प्राथमिक कृषि सहकारी समिति (पैक्स) पर
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की वक्रदृष्टी से हडकंप
मचा है। नाबार्ड ने अध्यादेश में पैक्स की संपदा जिला सहकारी बैंक में जमा
कराने और पैक्स सदस्यों को कमीशन एजेंट बनाने का निर्देश है। अध्यादेश के
असर से बचने के लिए राज्य सरकार बगलें झांक रही हैं। उच्च न्यायालयों में
इसकी वैधानिकता को चुनौती दी जा रही है।
पहली नजर में यह अध्यादेश ग्रामीण आधारित अर्थव्यवस्था को
ध्वस्त करने के दूरगामी साजिश का हिस्सा लग रहा है। अध्यादेश पर विवाद पैदा
होने के बाद नाबार्ड की ओर से सफाई दी जा रही है कि राज्य सरकारों के लिए
अध्यादेश पर अमल करने की अनिवार्यता नहीं है। सवाल उठता है कि अगर
अनिवार्यता नहीं है, तो अध्यादेश को गलत मानते हुए वापस क्यों नहीं लिया जा
रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सहकारिता क्षेत्र से इसके विरोध की आवाज मंद
पड़ते ही पूर्ण रूप से इसे लागू करने का आधार तैयार किया जा रहा है।
तथ्य बताते हैं कि नाबार्ड ने यह अध्यादेश विदेशी एंजेंसी के सलाह पर जारी किया है। पैक्स गांव के किसानों की समिति है जो सहकारिता के सिद्धांत से चल रही हैं। यह कृषि आधारित ग्रामीण सहकारिता की नींव है। पैक्स जैसी संरचना की वजह से ही भारत का सहकारिता आंदोलन दुनिया के विशालतम आंदोलन में शुमार है। देश के 97प्रतिशत गांवों तक सहकारिता की पहुंच बनी है। पैक्स की पकड़ कमजोर पड़ते ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए देश के कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढांचे प्रवेश करने का रास्ता तैयार हो जाएगा। तकरीबन छह लाख सदस्यों की मदद से देश भर की गांव-पंचायतों में 93 हजार पैक्स काम कर रहे हैं। यह रोजगार साधन का बड़ा उपक्रम है।
खेत खलिहान में लगे किसान ही लोकतांत्रिक तरीके से पैक्स के सदस्य निर्वाचित करते हैं। कई राज्यों ने पैक्स के निर्वाचन को वैधानिकता देने के लिए निर्वाचन आयोग सरीखा व्यवस्था विकसित कर लिया है। जिन राज्यों ने सहकारी संस्थाओं के निर्वाचन प्रक्रिया को पूरा करने के लिए आयोग नहीं बनाया है, उनको 97 वें संविधान संशोधन को अमलीजामा पहनाने के लिए निकट भविष्य में बना लेना है। सहकारिता क्षेत्र की पुरानी मांग को पूरा करते हुए संविधान संशोधन के जरिए सहकारिता को आम भारतीयों का मौलिक अधिकार बना दिया गया है।
पैक्स के जरिए किसान अपने ही सहकर्मियों के बीच खेती के वक्त बीज, खाद, कीटनाशक आदि के लिए अल्पकालिक ऋण बांटते-वसूलते हैं। इनसे राज्य सरकार अनाज भंडारण व कृषि संबंधी अन्य जरूरी काम लिया करती हैं। कई पैक्स महिला और ग्रामीणों के बीच रोजगारन्मुखी सहकारी काम कर रही हैं। लेकिन नाबार्ड के एक अध्यादेश से खलबली मची है। पैक्स के अस्तित्व पर संकट गहरा गया है।
नाबार्ड की यह युक्ति राज्य सरकारों के भी समझ से परे है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ की ओर से नाबार्ड के अध्यादेश पर हुई कार्यशाला में मध्य प्रदेश सहकारिता विभाग के उप रजिस्ट्रार के के दूबे कहते हैं,समझ में नहीं आ रहा कि आखिर नाबार्ड के अध्यादेश को लागू कैसे किया जाए? एक तो सहकारिता राज्य का विषय है, केंद्रीय एजेंसी को इसमें बदलाव कराने का हक नहीं है। दूसरा, अध्यादेश जारी करने से पहले राज्य सरकारों को विश्वास में लिया ही नहीं गया। नाबार्ड के अध्यादेश को लोक कल्याण से जुड़ी सहकारिता पर नौकरशाही का गैरजरूरी हस्तक्षेप बताया जा रहा है। इसे तुगलकी फरमान बताया जा रहा है। नाबार्ड के अध्यादेश के विरोध में कहा जा रहा है कि जिस विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर अध्यादेश जारी किया है उस समिति के सात में छह सदस्यों ने समिति की आखिरी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था।
