पाकिस्तान
के पंजाब प्रांत में रहीम यार खान जिला अपनी जिस विशेषता के लिए जाना जाता
है वह उसकी भौगोलिक दशा है। सिंधु घाटी की सभ्यता का विकास उद्भव और विकास
जिस इलाके में हुआ उसमें पाकिस्तान के इस वर्तमान जिले का भूभाग भी शामिल
रहा है। हालांकि तकनीकि तौर पर यह जिला पंजाब राज्य का हिस्सा है लेकिन
इसका कुछ हिस्सा सिंध को भी छूता है। रेगिस्तान और पहाड़ एकसाथ इस जिले के
अलग अलग छोर पर मौजूद हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता तो कब की इस्लाम के आगोश में
सिमट गई लेकिन सिंधु नदी आज भी रहीमयार खान जिले के उत्तरी किनारे को
छूकर बहती है। अतीत से वर्तमान के बीच सिर्फ सिंधु नदी ही वह आखिरी निशान
है जो अनवरत है। नहीं तो, सिंधु
नदी के
किनारे जिस सभ्यता ने जन्म लिया उस सभ्यता के कमोबेश सारे निशान बड़ी मूर्खतापूर्ण तरीके
से खत्म कर दिये गये। रहीम यार खान जिले के खानपुर तहसील में 18 हिन्दुओं के धर्मांतरण की खबर खात्मे के
उन्हीं प्रयासों के आखिरी प्रयास हैं।
पाकिस्तान की जिस
एसोसिएटेड प्रेस आफ पाकिस्तान ने 18 हिन्दुओं के धर्मांतरण की यह खबर दी है उनमें सात
पुरुष और 11 महिलाएं
हैं। पाकिस्तान
में आमतौर पर हिन्दुओं की दशा इतनी दयनीय कर दी गई है कि उनका हिन्दू होना ही उनका
लिए गुनाह हो गया है। अपनी जान बचाने के लिए उनके सामने दो ही रास्ता होता है। पहला
रास्ता होता है कि वे किसी तरह भागकर भारत पहुंच जाएं और अपनी जान तथा अपना
धर्म दोनों बचा लें। यह रास्ता सुलभ नहीं हो पाता तो वे धर्मांतरण कर इस्लाम
कबूल कर लेते हैं। खानपुर के झोक फरीद निवासी सामाराम, लालूराम, सीतूराम, कैसूराम और कृष्णराम को भारत भाग आने का पहला रास्ता
शायद नहीं मिला होगा इसलिए उन सब ने अपने नाम को मोहम्मद के नाम से जोड़ लिया। अब
सासाराम मोहम्मद शरीफ हो गये हैं तो लालूराम मोहम्मद ताज। बाकियों ने भी इसी
तरह अपने इस्लामिक नाम कबूल कर लिये हैं। आमतौर पर पाकिस्तान में
काफिरों की लाश पर ही अल्ला-हो-अकबर का नारा बुलंद किया जाता है लेकिन इस बार
ख्वाजा गुलाम फरीद की मस्जिद में इकट्ठा हुई भीड़ ने अल्ला-हो-अकबर नारा
लगाया और 18 हिन्दुओं
का अरब के इस्लाम
में खैरमकदम किया।
ऊपरी तौर पर देखें तो
यह बड़ी छोटी सी घटना है। एक ऐसे देश में जिसका जन्म ही एक धर्म विशेष के नाम पर हुआ हो
उस देश में उस धर्म विशेष के अलावा किसी और के रहने का कोई नैतिक हक वैसे
भी नहीं रह जाता। फिर वह धर्म इस्लाम हो कि ईसाईयत। धर्मतंत्र के
संगठित समूह अपने अलावा किसी और के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। अगर ऐसा
न होता तो आज पाकिस्तान में हिन्दुओं की संख्या कमोबेश वही होती जो 1951
की जनगणना में थी। 1951 में बंटवारे के चार साल बाद हुई जनगणना में
पाकिस्तान की कुल आबादी में 22 प्रतिशत
हिन्दू पाये गये थे। आखिरी जनगणना 2005 में उनकी संख्या घटकर 1.7 प्रतिशत रह गई है। जाहिर है, इन आठ सालों में यह 1.7 प्रतिशत भी घटकर एक प्रतिशत के पास ही
पहुंचा होगा और काफिरों को कुफ्र से मुक्त करानेवाली इस्लाम की यही कठमुल्ला रफ्तार जारी रही
तो इस दशक के बीतते बीतते पाकिस्तान पूरी तरह से हिन्दू मुक्त
राष्ट्र हो जाएगा। जिस इस्लाम के नाम के नाम पर पाकिस्तान का गठन किया गया था,
उसका अधूरा सपना पूरा हो जाएगा।
हो सकता है पाकिस्तान
का कठमुल्ला इस्लाम अपने तरीके से इस्लाम को परिभाषित करके लागू कर रहा हो लेकिन
क्या धार्मिक आधार पर इस तरह एकाकीपन हासिल कर लेने के बाद खुद पाकिस्तान
बहुत लंबे वक्त तक जिन्दा रह पायेगा? इतिहास गवाह है और प्रकृति का सिद्धांत भी यही है कि एकाकीपन
