बिहार का अरबल जिला फिर गर्म है। कहीं सन्नटा
पसरा है तो कहीं घी के दिए जलाए जा रहे है। नरसंहार के सत्रह साल बाद
लक्ष्मणपुर बाथे गांव में न्याय न मिलने की रूदाली चल रही है तो इसी गांव
के एक हिस्से सहित दो अन्य गांव कामता और चंदा में घी के दिए जल रहे है। ये
गांव उन लोगों के है जो अभी अदालत के फैसले से जेल से बरी हुए है। पिछले
दिनों पटना हाई कोर्ट ने बिहार के अरबल जिले के लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के
सभी आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत के इस फैसले के बाद बिहारी समाज से
लेकर तमाम मानवाधिकार संगठनों के बीच इस बात की चर्चा चल रही है कि अगर बरी
किए गए आरोपी बेकसूर हैं तो आखिर इस नरसंहार को किसने अंजाम दिया था?
क्या बिहार की पुलिस बेकार सावित हुई? क्या पुलिस अनुसंधान तथ्य
रहित था? या फिर पुलिस जांच की असलियत कुछ और ही थी? जितने लोग उतनी बाते।
लेकिन अब यह अदालत का फैसला बिहार की राजनीति को प्रभावित करेगा। सवाल ये
भी उठेंगे कि लालू के राज में हुए इस नरसंहार के लोगों को नीतीश के राज में
न्याय नहीं मिला। देश के इस सबसे बड़े नरसंहार पर आए फैसले का बिहार की
राजनीति पर क्या असर होगा इसे देखना होगा क्योंकि जो नीतीश कुमार दलितों की
राजनीति बिहार में करते दिख रहे हैं, इस फैसले से बिहार का दलित समाज बेहद
नाराज हो गया है। उधर भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा कि
‘उनकी पार्टी फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी। उन्होंने कहा कि
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जवाब देना होगा कि नरसंहार पीड़ितों के लिए
न्याय के वादे का क्या हुआ। इस सरकार में जनसंकार करने वाले को सजामुक्त
करना एक पैटर्न बन गया है।
बिहार में जातीय हिंसा का इतिहास काफी पुराना है। उच्च न्यायलय के ताजा
फैसले के बाद चर्चा में आए लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार से पहले और बाद में भी
राज्य में जातीय हिंसा का एक लंबा इतिहास रहा है।साल 1976 में भोजपुर जिले
के अकोडी गांव से शुरू हुई हिंसा करीब 25 सालों तक चलती रही। इस हिंसा में
सैकडों लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि अधिकतर मामले में
दलितों को न्याय नहीं मिला हैं। लक्ष्मीपुर बाथे नरसंहार पर आए उच्च अदालत
के फेसले और नरसंहार की कहानी पर हम फिर चर्चा करेंगे लेकिन पहले बिहार
की धरती पर हुए कुछ नरसंहारों के बारें में एक नजर डालें।
- बेल्छी कांड । 1977 देश की राजनीति के लिए एक अहम वर्ष था। इसी साल आपातकाल खत्म होने के बाद केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार बनी थी। इसी साल राजधानी पटना के पास बेल्छी गांव में कुर्मी समुदाय के लोगों ने 14 दलितों की हत्या कर दी थी। यह घटना उस वक्त सत्ता से बेदखल हो चुकीं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के राजनीतिक कैरियर के लिए वरदान साबित हुई। इंदिरा ने हाथी की पीठ पर बैठ कर बाढ से घिरे इस गांव का दौरा किया था।
- दनवार बिहटा। भोजपुर जिले के दनवार बिहटा गांव में अगडी जाति के लोगों ने 22 दलितों की हत्या कर दी थी। पीपरा। पटना जिले के इस गांव में 1980 में पिछडी जाति के दबंगों ने 14 दलितों की हत्या कर दी थी।
- देलेलचक-बघैरा। बिहार में उस वक्त तक के सबसे बडे जातीय नरसंहार में 52लोगों की मौत हुई थी। औरंगाबाद जिले के देलेलचक-बघौरा गांव में 1987 में पिछडी जाति के दबंगों ने कमजोर तबके के 52 लोगों की हत्या कर दी थी।
- नोंही-नागवान। 1989 में जहनाबाद जिले के नोंही-नागवान जिले में 18पिछडी जाति के लोगों और दलितों की हत्या कर दी गई।
- तिस्खोरा। 1991 में बिहार में दो बडे नरसंहार हुए। पटना जिले के तिस्खोरा में 15 और भोजपुर जिले के देव-सहियारा में 15 दलितों की हत्या कर दी गई।
- बारा गांव। गया ज़िले के बारा गांव में माओवादियों ने 12 फरवरी 1992 को भूमिहार जाति के 35लोगों की हत्या कर दी थी। माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के सशस्त्र दस्ते ने एक नहर किनारे ले जाकर उनके हाथ-पैर बांधकर उनकी गला रेतकर हत्या कर दी थी।
- बथानी टोला। साल 1996 में भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में दलित, मुस्लिम और पिछडी जाति के 22 लोगों की हत्या कर दी गई। माना गया कि बारा गांव नरसंहार का बदला लेने के लिए इस घटना को अंजाम दिया गया। साल 2012में उच्च न्यायलय ने इस मामले के 23 अभियुक्तों को भी बरी कर दिया था।
