बाबा रामदेव और फतवे के समर्थन पर दोहरे मापदंड को लेकर देश में एक बार फिर से नई बहस छीड़ गई है। चुनाव आयोग के धर्म के आधार पर दोहरे माप दंड पर हर कोई सवाल खड़े करने लगा है। छत्तीसगढ़ में चुनाव आयोग ने योगगुरु बाबा रामदेव की सभाओं का खर्च भारतीय जनता पार्टी के खाते में जोड़ने का प्रस्ताव दिया है। लेकिन यहा सवाल ये खड़ा होता है कि चुनाव आयोग हर बार फतवा जारी करने वाले मौलविओं के खर्चे को अन्य दलों के चुनाव खर्चे में क्यों नहीं जोड़ता है?
हाल ही में राजस्थान मदरसा बोर्ड कार्यालय का उद्घाटन समारोह में मौलाना फजले हक, अश्क अली टाक ने मुस्लिम समाज के लोगों से खुलकर कहा कि आपके वोट से इस बार अशोक गहलोत फिर मुख्यमंत्री बनेंगे। इतना ही नहीं मौलाना ने कांग्रेस को वोट देने के लिए लोगों से हाथ खड़े कराए। तो अब सवाल चुनाव आयोग के इस दोहरे नीति को लेकर खड़ा होता है कि क्या आयोग इस तरह के समर्थन और फतवे पर भी कोई कार्रवाई करेगा?
महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से खड़ा होने वाले कादिर मौलाना के समर्थन में वहां के स्थानीय मौलवियों ने अपील किया था, और कहा था- मुसलमानों की हिफाजत और उनके हुकूक की रक्षा के लिए कादीर को वोट दें । मगर चुनाव आयोग ने उस वक्त कोई संज्ञान क्यों नहीं लिया? क्या चुनाव आयोग का ये दोहरा नीति नहीं है।
बात आज सिर्फ यहीं तक सीमीत नहीं है, जामा मस्जिद ट्रस्ट के अहमद बुखारी ने खुद इस बात को कबुल करते हुए कहा था कि बसपा के लिए 2012 में मैंने इटावा की रैली में मायावती के शासन की शैली की तारीफ की थी। इससे पहले भी 1990 के दशक में अहमद बुखारी और उनके वालिद अब्दुल्ला बुखारी ने बसपा के समर्थन में मुस्लमानों को वोट देने की अपील किया था। 1957 में हुए द्वितीय लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लखनऊ लोकसभा सीट पर फज्ले अब्बास काज्मी खड़ा हुए थे। तो उस वक्त भी मुस्लिम वोटरों को काज्मी के पक्ष में वोट करने के लिए लखनऊ के कई सारे मौलवियों ने फतवे जारी किए थे।
चाहे विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा अपने आप को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली पार्टियां मौलवियों को अपने मंच से मुस्लमानों को वोट देने की अपील भी करवाती है और फतवे भी जारी करवाती है। फतवे की इस परंपरा पर चुप्पी और स्वामी रामदेव पर शिंकंजा कि सियासत से सवाल उठना लाजमी है कि क्या भाजपा के चुनाव प्रचार के बहाने स्वामी रामदेव को निषाना बनाया जा रहा है। क्या ये कर्रवाई किसी रणनीति का हिस्सा है, या फिर चुनाव आयोग को भी सेकुलरिजम का भय सताने लगा है ?
बरेली में उलेमा समुदाय ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को जीताने की अपील कर रहे हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जब दारूल-उलूम देवबंद गए थे तो उस वक्त भी सुन्नी सूफी धर्मगुरु मौलाना अशरफ ने मुस्लमानों से कांग्रेस को समर्थन दे को कहा था। तो फिर मुस्लिम धर्मगुरुओं और मौलवियों का राजनैतिक सन्देश सेकुलरिस्ट और धर्म को राजनीति से दूरी की वकालत करने वाले आज मौन क्यों हैं? चुनाव आयोग कि इस फैसले को लेकर सवाल खड़ा होता है कि रामदेव बाबा और फतवे पर दोहरा मापदंड क्यों ?
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