सात लाख चालीस हजार की आबादी। तिरसठ फीसदी
साक्षरता। पूरी दुनिया के उलट अपने उत्पादन को विकास का पैरामीटर बनाने की
बजाय अपने नागरिकों की खुशहाली को अपने विकास का पैरामीटर बनाने वाला भूटान
एकमात्र और अनोखा देश है। ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्शन की बजाय टोटल हैपिनेस
के लिए काम कर रहे भूटान प्रशासन के लिए निश्चित रूप से लोकतंत्र होने का
यह बहुत कड़वा अनुभव है। लोकतंत्र के प्रहरी अखबार बुरी तरह से टूट रहे
हैं। पत्रकार पत्रकारिता से अलग हो रहे हैं और भूटान का सबसे बड़े दो अखबार
भी दस बारह लोगों के स्टाफ के भरोसे छापे जा रहे हैं। भूटान की मीडिया पर
विशाल अरोड़ा की यह महत्वपूर्ण रिपोर्ट वालस्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित हुई
है। उसी रिपोर्ट के महत्वपूर्ण हिस्सों का अनुवाद।
भूटान दुनिया का एकमात्र देश है, जो अपने नागरिकों की खुशी को
मुख्य सरकारी नीति बनाने का दावा करता है। लेकिन अगर आप देश के निजी
पत्रकारों से पूछेगें, तो वो अलग ही राय बताएंगे। देश के पहले निजी अखबार,
भूटान टाइम्स, के 2008 में करीब 100 कर्मचारी थे। आज, आप इस साप्ताहिक
अखबार के कर्मचारियों की गिनती उगंलियों पर कर सकते हैं। द भूटान
ऑब्ज़र्वर की कहानी भी कमोबेश ऐसी ही है। अखबार के 56 कर्मचारी घटकर अब 10
रह गए हैं। इतना ही नहीं पिछले ही महीने इस साप्ताहिकी को अपना प्रिंट
संस्करण भी बंद कर देना पड़ा। आज भूटान के दैनिक अखबार हफ्ते में दो दिन
वाले बनकर रह गए हैं, दूसरे मीडिया हाउसों ने भी अपने कर्मचारियों की
छंटनी की है और मौजूदा कर्मचारियों को तनख्वाह देने के लिए संघर्षरत्त
हैं। भूटान ऑब्ज़र्वर के संपादक नीदरप जांगपो कहते हैं “निजी अखबार पूरी
तरह अवहनीय हैं और हम निकट भविष्य में किसी तरह की उम्मीद नहीं कर रहे”।
संवैधानिक राजतंत्र बन चुके भूटान ने 2008 में अपने पहले लोकतांत्रिक
चुनावों से पूर्व 2006 में स्वतंत्र निजी मीडिया को काम करने की स्वीकृति
दी थी। तब तक, राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता भूटान ब्रॉडकास्टिंग सर्विस (बीबीएस)
और पूरी तरह सरकारी स्वामित्व वाला दैनिक क्यूनसेल ही देश में समाचार
परोसा करते थे। पहले दो सालों में आए निजी मीडिया के दो संस्करण हाथों-हाथ
लिए गए। लेकिन जब संस्करणों की संख्या करीब दर्जनभर हुई, तो लाभ कम हो
गया। क्योंकि सारे अखबार 90 फीसदी लाभ के लिए सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर
हैं, लिहाज़ा प्रत्येक प्रकाशन में विज्ञापनों की संख्या का हिस्सा
स्वाभाविक तौर पर कम होता चला गया, श्री जांगपो ने बताया। लेकिन स्थिति का
बद से बदतर होना अभी बाकी था।
कुछ सालों के अंदर-अंदर, इस छोटे राष्ट्र में आई आर्थिक मंदी के कारण ये
हिस्सा आकार में खुद-ब-खुद कम हो गया। हालांकि कुछ मानते हैं कि इसमें
पिछली सरकार का हाथ है। उनका कहना है कि निजी मीडिया ने आरोप-प्रत्यारोप
वाली खबरें दिखाईं, तो पिछली सरकार ने बहाना बनाते हुए आर्थिक मंदी को उनके
खिलाफ इस्तेमाल किया। गौरतलब है कि पाक्षिक अखबार द भूटानीज़ ने तत्कालीन
सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा किया था। ऐसा भूटान द्वारा
न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र सभा के 66वें सत्र में सकल राष्ट्रीय खुशी
पर उच्च-स्तरीय बैठक आयोजित करने के दौरान हुआ।
चेंचो डेमा एक ऐसी ही उदाहरण हैं। पिछले पांच महीनों से उन्हें पूरी
तनख्वाह नहीं मिली है। “मैं सुबह 10 बजे अपने तीन महीने के बच्चे को लेकर
ऑफिस आ जाती थी, क्योंकि घर पर उसे संभालने वाला कोई नहीं था। मैं घर वापस
करीब रात 10 बजे ही जा पाती थी, इसके बावजूद मुझे अपनी तनख्वाह का एक
हिस्सा ही नसीब होता था, जो महज़ घर का किराया देने में खत्म हो जाता,”
अखबार का नाम गुप्त रखने वाली सुश्री डेमा ने बताया। “भूटान के निजी मीडिया
के पत्रकारों में खुशी का अनुपात निराशाजनक है,” एबे थारकन ने कहा। श्री
थारकन भारत से हैं और फिलहाल थिंपू में रह रहे हैं, वो 2006 से भूटान के
निजी मीडिया से जुड़े हुए हैं।
देश के अकेले कारोबारी अखबार बिज़नेस भूटान को छोड़ने वाले पूर्व संपादक
ताशी दोरजी ने पत्रकारिता ही छोड़ दी है, वो इस बात से सहमत हैं। “जब तक
निजी मीडिया के अस्तित्व के लिए कोई बड़ा नीतिगत परिवर्तन नहीं किया जाता,
तब तक निराशा ही है,” श्री दोरजी ने कहा। वे ऐसे अकेले पत्रकार नहीं जिन्होंने मोहभंग होने पर ये क्षेत्र छोड़
दिया हो। भूटान पत्रकार संगठन के अध्यक्ष और महासचिव भी अब अखबारों से
संबद्ध नहीं हैं, हालांकि वो अब भी इस कारोबार से जुड़े ज़रूरतमंदों की मदद
करते हैं।
पिछले महीने के आखिर में राष्ट्र की अपनी पहली रिपोर्ट में,
प्रधानमंत्री त्सेरिंग तोबगे ने स्वीकार किया था कि प्रिंट मीडिया की वित्त
स्थिति उत्साहजनक नहीं है। उन्होंने इस संदर्भ में ज़रूरी कदम उठाने की
बात भी की थी, लेकिन ये नहीं बताया कि वो क्या होगें या कब उठाए जाएगें।
भूटान सरकार में सूचना और संचार सचिव दाशो कीनले दोरजी कहते हैं- एक छोटे
बाज़ार के लिए यहां ढेरों अखबार हैं और सरकार के पास बेतहाशा पैसा नहीं
है। दोरजी आगे कहते हैं कि “अखबार शुरू करना हर नागरिक का अधिकार है,
लिहाज़ा हमें एक उदारवादी नीति अपनानी होगी….बाज़ार को फैसला लेने दीजिए”।
उन्होंने कहा कि संकट से निपटने के लिए उन्होंने कुछ कदम प्रस्तावित करने
की योजना बनाई है और सरकार जल्द ही इनका सविस्तार खुलासा करेगी।
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