08 October 2013

शौचालय की सियासत और आम आदमी की आफ़त !

भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी द्वारा देवालय से पहले शौचालय का बयान बवाल लेकर आया है। पूरी बहस के बीच देवालय के समर्थक जहां शौचालय को देवालय से जरूरी बताये जाने पर अपनी आपत्ति प्रकट कर रहे हैं तो मोदीवादी समर्थक तर्क दे रहे हैं कि इसमें गलत क्या है? क्या सबसे पास शौचालय नहीं होना चाहिए। कांग्रेस के केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कुछ समय पहले इसी तरह तर्क दिया था कि मंदिर से ज्यादा जरूरी शौचालय है। यानी, खुले में शौच बंद सोच का नतीजा है। क्या यह सच है? क्या वास्तव में बंद खुले में शौच जाना निहायत शोचनीय है? सोपान जोशी ने खुले में शौच पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में लंबा अध्ययन किया है। सोपान जोशी कहते हैं कि सबसे के लिए शौचालय सिर्फ असंभव ही नहीं अव्यावहारिक भी है। 

आपने अगर पढ़ा न हो तो सुना जरूर होगा कि भारत में शौचालय से ज़्यादा मोबाइल फ़ोन हैं। अगर भारत में हर व्यक्ति के पास मल त्यागने के लिए संडास हो तो कैसा रहे? लाखो लोग शहर और कस्बो में शौच जाने के लिए जगह तलाशते हैं, और मल के साथ गरिमा भी त्यागनी पड़ती है। महिलाएं जो कठिनाई झेलती हैं उसे बतलाना भी कठिन है। शर्मसार वो भी होते हैं जिन्हे दूसरों को खुले में शौच जाते हुए देखना पड़ता है। तो कितना अच्छा हो कि हर किसी को एक अदद शौचालय मिले। ऐसा करने के लिए कई लोगों ने भरसक कोशिश की है, जैसे गुजरात में ईश्वरभाई पटेल का बनाया सफ़ाई विद्यालय और बिंदेश्वरी पाठक के सुलभ शौचालय। लेकिन अगर हर भारतीय के पास शौचालय हो जाए तो बहुत बुरा होगा।

हमारे सारे जल स्रोत—नदियां और उनके मुहाने, छोटे-बड़े तालाब, जो पहले से ही बुरी तरह दूषित हैं—पूरी तरह तबाह हो जाएंगी। आज तो केवल एक तिहाई भारतीयों के पास ही शौचालय की सुविधा है। इनसे ही जितना मैला पानी गटर में जाता है उसे साफ़ करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है। परिणाम आप किसी भी नदी में देख सकते है। जितना बड़ा शहर उतने ही ज्यादा शौचालय और उतनी ही दूषित नदियां। दिल्ली में यमुना हो चाहे बनारस में गंगा। जो नदियां हमारी मान्यता में पवित्र हैं वो वास्तव में गटर बन चुकी हैं। सरकारो ने दिल्ली और बनारस जैसे शहरों में अरबों रुपए खर्च कर मैला पानी साफ़ करने के संयन्त्र बनाए हैं, जो सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लांट कहलाते है। पर नदियां दूषित ही बनी हुई हैं। यह सब संयन्त्र दिल्ली जैसे सत्ता के अड्डे में गटर का पानी बिना साफ़ किए यमुना में उढेल देते हैं।

हमारी बड़ी आबादी इसमे बड़ी समस्या है। जितने शौचालय भारत में चाहिए उतने अगर बन गए तो हमारा जल संकट घनघोर बन जाएगा। पर नदियों का दूषण केवल धनवान लोग करते हैं जिनके पास शौचालय हैं। ग़रीब लोग जो खुले में पाखाने जाते हैं उनका मल गटर तक पहुँचता ही नहीं है क्योंकि उनके पास सीवर की सुविधा नहीं है। फिर भी जब यमुना को साफ़ करने का जिम्मा सर्वोच्च न्यायालय ने उठाया तो झुग्गी में रहने वालो को उजाड़ा। न्यायधीशों ने अपने आप से ये सवाल नहीं किया कि जब वो फ़्लश चलाते हैं तो यमुना के साथ कितना न्याय करते हैं।

इससे बड़ी एक और विडम्बना है। जब हमारे जल स्रोत सड़ांध देते नाइट्रोजन के दूषण से अटे पड़े हैं तब हमारी खेती की जमीन से जीवन देने वाला नाइट्रोजन रिसता जा रहा है। कोई भी किसान या कृषि विज्ञानी आपको बता देगा कृत्रिम खाद डाल-डाल कर हमारी खेतिहर जमीन बंजर होती जा रही है। चारे की घोर तंगी है और मवेशी रखना आम किसानो के बूते से बाहर हो गया है। नतीजतन गोबर की खाद की भी बहुत तंगी है। कुछ ही राज्य हैं जैसे उत्तराखण्ड जहाँ आज भी जानवर चराने के लिए जंगल बचे हैं। उत्तराखण्ड से खाद पंजाब के अमीर किसानो को बेची जाती है। उर्वरता के इस व्यापार को ठीक से समझा नहीं गया है अभी तक। तो हम अपनी जमीन की उर्वरता चूस रहे हैं और उससे उगने वाले खाद्य पदार्थ को मल बनने के बाद नदियों में डाल रहे हैं। अगर इस मल-मूत्र को वापस जमीन में डाला जाए—जैसा सीवर डलने के पहले होता ही था—तो हमारी खेतिहर जमीन आबाद हो जाएगी और हमारे जल स्रोतों में फिर प्राण लौट आएंगे।

