धर्म के आड़ में वोट का व्यापार करने वाले हमारे राजनेता आज कितने धर्मनिरपेक्ष है इसका अंदाजा नेताओं कि नवरात्र से बेरूखी और रोज़ा इफ्तार में पार्टी देने से लेकर नमाजी टोपी पहनने तक से लगाया जा सकता है। रोज़ा के समय हर दल के नेताओं में पार्टिया देने का कम्पिटीशन चल पड़ता है। केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक इफ्तार पार्टियां सुरू हो जाती है। जैसे मानो कि देश में एक इफ्तार कि नई लोकतांत्रिक जश्न चल रहीं हैं। जहां हर कोई मुनीदी करना चाहता है। कंही मुख्यमंत्री कि महफिल चलती है तो कही तो कंही महामहिम राज्यपाल के राजदरबार।
लेकिन सवाल यहा किसी धर्मविशेष कि आलोचना को लेकर नहीं है, सवाल ये है कि पार्टी देने वाले ये लोग कभी नवरात्र, कांवरियों या बजरंगियों को क्यों नहीं बुलाते है। क्या ये सेकुलर राजनीति का संप्रदायिक रंग नहीं है। एक ओर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी हर साल सरकारी पैसे से अपने सरकारी निवास में भव्य इफ्तार पार्टी करते है। तो वहीं दुसरी ओर पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ऐपीजे अब्दुल कलाम इफ्तार पार्टी को रद्द कर उस पार्टी के पैसे को एक अनाथालय को दान करने की घोषणा की थी। उपराश्ट्रपति, राज्यवाल या फिर मंत्री या मुख्यमंत्रियों इससे कोई सिख क्यों नहीं लेते है? 2007 में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों में से किसी ने भी दिवाली की शुभकामनाएँ नहीं दी थी जबकि रोजा रमजान में टीवी से लेकर अखबारों तक और रेडियो से दुरदर्षन तक सुभकामना और बधाई देने वालों कि बाढ़ आ जाती है।
इफ्तार पार्टी की बारी आती है तो हर हिंन्दु नेता अपने आप को मुस्लिमों के सबसे बड़े हितैसी साबित करने से नहीं चुकता है। ऐसे में सवाल खड़ा होता है की क्या ये नेता सिर्फ दिखावे की राजनीति करते है, जो सिर्फ टोपी लगा कर उनके दिल को जीतना चाहते है। ऐसी राजनीति करने वाले राजनेताओं को कभी उस तबके के विकास नजर क्यो नहीं आता? उनके सिक्षा और स्वास्थ्य के बारे आखिर ये नेता क्यो नहीं सोचते है?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी ऐसी राजनीति में खुब दिलचस्पी लेते है अगर इनकी उदारता पर नजर डाले तो इन्होने 2010 के इफ्तार पार्टी में मात्र 5 हजार मुस्लमानों के लिए 60 लाख रूपये सरकारी खजाने से लुटा दिए। सरकारी खजाने से इफ्तार पार्टी की शुरुआत इस देश मे सबसे पहले इंदिरा गाँधी ने की थी। वोट बैंक के लिए उन्होंने सरकारी खजाने से पहली बार अपने निवास तीन मूर्ति भवन मे भव्य इफ्तार पार्टी दिया था। रामविलास पासवान, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, आजम खान, जैसे हजारों लोगों ने सरकारी पैसे से भव्य इफ्तार पार्टी का आयोजन करने में नही हिचकते।
मगर यहा सवाल हिंन्दुओं के हक को लेकर भी उठता है की क्या कभी कोई होली दशहरा दिवाली पर फलाहार पार्टी या भोज का अयोजन क्यो नहीं किया जाता है। लेकिन क्या इस देश मे जहां 80 प्रतिषत हिंदू है उनके लिए सरकारी पैसे से होली या दिवाली की पार्टी हिन्दुओं के लिए हो सकती है? ऐसा बिलकुल नहीं लगता, क्योकी अगर कोई ऐसा करेगा तो साम्प्रदायिक पार्टी कहलायेगा। यही कारण है की हर नेता अपने सर पे नमाजी टोपी डाल कर अपने आप को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की जुगत में मौकापरस्ती की राजनीति करने से बाज नहीं आता हैं। तो ऐसे में सवाल खड़ा होता है की रोजा इफ्तार में सद्भावना तो नवरात्र में क्यों नहीं ?
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