केंद्रीय एजेंसी नाबार्ड के अध्यादेश से सहकारिता को राज्य का विषय बताने की संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन होता है। दूसरा, इससे सौ साल से ज्यादा पुरानी स्वशासी सहकारी व्यवस्था के धराशायी होने की नौबत पैदा हो जाएगी। सहकारिता से जुड़े नेता बताते हैं कि नाबार्ड ने पहले भी जिला ग्रामीण सहकारी बैंक को खत्म करने का विवादास्पद सलाह दे चुकी है। अब पैक्स पर नाबार्ड की वक्रदृष्टि से लगता है कि वह पूरी सहकारी व्यवस्था को ही स्वाहा करने के हक में है। अगर ऐसा होता है, तो किसका हित सधेगा यह गंभीर चिंता का विषय है। राज्य सरकार को केंद्रीय एजेंसी नाबार्ड के अध्यादेश को अमल में लाने के लिए राज्य सहकारिता अधिनियम में व्यापक बदलाव लाना होगा। इससे बचने के लिए पैक्स व राज्य सरकार संबंधित उच्च अदालतों का दरवाजा खटखटा रही हैं।
पैक्स 1904 में सहकारिता की शुरूआत के साथ ही यह अस्तित्व में आया। तब से तमाम आर्थिक झंझावातों के बीच उदारीकरण के थपेड़ों को झेलता हुआ न सिर्फ बचा पड़ा है बल्कि इससे सहारे किसान तक सुगमता से ऋण सुविधा पहुंचती रही है। राज्य सरकारें इसके जरिए फसल का समुचित प्रबंधन कराने के साथ कृषि संबंधी जरूरतो को पूरा भी करवाते हैं। सरकारी भंडारण तक पहुंचवाने का ते हैं। पैक्स के सदस्य खुन पसीने की मैहनत अब एक सौ दस साल पुरानी इस आधारभूत संरचना यह खेती बारी में लगे किसानों की सदस्यता वाली समिति हैं और सहकारिता आंदोलन की आधारभूत संरचना।
बेरोजगारों की लंबी होती कतार को देखकर आने वाली मुसीबतों का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। पैक्स को खत्म करने की मंशा वाले अध्यादेश से साफ होता है कि नौकरशाहों का ताकतवर समूह सरकार को अब जय किसान की भावना से मुंह मोड़ने को मजबूर कर रही है।
तथ्य बताते हैं कि नाबार्ड ने यह अध्यादेश विदेशी एंजेंसी के सलाह पर जारी किया है। पैक्स गांव के किसानों की समिति है जो सहकारिता के सिद्धांत से चल रही हैं। यह कृषि आधारित ग्रामीण सहकारिता की नींव है। पैक्स जैसी संरचना की वजह से ही भारत का सहकारिता आंदोलन दुनिया के विशालतम आंदोलन में शुमार है। देश के 97प्रतिशत गांवों तक सहकारिता की पहुंच बनी है। पैक्स की पकड़ कमजोर पड़ते ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए देश के कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढांचे प्रवेश करने का रास्ता तैयार हो जाएगा। तकरीबन छह लाख सदस्यों की मदद से देश भर की गांव-पंचायतों में 93 हजार पैक्स काम कर रहे हैं। यह रोजगार साधन का बड़ा उपक्रम है।
खेत खलिहान में लगे किसान ही लोकतांत्रिक तरीके से पैक्स के सदस्य निर्वाचित करते हैं। कई राज्यों ने पैक्स के निर्वाचन को वैधानिकता देने के लिए निर्वाचन आयोग सरीखा व्यवस्था विकसित कर लिया है। जिन राज्यों ने सहकारी संस्थाओं के निर्वाचन प्रक्रिया को पूरा करने के लिए आयोग नहीं बनाया है, उनको 97 वें संविधान संशोधन को अमलीजामा पहनाने के लिए निकट भविष्य में बना लेना है। सहकारिता क्षेत्र की पुरानी मांग को पूरा करते हुए संविधान संशोधन के जरिए सहकारिता को आम भारतीयों का मौलिक अधिकार बना दिया गया है।
