इस शताव्दी के महानतम संतों में स्वामी
सत्यानंद सरस्वती हैं, जिन्होंने समाज के हर क्षेत्र में योग को समाविष्ट
कर, सभी वर्गों, राष्ट्रों और धर्मों के लोगों का आध्यात्मिक उत्थान
सुनिश्चित कर दिया। 2013 एक अविस्मरणीय वर्ष साबित होगा। यह वर्ष बिहार योग
विद्यालय तथा स्वामी सत्यानंद के योग क्षेत्र के अभूतपूर्व की स्वर्ण
जयंती है। योग का तात्पर्य होता है जोड़ना। और परमहंस स्वामी सत्यानंद
सरस्वती ने योग का संसार में जिस वैज्ञानिक रूप में पुनर्जीवन किया उस योग
ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में जोड़ कर रखा है। आज पूरब से लेकर पश्चिम तक
जिस योगलहर योगस्नान कर रहा है उसके मूल में स्वामी सत्यानंद सरस्वती का
कर्म और उनके गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती का वह आदेश है जो उन्होंने
सत्यानंद को दिया था।
जन्म से ही उनमें अभूतपूर्व आध्यात्मिक प्रतिभा परिलक्षित हुई।
युवावस्था आते-आते उनकी आघ्यात्मिक आकांक्षा अत्यंत तीव्र हो गयी, और सन्
1943 में गुरू की तलाश में अपना घर-परिवार त्याग दिया। इसकी खोज ऋषिकेष में
जाकर समाप्त हुई, जहां उन्होंने महान संत स्वामी शिवानंद को गुरू के रूप
में वरण किया। उनके गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती ने 1956 में उनसे कहा कि
‘सत्यानंद जाओ और दुनिया को योग सिखाओ।’’ स्वामी सत्यानंद गुरू आश्रम
त्यागकर परमहंस परिव्राजक सन्यासी हो गये। गुरू के आदेशानुसार उनके जीवन का
एक ही लक्ष्य था- योगविद्या का प्रचार-प्रसार, द्वारे-द्वारे तीरे-तीरे।
गुरू के इस आदेश के बाद वेदान्त का एक विद्यार्थी दुनिया को आसन-प्राणायाम
सिखाने निकल पड़ता है। जब वे आश्रम से निकले तो उनके तन के वस्त्र के अलावा
उनके पास कुछ नहीं था।
परिव्राजक जीवन की दो धाराएं होती है- एक साधना का पुष्टिकरण और दूसरा
ज्ञान का विवरण। ये कार्य अकेले ही करने पड़ते हैं। इस दौरान नंदग्राम,
गंगोत्री, बद्री-केदार, मथुरा-वृंदावन, अमरकण्टक की यात्रा की। परिव्राजक
के रूप में बिहार यात्रा के क्रम में छपरा के बाद मुंगेर आए। पहले वे लाल
दरवाजा में रूकते थे। अब राय बहादुर केदारनाथ गोयनका के आनंद भवन में रहते
थे। यहाँ की प्राकृतिक छटा उन्हें आकर्षित करती थी। यहां उन्होंने
चातुर्मास भी व्यतीत किया। जब वे यहां रहते तो कर्णचैरा अवश्य जाते। कभी
ध्यान करते तो कभी सो जाते। यहां उन्हें विशेष अनुभूति होती थी। आनंद भवन
में रहकर उन्होंने सिद्ध भजन पुस्तिका तैयार की। 1961 में अंतर्राष्ट्रीय
योग मित्र मंडल की स्थापना की तब तक योग निंद्रा और प्राणायाम विज्ञान,
पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। ‘लेशन आन योग’ का अनुवाद योग साधना भाग-एक, दो
आ चुके थे।
1962 मतें इंटरनेशनल योग फलोशिप का रजिस्ट्रेशन हुआ। साथ ही पुस्तकें
सत्यानंद पब्लिकेशन सोसायटी नंदग्राम से प्रकाशित हुई। सत्यम स्पीक्स,
वर्डस ऑफ सत्यम, प्रैक्टिस ऑफ त्राटक, योग चूड़ामणि उपनिषद, योगाशक्ति
स्पीक्स, स्पेट्स टू योगा, योगा इनिसिएशन पेपर्स, पवनमुक्त आसन
(अंग्रेजी)में, अमरसंगीत, सूर्य नमस्कार, योगासन मुद्रावंध प्रमुख है।
जगह-जगह शिविर लगाते कार्य योजना को अंजाम देना शुरू किया। 1963 से
अंग्रेजी में योगा और योगविद्या निकालना आरंभ किया। 16 जुलाई 1963 को
स्वामी शिवानंद ने महासमाधि ली। गुरूदेव का आदेश था कि परिव्राजक जीवन
समाप्त हो चुका है और योग को जन-जीवन में वितरित करना है।
परिव्राजक जीवन की समाप्ति के बाद वसंत पंचमी के दिन 19 जनवरी 1964 को
बिहार योग विद्यालय की स्थापना की। योग की प्रकाशन क्षमता के प्रतीक के रूप
में स्वामी शिवानंद की अखंड ज्योति प्रज्जवलित की। साथ ही सत्यानंद योग
रिसर्च लाइब्रेरी भी शुरू किया गया। यह तय किया गया कि मुंगेर आश्रम में
तीन वर्ष रहकर 15-15 दिनों सत्रों में योग कथाएं लेंगे तथा सत्संग करेंगे।
इस कार्यक्रम के तहत सुबह आसन-प्राणायाम, फिर दलिया का मीठा पेय, उपनिषद
गीता पाठ, 10 बजे भोजन, एक बजे से लिखित जप, नाद योग, योग निंद्रा,
कर्मयोग, भोजन, भजन, कीर्तन सत्संग, प्रवचन, आठ बजे विश्राम, चैथे दिन शंख
प्रक्षालन, तेरहवें दिन मौनव्रत, चौदहवें दिन नियमित कार्यक्रम, दो बजे से
रामायण पाठ, आरती, प्रसाद, भोजन और पंद्रहवें दिन विदाई कार्यक्रम होते थे।
इस तरह से लोगों की संख्या बढ़ने लगी।
1964 में मुंगेर प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग सम्मेलन हुए, जिसका उद्घाटन
बिहार के तात्कालीन राज्यपाल अनंत शयनम् आयंगर ने किया। इसी प्रकार 1966
में दूसरा और उसके बाद तीसरा योग सम्मेलन अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हुआ।
बिहार योग विद्यालय, मुंगेर की गुरू परंपरा आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित
श्रृंगेरी मठ से सम्बद्ध है। 1967 में रायगढ़ में योग विद्यालय की स्थापना
की। इसी वर्ष मुंगेर में नौ माह का योग प्रशिक्षण सत्र हुआ। इसकी यह खासियत
थी कि इस अवधि में बाहर की दुनिया से सम्पर्क नहीं रहेगा। आज भी यहां के
लोगों का बाहरी परिवेश से कोई ताल्लुक नहीं होता है। गोंदिया में चतुर्थ
अंतर्राष्ट्रीय योग सम्मेलन में शिक्षा के क्षेत्र में योग के समावेश पर
गहन चर्चा हुई। बाद में आश्रम बनाकर समर्पित किया गया।
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