09 October 2013

दादा को दादागिरी और मनमोहन की लाचारी !

बीते सप्ताह जब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में हिस्सा लेने के लिए न्यूयॉर्क गए थे तभी उनकी पार्टी के वारिस राहुल गांधी ने उनकी सरकार को ‘नॉनसेंस’ करार दे दिया था। पाकिस्तान की सत्ता व्यवस्था वहां के हालात में प्रधानमंत्री पद को सेना के मुख्यालय के समक्ष बौना मानती है। बीते छह दशकों में रावलपिंडी के रणबांकुरों ने इस्लामाबाद की जम्हूरियत को इतनी बार कुचला है कि पूरी दुनिया में इस सच की समझ आम हो चुकी है। फिर भी कभी रावलपिंडी के सैन्य तानाशाह ने भी पाकिस्तान के किसी जम्हूरी शासक को तब ‘नॉनसेंस’ नहीं घोषित किया जब वह वॉशिंगटन या न्यूयार्क में अमेरिकी अथवा संयुक्त राष्ट्र के राजनय से गुफ्तगू करने गया हो। 

शरीफ को भी ‘नॉनसेंस’ नहीं लगे मुशर्रफ

1999 में जब यही नवाज शरीफ वॉशिंगटन में बिल क्लिंटन के सामने कारगिल मसले पर घुटने टेक रहे थे तब भी नाराज पाकिस्तानी सेनाप्रमुख परवेज मुशर्रफ, शरीफ को ‘नॉनसेंस’ नहीं कह रहे थे। इतनी भी गरिमा कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने हिंदुस्तानी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की नहीं रखी। जिस सुबह मनमोहन सिंह को अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलना था उसी सुबह राहुल गांधी ने मनमोहन को ‘नॉनसेंस’ करार दे दिया। यदि नवाज शरीफ ने मनमोहन को ‘देहाती औरत’ की संज्ञा से भी निजी वार्ता में नवाजा हो तब भी ‘नॉनसेंस’ से तो शिष्ट शब्दावली का ही प्रयोग हुआ। फिर भी न्यूयॉर्क से लौटते ही प्रधानमंत्री ने जिस तरह संवैधानिक पद के अपमान को सिर झुकाकर न केवल सह लिया बल्कि भूल सुधार करते हुए खुद को आज्ञाकारी सेवक साबित किया उससे उन्हें व्यक्तिगत चाहे जितना लाभ हो जाए संवैधानिक लोकतंत्र का पतनचक्र पूरा हो गया है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी कभी संघ परिवार की फटकार पर इस तरह फैसला पलटते? लालकृष्ण आडवाणी और उनके संघ परिवार को फासीवादी कहना सड़ियल कांग्रेसी भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है, उन आडवाणी ने भी मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर कहा तो उस पर अड़े रह गए। संघ परिवार ने समझौता कर 2009 में लालकृष्ण आडवाणी को ‘जिन्नावादी’ करार देकर भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकारा।

कम़जर्फ की फटकार पर पूंछ हिलावन पीएम

मुलायम सिंह यादव भी शायद कल अखिलेश सिंह यादव को इस अंदाज में ‘बेवकूफ’ कह दें तो अखिलेश भी इस्तीफे की पेशकश कर देंगे, पर मनमोहन ने अपने पुत्र से भी कम उम्र और कम़जर्फ की फटकार खाकर मूंछ झुकाने और पूंछ हिलाने को अपना परम कर्तव्य पाया। परिणाम सामने है। मनमोहन सिंह की न तो कोई सरकार में सुनता है, न संसद में, न संगठन में, न संप्रदाय में, न जाति में, न परिवार में। फिर हम कैसे अपेक्षा पाल लेते हैं कि उनकी वार्ता से ओबामा प्रभावित होंगे और शरीफ सुधर जाएंगे? ऐसे में जब देश लालकिले की प्राचीर पर खड़े मनमोहन और लालन कॉलेज के मंच पर मंचस्थ नरेंद्र मोदी की तुलना करता है तो कांग्रेसी निगाह का फेंकू’ सत्ताचतुर किन्तु ‘पोंकू’ से बेहतर नजर आता है। दरअसल जब राजनीति की ऊर्वरभूमि बंजर हो जाती है तो वनस्पति में बेहयों की बन आती है। राजनीति की जमीन बंजर कब होती है जब बीजों का चयन प्रतिभा की बजाय गोत्र के गोबर पर निर्भर रहती है। 2004 में जब मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नामित कर रही थीं, तब उन्होंने राजनीतिक अनुभव, प्रतिभा और सामथ्र्य की नसबंदी कर एक प्रशासनिक मुनीमी की महारत को योग्यता का श्रेष्ठ मापदंड क्यों माना? सोनिया को लगता था कि अगर किसी सियासी सयाने को सत्ता का सूत्रधार बना दिया गया तो उसकी लोकप्रियता और स्वीकार्यता उनके युवराज को ‘नॉनसेंस’ साबित कर सकती है।

