31 October 2013

तीसरे मोर्चे की तिकड़म पर भारी प्रधानमंत्री की दावेदारी !

लोकसभा की मियाद अभी छह माह बाकी है फिर भी बीते एक साल से अटकलबाजी जारी है कि सरकार किसकी बनेगी? क्या फिर कांग्रेस चुनी जाएगी? या फिर भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सफलता हासिल होगी? कहीं गैर-भाजपा और गैर कांग्रेस वाला बीसवीं सदी का राजनीतिक विकल्प फिर से तो अस्तित्व में नहीं आ जाएगा? यदि कांग्रेस की सरकार बनती है तो प्रधानमंत्री कौन होगा? क्या कांग्रेस डॉ. मनमोहन सिंह के नाम पर फिर से दांव खेलेगी? क्या राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का अघोषित उम्मीदवार प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा जाएगा? क्या कांग्रेस गांधी परिवार के बाहर से किसी व्यक्ति का नाम मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में स्वीकार करेगी? क्या सोनिया गांधी फिर चुनाव लड़ेंगी? क्या सोनिया गांधी अल्पमत की कांग्रेस सरकार में भी अपने पुत्र राहुल गांधी की ताजपोशी का फैसला करेंगी? क्या गांधी परिवार प्रियंका गांधी को चुनाव मैदान में उतारेगा? यदि प्रियंका चुनाव मैदान में उतरी तो क्या कांग्रेस का तीसरा शक्ति केन्द्र बनने दिया जाएग? यदि राहुल का राज्याभिषेक न हुआ तो राहुल का मनमोहन सिंह कौन होगा? पी. चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, ए. के. एंटनी या फिर कोई ‘डार्क हॉर्स’? प्रियंका गांधी सिर्फ चुनाव प्रचार करेगी या खुद चुनाव भी लड़ेगी? कांग्रेस के बारे में ऐसे सैकड़ों सवाल पूछे-पुछाए जा रहे हैं। जाहिर है इन सवालों में बहुत से सवाल बे सिर पैर के हैं लेकिन कुछ सवालों का जवाब तो जानने की जरूरत है ही।

कहीं भाजपा को न पड़ जाए भारी

अगर कांग्रेस सवालों से घिरी है तो भाजपा के पास भी कोई कम सवाल नहीं है। साल भर की कसरत के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम भाजपा की ओर से अधिकृत प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में घोषित हुआ है। पर भाजपा में मोदी के कट्टर से कट्टर समर्थक को इस बात का भरोसा नहीं कि नई लोकसभा गठित होने के बाद नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। यदि राजग के वर्तमान घटक दल 272 का जादुई आंकड़ा पार कर गए तब तो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के करिश्मे को कोई रोक नहीं सकता। यदि भाजपा 182 सीट वाली सीमारेखा पर ही रुक गई तब क्या होगा? शेष 90 सांसदों का जुगाड़ क्या नरेंद्र मोदी के नाम पर जम पाएगा? यदि नरेंद्र मोदी के नाम का जुगाड़ नहीं जम पाया तब क्या? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार तब लालकृष्ण आडवाणी को मार्गदर्शक की भूमिका से नेतृत्व की कमान सौंपने पर राजी होगा? क्या नए प्रधानमंत्री प्रत्याशी का चयन संसदीय दल पर छोड़ा जाएगा? या पार्लियामेंट्री बोर्ड ही उस समय भी अपने सर्वाधिकार को सिद्ध करेगा? तब क्या संसद के मौजूदा विपक्षी नेता द्वय सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम पर विचार होगा? क्या मुरली मनोहर जोशी दौड़ में आ सकते हैं? या फिर राजनाथ सिंह के नाम पर मुहर लगाई जाएगी? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब कोई संघ या भाजपा का नेता आज दिन तो नहीं देना चाहेगा।

