साढ़े नौ सौ करोड़ रुपये के चारा घोटाले में
अभी मात्र सैंतीस करोड़ पर न्यायिक निर्णय आया। इतने से ही बिहार के दो
पूर्व मुख्यमंत्रियों सहित अनेक माननीय चार से पांच वर्ष के लिये सीखचों के
पीछे आ गये। इनके लिये इससे भी बड़ी सजा यह है कि ग्यारह वर्षों तक चुनाव
नहीं लड़ सकते। मतलब जेल में रहकर जलवा बनाए रखने की उम्मीद भी नहीं रही।
लालू यादव जैसे सजायाफ्ता की उम्मीद पत्नी और पुत्र पर टिकी रहेगी। जो
मतदाताओं को प्रभावित करने का काम करेंगे। वह बता रहे हैं कि लालू को
फंसाया गया है। उनके साथ अन्याय हुआ है। जबकि न्यायिक निर्णय पुख्ता
प्रमाणों पर आधारित है।
लम्बे समय तक बिहार के सत्ताधारी पशुओं के चारे पर मुंह मारते
रहे हैं। समूची योजना फर्जी ढंग से संचालित की गयी। जगन्नाथ मिश्र के
मुख्यमंत्रित्वकाल में शुरू हुआ चारा घोटाला लालू यादव के पन्द्रह वर्षीय
शासन में खूब परवान चढ़ा। यह किसी को फंसाने का प्रयास नहीं है। बल्कि यह
सच्चाई है, जो करीब दो दशक बाद न्यायपालिका में प्रमाणित हो सकी। सैंतीस
करोड़ के घोटाले पर हुआ निर्णय एक बानगी मात्र है। अभी तो इस एक घोटाले में
नौ सौ करोड़ रुपये से अधिक पर फैसला आना शेष है। पिछले एक दशक में तो बात
बहुत आगे निकल चुकी है। नौ सौ करोड़ का घोटाला मामूली लगता है। अब घोटाले
की रकम एक लाख करोड़ को पार कर गयी है। घोटालेबाज नेता और अधिकारी किस
मुकाम पर हैं, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे नेताओं को कहां और कितने
समय के लिये होना चाहिए, इसकी कल्पना की जा सकती है। ए. राजस, कलमाड़ी और
कोयला घोटाले के किरदारों पर भी न्यायपालिका की तलवार है। सब कुछ हतप्रभ
करने वाला है।
लालू यादव, जो जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी व समगत क्रांति
आन्दोलन की उपज थे। जिस व्यवस्था को उखाड़ने के लिये जयप्रकाश नारायण ने
वृद्धावस्था और बीमारी के बावजूद संघर्ष किया था, लालू जैसे उसी व्यवस्था
के हिस्सेदार बन गये। भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी बना दी। उसे संस्थागत
स्वरूप प्रदान कर दिया। वह तो पिछड़ों, गरीबों, उपेक्षितों, वंचितों और
किसानों के हितैषी बनकर उभरे थे। लगा कि वह अलख जगाकर समग्र क्रांति के
अधूरे सपने को पूरा करेंगे। इसके लिये उन्हें खूब जनसमर्थन मिला। लेकिन इस
समर्थन का उपयोग उन्होंने निजी साम्राज्य बनाने में किया। ऐसे नेताओं ने
जयप्रकाश नारायण को समझने का कभी कोई प्रयास नहीं किया। जेपी ने राष्ट्रहित
को सर्वोच्चता दी, उसके लिये निजी हितों का परित्याग कर दिया। लेकिन लालू
जैसे लोगों ने अपने व अपने परिवार के हितों को सर्वोच्च माना। देश व समाज
के लिये वैचारिक आधार इनके पास नहीं था। ऐसे में शासन भ्रष्टाचार के लिये
समर्पित हो गया। जिनके वोट लेकर सत्ता में पहुंचे, उनका ही स्थान नहीं रखा।
क्या इनके मन में एक बार भी यह विचार नहीं आया कि वह बेजुबानों का
हिस्सा मार रहे हैं। इसकी वजह से कितने मवेशी संतुलित आहार से वंचित रहे
होंगे। भूखे रहे होगे। बिहार में कई स्थान प्रतिवर्ष बाढ़ व सूखे से
प्रभावित होते हैं। मवेशियों के लिये चारा नहीं बचता। सत्ता में बैठे लोग
क्या इस हद तक असम्वेदनशील हो सकते हैं। लोगों को पोषण देने वाले मवेशियों
को चारे के अभाव में उन्होंने मरने के लिये कैसे छोड़ दिया होगा।
भ्रष्टाचार मुक्त शासन की कल्पना करने वालों को इस न्यायिक निर्णय से संतोष