असली ‘पीएम’ से था सोनिया को डर

सत्ता में आने की पहली छमाही में ही सुनामी आई। याद होगा सोनिया गांधी, प्रणव मुखर्जी को लेकर दौरे कर रही थीं। मई 2004 से जुलाई 2012 तक पीएम भले मनमोहन थे पर सरकार पीएम यानी प्रणव मुखर्जी चला रहे थे। तमाम मंत्रिमंडलीय समूहों के अध्यक्ष बनकर। हर मुसीबत की घड़ी में खेवनहार वही हुआ करते थे। वह रक्षामंत्री थे इसीलिए सियाचिन और सरक्रीक पर मनमोहन सिंह अमेरिका की मर्जी और पाकिस्तान के हित में समझौता नहीं कर पाए। वह विदेश मंत्री बने तो 26/11 पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को ऐसा डांटा कि जरदारी पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार आईएसआई के तत्कालीन चीफ शुजा पाशा को दिल्ली दरबार में हाजिर करने को राजी हो गए थे। प्रणव मुखर्जी का ऐसा कद था कि राहुल या उनकी मम्मी सोनिया उन्हें डांटकर कोई फैसला नहीं करा सकती थीं। सोनिया जानती थीं कि उनके पति राजीव गांधी नाराज रहे तो प्रणवदा ने सत्ता से बाहर रहकर मुफलिसी काट ली, पर मक्खनबाजी को मजबूर नहीं हुए। जब प्रणव मुखर्जी जान गए कि सोनिया जीते जी उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका पुत्रमोहवश नहीं देंगी तो वह राष्ट्रपति भवन चले गए।

प्रणव मुखर्जी ही रहे सबके ‘मनमोहन’

राष्ट्रपति के रूप में भी प्रणवदा का किरदार देखें। अफजल गुरु की फांसी पर दया याचिका से लेकर बिहार की सरकार की बर्खास्तगी तक भाजपा नियुक्त राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अबुल कलाम ने खुद को सरकारी कठपुतली सिद्ध किया था। प्रतिभाताई पाटील तो राष्ट्रपति भवन में सोनिया की घरवाली बाई से बड़ा अपना किरदार ही नहीं पेश कर पार्इं। अफजल गुरु और कसाब की दया याचिका पर उनकी लाचारी से तो ‘महाराष्ट्रधर्म’ के चलते समर्थन देनेवाले शिवसेना प्रमुख भी ताई पर बेहद खफा थे। जब प्रणवदा का नाम राष्ट्रपति पद के लिए आया और दिल्ली के राजनीतिक विश्लेषकों की निगाह में अप्रत्याशित रूप से शिवसेनाप्रमुख ने उनको समर्थन देने का ऐलान किया तो एक भाजपा प्रवक्ता ने व्यंग्य कसा था- ‘क्या प्रणव मुखर्जी अफजल गुरु और कसाब की दया याचिका ठुकराएंगे?’ जब शिवसेना प्रमुख से मिलने प्रणवबाबू आए तो शिवसेना प्रमुख ने अपनी यही अपेक्षा व्यक्त की।