तीसरे मोर्चे की भी नहीं जम रही तिकड़म

भाजपा और कांग्रेस को लेकर ये सवाल तो पूछे जा रहे हैं। पर वाममोर्चा और तीसरे मोर्चे का तो कोई आकार-प्रकार ही नहीं बन पा रहा। इस मोर्चे में मुलायम सिंह यादव होंगे या मायावती? नीतिश कुमार होंगे या लालू प्रसाद यादव? करुणानिधि रहेंगे या जयललिता? चंद्रबाबू नायडू होंगे या जगनमोहन रेड्डी? वाममोर्चे की मौजूदगी में ममता बनर्जी कहां रहेंगी? नवीन पटनायक, देवेगौड़ा, शरद पवार जैसे खिलाड़ी किस ओर खेल रहे होंगे? सरकार और सत्ता संचालन इस तरह के सैकड़ों सवालों में उलझा है। मनोरंजन का यह मुफीद साधन भी है। सरकार बननी है सो बन जाएगी। महंगाई के इस जमाने में शेष बचा कोई सिद्धांतवादी भी तत्काल चुनाव नहीं चाहेगा। सरकार चाहे जिसकी बने, उसके तत्काल बाद अटकलों का नया सिलसिला शुरू हो जाएगा। मसलन, यह सरकार कितने दिन चलेगी? क्या वह कार्यकाल पूरा कर पाएगी? क्या मध्यावधि चुनाव होंगे? आदि....आदि! सवालों का एक अंतहीन सिलसिला बन कर रह गया है हमारा जनतंत्र। सरकार किसी की भी बने, कितने दिन भी चले जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या वह सरकार २०२० में हिंदुस्तान को महाशक्ति बनाने के नई सदी के सपने को साकार कर पाएगी? अब तक का आकलन तो यही कह रहा है कि इस सवाल का सकारात्मक जवाब देने का दम किसी में नहीं। इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम कोई उठा सके इतना संसदीय बल ही किसी के पास होना असंभव लगता है।

राहुल से आस लगाना बाल-उत्पीड़न

कांग्रेस जब 413 सीटें पाकर भी सरकार को विकास के दरकार की भाषा नहीं सिखा पाई तो अब बैसाखियों के सहारे वह चल ले यही काफी होगा उससे ओलिंपिक फर्राटा दौड़ जीतने की उम्मीद पालना राहुल गांधी पर बाल-उत्पीड़न करने के समान होगा। नरेंद्र मोदी यदि 272 का आंकड़ा नहीं जुटा पाते तो बैसाखियों के बूते वह उन सारे सपनों को साकार कर ले जाएंगे जितना उनके सोशल मीडिया के प्रचारक मान रहे हैं, सुनहरा सपना तो हो सकता है हकीकत नहीं। जब तक शासन चलाने का संख्या बल, शासन चलाने के लिए उपयुक्त साथी और हालात नहीं होते तब तक ‘सबको देखा बार-बार, हमको देखो एक बार’ वाले अटल बिहारी का कार्यकाल भी नरसिंहराव या मनमोहन सिंह के कार्यकाल से मेल खाने लगता है। यदि नरेंद्र मोदी भी अटलजी की तरह लाहौर बस यात्रा पर निकल पड़े तो ‘हिंदुत्व’ को आईसीयू में भर्ती कराना पड़ जाएगा। यदि शासन को निर्णायक बनाना है तो शासक को कठोर बनना पड़ेगा।

शासक को कठोर बनना पड़ेगा

मोदी गुजरात में इसलिए सफल हुए कि उन्होंने सेकुलरवाद की टोपी पहनने से ऐलानिया इंकार किया। आज पूरे देश की गली-गली का राष्ट्रवादी यदि ‘नमो-नमो’ जप रहा है तो उनकी कठोर शासक की इमेज से जन्मी उनके प्रति आस्था का उसमें हिस्सा है। शासन चलाने के लिए लोकतंत्र में अकसर कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं और लागू करने पड़ते हैं। जब तक लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना को शाब्दिक श्रद्धा सुमन नहीं अर्पित किया था तब तक हर कोई उनमें लौहपुरुष का अक्स देखता था। अब वही अक्स नरेंद्र मोदी में दिख रहा है। पर जिस तरह मोदी की रैलियों में बुर्के पहना कर लोग लाए जाने की खबरें उठ रही हैं वह सशंकित करने वाली हैं। सरकार के सुदृढ़ संचालन के लिए अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाना पड़ता है। मोदी ने गुजरात भाजपा में यह खुल कर किया। जातीय समीकरणों के अलंबरदारों को घर बैठाया। पर राष्ट्रीय राजनीति में उनकी वह धमक अभी प्रतीक्षित है। मोदी के लिए अफसोसजनक परिस्थिति सिर्फ यही है कि जब उनका राष्ट्रीय क्षितिज पर आगमन हो रहा है तब देश को बदलने और बेहतर बनाने वाली विचारधाराओं की समाप्ति की उद्घोषणा हो चुकी है। किसी भी लोकतंत्र में ‘विचारधारा की समाप्ति’ के बाद विचारणीय केवल इतना ही रह जाता है कि कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को खुश और कम से कम लोगों को नाराज किया जाए?