मिला है। यह माना जा रहा है कि भविष्य में अन्य घोटालेबाजों को भी कड़ी
सजा मिलेगी। धीरे-धीरे यह धारणा स्वतः निर्मूल साबित होने लगेगी कि उच्च
पदों पर बैठे लोगों तक कानून के लम्बे हाथ भी पहुंच नहीं सकते। उच्च पदों
पर आसीन लोगों को मिलने वाली सजा से निचले स्तर तक अच्छा संदेश पहुंचेगा।
संसद और विधानसभा का स्वरूप भी निखरेगा। कम से कम दो वर्ष के सजयाफ्ताओं से
संसद और विधानसभाओं को निजात मिलेगी। ऐसे लोग चुनाव नहीं लड़ सकेंगे, यह
भी अच्छी बात है। इससे चुनाव सुधारों को गति मिलेगी।
लेकिन चारा घोटाले के एक मामूली अंश पर मिली सजा से ही बहुत उममीद नहीं
की जा सकती। बेशक न्यायपालिका ने अपना काम किया। लेकिन व्यवस्था और जांच
प्रक्रिया में अनेक खामियां आज भी कायम हैं। इसी व्यवस्था ने संविधान का
सहारा लेकिन दो वर्ष से अधिक के सजायाफ्ताओं की सदस्यता बचाने का प्रयास
किया था। मंत्रिमण्डल ने इसके लिये अध्यादेश बना लिया था। इसके बाद का
घटनाक्रम आकस्मिक था। यह न होता तो अध्यादेश लागू होने की संभावना अधिक थी।
राष्ट्रपति को भी केवल एक बार अध्यादेश लौटाने की शक्ति है। मंत्रिमण्डल
यदि दुबारा अध्यादेश भेजता तो राष्ट्रपति के सामने उसे स्वीकार करने के
अलावा कोई विकल्प न होता। यह स्थिति तब है, जबकि वर्तमान संप्रग सरकार
सत्ता में बने रहने के लिये राजद के चार लोकसभा सदस्यों पर निर्भर नहीं थी।
इसमें भी लालू की सदस्यता समाप्त हो गयी, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ना था।
जद(यू) कमी पूरी करने को तैयार है। मामला राजनैतिक भी हो गया था। लेकिन
यहीं एक प्रश्न उत्पन्न होता है। सजायाफ्ता की पार्टी गठबंधन सरकार के
बहुमत बनाए रखने हेतु जरूरी हो, तब क्या होगा। क्या तब ऐसे अध्यादेश को
लागू होने से राकेा जा सकता था। क्या तब भी जांच एजेंसी ऐसी तेजी दिखाती।
आखिर इस मामले के निर्णय में सत्रह वर्ष लगे। वह भी निर्णय सीबीआई की
विशेष अदालत से हुआ है। उच्च व उच्चतम न्यायालय मंे क्रमशः अपील का विकल्प
अभी उपलब्ध है। आगे की जांच कैसी होगी, कितने समय तक चलेगी, इसकी कोई
गारन्टी नहीं। कौन नहीं जानता कि चारा घोटाले में पहले जेल जाने के बाद भी
सत्ता में लालू की हनक कायम थी। तब उन्हांेने अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री
बना दिया था। बाद में वह स्वयं केन्द्र में मंत्री थे। जांच तब भी चल रही
थी। लेकिन कच्छप गति थी। तत्कालीन सीबीआई निदेशक जोगिन्दर सिंह ने स्वयं
स्वीकार किया है कि प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल ने उनसे चारा घोटाले
की जांच धीमी करने को कहा था। यह व्यवस्था आज तक जारी है। संप्रग एक में
पूरे पांच वर्ष लालू मंत्री थे। जगन्नाथ मिश्र भी चारा घोटाले के बाद
केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं। आरोप ओर जांच तब भी थी। व्यवस्था वक्त की
नजाकत देखकर नेताओ को कसती और बचाती है। इसमें बदलाव के बिना समस्या का
समाधान नहीं हो सकता।
दूसरा पहलू मतदाताओं से संबंधित है। वह भ्रष्ट और घोटालेबाजों को बखूबी
जानते हैं। उनसे कुछ भी छिपा नहीं होता। जांच एजेंसी भले ही दशकों तक सबूत न
जुटा सके। ऐसे में मतदाता राजनीति का शुद्धीकरण अपने स्तर से कर सकते हैं।
लेकिन इसके लिये जाति-मजहब की भावना से ऊपर उठना होगा। अन्यथा जनहित की
अपेक्षा करने वाले भ्रष्टाचारियों के वर्चस्व को तोड़ना मुश्किल होगा।
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