प्रणव में है दम, पीएम पानी कम

प्रणव दा के बैठते ही वर्षों से लटकी दया याचिकाओं का सरकार ने कैसे फटाफट निपटारा किया, यह पूरा देश जानता है। उन्हीं प्रणव मुखर्जी ने बीते सप्ताह अपनी तुर्की और बेल्जियम यात्रा के दौरान पाकिस्तान को जिस अंदाज में घेरा वैसी घेराबंदी मनमोहन कर सकते तो उन्हें देश तीसरी बार खुद प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हो जाता। जब मनमोहन सिंह  पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिल रहे थे तो वह भेड़िए के समक्ष भेड़ वाली मुद्रा में थे। 2003 से जिस नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान सीजफायर समझौता मानता रहा है उसकी सेना पुंछ और केरन सेक्टर में घुसपैठ कर रही थी, मनमोहन चाहते तो नवाज को नकेल कसने की हिदायत तो दे ही सकते थे। पर मनमोहन मिमियाते रहे और नवाज अपने भेड़िएपन पर इतराते रहे। मनमोहन अगर नवाज से पंजाबी में पूछ लेते - ‘अचानक नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना और जिहादियों के सीजफायर तोड़ने की घटनाओं में इजाफे का क्या कारण है? तो तय समझें कि राहुल गांधी भी इस सवाल को ‘सेंसिबल’ मानने को मजबूर होते।

बाघों के लिए नहीं बचा अभयारण्य

विश्वबैंक और इंटरनेशनल मोनेटरी फंड मनोबल कर्ज में नहीं देता वर्ना मोंटेक सिंह अहलूवालिया कुछ चक्कर चलाते। जो सवाल न्यूयॉर्क में मनमोहन नहीं पूछ सके उससे बेहतर सवाल राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने बेल्जियम और तुर्की में पूछा- ‘ये आपके (पाकिस्तान के) ‘नॉन स्टेट एक्टर’ (जिहादियों की नई पाकिस्तानी परिभाषा) आते कहां से हैं? वे स्वर्ग से नहीं टपकते। वे पाकिस्तान की धरती पर ही पैदा होते हैं और पाले जाते हैं। वे पाकिस्तानी फौज की मदद से ही सीजफायर की लाइन पार करते हैं। जब वे पाकिस्तानी लाइन की तरफ होते हैं तब उन्हें कोई चुनौती नहीं देता।  क्या उन ‘नॉन स्टेट एक्टर्स’ को यह मदद शरीफ सरकार से पूछ कर दी जाती है। या फिर इस तरह का स्वतंत्र ऑपरेशन खुद पाकिस्तानी सेना चलाती है? आतंकवाद पर पाकिस्तान में दोहरी नीति का संचालक आखिर कौन है?’ प्रणव मुखर्जी के इन सवालों का जवाब न पाकिस्तान के पास है और न पाकिस्तान को पोसनेवालों के पास? पर प्रणव मुखर्जी के ये बयान हिंदुस्तान के आधिकारिक नीति में नहीं।

प्रणव अड़ जाते हैं तो दागियों के दाग अच्छे साबित करने वाला जनप्रतिनिधित्व विधेयक युवराज को फाड़कर अपने को सर्वशक्तिमान साबित करना पड़ता है। अफजल और कसाब को कब्र की राह दिखाने  की सारी बाधाएं कट जाती हैं। जरदारी की फट जाती है और सारे पाकिस्तानपरस्त बगलें झांकने लगते हैं, क्यों? क्योंकि उनमें डंके की चोट पर बात करने का माद्दा है। उनका यही माद्दा अयोग्य किन्तु वंशसिद्ध पदपात्रों को सहमाता है। इसलिए गर्जनवाले प्रणव कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाते जबकि मिमियाने वाले सत्ता के समग्र सुख से नवाजे जाते हैं। जब देश बकरियों को बेहतर मानने को मजबूर हो गया हो तब बाघों की प्रजाति के लिए अभयारण्य बचता कहां है?

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