उत्तराखंड प्रदेश की मांग को लेकर दो अक्टूबर
(1994) को दिल्ली में राजघाट पर शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने जा रहे
उत्तराखंडियों पर मुजफ्फरनगर में रामपुर तिराहा के समीप फायरिंग और महिलाओं
से दुर्व्यवहार के मामले को 19 वर्ष पूरी हो गये किन्तु उन्नीस साल बाद भी
अब तक पीड़ितों को न्याय नहीं मिला है। शासन ने भले ही उत्तराखंड राज्य का
गठन कर दिया परंतु अभी भी उन आरोपियों को कानूनी तौर पर दोषी नहीं ठहराया
जा सका जिन्होंने उत्तराखण्ड आंदोलन के साथ बर्बरता पूर्ण व्यवहार किया था।
1-2 अक्टूबर की आधी रात, 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को
लेकर दिल्ली जा रहे लोगों को पुलिस ने रामपुर तिराहे पर रोक लिया था और
जबरदस्त फायरिंग की थी। पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई में आधा दर्जन लोग मारे
गये थे और करीब डेढ़ दर्जन लोग घायल हुए थे। इतना ही नहीं रात के अंधेरे
में खाकी के नुमाइंदों ने कथित तौर पर कुछ महिला प्रदर्शनकारियों की आबरू
से भी खिलवाड़ किया था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह घटना सुर्खियां बनी थी और
केन्द्र सरकार ने सीबीआई को पूरे प्रकरण की जांच सौंपी थी।
जांच पड़ताल के बाद सीबीआई ने मुजफ्फरनगर की पुलिस व प्रशासनिक
अधिकारियों के खिलाफ एक दर्जन से अधिक मामले दर्ज किए थे। वर्तमान में
मुजफ्फरनगर की विशेष अदालत में छह मामले लंबित है। इनमें 27 पुलिस
कर्मचारियों के खिलाफ बलात्कार, लूट, अपराधी षड्यंत्र रचने व आंदोलनकारियों
के विरुद्ध फर्जी मामले दर्ज करने के मामले शामिल है। इनमें महिलाओं के
साथ दुराचार समेत दो मामलों में सुनवाई पर आरोपियों ने हाईकोर्ट से स्थगन
आदेश ले रखा था। लचर पैरोकारी के चलते यह काफी समय तक स्थगन आदेश रद नहीं
कराया जा सका है।
इसका सीधा लाभा आरोपियों को मिला है। बाकी मामलों में
सीबीआई की ओर से सही प्रकार से पैरोकारी नहीं हो पा रही है। उधर, न्याय की
आस में कई लोगों की मृत्यु हो चुकी है। मरने वालों में पीड़ित परिवार, गवाह
और आरोपी भी शामिल हैं। मृतकों में फर्जी मामले दर्ज करने के आरोपी
तत्कालीन कोतवाल मुजफ्फरनगर मोती सिंह, पुरकाजी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र
के प्रभारी डा. प्रीतम सिंह व सिपाही कमल सिंह आदि का देहांत हो चुका है।
गौरतलब है कि उत्तराखंड सरकार ने पीड़ितों को जल्द त्वरित न्याय दिलाने
के लिए समय-समय पर कई सरकारी वकीलों की नियुक्ति की, लेकिन यह प्रयास भी
सफल नहीं रहे। क्योंकि सीबीआई के पक्षकार होने की वजह से उत्तराखंड के वकील
सीधे तौर पर अदालत में अभिायोजन पक्ष की पैरवी नहीं कर पा रहे हैं।
मुजफ्फरनगर में सीबीआई की स्थायी अदालत न होने की वजह से सीबीआई के वकीलों
को मामले की पैरवी करने के लिए हर तारीख पर दिल्ली, गाजियाबाद व देहरादून
से आकर यहां पैरोकारी करनी पड़ती है। यही कारण है कि उत्तराखंडियों के पृथक
राज्य का सपना तो पूरा हो गया परंतु तत्कालीन प्रदेश सरकार खासकर पुलिस की
ओर से जो जख्म मिले वे अभी तक नहीं भरे हैं।
घटनाक्रम
- 21 जून, 1994 में उत्तराखंड निर्माण के सिलसिले में गठित रमाशंकर कौशिक समिति ने प्रदेश सरकार को 356 पृष्ठ की रिपोर्ट सौंपी थी। इसमें उत्तराखंड के आठ जिलों को मिलाकर अलग राज्य बनाने की सिफारिश की गई थी।
- 22 जून 1994 को एक महत्वपूर्ण निर्णय के तहत उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने उत्तराखंड के लिए अतिरिक्त मुख्य सचिव नियुक्त किए जाने की घोषणा की थी।
- 24 अगस्त 1994 को राज्य सरकार द्वारा उत्तराखंड निर्माण का प्रस्ताव विधान सभा में पास कराकर केन्द्र सरकार को भोजा था।
- 2 अक्टूबर 1994 को दिल्ली में प्रस्तावित रैली में भाग लेने के लिए जा रहे आंदोलनकारियों को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर रोक लिया गया था। पुलिस फायरिंग में अनेक आंदोलनकारी मारे गये तथा महिलाओं के साथ दुव्यर्वहार किया गया था।
- 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने लाल किले से उत्तराखंड राज्य की घोषणा की तथा प्रदेश सरकार से फिर से प्रस्ताव मांगा।
- केन्द्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 27 जुलाई, 2000 को उत्तराखंड निर्माण का बिल लोकसभा व राज्यसभा में पास कराया। 25 अगस्त को बिल पर राष्ट्रपति ने स्वीकृति दे दी।
- 9 नवम्बर, 2002 को उत्तरांचल के नाम से पृथक राज्य वजूद में आ गया। बाद में इसका नाम उत्तराखंड कर दिया गया।
- उत्तराखंड आंदोलन के दौरान विभिान्न स्थानों पर 29 लोग शहीद हुए थे। इनमें रामपुर तिराहा कांड में छह लोग भी पुलिस गोली के शिकार हुए थे। इनमें रविन्द्र रावत, राजेश लथेड़ा, सतेन्द्र सिंह चौहान, सूर्यप्रकाश थरियाल, गिरीश कुमार भाद्री, अशोक शामिल है।
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