अगर
27 सितंबर को दिल्ली के
प्रेस क्लब में अचानक अवतरित हुये राहुल गांधी के दागियों को बचाने के सरकारी
अध्यादेश के धज्जियां
उड़ाने से पहले और बाद के हालात को देखे तो तीन सवाल सीधे किसी के भी जहन में आ सकते
हैं। पहला, मनमोहन सिंह के पीएम
होने की उम्र पूरी हो चुकी है। दूसरा, राहुल गांधी कमान संभालने की तैयारी कर
रहे हैं। और तीसरा हर गलत निर्णय का ठीकरा मनमोहन सिंह के मत्थे मढकर खुद को पाक
साफ बताने में
गांधी परिवार हुनरमंद हो चला है। हकीकत जो भी हो लेकिन
राहुल गांधी ने जैसे ही दागियों के अध्यादेश को बेहुदा करार दिया वैसे ही
उन्हीं कैबिनेट मंत्रियों को सांप सूंघ गया, जो 48 घंटे पहले तक मनमोहन सिंह के साथ खड़े
थे। और सभी एक एक कर मनमोहन का साथ छोड़ राहुल गांधी के पक्ष में आ गये। मनीष
तिवारी, राजीव शुक्ला, ऑस्कर फर्नाडिस, शशि थरुर ने बयान बदलने में देर नहीं की
और 24 घंटे पहले जो तीन
कैबिनेट मंत्री राष्ट्रपति को समझा कर आये थे कि अध्यादेश क्यों जरुरी है,वे वह तो मीडिया से लुका-छिपी का खेल
खेलने लगे।
गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे, कानून मंत्री कपिल सिब्बल और संसदीय
कार्य मंत्री
कमलनाथ तो 27 सिंतबर
को छुपते और भागते ही दिखायी दिये। जबकि इन्हीं तीनों मंत्रियों से जब 26 की रात राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने
पूछा कि अध्यादेश
की इतनी जल्दबाजी क्यों है तो तीनों ने ही मौजूदा राजनीतिक समीकरण और संसद की
सर्वोच्चता पर बड़े बड़े तर्क गढ़े। ध्यान दें तो गांधी
परिवार पहली बार सरकार और पार्टी के बीच कुछ इस तरह खडा है, जहां सरकार भी उसके इशारो पर है और
पार्टी संगठन भी उसे ही मथना है। यानी पीएम हो या संगठन दोनों जगहों का
मतलब गांधी परिवार है। लेकिन पहली बार सत्ता की जिम्मेदारी से गांधी
परिवार मुक्त है और रास्ता टकराने के बाद ही निकल रहा है। तो क्या सरकार के
निर्णय को बेहुदा करार देना और कैबिनेट के अध्यादेश को फाड देना राहुल गांधी के
निजी गुस्से का प्रतीक है या फिर चित भी मेरी और पट भी मेरी के खेल की
बिसात गांधी परिवार खुद ही बिछा रहा है और अजय माकन से लेकर मनमोहन सिंह महज
प्यादे बन सिर्फ एक एक चाल रहे हैं?
तो पहला जवाब है कि
राहुल गांधी मौजूदा वक्त में नंबर एक हैं। चाहे वह कांग्रेस संगठन को ही मथने में लगे हो
लेकिन मनमोहन सिंह के सभी मंत्री भी जानते-समझते हैं कि बिना गांधी परिवार
ना तो कांग्रेस का कोई मतलब है न ही सरकार का। दूसरा जवाब है कि जिस रास्ते
मनमोहन सरकार चल निकली है, उसमें कांग्रेस से ज्यादा
फजीहत सरकार की हो रही है और सरकार से बाहर कांग्रेसी मान रहे हैं कि गलती मनमोहन सिंह को
बनाये रखने में है इसलिये पीएम पद की अगर टोपी उछाली भी जाये तो वह कांग्रेस
के ही पक्ष ही जायेगा। क्योंकि कांग्रेस की विचारधारा से इतर मनमोहन
सिंह की नीतियां चल निकली हैं। और कांग्रेस के पारंपरिक वोट का बंटाधार
किये हुये है। और तीसरा जवाब है राहुल गांधी के अलावे कांग्रेस के पास ऐसा कोई
हथियार नहीं है, जिससे
वह 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर
हवा में भांजे और वह जमीन पर कुछ करता दिखे।
लेकिन बड़ा सवाल है
कि आखिर वह कौन सी स्थितियां रही हैं, जिसने गांधी परिवार के सामने ऐसी परिस्थितियां ला
खड़ी की हैं कि वह पीएम पद की टोपी को हवा में उछाल कर राजनीतिक सुकुन पा रहा
है। तो इसकी जड़ में उसी आम जनता का गुस्सा है जो अपराध और भ्रष्टचार में