फिर भी हम ऐसा नहीं करते। इसकी कुछ वजह तो है हमारे समाज का इतिहास। दक्षिण और पश्चिम एशिया के लोगों में अपने मल-मूत्र के प्रति घृणा बहुत ज़्यादा है। ये घृणा हमारे धार्मिक और सामाजिक संस्कारों में बस गयी है। हिंदू, यहूदी और इस्लामी घारणाओं में मल-मूत्र त्याग के बाद शुद्धी के कई नियम बतलाए गए हैं। लेकिन जब ये संस्कार बने तब गटर से नदियों के बर्बाद होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती होगी। वर्ना क्या पता नदियों को साफ़ रखने के अनुष्ठान भी बतलाए जाते और नियम होते नदियों को शुद्ध रखने के लिए।

बाकी सारे एशिया में मल-मूत्र को खाद बना कर खेतो में उपयोग करने की परंपरा रही है। फिर चाहे वो चीन हो, जापान, या इण्डोनीशिया। हमारे यहाँ भी ये होता था, पर जरा कम। क्योंकि हमारे यहाँ गोबर की खाद रही है, जो मनुष्य मल बनी खाद से कहीं बेहतर होती है। भारत के भी वो भाग जहाँ गोबर कि बहुतायत नहीं थी वहाँ मल-मूत्र से खाद बनाने का रिवाज था। लद्दाख में तो आज भी पुराने तरीके के सूखे शौचालय पाए जा सकते हैं जो वृष्टा को खाद बनाते थे। आज पूरे भारत में चारे और गोबर की कमी है, और लद्दाख जैसे ही हाल बने हुए हैं। तो क्यों पूरा देश ऐसा नहीं करता? कुछ लोग कोशिश मे लगे हैं कि ऐसा हो जाए। इनमे ज्यादातर गैर-सरकारी संगठन हैं और साथ में हैं कुछ शिक्षा विद् और शोधकर्ता। इनका जोर है इकोलॉजिकल सॅनिटेशन या इकोसॅन पर। ये नए तरह के शौचालय हैं जिनमे मल और मूत्र अलग-अलग खानो में जाते हैं जहाँ इन्हे सड़ा कर खाद बनाया जाता है।

इस विचार में बहुत दम है। कल्पना कीजिए कि जो अरबों रुपए सरकार गटर और मैला पानी साफ़ करने के संयन्त्रो पर खर्च करती है वो अगर इकोसॅन शौचालयों पर लगा दे तो करोड़ो लोगो को शौचालय मिलेंगे। नदियां स्वत: ही साफ़ हो जाएंगी। किसानो को टनो प्राकृतिक खाद मिलेगी और जमीन का नाइट्रोजन जमीन में ही रहेगा, क्योंकि भारत की आबादी सालाना 80 लाख टन नाइट्रोजन, फ़ॉस्फ़ेट और पोटॅशियम दे सकती है। हमारी 115 करोड़ की आबादी जमीन और नदियों पर बोझ होने की बजाए उन्हे पालेगी क्योंकि हर व्यक्ति खाद की फ़ॅक्टरी होगा। जिनके पास शौचालय बनाने के पैसे नहीं हैं वो अपने मल-मूत्र की खाद बेच सकते हैं। अगर ये काम चल जाए तो लोगो को शौचालय इस्तेमाल करने के लिए पैसे दिए जा सकते हैं। इस सब में कृत्रिम खाद पर दी जाने वाली 50,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी पर होने वाली बचत हो आप जोड़ें तो इकोसॅन की संभावना का अंदाज़ लगेगा। लेकिन छह साल के प्रयास के बाद भी इकोसॅन फैला नहीं है। इसका एक कारण है मैला ढोने की परंपरा। जैसा कि चीन में भी होता था, मैला ढोना का काम एक जाति के पल्ले पड़ा और उस जाति के सब लोगों को कई पीढ़ियों तक अमानवीय कष्ट झेलने पड़े। एक पूरे वर्ग को भंगी बना कर हमारे समाज ने अछूत करार दे कर उनकी अवमानना की। आज भी भंगी शब्द के साथ बहुत शर्म जुड़ी हुई है।

इकोसॅन से डर लगता है कई लोगों को जिनमे कुछ सरकार में भी हैं। उन्हे लगता है कि सूखे शौचालय के बहाने कहीं भंगी परंपरा लौट ना आए। डर वाजिब भी है। पर इसका एकमात्र उपाय है कि इकोसॅन शौचालय का नया व्यवसाय बन पाए जिसमे हर तरह के लोग निवेश करें ये मानते हुए कि इससे व्यापारिक लाभ होगा। जो कोई एक इसमे पैसे बनाएगा वो दूसरो के लिए और समाज के लिए रास्ता खोल देगा। अगर ऐसा होता है तो सरकार की झिझक भी चली जाएगी। इकोसॅन ऐसी चीज़ नहीं है जो सरकार के भरोसे चल पड़ेगी। इसे करना तो सामाज को ही पड़ेगा। कयोंकि इसकी कामयाबी समाज में बदलाव के बिना संभव नहीं है।

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