- सेनारी हत्याकांड। साल 1999 सबसे बडी घटना जहानाबाद जिले के सेनारी की थी जहां पर अगडी जाति के 35 लोगों की हत्या कर दी गई। इससे पहले इसी साल इसी जिले के शंकरबिघा गांव में 23 और नारायणपुर में 11दलितों की हत्या की गई।
- मियांपुर जनसंहार। औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 16 जून 2000 को 35 दलित लोगों की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में जुलाई 2013 में उच्च न्यायलय ने साक्ष्य के अभाव में 10 अभियुक्तों में से नौ को बरी कर दिया था। निचली अदालत ने इन सभी अभियुक्तों को आजीवन कारावास का सजा सुनाई थी।
यह बात और है कि 80 के दशक में बिहार में दलितों और रणबीर सेना के बीच
कई नरसंहार की घटनाओं को अंजाम दिया गया था लेकिन बाथे नरसंहार ने सत्ता
शासन की बात करने वाले लोगों की पूरी पोल खोल कर रख दी थी। पिछड़े और
दलितों की सरकार बनाने का दावा करने वाले तब के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की
राजनीति पर इस घटना को तमाचे के रूप में देखा गया था। इस घटना को इस
संवाददाता ने भी तब कवर किया था। तब घटना स्थल पर पहुंचे कई पत्रकारों को
खून और लाशों को देखकर खून की उल्टियां होने लगी थी। चारों तरफ चीत्कार और
रूदन के अलावा कुछ नहीं था उस गांव में। इस घटनों को अंजाम दिया गया था 1
दिसंबर 1997 की रात को। 58 लोगों की हत्या की गई थी। मारे गए लोगों में 16
बच्चे, 27 महिलाएं और कई बूढ़े शामिल थे। मरने वालों में ज्यादातर दलित
थे। निचली अदालत ने इस अपराध को रेयरेस्ट ऑफ द रेयर माना था।
पटना सिविल कोर्ट के एडीजे विजय प्रकाश मिश्र ने 7 अप्रैल 2010 को 16 को
फांसी और 10 को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। लेकिन, 9 अक्टुबर 2013 को पटना
हाईकोर्ट के जस्टिस वी.एन. सिन्हा और जस्टिस ए.के. लाल की बेंच ने इन सभी
आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। जिन लोगों को फांसी की सजा
से बरी किया गया है, वे हैं गिरजा सिंह, सुरेन्द्र सिंह, अशोक सिंह, गोपाल
शरण सिंह, बालेश्वर सिंह, द्वारिका सिंह, बिजेन्द्र सिंह, नवल सिंह,
बलिराम सिंह, नन्दु सिंह, शत्रुघ्न सिंह, नन्द सिंह, प्रमोद सिंह, राम केवल
शर्मा, धर्मा सिंह और शिव मोहन शर्मा। इनमें गिरिजा सिंह व शिव मोहन शर्मा
अब इस दुनिया में नहीं हैं। धर्मा सिंह फरार हैं। जो उम्रकैद की सजा से
बरी किए गए हैं, वे हैं अशोक शर्मा, बबलू शर्मा, मिथिलेश शर्मा, धरीक्षण
सिंह, चन्देश्वर सिंह, नवीन कुमार, रविन्द्र सिंह, सुरेन्द्र सिंह, सुनील
कुमार और प्रमोद सिंह। इन सभी को निचली अदालत ने सजा सुनाई थी। इनमें
अधिकतर बाथे, कामता व चन्दा गांव के रहने वाले हैं।
गौरतलब है कि इस मामले में दर्ज एफआईआर के मुताबिक, रणवीर सेना के करीब
200 लोगों ने लक्ष्मणपुर बाथे गांव में घुसकर 58लोगों को मार डाला था। गांव
में करीब 3घंटे तक खूनी कारनामा चला। लेकिन स्थानीय प्रशासन को इसकी खबर
तक नहीं लगी थी। पुलिस ने नरसंहार के 11 साल बाद 46 लोगों के खिलाफ
चार्जशीट दायर किया था। बाद में इनमें से 20बरी कर दिए गए थे। मामले में
ट्रायल कोर्ट में अभियोजन के 117गवाह व बचाव पक्ष के 152गवाहों ने गवाही
दी। पटना हाई कोर्ट के आदेश से यह मामला 1999में जहानाबाद कोर्ट से पटना
सिविल कोर्ट में ट्रायल के लिए आया था। अब सवाल यही हो रहा है कि आखिर एक
दिसंबर 1997 की रात सामूहिक नरसंहार किया किसने? आरोपियों की अपील पर
जस्टिस वीएन सिन्हा और एके लाल की बेंच ने कहा, ‘आरोपियों के खिलाफ सबूतों
की कमी थी। अभियोजन पक्ष द्वारा पेश गवाह और सबूत विश्वसनीय नहीं है। इसलिए
सभी बरी किए जाते हैं।’ सरकार ने अभी स्पष्ट नहीं किया है कि वह फैसले को
चुनौती देगी या नहीं।
इस फैसले के बाद बाथे गांव का नरसंहार कांड फाइलों में भले ही दफन हो
गया हो लेकिन जमीन पर 17 साल बाद फिर जिंदा हो गया हैं। बाथे गांव में फिर
कोई अनहोनी न हो इसको लेकर शासन के लोग सतर्क हो गए है। यहां पुलिस चौकियां
यहां बैठा दी गई है। लेकिन नीतीश की राजनीति का क्या होगा यह सवाल पटना की
फिजाओं में तैर रहा है। नीतीश के साथ गलबहियां करने वाली कांग्रेस दलितों
को क्या जबाव देगी इस पर सबकी नजरें टिकी है। दलितों के नेता कहे जाने वाले
रामविलास पासवान की राजनीति इस मामले में क्या होगा यह भी देखने की बात
होगी। और सबसे बड़ी बात यह कि जो अगड़ी जाति के लोग अदालत के फैसले से बाहर
निकले हैं उनकी राजनीतिक सहमति किस दल के साथ होगी?
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