पैक्स के जरिए किसान अपने ही सहकर्मियों के बीच खेती के वक्त बीज, खाद, कीटनाशक आदि के लिए अल्पकालिक ऋण बांटते-वसूलते हैं। इनसे राज्य सरकार अनाज भंडारण व कृषि संबंधी अन्य जरूरी काम लिया करती हैं। कई पैक्स महिला और ग्रामीणों के बीच रोजगारन्मुखी सहकारी काम कर रही हैं। लेकिन नाबार्ड के एक अध्यादेश से खलबली मची है। पैक्स के अस्तित्व पर संकट गहरा गया है।
नाबार्ड की यह युक्ति राज्य सरकारों के भी समझ से परे है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ की ओर से नाबार्ड के अध्यादेश पर हुई कार्यशाला में मध्य प्रदेश सहकारिता विभाग के उप रजिस्ट्रार के के दूबे कहते हैं,समझ में नहीं आ रहा कि आखिर नाबार्ड के अध्यादेश को लागू कैसे किया जाए? एक तो सहकारिता राज्य का विषय है, केंद्रीय एजेंसी को इसमें बदलाव कराने का हक नहीं है। दूसरा, अध्यादेश जारी करने से पहले राज्य सरकारों को विश्वास में लिया ही नहीं गया। नाबार्ड के अध्यादेश को लोक कल्याण से जुड़ी सहकारिता पर नौकरशाही का गैरजरूरी हस्तक्षेप बताया जा रहा है। इसे तुगलकी फरमान बताया जा रहा है। नाबार्ड के अध्यादेश के विरोध में कहा जा रहा है कि जिस विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर अध्यादेश जारी किया है उस समिति के सात में छह सदस्यों ने समिति की आखिरी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था।
केंद्रीय एजेंसी नाबार्ड के अध्यादेश से सहकारिता को राज्य का विषय बताने की संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन होता है। दूसरा, इससे सौ साल से ज्यादा पुरानी स्वशासी सहकारी व्यवस्था के धराशायी होने की नौबत पैदा हो जाएगी। सहकारिता से जुड़े नेता बताते हैं कि नाबार्ड ने पहले भी जिला ग्रामीण सहकारी बैंक को खत्म करने का विवादास्पद सलाह दे चुकी है। अब पैक्स पर नाबार्ड की वक्रदृष्टि से लगता है कि वह पूरी सहकारी व्यवस्था को ही स्वाहा करने के हक में है। अगर ऐसा होता है, तो किसका हित सधेगा यह गंभीर चिंता का विषय है। राज्य सरकार को केंद्रीय एजेंसी नाबार्ड के अध्यादेश को अमल में लाने के लिए राज्य सहकारिता अधिनियम में व्यापक बदलाव लाना होगा। इससे बचने के लिए पैक्स व राज्य सरकार संबंधित उच्च अदालतों का दरवाजा खटखटा रही हैं।
पैक्स 1904 में सहकारिता की शुरूआत के साथ ही यह अस्तित्व में आया। तब से तमाम आर्थिक झंझावातों के बीच उदारीकरण के थपेड़ों को झेलता हुआ न सिर्फ बचा पड़ा है बल्कि इससे सहारे किसान तक सुगमता से ऋण सुविधा पहुंचती रही है। राज्य सरकारें इसके जरिए फसल का समुचित प्रबंधन कराने के साथ कृषि संबंधी जरूरतो को पूरा भी करवाते हैं। सरकारी भंडारण तक पहुंचवाने का ते हैं। पैक्स के सदस्य खुन पसीने की मैहनत अब एक सौ दस साल पुरानी इस आधारभूत संरचना यह खेती बारी में लगे किसानों की सदस्यता वाली समिति हैं और सहकारिता आंदोलन की आधारभूत संरचना।
बेरोजगारों की लंबी होती कतार को देखकर आने वाली मुसीबतों का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। पैक्स को खत्म करने की मंशा वाले अध्यादेश से साफ होता है कि नौकरशाहों का ताकतवर समूह सरकार को अब जय किसान की भावना से मुंह मोड़ने को मजबूर कर रही है।
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