अमेरिका-ब्रिटेन भी हैं इसी कश्ती में सवार

अब वोट पाने की जुगाड़ को विचारधारा से कई गुना ज्यादा महत्व प्राप्त हो चुका है। यह दशा अकेले हिंदुस्तान की हो ऐसा भी नहीं। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी की आर्थिक, वैदेशिक विचारधारा में अब विशेष अंतर नहीं है। इसलिए तब जिमी कार्टर के जाने के बाद रोनाल्ड रीगन का आना पूरी दुनिया की समझ में आता था। आज जॉर्ज डब्ल्यू बुश के जाने और बराक ओबामा के आने से कोई विशेष अंतर नहीं नजर आता। ब्रिटेन में कंजर्वेटिव की सरकार है या लेबर पार्टी की देश-दुनिया की जाने दो ब्रितानियों की समझ में भी नहीं आता। परंपरागत दक्षिण और वामपंथी तेवरों के बावजूद अब विचारधाराओं में लिखित अंतर चाहे जो रहा गया हो व्यावहारिक अंतर शेष नहीं बचा। हिंदुस्थान में भाजपा के घोषणापत्र से संविधान की धारा ३७० के प्रति आग्रह, समान नागरिक कानून और रामजन्मभूमि आंदोलन का समर्थन का मुद्दा निकाला जा चुका है। यदि दोनों दलों के चुनाव चिह्न और नाम निकाल दिए जाएं तो कांग्रेस-भाजपा के प्रवक्ता घोषणापत्रों का अंतर भी शायद ही पहचान पाएं। सो, अब राजनीति एक ‘सोप ऑपेरा’ में तब्दील है। सो, नरेंद्र मोदी का टेलर उनकी वैचारिक टीम से ज्यादा ‘फुटेज’ पाता है। राहुल गांधी को यदि कुछ अपने पुराने भाषण नरेंद्र मोदी का बता कर पेश कर दिया जाए तो वह बांहें बटोर कर उसकी निंदा कर सकते हैं। हर कदम, हर वक्तव्य चंद परचूरनी सर्वेक्षणों की बुनियाद पर है। ऐसे नेताओं को नेता कहें या ब्रांड डाइरेक्टर से निर्देशित एक्टर।

सवालों को उलझाना, राजनीति का श्रेष्ठ दांव

चलताऊ किस्म के एक बाबा ने उन्नाव में वैâमरों के सामने नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का काला -सपेâद खर्च क्या पूछ लिया पूरी भाजपा चुप हो गई। आप कल्पना करें कि अस्सी के दशक में यह सवाल पूछा गया होता तो पूरी भाजपा उस साधु से हिसाब-किताब कर लेती। जब अद्र्ध-सामंती शासन प्रणाली लोकतंत्र का बुर्का पहन कर इतराने लगती है तो यही दुर्दशा होती है। बेशक मोदी के ईमानदारी पर संदेह नहीं, पर क्या इस तथ्य से कोई इंकार कर सकता है कि हमारी प्रणाली का अधिकांश शासक-प्रशासक ऐसी किसी बात के लिए समय नहीं निकाल पाते जिससे उनका दो नंबर का बैंक खाता और वोट बैंक खाता बढ़ने की संभावना न हो। जब हालात इतने बदतर हों तब चुनाव और सरकार पर अनसुलझे सवालों को उलझाना ही राजनीति का श्रेष्ठ दांव है। यही दांव हर कोई खेल रहा है और उससे यह लोकतंत्र प्रश्नतंत्र में तब्दील होता जा रहा रहा है।

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