विकास हुआ, जिसका लाभ निर्माताओं और उपभोक्ताओं दोनों को समान रूप से पहुंचा।
मीडिया क्षेत्र में सुधार और उदारीकरण स्वाभाविक रूप से सफल रहे हैं और तत्संबंधी प्रक्रिया अभी भी जारी है। इस बात का अंदाजा मीडिया उद्योग के आकार से ही भलीभांति लगाया जा सकता है। किंतु मीडिया सिर्फ व्यापारिक गतिविधियों का दर्पण नहीं है; वह समूचे बृह्त्त समाज को व्यक्त करता है। पिछले दो दशकों और उससे भी अधिक समय से आर्थिक सुधार और उदारीकरण हमारे देश में व्यापक सामाजिक परिवर्तन लाने में सफल रहे हैं। परिवर्तन अपने साथ चुनौतियां भी लेकर आता है। पिछले दो दशकों के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों से उत्पन्न चुनौतियों को समझना, उनसे निपटना और उन पर काबू पाना मीडिया उद्योग के विशेषज्ञों के नाते आपका परम दायित्व है। हमारे जैसे सशक्त लोकतंत्र में, जो मुक्त जांच और सवालों के जवाब के लिए अन्वेषण में विश्वास रखता है, यह दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। किंतु इस दायित्व का निर्वाह करते समय सावधानी की आवश्यकता है।
विश्वसनीयताएं मीडिया का मूल्य है जो उसके पाठकों या दर्शकों के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। सामाजिक सद्भाव और सार्वजनिक व्यवस्था के दायित्व का सवाल इससे जुड़ा हुआ है। यह वास्तविकता है कि पत्रकारिता को उसके काम से अलग नहीं किया जा सकता। किसी भी मीडिया संगठन का दायित्व सिर्फ उसके पाठकों और दर्शकों तक सीमित नहीं है। कंपनियों का दायित्व अपने निवेशकों और शेयरधारकों के प्रति भी होता है। बॉटम लाइन और हेड लाइन के बीच खींचतान उनके लिए जीवन की सच्चाई है। किंतु, इसकी परिणति ऐसी स्थिति में नहीं होनी चाहिए कि मीडिया संगठन अपने प्राथमिक लक्ष्य को भूल जाएं, जो समाज को दर्पण दिखाने का है तथा सुधार लाने में मदद करने का है।
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