गोते लगाती राजनीतिक व्यवस्था को बर्दाश्त करना भी नहीं चाहता है लेकिन
उसके सामने इससे निकलने का कोई विकल्प भी नहीं है। और अन्ना के आंदोलन
ने बाद कोई राजनीतिक दल मौजूदा राजनीति का विरोध करते हुये नजर भी नहीं
आया।
ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी इसी गुस्से को राजनीतिक तौर पर भुनाने
के लिये लगातार मनमोहन सरकार के कामकाज के तौर तरीको पर सीधे कटाक्ष कर
रहे हैं और जब जब वह मनमोहन सिह के तौर तरीके की खिल्ली उडाते हैं तो
तालियां बजती हैं। और राहुल गांधी भी जिस गुस्से में 27 सितंबर की सुबह प्रेस क्लब में पहुंचे
और उसी गुस्से को शब्दों में उतार 10 मिनट के भीतर अपनी बात कह निकल गये, उसने भी उसी जनता को तालियां बजाने का मौका दिया जो
गुस्से में है। अब तालियां बजी या नहीं या फिर जनता के गुस्से से कोई सरोकार
अपने ही पीएम की टोपी उछाल कर राहुल बना पाये या नहीं यह तो कांग्रेस का
अपना आंकलन होगा लेकिन रांहुल ने सच कहा, इससे किसे इत्तफाक ना होगा।
लोकसभा में 162
दागी हैं। राज्यसभा में 44 दागी हैं। देश भर की विधानसभा में 1258 दागी हैं। और 2009 के चुनाव में तमाम राजनीतिक दल या
निर्दलीय उम्मीदवार
के तौर पर जो भी नेता उतरे उनकी तादाद सात हजार पार थी। और उसमें से 2986 उम्मीदवार ऐसे थे, जिनपर कोई ना कोई केस चल रहा था। 1490
उम्मीदवारो पर तो हत्या, लूट, बलात्कार, अपहरण सरीखे आरोप थे। तो जनभावना दागी अध्यादेश के
पक्ष में थी नहीं और जमीन पर इसका उबाल पैदा होना शुरु हो गया था इसे कांग्रेस बाखूबी समझ रही थी। और राहुल गांधी ने इन्हीं परिस्थितियों को देखकर चाल चली। लेकिन
यहीं से दूसरा सवाल निकलता है कि अध्यादेश के खिलाफ राहुल गांधी के तीखे
तेवर के बावजूद वाशिंगटन में बैठे पीएम मनमोहन सिंह ने 27 सिंतबर को ही जब यह कहा कि वह लौट कर कैबिनेट में चर्चा करेंगे और
सोनिया गांधी ने भी उनसे फोन पर बात की तो खुले तौर पर फिर वही सवाल सामने आया कि जो दागी हैं,
उनके पक्ष में सरकार है या दागी अपनी नाजायज ताकत से चुनाव
जीतने का दम-खम रखते हैं तो इससे सत्ता समीकऱण बनाये रखने के लिये सरकार दागियो के आगे
नतमस्तक है।
अब सवाल है कि अब आगे
क्या होगा। क्योंकि बीजेपी भी दागियो को बचाने के पक्ष में रही है। राज्यसभा में इसीलिये
यह पास हो गया। लेकिन अध्यादेश लाने का विरोध करते हुये राहुल की तल्खी ने
बीजेपी को ऑक्सीजन दे दिया। यानी राहुल गांधी अभी खामोश नहीं होंगे और
जिस अध्यादेश के लेकर उन्होंने बेहुदा शब्द का इस्तेमाल किया है उसका सरलीकरण
वह पीएम की टोपी को उछालनेवाला बताने से बचने के लिये फिर सामने
आयेंगे। और पीएम एक बार फिर काजल की कोठरी में बैठ कर निर्णय लेते हुये भी कही
ज्यादा झक सफेद हो कर निकाले जायेंगे। जो पीएम की बेबसी भी दिखायेगी और संसदीय
मर्यादा का पालन करने वाले नेता के तौर पर मान्यता भी दिलायेगी।
इसलिये
सवाल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री अपनी टोपी के उछाले जाने से रोष में
आयेंगे या कोई खटास पैदा कर देंगे। कांग्रेस और सरकार के लिये सवाल सिर्फ
इतना है कि राहुल गांधी इस विवाद में कौन सा आखिरी शब्द बोलेंगे, जिसके बाद आम जनता में यह भाव जगे कि
राहुल गांधी
पप्पू नहीं हैं। यह अलग बात है कि इतिहास के पन्नों में अपनी ही सरकार और अपने ही
बनाये पीएम के कैबिनेट से निकले अध्यादेश को बेहुदा और फाड़ देने वाला राहुल गांधी का बयान
इंदिरा से इंडिया की तर्ज पर दर्ज हो गया।
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