मौत के बिल्कुल
पहले की अवस्था होती है। जब तक आप जीवन में हैं, बहुलता आपके जिन्दा रहने के लिए बहुत जरूरी होती है।
फिर उस बहुलता में आपका समर्थन भी रहता है और विरोध भी। जिन भूभागों पर
किसी भी एक खास धर्मतंत्र का एकाकीपन आया है उस धर्मतंत्र का कम से कम उस
भूभाग से जल्द ही विनाश हो गया है। जिस रहीम यार खान जिले के खानपुर तहसील में
धर्मांतरण की यह घटना घटाई गई है सिंध और पंजाब का वह इलाका किसी दौर में
इसी तरह बौद्ध धर्म का गढ़ हुआ करता था। उससे भी पहले हिन्दू सभ्यता का
उद्भव और विकास इसी सिन्धू घाटी में हुआ था।
गांधार से लेकर
कश्मीर होते हुए राजस्थान तक जिस एकल सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ वह भी बौद्ध धर्म से आक्रांत
हुई और धीरे धीरे खिसकर दक्षिणायन होती गई। फिर भी बौद्ध धर्म के उद्भव और
विकास के बाद भी ज्ञान और विज्ञान वह एक धरातल था जहां हिन्दू बौद्ध
संघर्ष एक दूसरे को संरक्षण करते थे। गांधार से लेकर कश्मीर घाटी तक इसके
प्रमाण मिलते हैं। रावलपिंडी का तक्षशिला विश्वविद्यालय हो कि पाक
अधिकृत कश्मीर का शारदा मंदिर, ये
हिन्दू बौद्ध
सभ्यता के ऐसे केन्द्र के रूप में विकसित हुए जिन्होंने धर्म की कीमत पर भी ज्ञान की
रक्षा की। विद्या की रक्षा की। यहां यह ध्यान रखने लायक है कि बौद्ध धर्म पूरी तरह से
उन्हीं सिद्धांतों पर विकसित हुआ जो इस्लाम के बुतपरस्ती को खारिज करनेवाले
सिद्धांत को समर्थन करता था। फिर भी, हिन्दू और बौद्ध संघर्ष में बहुलता को
चुनौती नहीं दी गई तो उसका कारण धार्मिक उन्माद और पागलपन नहीं बल्कि
ज्ञान और विद्या की चिंता थी। इस्लामी आक्रांताओं ने इसी एक बात का ध्यान कभी
नहीं रखा। इसलिए उन्होंने तक्षशिला की पुस्तकों से आग जलाकर दो वक्त का
खाना पका लिया और इस्लाम के नाम पर स्थापित हो गये।
कमोबेश वही आक्रांता
मानसिकता आज भी पाकिस्तान में कायम है इसलिए बुतपरस्ती का निरा नामसझी भरा विरोध
स्थापना की आधी सदी बाद भी जारी है। न सिर्फ जारी है बल्कि एक लोकतांत्रिक
राष्ट्र होने के बाद भी उसने ऐसी बुतविरोधी मानसिकता को बढ़ावा दिया है
जो किसी भी व्यक्ति को धर्मोन्मादी बना देता है। धर्मोन्माद हमेशा बहुलता
का दुश्मन होता है। जाहिर है, पाकिस्तान
में अगर हिन्दुओं या फिर इसाईयों को निशाना बनाया जा रहा है तो इस्लाम की इस एकल समझ
के बीज पाकिस्तान के निर्माण में निहित हैं। वह एक धर्मनिर्पेक्ष शासनतंत्र होने का ढोंग
तो कर सकता है लेकिन दावा नहीं कर सकता ठीक वैसे ही जैसे भारत में कोई भी
दल या व्यक्ति आ जाए वह धर्मसापेक्ष होने का ढोंग तो कर सकता है लेकिन दावा
नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत की बहुलवादी संस्कृति ऐसे प्रयासों
का बहुत स्वाभाविक विरोध करती है। और बहुलतावाद की यह समझ कहीं और से नहीं
बल्कि उसी सिंधु घाटी से आती है जहां इस सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ।
अब भले ही सिन्धु
घाटी और सिन्धु घाटी सभ्यता पर अरब का इस्लाम हावी हो गया हो लेकिन सिन्धु का यह एकलवादी संकट
बहुत दिन टिक नहीं पायेगा। किसी न किसी दिन सिन्धु घाटी के लोगों को समझ
आयेगा कि अरब के इस्लाम के लिए आखिरकार उन्होंने अपनी सभ्यता को
क्योंकर नष्ट कर दिया? हो
सकता है, यह समझ अगले पचास सौ सालों
में भी न आये। लेकिन सभ्यताओं के इतिहास में पचास सौ सालों का कोई मोल नहीं हुआ करता। और जिस
दिन सिन्धु घाटी को अपना अतीत याद आयेगा उस दिन यह संकट अपने आप खत्म हो
जाएगा।
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